समाज की जैविक एकता का विचार राजनीति से यह प्रश्न पूछता रहा है कि क्या सामूहिक सामाजिक गतिविधियों को राजनीति के माध्यम से एक आध्यात्मिक, धार्मिक या सांस्कृतिक उद्देश्य दिया जा सकता है?
राजनीति का मूल प्रयोजन जीवन को केवल संरक्षित करना ही नहीं वरन एक अच्छे जीवन को सुनिश्चित करना भी है। यही व्यक्तित्व के मूल्यांकन का आधार है। स्वामी प्रसाद मौर्य की भगवान बुद्ध के सद्धर्म पथ में गहरी आस्था है। बुद्ध के ति-शरण, पंचशील और अष्टांगिक मार्ग उनके व्यक्तित्व में समाहित हैं। सम्राट अशोक उनके प्रेरक हैं। परंतु इसके साथ ही उनकी धार्मिक आस्था यथास्थिति वादी नहीं वरन् परिवर्तन वादी है। उनके धार्मिक विचार सामाजिक परिवर्तन से आबद्ध हैं।
समाज के दर्द,कशिश और वेदना ने उन्हें क्रांति की भाषा बोलने के लिए विवश किया है। सामाजिक अन्याय का आक्रोश उनकी भाषा शैली में देखा जा सकता है। मूलतः अपनी आक्रोश की अभिव्यक्ति में वह उस व्यक्ति तथा समाज की वेदना व दर्द को आवाज देते हैं जो चिरकाल से अपमान, शोषण ,अन्याय और ज़लालत सहकर भी मूक है,या तो डर वश या अज्ञान वश। स्वामी प्रसाद मौर्य ने धार्मिक भेदभाव तथा धर्मांधता का हमेशा कड़ा विरोध किया है। उनके धर्म और आस्था के विचारों में भाग्य वादिता और चमत्कार का कोई स्थान नहीं है।
चिंतन की यह धारा ऐसा प्रयत्न करना चाहती है जिससे सामाजिक परिवर्तन तथा अन्तर्निभरता से एक साथ निबटा जा सके। यहां जो भी पारम्परिक स्थितियां सामाजिक जीवन को स्थिरता प्रदान करती हैं, उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपने परिवेश में उन सभी प्रश्नों को उठाया जो समाज में अलगाव पैदा करते हैं।दूसरों के दर्द को अपना दर्द समझो, इस उसूल को उन्होंने हमेशा निभाया है। स्वामी प्रसाद मौर्य ने पुनर्जागरण किया है सोते हुए समाज का, ज्योति जलाई है गहन अन्धकार में, समाज को प्रेरित किया है शिक्षा, संगठन और संघर्ष के लिए। अपने हक़ की लड़ाई सिर उठाकर लड़ो,सिर झुकाकर नहीं,यह उनका प्रेरक कथन है। उनकी कर्म चेतना ने समाज को गहनता से प्रभावित किया है। यह अनायास ही नहीं है कि एक बार जो उनके संपर्क में आता है वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।
– डॉ राजबहादुर मौर्य, झांसी
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