11- स्मृति की राजनीति के तहत बनाया गया अतीत और वर्तमान के बीच का रिश्ता व्यक्तियों, समूहों, संस्कृतियों और पूरे के पूरे समाजों के भविष्य को प्रभावित करता है । स्पेनी विद्वान पलोमा अगुइलर ने याद रखने और भूलने के बीच अपने देश में चले गृह युद्ध का विशद अध्ययन पेश किया है । वर्ष 2002 में प्रकाशित उनकी रचना मेमोरी ऐंड एमनीजिया : द रोल ऑफ सिविल वार इन द ट्रांज़िशन टू डेमॉक्रैसी के बाद राजनीति शास्त्र में स्मृति अध्ययन एक विषय के रूप में स्थापित हो गया । स्मृतियाँ तथ्यों, मिथकों और व्याख्याओं के ख़ास विन्यास का परिणाम होती हैं जिनके पीछे स्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य होते हैं ।

12- स्मृतियों के आधार पर विपक्षियों को चुनौती दी जाती है । राष्ट्रीय स्मृति के आधार पर इतिहास का पुनर्लेखन करने की अपील की जाती है । सामाजिक संघर्षों, राष्ट्रों के बीच युद्धों, गृह- युद्धों और निरंकुश हुकूमतों द्वारा किए गए अधिकारों के दमन की दारूण स्मृतियों की निजी और सामूहिक मानस पर गहरी छाप पड़ती है । एक तरफ़ राजनीति की संस्थागत अभिव्यक्तियाँ होती हैं और दूसरी तरफ़ तरह-तरह के प्रतिवेदनों, गवाहियों, बिम्बों, मीडिया, जनमत और राजनीतिक विमर्शों की कारीगरी से बनने वाली स्मृति की राजनीति होती है । स्मृतियों के आगार के तौर पर पूरी दुनिया में जगह- जगह संग्रहालयों की स्थापना हुई है ताकि आने वाली पीढ़ियों को स्मृतियों और उनकी राजनीति का तैयारशुदा माल मिलता रहे ।

13- स्मृति अध्ययन की समाजशास्त्रीय परम्परा के जनक फ़्रांसीसी विद्वान मॉरिस हालबॉश माने जाते हैं । 1925 में रचा उनका ग्रन्थ ऑन कलेक्टिव मेमोरी ज्ञान की राजनीति के लिए बेहद अहम साबित हुआ । हॉलबाश का निष्कर्ष था कि समूहों और सामूहिकताओं के सन्दर्भ में व्यक्ति की निजी स्मृति पर सामाजिक अन्योन्यक्रियाओं का बुनियादी असर पड़ता है । हाल में ही फ़्रांसीसी विद्वान इतिहासकार पियर नोरा ने स्मृति और इतिहास के बीच सूत्र की पुनर्व्याख्या करने के लिए कई शोधकर्ताओं की मदद से सात खंडों का एक महाग्रन्थ रचा है जिसमें स्मृति के मुक़ामों जैसे ऐतिहासिक स्मारक, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय संग्रहालय इत्यादि की फिर से जॉंच करके फ़्रांसीसी राष्ट्र का भावनात्मक इतिहास उकेरने की चेष्टा की गई है ।

14- अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में कार्यरत ब्रिटिश सिद्धांत कार जेनी एडकिंस के अनुसार युद्धों, जन- संहारों, अकालों और आतंकवाद की युक्ति का इस्तेमाल करके सरकारें और संगठन लोगों की स्मृतियों को एक ख़ास मोड़ देने की कोशिश करते हैं । इसी प्रकार से दक्षिण अफ़्रीका में बने ट्रुथ ऐंड रिकंसिलेशन कमीशन का भी ज़िक्र किया गया है । अफ़्रीका में गोरे नस्लवादी शासन द्वारा किए गए अत्याचारों, भेदभाव, सांस्कृतिक संहार और विभिन्न अन्यायों की स्मृति को याद रखने या न रखने पर बहस चल रही है । अतीत में हुई नाइंसाफ़ियों के प्रतिकार के लिए क्या किया जाना चाहिए ? ऐतिहासिक न्याय की अवधारणा अतीत परक है, जबकि राजनीतिक न्याय का विचार भविष्य परक है । राजनीतिक न्याय का मतलब है अतीत के अप्रिय सत्य को याद रखा जाए, लेकिन भविष्य को मेल- मिलाप के दृष्टिकोण से संवारा जाए ।

15- स्मृति साहित्य धर्मशास्त्र के उन ग्रन्थों को कहते हैं जिनमें प्रज्ञा के लिए उचित आचार- व्यवहार की व्यवस्था और समाज के संचालन के लिए नीति और सदाचार से सम्बन्धित बातों का निर्देश हो । ज्ञानियों ने वेदों का चिंतन करते हुए जिन ग्रन्थों की रचना की, उन्हें स्मृति कहा जाता है । श्रुति और स्मृति का नाम एक साथ ही आता है । श्रुति का अर्थ वैदिक संहिताओं से लिया जाता है और स्मृति का सम्बन्ध धर्मशास्त्र से है ।अंग्रेज विद्वान विलियम जोन्स (1746-1794) के अनुसार मनु- स्मृति का रचना काल 1250 ईसा पूर्व है । कार्ल फ़्रेडेरिक वॉन श्लेगल (1772-1829) इसे एक हज़ार ईसा पूर्व की रचना मानते हैं । मोनियर विलियम्स (1819-1899) इसका रचना काल 500 ईसा पूर्व मानते हैं । वेबर मनु- स्मृति को महाभारत के बाद की रचना मानते हैं ।

16- स्वच्छंतावाद सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में वह चिंतन है जो कुछ मानवीय प्रवृत्तियों का पूरी तरह से निषेध और कुछ को बेहद प्राथमिकता देता है । यह विचार निर्गुण के ऊपर सगुण, अमूर्त के ऊपर मूर्त, सीमित के ऊपर असीमित, समरूपता के ऊपर विविधता, संस्कृति के ऊपर प्रकृति, यांत्रिक के ऊपर आंगिक, भौतिक और स्पष्ट के ऊपर आध्यात्मिक और रहस्यमय, वस्तुनिष्ठता के ऊपर आत्मनिष्ठता, बंधन के ऊपर स्वतंत्रता, औसत के ऊपर विलक्षण, दुनियादार किस्म की नेकी के ऊपर उन्मुक्त सृजनशील प्रतिभा और समग्र मानवता के ऊपर विशिष्ट समुदाय या राष्ट्र को तरजीह देता है । फ़्रांसीसी क्रांति का युग प्रवर्तक नारा आज़ादी, बराबरी और भाईचारा लम्बे समय तक स्वच्छंदतावादियों का प्रेरणा- स्रोत बना रहा है ।

17- स्वच्छंदतावादी क्रान्ति के बौद्धिक नायक ज्यॉं- जॉक रूसो को इस चिंतन की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है । रूसो ने अपने युग की सभ्यतामूलक उपलब्धियों पर आरोप लगाया कि उनकी वजह से मानवता भ्रष्ट हो रही है । उनका विचार था कि अगर नेकी की दुनिया में लौटना है और भ्रष्टाचार से मुक्त जीवन की खोज करनी है तो प्रकृत- अवस्था की शरण में जाना होगा । 1976 में प्रकाशित रूसो की दीर्घ औपन्यासिक कृति ज्यूली ऑर द न्यू हेलोइस और अपने ही जीवन का अन्वेषण करने वाली उनकी आत्मकथा कन्फ़ेशंस इस महान विचारक के स्वच्छन्दता वादी नज़रिए का उदाहरण है ।

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18- स्वच्छंदतावाद के साहित्यिक आन्दोलन को अंग्रेज़ी भाषा में विकसित करने का श्रेय ब्लैक, वडर्सवर्थ, कोलरिज, बायरन, शैली और कीट्स का नाम प्रमुख है । जर्मन दार्शनिकों में आर्थर शॉपेनहॉर को स्वच्छंदतावाद की श्रेणी में रखा जाता है । शॉपेनहॉर का लेखन जगत के प्रति निरुत्साह और हताशा से भरा हुआ है, पर उन्हें अभिलाषाओं के संसार में राहत मिलती है । शॉपेनहॉर का लेखन रिचर्ड वागनर की संगीत रचनाओं के लिए प्रेरक साबित हुआ । भारत में स्वच्छंदतावाद की पहली साहित्यिक अनुगूँज बांग्ला में सुनाई पड़ी । आधुनिक हिन्दी साहित्य में स्वच्छन्दता वाद की पहली सुसंगत अभिव्यक्ति छायावाद के रूप में मानी जाती है ।

19- स्वच्छंतावादियों ने क्लासिकल द्वारा रोमन और यूनानी मिथकों पर ज़ोर को नकारते हुए मध्ययुगीन और पागान संस्कृतियों को अपनाया । इसका नतीजा गोथिक स्थापत्य के पुनरुद्धार में निकला । इसने यूरोपीय लोक- संस्कृति और कला के महत्व को स्वीकारा । फ़िनलैंड के महाकाव्यात्मक ग्रन्थ कालेवाला का सृजन इसी रुझान की देन है । इस चिंतन ने न केवल रोमानी प्रेम पर आधारित बल्कि साहित्य और कला के मन के अंधेरे में छिपे भयों और दुखों की अनुभूति को भी स्पर्श करना शुरू कर दिया । स्वच्छंदता वाद ने यूरोपीय ज्ञानोदय द्वारा आरोपित बुद्धिवाद के खिलाफ भी विद्रोह किया ।

20- स्वच्छंदतावाद के विकास में फ्रेड्रिख और ऑगस्त विल्हेम वॉन श्लेगल (1767-1845) की भूमिका उल्लेखनीय है । ऑगस्त श्लेगल ने रोमानी विडम्बना की थिसिज का प्रतिपादन करते हुए कविता की विरोधाभासी प्रकृति को रेखांकित किया । इसका मतलब यह था कि किसी वस्तुनिष्ठ या सुनिश्चित तात्पर्य की उपलब्धि न कराना कविता का स्वभाव है । स्वच्छंदता वादियों ने शेक्सपियर की सराहना इसलिए की कि उनमें अपने नाटकों के पात्रों के प्रति एक विडम्बनात्मक विरक्ति है । हिन्दी साहित्य में रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ग्रन्थ हिन्दी साहित्य के इतिहास में मिलता है जहां उन्होंने श्री धर पाठक को स्वच्छंदता वाद का प्रवर्तक करार दिया ।


21- स्वजातिवाद एक हानिकारक वैचारिक प्रवृत्ति है । इसके प्रभाव में कोई समूह अपनी जातीय और सांस्कृतिक श्रेष्ठता में इस कदर यक़ीन करने लगता है कि उसे दूसरे सभी समूह, उनकी संस्कृतियाँ और जीवन- शैलियाँ हेय लगने लगती हैं । इससे धीरे-धीरे अन्य संस्कृतियों, सभ्यताओं और समुदायों के प्रति द्वेष, घृणा, संदेह, उदासीनता और अरुचि जैसे मनोभाव पैदा होने लगते हैं । अपने से भिन्न भाषाओं, विचारों, धर्मों, नैतिकताओं और दृष्टिकोणों को समझना मुश्किल हो जाता है । बौद्धिक दायरे में स्वजातिवाद ने एक ख़ास तरह की विश्लेषण पद्धति को जन्म दिया है ।आधुनिक मानवशास्त्र के संस्थापक फ्रेंज बोआस ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है ।

22- एलिज़ाबेथ स्पेलमैन ने अपनी रचना इनइसेंशियल वुमन : प्रॉब्लम्स ऑफ एक्सक्यूजन इन फ़ेमिनिस्ट थॉट में दिखाया है कि किस तरह नारीवादी विधि- सिद्धांत के कुछ पहलू एक तरह के फ़ेमिनिस्ट स्वजातिवाद से पीड़ित हैं । नारीवादी सिद्धांतकार जूडिथ बटलर ने अपनी रचना प्रिकेरियस लाइफ़ में अपनी इयत्ता बनाए रखने के संदर्भ में अन्य को मान्यता देने से जुड़ी समस्याओं की चर्चा की है । बटलर का विश्लेषण बताता है कि अन्य को मान्यता देने की शर्त यही है कि उसे ऐसा माना जाए जो मेरे जैसा नहीं है ।अर्थात् अन्य की शिनाख्त हमेशा एक विभेद की रोशनी में हो पाती है । एक अन्य नारीवादी सिद्धांत कार जैकलीन रोज के मुताबिक़ शिनाख्त की प्रक्रिया, अस्मिता निर्धारित करने में खप जाती है और उस प्रक्रिया का मक़सद ही बदल जाता है ।

23- स्वतंत्रता या स्वाधीनता अथवा आज़ादी या मुक्ति का विचार तीन आयामों से मिलकर बना है । पहला है चयन करना, दूसरा है उस पर अमल करना तथा आने वाली बाधाओं का अभाव और तीसरा है उन परिस्थितियों की मौजूदगी जो चयन करने के लिए प्रेरित करती हो । स्वतंत्रता की एक कारगर परिभाषा एक तितरफा सम्बन्ध के रूप में भी दी जाती है (क) स्वतंत्र है (ख) से ताकि ((ग) कर सके या बन सके । प्रकृत अवस्था की अपनी कल्पना के तहत थॉमस हॉब्स क्रिया की स्वतंत्रता में आने वाली उन बाधाओं की अनुपस्थिति को स्वतंत्रता करार देते हैं जो कर्ता की प्रकृति और सहजात गुणों मे निहित नहीं हैं । हॉब्स डर और आवश्यकता को भी ऐसे कारकों के रूप में पेश करते हैं जिनकी वजह से व्यक्ति स्वतंत्रता की तरफ़ बढ़ता है ।

24- एक अविभाज्य और सार्वभौम अधिकार के रूप में लॉक के अनुसार स्वतंत्रता नागरिक और राजनीतिक समाज से पहले आती है । नागर समाज जिस अनुबंध के तहत बनता है, उसका मक़सद स्वतंत्रता समेत सभी प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करना है । राजनीतिक समाज स्वतंत्रता को विनियमित तो कर सकता है, पर सीमित नहीं । लॉक जिस स्वाधीन व्यक्ति की कल्पना करते हैं वह बुद्धिसंगत व्यवहार के मुताबिक़ स्वतंत्रता का दावा उन परिस्थितियों में करेगा जिन्हें बदला जा सकता है । अर्थात् वह स्वाधीन व्यक्ति किसी पक्षी की तरह हवा में उड़ने की स्वतंत्रता का दावा करने के बजाय अल्पसंख्यक होने के बावजूद अपनी बात कहने और उसके सुने जाने का दावा पसंद करेगा ।

25- रूसो के चिंतन में स्वतंत्रता एक सामूहिक उद्यम है जिसके तहत पूरे समूह के वृहत्तर हित के लिए स्वार्थी आग्रहों से मुक्त होना ज़रूरी है । रूसो के अनुसार अन्यायपूर्ण और पदानुक्रम से निकलने वाली सामाजिक विषमताओं के उन्मूलन के बिना स्वतंत्रता असम्भव है । इसलिए रूसो स्वतंत्रता को प्राकृतिक अधिकार नहीं मानते । वह तो नागरिक और राजनीतिक समाज बनने के बाद अ- स्वतंत्रता से मुक्ति के रूप में मिलती है । स्वाधीन लोग अनुपालन करते हैं, दासता नहीं । उनके नेता होते हैं, मालिक नहीं । वे क़ानून पर चलते हैं, उन क़ानूनों पर जिनके कारण उन्हें मनुष्यों का आज्ञापालन नहीं करना पड़ता और क़ानून जन- इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है ।

26- उपयोगितावाद के पैरोकार जेरेमी बेंथम ने स्वतंत्रता को सुख प्राप्त करने और दुःख से बचने के साथ जोड़ कर देखा है । बेंथम के शिष्य जॉन स्टुअर्ट मिल के चिंतन में स्वतंत्रता और अधिक परिष्कृत होकर उभरती है । मिल ने अपनी पुस्तक ऑन लिबर्टी में लिखा है कि किसी व्यक्ति के मत का समाज या राज्य के सामूहिक निर्णय के आधार पर दमन नहीं किया जा सकता है । उन्होंने स्वतंत्रता के तीन आयाम बताया है : विचार और बहस की स्वतंत्रता, वैयक्तिकता का सिद्धांत और व्यक्ति की क्रियाओं पर प्राधिकार की सीमा । कार्ल मार्क्स ने अ- स्वतंत्रता की मिसाल के ज़रिए स्वतंत्रता के विचार को प्रस्तुत किया । यह उनके पारएपन के सिद्धांत में निहित है । मार्क्स ने परायेपन की शिनाख्त चार स्तरों पर की है : अपने श्रम के उत्पाद से, उत्पादक गतिविधि से, स्वयं की मानवीय प्रकृति से तथा दूसरे मनुष्यों से परायापन ।

27- समकालीन दार्शनिक ईसैया बर्लिन ने 1996 में प्रकाशित अपनी पुस्तक फ़ोर ऐसेज ऑन लिबर्टी में स्वतंत्रता के विचार को नकारात्मक और सकारात्मक स्वतंत्रताओं में बाँटकर देखा है । नकारात्मक स्वतंत्रता यानी किसी भी हस्तक्षेप या बाधा से स्वतंत्रता । यह क्रिया करने के अवसर पर निर्भर है, न कि क्रिया पर ।अवसर की अनुपलब्धि स्वतंत्रता में बाधक बन जाती है । सकारात्मक स्वतंत्रता वह है जिसके तहत व्यक्ति की उच्चतर इयत्ता उसकी निचली इयत्ता पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेती है जिसके ज़रिये वह अपना स्वामी बनकर आत्मसिद्धि कर सकता है । यह अवसर पर निर्भर नहीं होती बल्कि अवसरों को उपलब्ध करने के लिए कदम भी उठाती है ।

28- स्वतंत्रतावादी व्यक्ति के आत्म- स्वामित्व या सेल्फ़ ऑनरशिप के विचार पर बल देते हैं । आत्म- स्वामित्व का विचार कांट द्वारा लोगों को अपने- आप में साध्य मानने के सूत्र का ही एक रूप है । इसका अर्थ यह है कि हर व्यक्ति ख़ुद अपना मालिक है । इसलिए उसकी ज़िंदगी में किसी को भी ऐसा दखल देने की ज़रूरत नहीं है जिससे उसके आत्म- स्वामित्व का उल्लंघन होता हो । इस आधार पर भी स्वतंत्रता वाद दो धाराओं में बंट जाता है : पहला, दक्षिणपंथी स्वतंत्रता वाद और दूसरा वामपंथी स्वतंत्रता वाद । दक्षिणपंथी स्वतंत्रता वादी न्यूनतम राज्य की अवधारणा का समर्थक है । उसका मानना है कि व्यक्ति को असीम सम्पत्ति का अधिकार है ।

29- दक्षिणपंथी स्वतंत्रता वादी मानते हैं कि यदि राज्य व्यक्ति पर किसी भी तरह का कर लगाता है तो वह आत्म- स्वामित्व के उसूल का उल्लंघन होगा ।लॉक के विचारों में इसके सूत्र ढूँढे जा सकते हैं ।बीसवीं सदी में हॉयक और फ्रीडमैन ने भी इस विचार का समर्थन किया है । अमेरिकी अर्थशास्त्री मरे एन. रोथबर्ड ने भी इसका बौद्धिक समर्थन किया है । रोथबर्ड ने अ- हस्तक्षेपकारी राज्य के सिद्धांत को मानवाधिकारों के असीमवादी संस्करण से जोड़कर राज्य को ख़ारिज कर दिया । समकालीन विद्वानों में रॉबर्ट नॉजिक इसके सबसे बड़े समर्थक हैं । 1974 में रॉबर्ट नॉजिक की कृति एनार्की, स्टेट ऐंड यूटोपिया के प्रकाशन के बाद इस आन्दोलन पर काफ़ी ध्यान दिया गया ।

30- वाम स्वतंत्रता वादी अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के विचारकों, जैसे थामस पेन, हेनरी जॉर्ज और पीटर वालरस के विचारों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं । आजकल हीलेल स्टीनर और पीटर वेलेण्टाइन जैसे विचारकों ने इसका समर्थन किया है । वाम स्वतंत्रता वाद भी आत्म- स्वामित्व पर ज़ोर देता है । वह मानता है कि सम्पत्तिहीन लोगों को आत्म स्वामित्व का अधिकार देने के लिए या तो संसाधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए या फिर सभी लोगों तक इसकी पहुँच सुनिश्चित करनी चाहिए । इसके अलावा गैथियर जैसे विद्वानों ने पारस्परिक लाभ के आधार पर स्वतंत्रता वाद की तरफ़दारी की है ।


31- स्वामी अछूतानंद हरिहर (1879-1933) आदि हिन्दू आन्दोलन के संस्थापक और उत्तर भारत में दलित चेतना के प्रमुख स्तंभ रहे हैं । उत्तर प्रदेश के जनपद फ़र्रुख़ाबाद में सौरिख नामक गाँव में वैशाख पूर्णिमा के दिन जन्में स्वामी अछूतानंद उन संतों- महापुरुषों में थे जिन्होंने ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों की ग़लत नीतियों का विरोध किया । इसके साथ ही उन्होंने भारतीय समाज की विषमता और सामन्ती अत्याचारों के खिलाफ भी आवाज उठायी । उनके परिजन उन्हें बचपन में हीरालाल के नाम से पुकारते थे । स्वामी जी ने दलितों को भारत का मूल निवासी बताने का अभियान चलाया । 1905 से 1917 तक अछूतानंद ने आर्य समाजियों के साथ जाति और छुआ-छूत उन्मूलन के लिए काम किया ।

32- अछूतानंद 1917 में दिल्ली आ गए और अछूतों के नेता वीर रतन, देवी दास जातिया और जगराम जातिया के साथ मिलकर काम किया ।इन लोगों ने मिलकर अछूत महासभा की स्थापना की और एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया । 1922 के प्रिंस ऑफ वेल्स के दिल्ली आगमन के मौक़े पर अछूतानंद ने पुराने क़िले पर एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया जिसमें क़रीब दस हज़ार दलितों ने भागीदारी किया । प्रिंस ऑफ वेल्स इस सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे । 1920 में उन्होंने दिल्ली के जाटव सम्मेलन में भागीदारी की और 1923 में दिल्ली में उन्होंने आदि हिन्दू धर्म की स्थापना की उन्होंने 1926 में कानपुर में दलितों का एक सम्मेलन बुलाया

33- अछूतानंद ने हिन्दी में छह किताबें लिखीं : शम्बूक बलिदान(नाटक), मायानन्द बलिदान,(जीवनी ) अछूत पुकार,(गीत ) पाखंड खंडिनी(कविता), आदिवंश का डंका(कविता), रामराज्य का न्याय (नाटक)। स्वामी अछूतानंद ने कानपुर में ही आदि हिन्दू प्रेस स्थापित किया और 1925 से 1932 तक आदि हिन्दू मासिक पत्र का प्रकाशन करते रहे । 30 नवम्बर, 1930 को लखनऊ में स्वामी अछूतानंद ने अपने साथियों तिलक चन्द्र कुरील, गिरधारी भगत, लक्ष्मण प्रसाद और किरोड़ीमल खटिक के साथ साइमन कमीशन से मिले और दावा किया कि हमें अंग्रेजों से हमदर्दी नहीं, सम्मानपूर्वक जीवन अधिकार चाहिए । 1928 के बम्बई आदि हिन्दू अधिवेशन में पहली बार उनकी मुलाक़ात डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर से हुई ।

34- अगर कोई किसी से अपनी मर्ज़ी के आधार पर कुछ ऐसे काम करवा सकता है जो वह अन्यथा नहीं करता, तो इसे एक व्यक्ति की दूसरे पर सत्ता की संज्ञा दी जाती है । सत्ता की यह सहज लगने वाली परिभाषा रॉबर्ट डहल की देन है । 1936 में प्रकाशित अपनी पुस्तक हू गवर्न्स ? में डहल ने अमेरिका के न्यू हैविंस कनेक्टिविटी का अध्ययन किया । स्टीवन ल्यूकस ने सत्ता के तीन आयामों की है । उनके अनुसार सत्ता का मतलब है निर्णय लेने का अधिकार, सत्ता का मतलब है राजनीतिक एजेंडे को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए निर्णयों के सार को बदल देने की क्षमता और सत्ता का मतलब है लोगों की समझ और प्राथमिकताओं से खेलते हुए उनके विचारों को अपने हिसाब से नियंत्रित करने की क्षमता ।

35- हरबर्ट मारक्यूज ने अपनी विख्यात रचना वन डायमेंशनल मैन (1964) में विश्लेषण किया कि क्यों विकसित औद्योगिक समाजों को भी सर्वसत्तावादी की श्रेणी में रखना चाहिए । मारक्यूज के अनुसार हिटलर के नाजी जर्मनी में या स्तालिन के रूस में सत्ता के आतंक का प्रयोग करके सर्वसत्तावादी राज्य क़ायम किया गया था । औद्योगिक समाजों में यही काम आधुनिक प्रौद्योगिकी के ज़रिए बिना किसी प्रत्यक्ष क्रूरता के लोगों की आवश्यकताओं को बदल कर किया जाता है । ऐसे समाजों में टकराव ऊपर से नहीं दिखता, पर इसका मतलब सत्ता के व्यापक वितरण में नहीं निकाला जा सकता । जिस समाज में विपक्ष और प्रतिरोध नहीं है, वहाँ माना जाता है कि मनोवैज्ञानिक नियंत्रण और जकडबंदी के बारीक हथकंडों का इस्तेमाल हो रहा है ।

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36- नारीवादी चिंतकों ने सत्ता को पितृसत्ता की अवधारणा की रोशनी में परखा है । पितृसत्ता प्रभुत्व की एक ऐसी सर्वव्यापी संरचना है जो हर स्तर पर काम करती है । हन्ना एरेंत सत्ता को केवल प्रभुत्व की संरचना के तौर पर देखने के लिए तैयार नहीं हैं । अपनी पुस्तक व्हाट इज अथॉरिटी में वे सत्ता को एक बढ़ी हुई क्षमता के रूप में व्याख्यायित करती हैं जो सामूहिक कार्रवाई के ज़रिए हासिल की जाती है । लोग जब आपस में संवाद स्थापित करते हैं और मिल- जुल कर एक साझा उद्यम की ख़ातिर क़दम उठाते हैं तो उस प्रक्रिया में सत्ता उद्भूत होती है । सत्ता का यह रूप वह आधार मुहैया कराता है जिस पर खड़े होकर व्यक्ति नैतिक उत्तरदायित्व का वहन करते हुए सक्रिय होता है ।

37- पिछले डेढ़ दशक में क़रीब पचास देशों ने अपने क़ानून के तहत स्त्रियों के लिए आरक्षण को विशेष प्रावधान किए हैं । नोर्डिक देशों में 41.4 फ़ीसदी, अमेरिकी देशों में 21.8 फ़ीसदी, अन्य यूरोपीय देशों में 19.1 फ़ीसदी, एशियाई देशों में 17.4 फ़ीसदी, प्रशान्त क्षेत्र के देशों में 13.4 फ़ीसदी, सब- सहारन अफ्रीकी देशों में 17.2 फ़ीसदी और अरब देशों में 9.6 फ़ीसदी स्त्रियाँ विधायिकाओं की सदस्य हैं । कतर, सऊदी अरब और माइक्रोनेसिया की संसदों ने तो स्त्रियों की शक्ल तक नहीं देखी है । केवल रवांडा की संसद में महिलाओं की संख्या 56.3 प्रतिशत है ।इस कामयाबी का सम्बन्ध इस संसद में स्त्रियों को मिलने वाले तीस फ़ीसदी आरक्षण से जोड़ा जाता है ।

38- महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में युरोप सबसे आगे है । स्वीडन, फ़िनलैंड और नीदरलैंड दुनिया के पाँच सबसे ज़्यादा स्त्री- प्रतिनिधित्व वाले देशों में हैं । बेलारूस, स्पेन, मेसीडोनिया, मोनाको और फ़्रांस ने भी इस दिशा में खासी प्रगति की है । अफ्रीकी देशों ने भी इस सम्बन्ध में सराहनीय प्रगति की है । 2008 में अंगोला की संसद ने 37 फ़ीसदी महिलाओं को सांसद चुना । मोज़ाम्बिक, नामीबिया, दक्षिण अफ़्रीका और तंज़ानिया की संसदों में भी स्त्री सदस्यों की संख्या 25 फ़ीसदी तक पहुँच चुकी है । एशिया के देशों में यह प्रगति सबसे धीमी है । इस क्षेत्र में स्त्रियों की संसदीय उपस्थिति केवल 17 फ़ीसदी ही है ।सबसे ज़्यादा स्त्रियाँ 32.8 फ़ीसदी नेपाल की संसद में तथा सबसे कम 2.8 फ़ीसदी ईरान की संसद में हैं ।

39- एन फ़िलिप्स की रचना पॉलिटिक्स ऑफ प्रजेंस ने राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी के सवाल को प्रबलता से रेखांकित किया है । आँकड़ों के मुताबिक़ सारे संसार में काम के कुल घंटों का लगभग दो तिहाई भाग औरतों की मेहनत का है । औरतों को संसार की कुल आय का दस प्रतिशत ही मिलता है और वे एक प्रतिशत से भी कम सम्पत्ति की स्वामिनी होती हैं । क्रिस्टीन डेल्फी एक ऐसी विख्यात नारीवादी हैं जिनका मानना है कि घरेलू श्रम पूँजीवादी समाज के लिए एक सामाजिक- सांस्कृतिक पीढ़ी तैयार कर रहा है । वह भी एक पूँजी का निर्माण कर रहा है, पर इसके लिए उसे कोई क़ीमत नहीं मिल रही है । इसलिए घरेलू श्रम को निश्चित ही सामाजिक विस्तार देते हुए उसके श्रम का मूल्य तय किया जाना चाहिए ।

40- समाजवादी मार्क्सवादी चिंतक डला कोस्टा के अनुसार परिवार के भीतर स्त्री कार्य भी करती है और शोषित भी है । घरेलू काम के ज़रिए वह अधिशेष मूल्य की रचना करती है, पर वह पूंजीवाद के खाते में चला जाता है । जॉन हार्कसन का कहना है कि विश्व स्तर पर कार्यरत पूँजीवादी व्यवस्था देशों के भीतर काम कर रही पूँजीवादी व्यवस्था से भिन्न है । इन दोनों को मिलाकर विश्वस्तरीय पूँजीवादी व्यवस्था की रचना होती है । हीदी हार्टमान का तर्क है कि एक पूँजीवादी समाज में जेंडर, नस्ल और जाति के आधार पर तय किया जाता है कि कौन क्या काम करेगा । महिलाओं के द्वारा सहे जाने वाले दबावों और असमानता का वर्णन हमें बेबी हालदार लिखित आत्मकथा आलो आंधारि में मिलता है ।


41- अंग्रेजों के ख़िलाफ़ भारत की स्वाधीनता के लिए चला पहला राष्ट्रीय संग्राम 29 मार्च, 1857 को शुरू हो कर 8 जुलाई, 1859 तक चला । इस दौर में केवल अवध के इलाक़े में अंग्रेजों से लड़ते हुए मारे गए डेढ़ लाख लोगों में से एक लाख लड़ाके ग़ैर फ़ौजी थे । 1857 के ग़दर के नाम पर ग़दर पार्टी बनी । उपनिवेशवाद विरोध की सशस्त्र क्रान्तिकारी धारा इस विद्रोह से लगातार प्रेरणा प्राप्त करती रही । ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में जिन सैनिकों की भर्ती की थी उनमें अधिकांश किसान थे । 1794 में इन भारतीय सिपाहियों की संख्या 82,000 हज़ार थी, जो 1856 तक बढ़कर 2,14,000 हो चुकी थी । बंगाल आर्मी, बोंबे आर्मी और मद्रास आर्मी में बंटे हुए इन सैनिकों को यूरोपियन अफ़सरों की कमान में रखा जाता था ।

42- 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले सन् 1806 में वेल्लोर में विद्रोह हुआ जिसमें सिपाहियों ने गुप्त रूप से संगठित होने का परिचय दिया उन्होंने रात में चुपचाप सभाएँ कीं और ज़मींदारों को विद्रोह के लिए पत्र लिखा सन् 1822 में आर्कट की घुड़सवार लाइनों में विद्रोह का प्रयास हुआ सन् 1815 में बंगाली सिपाही जावा में और 1834 में ग्वालियर में विद्रोह कर चुके थे लार्ड डलहौज़ी द्वारा अपनाई जाने वाली डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स नीति के तहत 1848 से 1953 के बीच सतारा, नागपुर, सम्भलपुर, उदयपुर और झाँसी की रियासतें अंग्रेजों ने हड़प लिया । 1856 में जैसे ही अंग्रेजों ने कुशासन के नाम पर अवध का राज हथियाया वैसे ही रजवाड़ों में हड़कंप मच गया ।

43- 29 मार्च, 1857 को बंगाल आर्मी की 34 वीं पलटन के 26 वर्षीय सैनिक मंगल पाण्डे ने कलकत्ता से थोड़ी दूर पर स्थित बैरकपुर छावनी में विद्रोह की पहली गोली दागी । उसे पकड़ने के लिए लेफ़्टिनेंट बौ ने झपट्टा मारा, उसे मंगल पाण्डे ने घोड़े से गिरा दिया । बौ ने ज़मीन से उठकर दोबारा हमला किया तो पाण्डे ने उसे और उसकी मदद के लिए आए सार्जेंट मेजर को भी तलवार से हमला कर घायल कर दिया । इसके बाद मेजर जनरल हेयरसे ने सिपाहियों के साथ पाण्डे पर हमला किया । इस पर मंगल पाण्डे ने अपने साथी सिपाहियों को ललकारा, पर उन्होंने न तो उसकी और न ही उसे पकड़ने में अंग्रेज़ों की मदद की । इस पर पाण्डे ने उन्हें कायर कहकर लज्जित किया । इसके बाद पाण्डे ने बंदूक़ का कुंदा ज़मीन पर रखकर नली छाती से सटाकर पैर से ट्रिगर दबा दिया ।

44- मंगल पाण्डे को 8 अप्रैल को अंग्रेजों ने घायल अवस्था में ही फाँसी पर चढा दिया । इसके बाद 10 अप्रैल तक कुछ नहीं हुआ । 24 अप्रैल को तीसरी घुड़सवार सेना ने मेरठ में अफ़सरों की आज्ञा मानने से इनकार कर दिया । 85 सिपाहियों को क़ैद कर लिया गया । 3 मई को लखनऊ में सातवीं पैदल सेना ने विद्रोह किया । 10 मई को मेरठ में सिपाहियों ने कुछ यूरोपियन अफ़सरों को मारकर अपने गिरफ़्तार साथियों को छुड़ा लिया । उस समय छावनी में 2,357 भारतीय सिपाहियों के मुक़ाबले 2,038 यूरोपियन सैनिक थे जिनके पास 20 तोपें भी थीं । विद्रोह के बाद सिपाही दिल्ली रवाना हो गए । विद्रोहियों ने बहादुर शाह ज़फ़र को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया ।

45- दिल्ली पर विद्रोहियों का क़ब्ज़ा होने के बाद 16 मई को गुड़गाँव में, 20 मई को अलीगढ़ में, 23 मई को मैनपुरी और इटावा में, 30 मई को लखनऊ में, 31 मई को शाहजहांपुर और बरेली में सिपाहियों और जनता के आपसी गठजोड़ का परिणाम विद्रोह में निकाला । 21 सितम्बर को बहादुरशाह ज़फ़र ने समर्पण कर दिया । अगले दिन बादशाह के बेटों मिर्ज़ा मुग़ल, मिर्ज़ा खिज्र सुल्तान, और मिर्ज़ा अबू बक्र को ब्रिटिश अफ़सर हडसन ने ख़ूनी दरवाज़े पर गोली से उड़ा दिया । 8 जुलाई, 1859 को अंग्रेजों ने ऐलान किया कि भारत में शांति स्थापित हो गई है । यह महायुद्ध तीन साल तक चला ।

46- बुंदेलखंड में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई एक साथ अंग्रेजों की ताबेदारी करने वाले दतिया और ओरछा की फ़ौजों से भी लड़ीं और सर ह्यू रोज की सेनाओं से भी । मार्च 1858 में रोज ने झाँसी के किले पर क़ब्ज़ा कर लिया । रानी अपने बेटे को पीठ पर बाँध कर भाग निकली । उनके साथ तात्यॉं टोपे मिल गए । दोनों ने 1 जून को ग्वालियर पर क़ब्ज़ा कर लिया । अंग्रेजों के वफ़ादार सिंधिया को आगरा में शरण लेनी पड़ी । तीन हफ़्ते बाद 17 जून को जब अंग्रेजों ने ग्वालियर का घेरा डाला तो एक लड़ाई में असाधारण पराक्रम दिखाते हुए रानी लक्ष्मीबाई ने अपना बलिदान दिया । तात्यॉं टोपे नाना साहब के मुख्य सेनापति थे ।

47- अवध के इलाक़े में मौलवी अहमद शाह ने विद्रोह का नेतृत्व किया । लखनऊ के छिनने के बाद उन्होंने रुहेलखंड में फ़ौजों की अगुआई की । बाद में पोवायॉं के राजा जगन्नाथ सिंह ने पचास हज़ार रुपये के इनाम के बदले उन्हें धोखे से मरवा दिया । बिहार में जगदीशपुर के अस्सी वर्षीय शासक कुँवर सिंह ने एक योग्य सेनापति की तरह अंग्रेजों से लोहा लिया और शानदार जीत हासिल की । परन्तु घायल हो जाने के कारण 27 अप्रैल, 1858 को उनका देहान्त हो गया । राजा मानसिंह की ग़द्दारी के कारण 7 अप्रैल, 1859 को तात्यॉं टोपे को पकड़ लिया गया और 18 अप्रैल, 1859 को इस महान सेनापति को फॉंसी दे दी गई ।

48- सन् 1857 के संग्राम को अंग्रेजों ने म्यूटिनी या ग़दर करार दिया ।सैयद अहमद खॉं की रचना आशाब- ए- बग़ावत- ए- हिंद जिसका अनुवाद द कॉजिज ऑफ द इंडियन रिवोल्ट के नाम से उपलब्ध है, के अनुसार विद्रोह न तो राष्ट्रीय था, न ही इसके पीछे कोई योजना थी, न ही विद्रोह करने वाले ईस्ट इंडिया कम्पनी की बराबर की हैसियत के थे । यह तो अवज्ञाकारी सिपाहियों की गड़बड़ी थी जो अज्ञानतावश और धार्मिक ग़लतफ़हमी वश की गयी थी । सैयद अहमद खॉं ने इसे लोकप्रिय विद्रोह नहीं माना । इसके बाद उन्होंने द लॉयल मोहम्मडंस ऑफ इंडिया का लेखन करके कहा कि किसी भी पढ़े लिखे और भद्र मुसलमान ने इस बग़ावत में हिस्सा नहीं लिया । उन्होंने मुसलमानों को ईसाइयों का सच्चा दोस्त बताया ।

49- हिन्दुओं की तरफ़ से सैयद अहमद खॉं के समकालीन और बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के अनुयायी रजनी कांत गुप्ता ने सिपाही युद्धेर इतिहास लिख कर दावा किया कि हिंदू तो बड़े वफ़ादार हैं । उन्होंने बग़ावत का ठीकरा मुसलमानों की कृतघ्नता पर फोड़ा । सितार-ए- हिंद के ख़िताब से नवाज़े गए राजा शिव प्रसाद सिंह ने अपनी पुस्तक इतिहास तिमिर नाशक में विद्रोह को अपराधी वर्गों की कारसाजी बताया । राजा साहब ने दावा किया कि हिन्दू तो उसूलन फरमाबरदार हैं और उन्हें किसी भी तरह का राष्ट्रवाद या देश प्रेम छू तक नहीं गया है । विद्रोह के असली कर्ता धर्ता तो मुसलमान थे ।

50- राष्ट्रवादी दृष्टि से इतिहास लेखन करने वाले विनायक दामोदर सावरकर की 1909 में प्रकाशित पुस्तक द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस ऑफ 1857 प्रकाशित हुई । इसमें सावरकर ने 1857 के संघर्ष को आज़ादी का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम करार दिया । यह पुस्तक छपते ही भारतीय क्रांतिकारियों की बाइबिल बन गयी । इसने राष्ट्रवादियों की कम से कम दो पीढ़ियों को प्रभावित किया । रानी झाँसी का पराक्रमी संघर्ष इसी पुस्तक से पहली बार प्रकाश में आया । सावरकर ने कहा कि विद्रोह के पीछे स्वराज और स्वधर्म की कामना और हिन्दू- मुसलमान एकता थी । मार्क्सवादी चिंतक मानवेन्द्र राय ने अपनी पुस्तक इंडिया इन ट्रांज़िशन में विद्रोह को क्षयग्रस्त सामंती प्रणाली और नए व्यापारिक पूंजीवाद के बीच संघर्ष करार दिया ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खण्ड 6, दूसरा संस्करण 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7, से साभार लिए गए हैं ।

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