– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश), भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail. com, website : themahamaya. com
(प्रोपेगंडा मॉडल, वैकासिक अर्थशास्त्र, वैधता, डेविड बीथम, ग्लोबल जस्टिस, निर्भरता सिद्धांत, वैशेषिक दर्शन, महर्षि कणाद, गैसलाइटिंग, वैष्णव धर्म, श्यामा चरण दुबे, बाबू श्यामसुन्दर दास, श्वेत क्रांति, शस्त्र नियंत्रण, जिनेवा प्रोटोकॉल, शिवसेना, शिरोमणि अकाली दल, शोषण, शंकराचार्य, आदि शंकर, शांति, एक्टिव पीस थियरी, ईसाइयत शांतिवाद, क्वैकर्स और मेनोनाइट, श्रीलंका, फिलॉसफी, भारतीय दर्शन, सखाराम गणेश देउस्कर, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल, सन्त नामदेव)
1- एडवर्ड एस. हरमन और नोम चोम्स्की ने अमेरिकी मीडिया के पक्षपात पूर्ण रवैये का अध्ययन करके एक प्रोपेगंडा मॉडल विकसित किया है । उनकी मान्यता है कि यह मीडिया पेशेवराना पत्रकारिता के नाम पर कॉरपोरेट हितों की आलोचना से बचता है और नव उदारवादी नीतियों और उनके आधार पर खड़े किए गए निज़ाम के हक़ में प्रोपेगंडा करता है । फ़्रांसीसी विद्वान लुई अलथुसे ने भी व्यवस्था समर्थक प्रेस की समस्याओं के बारे में विस्तार से लिखा है । चोम्स्की और अलथुसे के लेखन ने वैकल्पिक मीडिया विकसित करने वाले कई प्रयासों को प्रेरित किया है । फ़्रांसीसी दार्शनिक मिशेल दसर्त द्वारा 1984 में लिखे गए निबन्ध दि प्रैक्टिस ऑफ एवरीडे लाइफ़ से मीडिया की इन प्रवृत्तियों को उनका यह नाम मिला ।
2- वैकासिक अर्थशास्त्र चिंतन की वह शाखा है जो प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में पिछड़े रहने वाले देशों को उनकी ग़रीबी से निजात दिलाने के लिए आर्थिक नीतियों और सिद्धांतों को प्रस्तावित करता है । इसकी शुरुआती झलकियाँ विलियम पेटी के वणिकवाद और एडम स्मिथ के क्लासिकल अर्थशास्त्र में देखी जा सकती है । वैकासिक अर्थशास्त्र के सिद्धांत दीर्घकालीन बचत, उनके निवेश और प्रौद्योगिकीय प्रगति की भूमिका के इर्द-गिर्द सूत्रबद्ध होते हैं । वैकासिक अर्थशास्त्र के विशेषज्ञों में आर्थर लेविस, गुन्नार मिर्डाल, राउल प्रेबिस, पॉल रोजेंस्टीन- रोदॉं, हला मिंट, हांस सिंगर और अमर्त्य कुमार सेन के नाम प्रमुख हैं ।
3- आर्थर लेविस ने गरीब देशों की अर्थव्यवस्था में दुहरी संरचना पर रोशनी डाली है । इनके मुताबिक़ इन देशों की अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा बड़े शहरों, उद्योगों, सेवाओं और अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य से बनता है । दूसरे हिस्से में कम उत्पादकता वाला खेतिहर क्षेत्र सक्रिय रहता है । गुन्नार मिर्डाल ने आर्थिक और समाजशास्त्रीय रवैया अपना कर एशियाई वैकासिक समस्याओं का विश्लेषण किया है और साथ में भ्रष्टाचार की समस्या पर भी प्रकाश डाला है । राउल प्रेबिस ने स्थानीय उद्योग और अन्य उत्पादन को संरक्षित करने वाली नीतियों पर गौर करते हुए अल्पविकसित देशों के लिए आयात प्रतिस्थापन की नीतियों की सिफ़ारिश की है ।
4- रोजेंस्टीन- रोदॉं ने सुझाव दिया है कि गरीब देशों को उद्योगीकरण से होने वाली आमदनी से लाभ उठाने की कोशिश करनी चाहिए । हला मिंट ने अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य के साथ आर्थिक विकास को जोड़ा है और हांस सिंगर ने संतुलित वृद्धि का सुझाव दिया है । अमर्त्य सेन ने क्षमताओं की समानता हासिल करने का विचार दिया है । आंद्रे गुंदर फ़्रैंक द्वारा निर्भरता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है । इस प्रस्थापना ने वैकासिक अर्थशास्त्र में आमूल परिवर्तन ला दिया है । फ़्रैंक की मान्यता है कि दुनिया के पैमाने पर पूँजीवादी विकसित देशों के द्वारा तीसरी दुनिया के देशों का दोहन किया जा रहा है । प्रौद्योगिकी और बाज़ार पर नियंत्रण के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था के केन्द्र में बैठे हुए यह देश हासिये पर पड़े हुए गरीब देशों से अतिरिक्त मूल्य खींच रहे हैं ।
5- वैधता वह गुण है जिसके आधार पर सत्ता की संरचनाएँ लोगों की निगाह में न्यायसंगत प्राधिकार का रूप ले लेती हैं । वैधता के ज़रिए किसी सरकार, क़ानून, प्रथा या सामाजिक- आर्थिक कार्यक्रम को वह बाध्यकारी शक्ति मिलती है जिसके कारण उसका अनुपालन डर के बजाय एक तरह के कर्तव्य के तहत किया जाता है । अपनी पुस्तक द सोशल कांटैक्ट (1762) में रूसो ने कहा था कि कोई कितना भी ताकतवर क्यों न हो, उसके हाथ में स्वामित्व तभी रह सकता है जब वह उसकी शक्ति को लोग उसका अधिकार मानें और उसकी आज्ञा के पालन को अपना कर्तव्य । जो सरकार इस कसौटी पर खरी नहीं उतर पाती वह सत्तारूढ़ होते हुए भी अपनी वैधता खो देती है ।
6- मैक्स वेबर के अनुसार अगर लोग किसी निज़ाम का हुक्म मानने के लिए तैयार हैं अर्थात् उन्हें उसकी वैधता में आस्था है, तो उस हुकूमत को वैध कहा जाना चाहिए । भले ही वह निज़ाम किसी भी क़िस्म का हो । अरस्तू का ख़्याल था कि शासक के स्वार्थ के बजाय पूरे समाज के स्वार्थ में काम करने वाली हुकूमत ही वैध मानी जा सकती है । रूसो ने वैधता की परख के लिए जन- इच्छा की थिसिज दी है । वर्ष 1988 में प्रकाशित अपनी पुस्तक लेजिटिमेशन ऑफ पॉवर में डेविड बीथम ने भी कहा कि महज़ वैधता में आस्था से काम नहीं चलेगा बल्कि यह भी देखना चाहिए कि वह आस्था कैसे पैदा की गयी है । रूसो ने वैधता की परख के लिए जन- इच्छा अथवा जर्नल विल की थिसिज दी थी ।
7- डेविड बीथम ने 1991 में प्रकाशित अपनी पुस्तक लेजिटिमेशन ऑफ पॉवर में कहा कि महज़ वैधता में आस्था रखने से काम नहीं चल सकता । यह भी देखना होगा कि वह आस्था कैसे पैदा की गई है । बीथम ने वैधता की तीन शर्तें प्रतिपादित किया है : पहली, सत्ता का प्रयोग स्थापित नियमों के मुताबिक़ ही होना चाहिए । दूसरी, उन नियमों को शासकों और शासितों के साझा विश्वासों के आधार पर न्याय संगत ठहराना आवश्यक है । तीसरी, वैधता पर शासितों की सहमति की मुहर लगना बहुत ज़रूरी है । मुसोलिनी ने इटली में, हिटलर ने जर्मनी में, कम्युनिस्टों ने रूस, चीन और पूर्वी यूरोप में लोकप्रिय सहमति के गर्भ से वैधता प्राप्त करने का रास्ता चुना ।
8- डेविड बीथम का दावा है कि केवल वही संविधान वैधता प्रदान कर सकता है जो समाज में व्यापक रूप से स्वीकृत मूल्यों और आस्थाओं की नुमाइंदगी करता हो । शासित जनता मानती हो कि उस संविधान के नियम और प्रावधान समुचित और स्वीकार योग्य हों । नव मार्क्सवादी चिंतक युर्गेन हैबरमास ने 1975 में प्रकाशित अपनी रचना लेजिटिमेशन क्राइसिस में तर्क दिया है कि उदारतावादी लोकतंत्रों में संकट की प्रवृत्तियाँ होती हैं जिनके कारण उन व्यवस्थाओं की स्थिरता संकट में फँसती रहती है । इस संकट के मर्म में निजी उद्यम अथवा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली के बीच का तनाव होता है ।
9- भारत में राजनीतिक संकट का अध्ययन करते हुए धीरूभाई सेठ ने वर्ष 1991 में प्रकाशित अपनी पुस्तक क्राइसिस ऑफ रिप्रजेंशन में वैधता के संकट को समाज और चुनावी लोकतंत्र पर आधारित राज- व्यवस्था के अंतर्विरोध का परिणाम करार दिया है । एंथनी किंग ने इसी परिघटना को सरकार के संदर्भ में ओवरलोड की संज्ञा दी है । राजकोषीय घाटा, करों की ऊँची दरें, बढ़ती हुई मुद्रास्फीति जैसे परिणाम इसी ओवरलोड की अभिव्यक्ति माने जाते हैं ।
10- वैश्विक न्याय या ग्लोबल जस्टिस की संकल्पना जॉन रॉल्स की रचना 1999 में प्रकाशित द लॉ ऑफ पीपुल्स से निकली है । उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना अ थियरी ऑफ जस्टिस में एक बेहतर उदारवादी समाज के संचालन के संदर्भ में भेदमूलक सिद्धांत के ज़रिए रेखांकित किया था कि आर्थिक और सामाजिक असमानताओं को कुछ इस तरह समायोजित किया जाना चाहिए कि हीनतम स्थित वाले व्यक्ति को सबसे ज़्यादा फ़ायदा हो । इसके लिए रॉल्स ने दो मूल स्थितियों का प्रयोग किया है जिनमें पहली संवैधानिक लोकतांत्रिक शासन की उदारतावादी संकल्पना के लिए सामाजिक समझौते से सम्बन्धित है । दूसरी मूल स्थिति उदारतावादी लोगों के प्रतिनिधियों के लिए है ।
11- रॉल्स के मुताबिक़ वैश्विक न्याय की अवधारणा को खोजते समय उदारतावादी लोगों के प्रतिनिधियों की आँखों पर एक विशिष्ट अज्ञान का पर्दा पड़ा होता है । मसलन उन्हें यह जानकारी नहीं है कि वे किस भौगोलिक क्षेत्र से हैं और उनकी शक्तियाँ क्या हैं, आदि । रॉल्स स्पष्ट करते हैं कि उदारतावादी लोग आठ सिद्धांतों और तीन संस्थाओं का चुनाव करते हैं । इन आठ सिद्धांतों में लोगों के समान होने, उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करने, उनके द्वारा समझौतों और किए गए वायदों का पालन करने, मानवाधिकारों का समर्थन करना, युद्ध के समय भी कुछ आचरण सम्बन्धी पाबंदियों का पालन करना, अहस्तक्षेप की नीति पर चलने और आत्मरक्षा पर ध्यान देने की बात की गयी है ।
12-रॉल्स के अनुसार उदारतावादी लोगों द्वारा चुनी गई तीन संस्थाओं में से एक संस्था लोगों के बीच न्यायपूर्ण व्यापार सुनिश्चित करेगी, दूसरे लोगों को कोऑपरेटिव बैंकिंग संस्था से उधार लेने में समर्थ बनाएगी और तीसरी संस्था वही भूमिका निभाएगी जो संयुक्त- राष्ट्र द्वारा निभाई जाती है । रॉल्स के मुताबिक़ यह स्थिति कांफेडेरेशंस ऑफ पीपुल (राज्य नहीं बल्कि लोगों का परिसंघ) की है । रॉल्स के मुताबिक़ शालीन लोगों की श्रेणी में आने के लिए चार कसौटियों पर खरा उतरना आवश्यक है । पहली, समाज को आक्रामक नहीं होना चाहिए । दूसरी, इसकी क़ानूनी व्यवस्था और न्याय के विचार को समाज के सभी सदस्यों के बुनियादी अधिकारों की सुरक्षा करनी चाहिए ।
13- रॉल्स शालीन पदसोपानीय व्यक्तियों के उदाहरण के रूप में एक काल्पनिक स्थान कैजानिस्तान की कल्पना करते हैं । उनके अनुसार कैजानिस्तान को सुव्यवस्थित लोगों के एक समाज के रूप में देखा जा सकता है । उनका आग्रह है कि उदारवादी समाज अपनी विदेश नीति में कैजानिस्तान जैसे राज्यों को सहन करने की क्षमता विकसित करें । रॉल्स के अनुसार किन्हीं खास समाजों की सम्पन्नता में उस समाज की राजनीतिक संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । सम्पत्ति जमा संसाधनों से नहीं बल्कि किसी ख़ास समाज की राजनीतिक संस्कृति से उत्पन्न होती है । इसमें उस समाज की राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं की बुनियादी संरचना को पुष्ट करने वाली धार्मिक, नैतिक और दार्शनिक परम्पराएँ भी महत्वपूर्ण होती हैं ।
14- थॉमस पोगे ने वर्ष 2002 में प्रकाशित अपनी पुस्तक वर्ल्ड पॉवर्टी ऐंड ह्यूमन राइट्स में लिखा है कि सम्पन्न विकसित समाजों में रहने वाले लोगों की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वे अन्याय पूर्ण वैश्विक व्यवस्था को ख़त्म करें और गरीब लोगों को इससे होने वाले नुक़सानों से बचाएँ । पोगे यह सुझाव भी देते हैं कि लगभग एक प्रतिशत का वैश्विक संसाधन टैक्स लगना चाहिए जिसका इस्तेमाल विकासशील समाजों के सबसे ग़रीब लोगों की भलाई के लिए हो । विकसित समाज के लोगों का यह दायित्व है कि गरीब समाज के लोगों की मदद करें ।
15- सामाजिक सीमाओं और सामाजिक निर्णय- प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए राष्ट्र- राज्यों को एक इकाई के रूप में ग्रहण करने के बजाय वैश्विक प्रणाली को विश्लेषण का आधार बनाया जाना चाहिए । इस बौद्धिक परियोजना के आधार पर किए गए सूत्रीकरण को वैश्विक प्रणाली सिद्धांत के रूप में जाना जाता है । इसका विकास पचास के दशक में प्रतिपादित निर्भरता सिद्धांत की रैडिकल प्रस्थापनाओं और इतिहास लेखन के अनाल स्कूल से प्रभावित है ।वर्ल्ड सिस्टम थियरी के मुख्य जनक इमैनुअल वालर्स्टीन हैं । वालर्स्टीन ने समकालीन वैश्विक प्रणाली का उद्गम 1450 से 1670 के बीच माना है । इस थियरी के सिद्धांतकार मानते हैं कि विश्व की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था चार बुनियादी अंतर्विरोधों से ग्रस्त है जिसके कारण उसका अंत अवश्यंभावी है ।
16- भारतीय दार्शनिक प्रणालियों में वैशेषिक दर्शन सर्वाधिक प्राचीन तथा क्रमबद्ध है । इसका आदि प्रवर्तक कणाद को माना जाता है, जिनका वास्तविक नाम उलूक था । इसके अलावा यह काश्यप और कणभुक आदि नामों से भी जाने जाते हैं । कहा जाता है कि कटाई के बाद खेतों में बचे हुए अनाज के बिखरे कणों को बीनकर भोजनार्थ प्रयोग करने के कारण उनका नाम कणाद या कणभुक हो गया । इसलिए वैशेषिक दर्शन का एक दूसरा नाम कणाद या औलूक्य दर्शन भी है । इस दर्शन का सबसे पहला प्रामाणिक और प्रस्थापक ग्रन्थ कणादकृत वैशेषिक सूत्र है जो दस अध्यायों में विभक्त है । इसमें 370 सूत्र संकलित हैं ।
17- विशिष्टताओं पर ज़ोर देने के कारण ही इसका नाम वैशेषिक दर्शन पड़ा । सांख्य दर्शन विश्व के मूल में दो तत्व मानता है जबकि वेदान्त एक तत्व । वैशेषिक दर्शन अनेक तत्वों का प्रतिपादन करता है और उनमें परस्पर मौलिक भेद बताता है । इस परस्पर भेद का ही दूसरा नाम विशेष है । यही वैशेषिक दर्शन का मूल है । कणाद के अनुसार इस संसार का अस्तित्व वस्तुगत रूप से है । यह मनुष्य की चेतना से बाहर और उससे स्वतंत्र है । कणाद के अनुसार धर्म वह है जिससे प्रगति और अंतिम कल्याण सम्भव है । वह ईश्वर या शाश्वत नियति पर आधारित नहीं है । ज्ञान केवल तभी यथार्थ होता है जब वह वस्तुओं की प्रकृति के अनुरूप होता है, अन्यथा वह झूठा है ।
18- वैशेषिक दार्शनिक प्रणाली में द्रव्य को मूल पदार्थ माना जाता है और वह समस्त भौतिक तथा अभौतिक घटनाक्रमों का सार है । वैशेषिक दर्शन ने सभी भौतिक और मानसिक वस्तुओं को, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मन् और मनस के नौ द्रव्यों में विभाजित किया है । इन द्रव्यों के संयोग और सम्मिश्रण से ही विभिन्न वस्तुओं और घटनाक्रमों का निर्माण होता है । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु का निर्माण अविभाज्य परमाणुओं से मिलकर हुआ है तथा यह भौतिक पदार्थ हैं । गुण और क्रियाएँ द्रव्यों में अंतर्निहित हैं । कोई भी द्रव्य गुणों के बिना नहीं रह सकता, ठीक उसी प्रकार जैसे कोई गुण द्रव्य के बिना नहीं हो सकता ।
19- कणाद ने सभी वस्तुओं को जिनके बारे में भविष्यवाणी करना और जिन्हें संज्ञाएँ देना सम्भव था उन्हें छह पदार्थों (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय) में विभाजित किया । विभिन्न पदार्थों के सारतत्व के ज्ञान, उनमें साम्यता और विषमता, समानता और भिन्नता के ज्ञान से ही सर्वोपरि कल्याण होता है । पदार्थ से तात्पर्य है वह वस्तु जिसका किसी पद (शब्द) से बोध होता है । अत: जितनी भी वस्तुएँ हैं या जिनका नामकरण सम्भव है, वे सभी पदार्थ हैं । पदार्थ कोई स्थिर या अचल वस्तु नहीं बल्कि अस्तित्व में आने की निरंतर प्रक्रिया है और उनका न तो कभी नाश किया जा सकता है और न ही निर्माण । उनकी मौजूदगी अनंत काल से है ।
20- महर्षि कणाद द्वारा प्रतिपादित वैशेषिक दर्शन भारतीय दर्शन परम्परा में एक महत्वपूर्ण प्रस्थापना के रूप में उभरता है ।उन्होंने मस्तिष्क के अलावा जीवन और शक्ति के स्रोत के रूप में आत्मा की अवधारणा प्रतिपादित की लेकिन ईश्वर के द्वारा आत्मा की निर्मिति मानने से इनकार कर दिया । पृथ्वी, अग्नि, जल, आदि की ही तरह विशिष्ट गुण सम्पन्न आत्मा को भी एक मूल पदार्थ के रूप में माना ।कर्म को परमाणुओं में गति करने वाला बताया ।आत्मा अन्य पदार्थों के समान ही एक पदार्थ है जिसमें चेतना का अस्तित्व है । चेतना, संज्ञान, बुद्धि इत्यादि पदार्थ के संश्लिष्ट सम्मिश्रणों की उपज है ।
21- अमर उजाला दैनिक समाचार (दिनांक 1 जनवरी, 2023) पत्र में यशवंत व्यास ने अपने एक लेख में लिखा है कि विगत वर्ष यानी 2022 में मरियम- वेब्सटर डिक्शनरी में सबसे बड़ा शब्द चुना गया है- गैसलाइटिंग । इसे एक हज़ार सात सौ चालीस प्रतिशत अधिक खोजा गया है । यह भटकाव और अविश्वास का चालक शब्द है जिसमें शामिल है खुद के फ़ायदे के लिए दूसरों को भ्रमित करने की कोशिश । मनोवैज्ञानिक तौर पर लम्बे समय तक किसी को इस तरह मैनीपुलेट करना कि उसे खुद के विचारों और यथार्थ पर संदेह होने लगे- गैसलाइटिंग है । यह इरादतन साज़िश के तहत झूठ की लम्बी योजना का उपक्रम है । यह पीड़ित को अपराधी और अपराधी को पीड़ित साबित करने का जाल बुनती है ।
22- गैसलाइटिंग के अलावा एक शब्द और प्रचलन में आया है- मूनलाइटिंग । पूरी तनख़्वाह लेकर एक जगह काम करना और बचे समय में दूसरी जगह गुमनाम काम करना और उसकी कमाई लेना मूनलाइटिंग है । इसी प्रकार का एक और शब्द है- क्वाइट क्विटिंग यानी कांटैक्ट के हिसाब से जितना बनता है उससे रत्तीभर भी ज़्यादा काम नहीं करना । विवादों से ध्यान हटाने के लिए इवेंट खड़ा कर देने वालों के लिए स्पोर्ट्स वॉशिंग शब्द भी मिल गया है । यानी ध्यान बँटाओ और खेल कर जाओ ।
23- वैष्णव धर्म भारत के सांस्कृतिक नवजागरण के मूल सिद्धांत और चिंतन से जुड़ा है । अवतारवाद इस चिंतन का एक विशिष्ट पक्ष है । इस सूत्रीकरण के मुताबिक़ लोक कल्याण के लिए ब्रम्ह अवतार धारण करता है और लोक के कष्टों को दूर करता है । भागवत पुराण के समय तक वैष्णव संप्रदाय पांचरात्र सम्प्रदाय के रूप में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेता है । ग्यारहवीं सदी में सगुण भक्ति के आचार्य रामानुजाचार्य ने वैष्णव धर्म को एक शक्तिशाली भक्ति आंदोलन में बदल डाला । श्री सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत वाद के रूप में भक्ति को समर्थ दार्शनिक आधार प्रदान किया ।
24- रामानुजाचार्य के वैष्णव धर्म चिंतन को रामानन्द उत्तर भारत में लाए । उन्होंने राम के लोक कल्याणकारी रूप को जनता में प्रतिष्ठित किया । वल्लभाचार्य ने विष्णु के अवतार रूप कृष्ण भक्ति का प्रचार किया । उनके द्वारा प्रवर्तित मार्ग पुष्टि मार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ । कबीर, धन्मा, रैदास, रज्जब, पलटूदास जैसे संत कवियों की विद्रोही चेतना के मूल में रामानन्द ही हैं । वैष्णव भावना ने रामहि केवल प्रेम पियारा के चिंतन को केन्द्र में लाकर प्रेम को पॉंचवा पुरुषार्थ घोषित किया ।
25- श्यामा चरण दुबे (1922-1996) भारत में ग्राम्य अध्ययन के पुरोधा माने जाते हैं । वह समाजशास्त्रियों की उस पीढ़ी के सदस्य थे जिसने आज़ादी के बाद वैश्विक ज्ञान में अपने कृतित्व और पक्षधरता के दम पर ख़ास मुक़ाम हासिल किया । उनकी पुस्तक इंडियन विलेज गाँव पर केंद्रित पहला मुकम्मल अध्ययन है ।इसे आज भी एक क्लासिकल ग्रन्थ माना जाता है । दुबे ने भारतीय संस्कृति के लिए वृक्ष के बजाय नदी का रूपक चुना । वे भारतीय संस्कृति के विकास और उसकी संवृद्धि में कई तरह के ऐतिहासिक स्रोतों का योगदान मानते हैं । उन्होंने मानव संस्कृति के विकास को वैश्विक संदर्भ में रखकर ऑंका ।
26- बाबू श्यामसुन्दर दास (1875-1945) भारत में हिंदी साहित्य और बौद्धिकता के पथ- प्रदर्शकों में से एक माने जाते हैं ।उनका जन्म काशी में हुआ था । वह लखनऊ के कालीचरन इंटर कॉलेज में बहुत दिनों तक हेडमास्टर रहे । वर्ष 1921 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किए गए । उन्होंने लम्बे समय तक सरस्वती पत्रिका का सम्पादन किया, हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज की तथा हिंदी शब्द सागर का भी सम्पादन किया । 1907 में उन्होंने हिंदी आर्य भाषा पुस्तकालय की स्थापना की । उनका लेखन बहुत विशाल है ।
27- श्वेत क्रांति को आपरेशन फ्लड कहा जाता है । इसका सीधा मतलब है देश में दूध की नदियाँ बहा देना । 1970 में गुजरात के अमूल प्रयोग के तर्ज़ पर शुरू हुई यह मुहिम दुनिया के सबसे बड़े डेरी डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की तरह देखी जाती है । श्वेत क्रान्ति के कारण ही भारत तीस साल के भीतर दुग्ध उत्पादन में अमेरिका से आगे निकल गया । इसी कार्यक्रम के कारण 2010-11 में दुनिया के दुग्ध उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 17 फ़ीसदी हो चुकी थी । श्वेत क्रान्ति की बुनियाद में आणंद (गुजरात) में सक्रिय खेड़ा ज़िला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ का सफल मॉडल है । इसका गठन 1946 में सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रोत्साहन पर हुआ था । इंजीनियर वर्गीज कुरियन का इस सफलता के पीछे करिश्माई नेतृत्व था ।
28- दुनिया में शस्त्र- नियंत्रण का इतिहास काफ़ी पुराना है । लगभग ढाई हज़ार सहस्राब्दी पहले एथेंस और स्पार्टा के बीच शस्त्र- नियंत्रण संधि हुई थी । उन्नीसवीं सदी में रस- बैजोट ट्रीटी (1817 के तहत अमेरिका और कनाडा के बीच सीमाओं पर से फ़ौजों की तैनाती ख़त्म कर दी गई थी । आधुनिक युग में वर्ष 1945 से ही कई शस्त्र- नियंत्रण संधियाँ आणुविक, रासायनिक और जैविक शस्त्रों को सीमित करने या उनके उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं । उनकी कोशिश है कि एंटी- बैलेस्टिक मिसाइल प्रणालियों के विकास को रोका जाए और दुनिया भर में आणुविक परीक्षणों की बारम्बारता घटाई जाए ।
29- बीसवीं सदी में कई मशहूर शस्त्र- नियंत्रण संधियाँ हुई हैं : 1925 में जिनेवा प्रोटोकॉल पर दस्तख़त हुए जिसके तहत गैसों और बैक्टीरियोलॉजिकल हथियारों का इस्तेमाल प्रतिबंधित किया गया । 1959 में अंटार्कटिका ट्रीटी हुई जिसके बाद से अंटार्कटिका के क्षेत्र का फ़ौजी उद्देश्यों से प्रयोग बंद कर दिया गया । 1972 के बॉयलॉजिकल वेपन्स कन्वेंशन के तहत जैविक हथियारों को बनाने और रखने पर पाबंदी लगा दी गई । 1968 में आणुविक अप्रसार संधि (एन पी टी) हुई जिसके बाद से गैर – आणुविक देशों को आणुविक हथियार या प्रौद्योगिकी देने की प्रक्रिया सीमित हो गयी । वर्ष 1972 में स्ट्रैटजिक आर्म्स लिमिटेशन टास्क (साल्ट वन) के तहत एंटी- बैलेस्टिक मिसाइलों के विकास को नियंत्रित किया गया ।
30- वर्ष 1989 में हुई कन्वेंशनल फोर्सिज इन यूरोप (सी ए एफ ई) ट्रीटी ने यूरोप में परम्परागत हथियारों की संख्या तय कर दी । 1991-92 में हुई वार्ता (स्ट्रैटजिक आर्म्स रिडक्शन टास्क : स्टार्ट वन) के तहत महाशक्तियों के आणुविक हथियारों में कटौती की गई । वर्ष 1993 में कैमिकल वेपंस कंवेंशन (सी डब्ल्यू सी) पर हस्ताक्षर करने वाले देशों को हिदायत दी गई कि वे दस साल के भीतर अपने रासायनिक हथियारों को नष्ट कर दें । 1998 में एंटी परसनल लैण्डमाइन्स ट्रीटी पर दस्तख़त किए गए । अमेरिका आज भी दुनिया का सबसे बड़ा शस्त्र- आपूर्तिकर्ता है । हथियारों के बाज़ार के पचास फ़ीसदी हिस्सा उसी के हाथ में है ।