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राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग-28)

Posted on सितम्बर 22, 2022अक्टूबर 19, 2023

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश), फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली । email : drrajbahadurmourya @ gmail. Com, website : themahamaya. Com

(इतिहास की अनाल धारा, कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो, लुई अल्थुसे, जॉन बेलामी फ़ॉस्टर, नरेश गोस्वामी, मार्गरेट मीड, माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विलियम लॉयड गैरिसन, अराजकता, ज्यॉं- पॉल सार्त्र, रिचर्ड डॉकिन्स, मानववाद, मानवेन्द्र नाथ राय, मारसेल मौज, मीडियम)

1- इतिहास की अनाल धारा से जुड़े मार्क ब्लॉक (1664-1944) ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भी हिस्सा लिया था। इतिहास की उपयोगिता पर केन्द्रित उनकी किताब द हिस्टोरिंयस क्राफ़्ट इस बात का जबाब देने की कोशिश करती है कि इतिहास क्यों पढ़ा जाए । यहाँ ब्लॉक इतिहास को समय के प्रवाहमान मनुष्य का विज्ञान घोषित करते हुए ऐसे इतिहासकारों से बहसतलब होते हैं जो खुद को राजनीति व घटनाओं के तात्कालिक कारणों तक सीमित रखते हैं । वे यह भी तजवीज़ करते हैं कि इतिहासकार को अतीत का विश्लेषण करने में नैतिकता के निजी आदर्शों को आड़े नहीं आने देना चाहिए ।

2- इतिहास को ज़्यादा बृहत्तर और मानवीय बनाने की हिमायत करने वाले मार्क ब्लॉक द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एक दिन जर्मन सैनिकों के हाथ पड़ गया । गिरफ़्तारी के बाद उन्हें भयावह यातना दी गई और 16 जून, 1944 को उनकी हत्या कर दी गई । बावजूद इसके वह आज भी विचारों में ज़िन्दा हैं । अनाल स्कूल पर पीटर बर्क की वर्ष 1990 में प्रकाशित बहुचर्चित पुस्तक द फ्रेंच हिस्टोरिकल रेवोल्यूशन : द अनाल स्कूल 1929-1989 महत्वपूर्ण कृति है । वर्ष 1989 में सी. फिंक ने मार्क ब्लॉक की जीवनी, मार्क ब्लॉक : ए लाइफ़ इन हिस्ट्री, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रिज से प्रकाशित किया ।

3- मैनिफ़ेस्टो ऑफ द कम्युनिस्ट पार्टी के आख़िरी पैरे में मार्क्स और एंगेल्स ने साफ़ लिखा है कि : ‘ कम्युनिस्ट अपने विचारों और लक्ष्यों को छिपाने से नफ़रत करते हैं । वे खुलकर ऐलान करते हैं कि उनके लक्ष्य केवल सभी मौजूदा सामाजिक स्थितियों को ताक़त के दम पर पलट देने से ही पूरे हो सकते हैं । शासक वर्ग अगर काँपते हैं तो उन्हें कम्युनिस्ट क्रान्ति की सम्भावनाओं से काँपने दो ।सर्वहारा के पास अपनी बेड़ियों के अलावा खोने के लिए कुछ भी नहीं है और जीतने के लिए उनके सामने दुनिया पड़ी है ।’

4- दरअसल, मार्क्स जिस ज़माने में अपना सिद्धांतीकरण कर रहे थे, उसके घटनाक्रम पर नज़र डालने से पता चलता है कि तब क्रान्ति का व्यावहारिक मतलब हिंसक क्रांति से ही था । 1789 की फ़्रांसीसी क्रान्ति का प्रधान स्वरूप न केवल हिंसात्मक था, बल्कि उसकी वजह से क्रांतिकारी परम्परा को ही एक हिंसक आभा मिल गई । इसके बाद समाजवादी परम्परा में क्रांति और हिंसा के इसी रिश्ते को बढ़ावा दिया गया जिसमें बैबुफ और ब्लांकीवादियों की भूमिका उल्लेखनीय है । मार्क्स और हिंसा के सन्दर्भ में श्लोमो अविनेरी, जार्ज लिचथाइम और रिचर्ड मिलर ने विस्तार से विचार किया है । अविनेरी का निष्कर्ष यह है कि मार्क्स एक ऐसी परिस्थिति पर हिंसक राजनीतिक क्रान्ति थोपने के खिलाफ थे जिसमें सामाजिक- आर्थिक स्थितियाँ रूपांतरण के लिए परिपक्व न हों ।

5- मार्क्स द्वारा फायरबाख पर 1845 में लिखी गई टिप्पणियाँ, जो थिसिज ऑन फ़ायरबाख के नाम से मशहूर हैं, पहली बार 1888 में एंगेल्स की किताब लुडविग फ़ायरबाख ऐंड द ऐंड ऑफ क्लासिकल जर्मन फिलॉसफी के परिशिष्ट के रूप में छपीं ।खुद एंगेल्स के जीवन की शाम तब ढल रही थी । थिसिज का रूसी भाषा में अनुवाद 1924 में और अंग्रेज़ी तर्जुमा पहली मर्तबा 1938 में द जर्मन आइडिऑलॉजी के ब्रिटिश संस्करण के साथ छपा । आज भी समाज विज्ञान की ऐसी खोज जारी है जिसे ऑग्यूस्त कॉम्त ने पॉज़िटिव साइंस कहा और जिसके नाम पर इस प्रवृत्ति को पॉजिटिविज्म या प्रत्यक्षवाद के नाम से जाना गया ।

6- इतालवी मार्क्सवादी एंटोनियो ग्राम्शी ने रूसी क्रान्ति को रैवोल्यूशन अगेंस्ट दास कैपिटल करार दिया था । उनका इशारा इस बात की तरफ़ था कि सामाजिक और राजनीतिक जीवन में नियम हमेशा वस्तुपरक या फ़ौलादी नियम नहीं हुआ करते । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में रूस में नारोदनया वोल्या या पीपल्स विल नाम से किसानों और कृषि समाज को आधार बनाकर पूँजीवाद का विरोध करने वाला एक ज़बर्दस्त आन्दोलन हुआ करता था । इन लोगों का मानना था कि रूस में कम्यून तथा उसकी सामूहिकता को आधार बनाकर सीधे समाजवाद की तरफ़ बढ़ा जा सकता है । प्लेखानोव, वेरा जासुलिच इस समूह के प्रमुख नेता थे ।

7- विद्वान लेखक आदित्य निगम ने समाज विज्ञान विश्वकोश में लिखा है कि लेनिन की रहनुमाई में ही, उनके ग्रन्थ डिवलेपमेंट ऑफ कैपिटलज्म इन रशिया ने इस धारणा को और रूढ़ किया गया था कि रूस को भी पूंजीवाद के रास्ते ही समाजवाद की ओर जाना होगा ।लेनिन को बेशक 1917 में इंक़लाब एक अपेक्षाकृत पिछड़े देश में करना पड़ा हो, मगर नई सदी के आख़िरी वर्षों में उनकी दीक्षा भी उसी पॉज़िटिविस्ट मार्क्सवाद में हुई थी जिसके ख़िलाफ़ उन्हें इंक़लाब करना पड़ा था । लेनिन की यह खूबी थी कि वे नए तजुर्बों के आधार पर अपने मार्क्सवाद को लगातार संशोधित करते रहते थे ।

8- सन् 1932 में डी. डी. रियाजानोव नामक एक मशहूर रूसी आलिम ने सन् 1844 की एक पुरानी पांडुलिपि खोज निकाली और पेरिस मैनुस्क्रिप्ट्स या इकॉनॉमिक ऐंड फिलॉसॉफिकल मैनुस्क्रिप्ट्स नाम से उसे प्रकाशित किया । यह दस्तावेज मार्क्स की जवानी में लिखे हुए नायाब आलेखों का संकलन था, जो अधूरे तो थे मगर जिसने मार्क्स और उनके वाद पर नए सिरे से नज़र डालने की प्रक्रिया चालू कर दी । इनमें मार्क्स के मानवतावादी सरोकार पुरज़ोर ढंग से झलकते हैं । यांत्रिक मार्क्सवाद की तुलना में यह पांडुलिपि इनसानी फ़ितरत और पूँजीवादी समाज में उसके बेगानेपन पर विस्तार से चर्चा करती है ।

9- यह एक ज़बरदस्त इत्तफ़ाक़ ही था कि इन पांडुलिपियों के आविष्कार से कोई एक दशक से भी ज़्यादा पहले, लूकॉच ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऐंड क्लास कांशसनेस में स्वतंत्र रूप से, रिइफिकेशन के नाम से उन्हीं तमाम सरोकारों की टोह ली थी जिन्हें मार्क्स ने बेगानेपन का नाम दिया था । बहुत कुछ मार्क्स की ही तरह लूकाच ने भी इस अजनबियत की जड़ें पूंजीवाद के उस दोहरे किरदार में ढूंढी थीं जिसके कारण एक तरफ़ वह हर शै का कमॉडिफिकेशन कर देता है, तो दूसरी तरफ़, पैदावार की प्रणाली का मशीनीकरण और विखंडन (फ्रैग्मेंटेशन) करके इनसानी शख़्सियत को भी खुद से बेगाना (सेल्फ- एस्ट्रेंजमेंट) बना देता है ।

10- फ़्रांस के प्रख्यात दार्शनिक लुई अलथुसे ने मार्क्स की विरासत पर चल रही बहस को एक नए मुक़ाम तक पहुँचाया । उन्होंने जवान मार्क्स बनाम बुजुर्ग मार्क्स की दो अलग-अलग विरासतों को चर्चा का केन्द्र बनाया ।अलथुसे के अनुसार जो जवान मार्क्स पाण्डुलिपियों के माध्यम से उजागर होते हैं वे प्राक्- मार्क्सवादी मार्क्स हैं जो उस वक़्त अपनी हीगेलीय व फायरबाखीय विरासत से जूझ रहे हैं । जिनके सरोकार तो बुजुर्ग मार्क्स जैसे ही हैं, मगर जिनकी भाषा, शब्दावली और सैद्धांतिक ढाँचा वैज्ञानिक नहीं है ।1844 के मार्क्स का नज़रिया फ़ायरबाख- परस्त नज़रिया है ।

11- अलथुसे की राय में विज्ञान और आइडियोलॉजी दुनिया को देखने के परस्पर विरोधी अंदाज हैं ।आइडियोलॉजी का अर्थ यहाँ हिन्दी में उसके प्रचलित अर्थ यानी विचारधारा से बिल्कुल जुदा है ।बक़ौल अलथुसे आइडियोलॉजी न तो भ्रांत चेतना है और न ही उसकी पहचान सच या झूठ के आधार पर हो सकती है । आइडियोलॉजी तो अर्थों का पूरा तंत्र है, जो यथार्थ के साथ एक ख्याली रिश्ता क़ायम करता व रखता है । इससे वह ग़लत, असत्य या झूठ नहीं हो जाता है बल्कि व्यक्ति को एक सब्जेक्ट के रूप में गढ़ता है । लिहाज़ा उसका ताल्लुक़ दुनिया के उस अक्स या नक्श से है जो सब्जेक्ट और उसकी दुनिया के रिश्ते को परिभाषित करता है ।

12- लुई अलथुसे नवीन पांडुलिपियों के मार्क्सवाद को एक अवैज्ञानिक ख़याल मानते हैं और दावा करते हैं कि वास्तव में मार्क्सवाद एक अ- मानवतावादी दर्शन है । यहाँ अ- मानवतावाद मार्क्सवाद के सरोकारों के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि उसके ज्ञान दर्शन के सम्बन्ध में इस्तेमाल किया गया है : तर्क यह है कि मार्क्सवाद के लिए मानव समाज के विश्लेषण की इकाई मानव नहीं, उत्पादन प्रणाली और उत्पादन के रिश्ते हैं । वास्तव में मार्क्स के बाद की दुनिया की हर विचारधारा, हर फ़लसफ़ा, उसकी विरासत की क़र्ज़दार है ।मार्क्स की खोज में एक निरंतरता है । मार्क्स के लिए बुनियादी सवाल यह था कि ज्ञानार्जन का क़ायदा क्या हो ?

13- मार्क्सवादी विमर्श की बुनियादी प्रस्थापना यह है कि अपनी ज़िंदगी जीने के लिए इनसान लगातार उत्पादन करता है । इस प्रक्रिया में वह अपने उत्पादन के औज़ार बेहतर करता चला जाता है ।उत्पादन के यह औज़ार समाज में ख़ास तरह के पैदावार के रिश्ते बनाती हैं । अगर यह औज़ार निचले दर्जे के हैं तो ज़्यादा श्रम और सामूहिक श्रम ज़रूरी हो जाता है ।जैसे-जैसे यह विकसित होते हैं वैसे-वैसे कम श्रम में ज़्यादा उत्पादन हो सकता है, अतिरिक्त उत्पादन सम्भव हो जाता है और तभी ज़रूरत से ज़्यादा इस अतिरिक्त को हड़पने की कोशिश भी होती है । पैदावार के रिश्ते जब तक उत्पादन की शक्तियों के विकास में सहायक होते हैं तब तक एक ख़ास तरह की समाज व्यवस्था क़ायम रह पाती है । एक समय आता है जब इसमें टकराव शुरू हो जाता है और तब सामाजिक क्रान्ति का दौर शुरू होता है ।

14- मशहूर इतालवी दार्शनिक लूचियो कोलेटी ने लिखा है कि, “ऐसा नहीं था कि मार्क्स ने विशुद्ध आर्थिक विश्लेषण से शुरुआत की हो और फिर उसमें ऐतिहासिक और राजनीतिक तत्वों के तथ्य भर दिए हों । उन्होंने दो अलग-अलग पैमानों को लेकर अपना काम नहीं किया, बल्कि शुरुआत से ही ऐसी अवधारणाओं का इस्तेमाल किया जो अपने अन्दरूनी, बुनियादी ढाँचे में, एकबारगी उत्पादन के कारण भी थे और सामाजिक- ऐतिहासिक कारिंदे भी । उनकी अवधारणाएं आर्थिक और ऐतिहासिक दोनों थीं और हैं ।” कोलेटी ने अपने समर्थन में प्रख्यात अर्थशास्त्री जोसेफ शुम्पीटर के बयान को उद्धृत करते हुए कहा कि, ‘ हमने देखा कि किस तरह मार्क्सवादी तर्क में समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र एक दूसरे में गुँथे हुए हैं ।’

15- मार्क्स के दार्शनिक विकास में नींव और ऊपरी ढाँचे के सवाल पर हेलमुट फ्लेशेर ने 1973 में प्रकाशित अपनी पुस्तक मार्क्सिज्म ऐंड हिस्ट्री में लिखा, “पहले मार्क्स इतिहास के कर्तव्यों के बारे में और इतिहास की सेवा में दर्शन के बारे में बात किया करते थे, मगर अब वे पुरज़ोर ढंग से इतिहास के दैवीकरण के हर विचार को नकारते हैं । इतिहास कुछ नहीं करता, उसके पास कोई ज़बरदस्त ख़ज़ाना नहीं है, वह कोई लड़ाइयाँ नहीं लड़ता, बल्कि वह इनसान है। असली जीता- जागता इनसान जो यह सब करता है,… इतिहास नाम की ऐसी कोई चीज नहीं है जो इनसान को अपने मक़सद के लिए इस्तेमाल करती है… गोया वह कोई स्वतंत्र व्यक्ति हो… क्योंकि इतिहास और कुछ भी नहीं सिवाय इनसान के अमल के जो लगातार अपने मक़सद हासिल करने की कोशिश में है ।

16- मार्क्सवादी चिंतन में 1859 के प्रस्तावना में इस्तेमाल की गई नींव व ऊपरी ढाँचे की उपमा एक थियरी का दर्जा पा गयी । मार्क्स ने अपने तर्क को पेश करते हुए इस उपमा का सहारा लेते हुए कहा था कि आर्थिक ढाँचा समाज की नींव है और उसके ऊपर खड़ा राजनीतिक- वैधानिक- चेतना जगत गोया इमारत का ऊपरी ढाँचा है । यह भी सही है कि इस प्रस्तावना में मार्क्स ने यह दावा भी किया था कि नींव ही ऊपरी ढाँचे के रूपों को निर्धारित करती है । दरअसल, नींव और ऊपरी ढाँचे की समस्या प्रकारान्तर से दर्शन की उसी पुरानी समस्या का पुनराविर्भाव था कि चेतना पहले आती है या पदार्थ पहले ?

17- फ़ायरबाख के यांत्रिक भौतिकवाद से अपना हिसाब चुकता करते समय मार्क्स ने अपनी रचना थिसिज ऑन फ़ायरबाख की पहली ही थिसिज में लिखा था कि, “अब तक के तमाम पुराने भौतिकवाद की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि वस्तु (ऑब्जेक्ट), यथार्थ (एक्चुएलिटी) या भौतिक (सेंसुअसनेस) को वे महज़ वस्तु या एहसास के रूप में देखते हैं, महसूस करने वाले इनसानी अमल (प्रैक्टिस) के रूप में नहीं ।न ही वे उसे मनोगत/चेतनागत रूप में देखते हैं । लिहाज़ा भौतिकवाद के विरोध में, इस सक्रिय पहलू को सिर्फ़ भाववाद ने ही विकसित किया… मगर अमूर्त रूप में… फ़ायरबाख भौतिक वस्तुओं को बौद्धिक वस्तुओं से अलग तो करना चाहते हैं, मगर वे इनसानी अमल को वस्तुगत या भौतिक के रूप में नहीं देख पाते ।”

18- मार्क्स का कथन है कि इनसान की चेतना उसके वजूद को निर्धारित नहीं करती, बल्कि, इसके विपरीत उसका सामाजिक वजूद उसकी चेतना को निर्धारित करता है । अर्थात् चेतना निर्जीव भौतिक पदार्थ से नहीं, बल्कि सामाजिक वजूद से पैदा होती है – यह मार्क्स का निष्कर्ष था । मार्क्स के नज़रिए में सामाजिक वजूद सक्रिय, सचेतन और अमल के सिवा कुछ भी नहीं है ।इस सन्दर्भ में कोलेटी का कहना है कि, ‘पूँजी का विषय एक समग्र विषय है और यह इसलिए, क्योंकि भौतिक और विचारधारात्मक स्तरों को अलग-अलग करना असम्भव है …वह एक ऐसी चीज़ है जो एक साथ सामाजिक वजूद भी है और सामाजिक चेतना भी ।’

19- स्टुअर्ट हॉल कहते हैं कि, ‘ लेनिन और ग्राम्शी के बाद से…जब तक पूलांत्साज और अलथुसे ने इस सवाल को फिर से दो टूक ढंग से एजेंडे में शामिल नहीं किया… ऊपरी ढाँचे का सवाल, अपने सही मार्क्सवादी अर्थों में बुरी तरह से उपेक्षित सवाल रहा है ।’ वह आगे कहते हैं कि परिवार, क़ानून, शिक्षा, समूचे सांस्कृतिक तामझाम, गिरजे आदि के बीच और उनके साथ राज्य के कामों के ज़रिए ही पूंजीवाद वस्तुतः एक उत्पादन प्रणाली मात्र न रहकर सामाजिक जीवन का एक मुकम्मल रूप बन जाता है जो बाक़ी हर चीज़ को अपने अधीन कर लेता है । हॉल के शब्दों में ग्राम्शी की वर्चस्व या हेजेमनी की अवधारणा शासन के लिए वैचारिक मंज़ूरी गढ़ने की प्रक्रिया है ।

20- अलथुसे का तर्क है कि सामाजिक- आर्थिक संरचना एक समग्र इकाई है- इसके तमाम स्तरों को अलहदा नहीं किया जा सकता है । आर्थिक- राजनीतिक इसके विभिन्न स्तर पर आयाम हैं जो एक दूसरे में गुँथे हैं ।यह तीनों आयाम अपनी- अपनी सापेक्ष स्वायत्तता तो लिए रहते हैं, मगर इनमें आर्थिक आयाम की एक मैट्रिक्स भूमिका होती है जो इन आयामों के चरित्र और रिश्तों को निर्धारित करती है । अलथुसे इसे स्ट्रक्चरल कॉजैलिटी की संज्ञा देते हैं ।इस विषय पर लुई अलथुसे की वर्ष 2005 में प्रकाशित पुस्तक फॉर मार्क्स एक महत्वपूर्ण कृति है ।

21- माओ का कहना था कि विचारधाराएँ अपने आप नहीं बदलतीं- उसके लिए लम्बे ऐतिहासिक संघर्षों की ज़रूरत होती है । वैचारिक संघर्ष का फ़ैसला होने में सैकड़ों साल लग सकते हैं ।इसलिए क्रान्ति एक चिरंतन प्रक्रिया है और चूँकि चेतना- संस्कृति भी बिना संघर्ष के नहीं बदलतीं, इसलिए आर्थिक नींव के बदल जाने के बाद भी सतत सांस्कृतिक क्रान्ति की ज़रूरत है । वह कहते हैं कि साम्यवाद के आगे जहाँ और भी हैं, साम्यवाद मानवता की आख़िरी मंज़िल नहीं है ।वास्तव में मार्क्सवाद ने मार्क्स के बाद एक लम्बा सफ़र तय किया है जिसमें वह अपने बौद्धिक ख़ज़ाने को काफ़ी समृद्ध कर पाया है ।

22- अमेरिकी बुद्धिजीवी एरिक ओलिन राइट कहते हैं कि, ‘ मेरा इरादा ऐसे विश्वास- समूह परिभाषित करने का नहीं है जिन्हें मानने के आधार पर किसी की मार्क्सवादी के रूप में गिनती हो सकती है ।बल्कि मैं मार्क्सवादी परम्परा के कुछ ऐसे बिन्दुओं का नक़्शा खींचना चाहता हूँ जिनके आधार पर उसकी पुनर्रचना हो सके ।’ राइट ने मार्क्सवादी चिंतन के तीन अवधारणागत बिन्दुओं को चिन्हित किया है : वर्ग विश्लेषण के रूप में मार्क्सवाद, इतिहास के सिद्धांत के रूप में मार्क्सवाद और मुक्तिवादी नैतिक सिद्धांत के रूप में मार्क्सवाद ।

23- जॉन बेलामी फॉस्टर ने वर्ष 2001 में प्रकाशित अपनी पुस्तक मार्क्सिज इकॉलॉजी : मैटीरियलिज्म ऐंड नेचर में लिखा है कि मार्क्स और एंगेल्स के लेखन में पारिस्थितिकी चिंताओं का बहुत स्थान है या कुछ संशोधनों के साथ मार्क्सवाद में पारिस्थितकीय चिंताओं को समायोजित किया जा सकता है । फ़ॉस्टर ने मार्क्स के पारिस्थितिकीय नज़रिए को समझने के लिए एक अहम संकल्पनात्मक श्रेणी के रूप में मेटाबॉलिज्म की समझ पर बल दिया है । इसका तात्पर्य पदार्थिक विनिमय है । मेंटाबॉलिज्म शब्द में जैविक वृद्धि या क्षरण की संरचनात्मक प्रक्रियाओं की अवधारणा शामिल है ।

24- जॉन बेलामी फॉस्टर ने मार्क्स के कथन को उद्धृत करते हुए कहा कि, ‘ सबसे पहले श्रम, मानव और प्रकृति के बीच एक प्रक्रिया है ।ऐसी प्रक्रिया, जिसके द्वारा मानव स्वयं एवं प्रकृति के बीच मेटाबॉलिज्म को अपनी क्रियाओं से केन्द्रित, नियमित और नियंत्रित करता है । वह प्राकृतिक शक्तियों को गतिशील करता है… ताकि अपनी ज़रूरतों के हिसाब से वह प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग कर सके । इस कार्य द्वारा वह बाहरी प्रकृति पर कार्य करता है और उसे बदलता है । इस तरीक़े से वह स्वयं अपनी प्रकृति में परिवर्तन करता है ।’ बेलामी मानते हैं कि मार्क्स का मेटाबॉलिज्म सम्बन्धी सिद्धांत उनकी 1844 की पांडुलिपियों में प्रकृति पर मानव की गहरी निर्भरता के विचार का अधिक व्यवस्थित, वैज्ञानिक और प्रौढ़ रूप है ।

25- नरेश गोस्वामी ने समाज विज्ञान विश्वकोश में लिखा है कि मार्क्स अपने प्रारम्भिक लेखन में इतिहास को प्रगति की एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं जो मनुष्य की बेगानगी और सामाजिक संरचना के अतिशय केन्द्रहीन हो जाने जैसी नकारात्मक स्थितियों से गुजरते हुए अंततः मानवीय, मुक्त और रैशनल समुदाय की स्थापना में परिणति होती है । इसके बाद द होली फ़ैमिली, द कण्डिशन ऑफ वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड तथा द जर्मन आइडियोलॉजी जैसी रचनाओं में दोनों विद्वान इतिहास को किसी लक्ष्य या तार्किक परिणति की ओर बढ़ती प्रक्रिया के बजाय व्यक्तियों और समूहों की गतिविधियों तथा परिस्थितियों से उपजे अनिश्चित परिणाम की तरह देखने लगते हैं ।

26- मार्क्स के अनुसार इतिहासकार का काम ऐतिहासिक विकास की भीतरी और अदृश्य नियमों को उजागर करना है । द जर्मन आइडियोलॉजी (1845-46) तथा कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो (1848) में मार्क्स और एंगेल्स क़स्बों, व्यापार और शहरी बूर्ज्वाजी के विकास पर ख़ास ज़ोर देते हैं जबकि ग्रंडरिस्से और कैपिटल जैसी परवर्ती रचनाओं में वे खेती के रूपांतरण और किसान उत्पादकों के अतिरिक्त दोहन पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं । उनके सामाजिक संरचना और ऐतिहासिक परिवर्तन सम्बन्धी सूत्रीकरण मुख्यतः द जर्मन आइडियोलॉजी तथा अ कन्ट्रीब्यूशन टू द क्रिटीक ऑफ पॉलिटिकल इकॉनॉमी के प्राक्कथन में मिलते हैं ।

27- आधुनिक समाजशास्त्र के दोनों प्रमुख संस्थापक वेबर और दुर्खाइम मार्क्स की अवधारणाओं के आलोचक थे और उनकी स्थापनाएँ मार्क्स की प्रमुख प्रपत्तियों का स्पष्ट खंडन करती हैं । रूसी मार्क्सवादी सिद्धांतकार निकोलाई बुखारिन ने जब 1921 में हिस्टेरिकल मैटेरियलिज्म : अ सिस्टम ऑफ सोसियोलॉजी की रचना की तो लूकॉच, ग्राम्शी और कोर्श जैसे सिद्धांतकारों ने इस स्थापना का विरोध किया । कम्युनिस्ट पार्टियॉं समाजशास्त्र को पूँजीपति वर्ग की सेवा करने वाला शास्त्र करार देने लगीं । बीसवीं सदी के मध्य तक रूस और चीन समेत लगभग सभी समाजवादी देशों में समाजशास्त्र को पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया ।

28- मार्क्सवादी विमर्श में समाजशास्त्र की पहली व्यवस्थित अभिव्यक्ति ऑस्ट्रो मार्क्सिज्म के रूप में सामने आयी जिसके विद्वानों ने पूंजीवाद के विकास, वर्ग संरचना, क़ानून, राज्य, राष्ट्रीयताओं और राष्ट्रवाद के विस्तृत समाजशास्त्रीय अध्ययन पेश किए । इसमें पहले क़िस्म के समाजशास्त्री वे हैं जो मार्क्सवादी विचार परम्परा के दायरे में रह कर समाजशास्त्रीय अन्तर्दृष्टियों, अनुसंधान पद्धतियों और सामान्य निष्कर्षों का इस्तेमाल करते हैं । दूसरे क़िस्म के समाजशास्त्री वे हैं जो मार्क्स द्वारा प्रस्तावित ऐतिहासिक दृष्टिकोण और समाज को समग्र नज़रिए से देखकर उसके विकास को प्रश्नांकित करने के वैचारिक साहस से प्रभावित हैं ।

29- तीसरे प्रकार के समाजशास्त्री वह हैं जो मज़दूर वर्ग द्वारा क्रान्ति करने की अनिवार्यता से सहमत न होते हुए भी मार्क्सवादी विचार परम्परा के मुक्तिकामी तत्वों का आगे विकास करना चाहते हैं ।फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल द्वारा प्रतिपादित क्रिटिकल थियरी इसी रवैये का परिणाम है । सत्तर के दशक में अमेरिकी समाजशास्त्र के दायरों में मार्क्सवाद का नए सिरे से उभार हुआ ।इसकी पहली प्रेरणा का स्रोत मंथली रिव्यू जैसी चर्चित पत्रिका थी । दूसरी प्रेरणा उन मार्क्सवादी इतिहासकारों से प्राप्त हुई जो अमेरिकी उदारतावाद की आलोचना करते हुए अमेरिकी इतिहास की वर्ग आधारित पुनर्व्याख्या कर रहे थे ।

30- राज्य और उसकी संकटग्रस्तता के संदर्भ में मार्क्सवादी समाजशास्त्रियों ने समृद्ध विमर्श की रचना की ।इस सिलसिले में राल्फ मिलिबैंड और निकोस पूलांत्साज के बीच की बहस उल्लेखनीय है । मिलिबैंड का कहना था कि आर्थिक अभिजनों और प्रभुत्वशाली वर्ग की राजसत्ता के बीच एक वास्तविक तथ्यगत सम्बन्ध होता है । इसलिए राज्य की संस्था वर्गीय हुकूमत का औज़ार बन जाती है ।जबकि पूलांत्साज का तर्क था कि राज्य की भूमिका इन दोनों के बीच सुसंगति क़ायम करने की है जिसे निभाने के लिए उसे सापेक्षिक स्वायत्तता की ज़रूरत पड़ती है ।

31- फ़िलेडेल्फ़िया, पेंसिलवेनिया अमेरिका के एक क्वेकर ईसाई परिवार में जन्मीं अमेरिकन सांस्कृतिक मानवशास्त्री मार्गरेट मीड (1901-1978) मानती थीं कि आदिम संस्कृति के अध्ययन के ज़रिए आधुनिक जगत की बेहतर समझ हासिल की जा सकती है । साठ और सत्तर के दशक में अमेरिकी समाज में सेलेब्रिटी का दर्जा हासिल करने वाली वे सम्भवतः पहली मानवशास्त्री थीं । वह न्यू स्कूल और कोलम्बिया विश्वविद्यालय में मानवशास्त्र की प्रोफ़ेसर थीं ।वर्ष 1960 में वह अमेरिकी मानवशास्त्र एसोसिएशन की अध्यक्ष भी रहीं ।

32- सैद्धान्तिक रूप से मार्गरेट मीड का विमर्श अपनी सहयोगी विद्वान और मित्र रूथ बेनेडिक्ट की तरह ही मनोवैज्ञानिक मानवशास्त्र की श्रेणी में आता है । मानवशास्त्र की इस प्रवृत्ति को कल्चर ऐंड पर्सनालिटी के लकब से भी जाना जाता है । मीड की दिलचस्पी व्यक्तित्व पर पड़ने वाले सांस्कृतिक प्रभावों के अध्ययन पर थी । उनकी पहली पुस्तक कमिंग ऑफ एज इन समोआ : अ साइकोलॉजिकल स्टडी ऑफ प्रिमिटिव यूथ फ़ॉर वेस्टर्न सिविलाइजेशन वर्ष 1928 में कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयार्क से प्रकाशित हुई । यह पुस्तक किशोरावस्था में पैदा होने वाली बेचैनियों पर निगाह डालती है ।

33- मार्गरेट मीड की वर्ष 1935 में रूटलेज, लंदन से सेक्स ऐंड टेम्परामेंट इन थ्री प्रिमिटिव सोसाइटीज नामक पुस्तक प्रकाशित हुई । यौन क्रान्ति पर असर डालने वाली यह विख्यात रचना है । इस पुस्तक में मीड ने सौ मील की त्रिज्या के दायरे में रहने वाले तीन समुदायों, अरपेश, मुंडुगुमोन और शाम्ब्री का व्यावहारिक अध्ययन पेश किया ।9 जनवरी, 1979 को अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने मीड को मृत्योपरांत प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ़्रीडम से सम्मानित करने का एलान किया ।वर्ष 1983 में न्यूज़ीलैंड के मानवशास्त्री डेरेक फ़्रीमैन ने अपनी पुस्तक मार्गरेट मीड ऐंड सामोआ : द मेकिंग ऐंड अनमेकिंग ऑफ एन एंथ्रोपोलोजिकल मिथ के माध्यम से मीड के प्रमुख निष्कर्षों की प्रामाणिकता को चुनौती दी ।

34- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के उत्तराधिकारी माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (1906-1973) हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के शीर्ष संगठक और सिद्धांतकार थे । उन्होंने अपनी रचनाओं वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड और बंच ऑफ थाट्स के ज़रिए न केवल हिन्दू राष्ट्रवाद की उत्तर- सावरकर राजनीति को विचारधारात्मक आधार प्रदान किया, बल्कि पूरे 33 साल तक संघ का नेतृत्व करके उसे एक मज़बूत राष्ट्रव्यापी संगठन बनाने में सफलता हासिल की । अपने अनुयायियों के बीच गुरू जी के सम्बोधन से लोकप्रिय गोलवलकर की रणनीतिक कल्पनाशीलता और नियोजित प्रयास बेमिसाल थे ।

35- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा भारतीय जनसंघ, छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद, ट्रेड यूनियन संगठन भारतीय मज़दूर संघ, विश्व हिन्दू परिषद, सरस्वती शिशु मंदिर और ऐसे ही कई उल्लेखनीय संगठनों की नींव उन्हीं के निर्देशन और प्रेरणा का नतीजा है । नब्बे के दशक में चले रामजन्मभूमि आंदोलन के प्रमुख नारे गर्व से कहो हम हिन्दू हैं का सूत्रीकरण गोलवलकर ने ही अपने कार्यकाल में किया था । उनका जन्म 19 फ़रवरी, 1906 को नागपुर के निकट रामटेक के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था । 1931 में वह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय बनारस में जीव विज्ञान के प्रोफ़ेसर बने ।

36- गुरु गोलवलकर का दावा था कि भारत तो पहले से ही हिन्दुओं का एक प्राचीन राष्ट्र है ।उन्होंने जिस हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना पेश की उसमें अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं थी । उनकी निगाह में यहूदी और पारसी जैसे अल्पसंख्यक इस देश में मेहमानों की तरह रहने आए थे और मुसलमान तथा ईसाई हमलावरों की तरह । उन्होंने ईसाइयों और मुसलमानों के साथ- साथ कम्युनिस्टों को भी आन्तरिक ख़तरे के मुख्य स्रोतों की तरह शिनाख्त की । गोलवलकर ने इज़राइल की स्थापना और यहूदियों द्वारा अपनी नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा की रक्षा करने के प्रयासों की सराहना भी की है ।

37- डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सहयोग से गोलवलकर ने भारतीय जनसंघ का गठन किया जिसका मक़सद सक्रिय राजनीति में भागीदारी के ज़रिए हिन्दुत्ववादी उद्देश्यों का प्रचार करना था ।1964 में मुम्बई के संदीपनी आश्रम में विश्व हिन्दू परिषद के गठन के पीछे भी गोलवलकर की प्रेरणा और प्रयासों की ही भूमिका थी । 5 जून, 1973 को कैंसर की बीमारी से नागपुर में गोलवलकर का निधन हो गया । अपने जीवन में उन्हें दो बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी ।वर्ष 1987 में वाल्टर के. एंडरसन और श्रीधर डी. दामले ने द ब्रदरहुड इन सैफ्रॉन : द राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐंड द हिन्दू रिवाइवलिज्म नामक पुस्तक प्रकाशित की ।

38- सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा किए जा सकने वाले अतिक्रमण से व्यक्ति के अधिकारों को बचाने की चिंताओं ने मानवाधिकारों की अवधारणा को जन्म दिया । 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी मानवाधिकारों की सार्वभौम उद्घोषणा एक बुनियादी दस्तावेज़ है । ऐतिहासिक सन्दर्भ में मानवाधिकारों का पहला ज़िक्र जर्मनी में 1925 के किसान युद्ध के दौरान जारी हुए ट्वेल्व आर्टीकिल्स ऑफ ब्लैक फोरेस्ट में मिलता है । यह आर्टीकल्स किसानों के मॉंगपत्र का एक हिस्सा थे । 1688 में ब्रिटिश बिल ऑफ राइट्स, अमेरिकी क्रान्ति और 1789 की फ़्रांसीसी क्रांति में भी मानवाधिकारों की झलक मिलती है ।

39- 1931 में विलियम लॉयड गैरिसन के लेखन में द ग्रेट कॉज ऑफ ह्यूमन राइट्स जैसी अभिव्यक्ति का ज़िक्र मिलता है । उन्नीसवीं सदी में चली दास प्रथा विरोधी मुहिम ने भी मानवाधिकारों के मुद्दे को रेखांकित किया ।मानवाधिकारों के सिलसिले में जिनेवा कन्वेंशन भी उल्लेखनीय है । रेडक्रास के संस्थापक हेनरी दुनांत के प्रयासों के फलस्वरूप यह कन्वेंशन स्वीकृत हुआ । इसके अतिरिक्त अफ्रीकन चार्टर ऑन ह्यूमन ऐंड पीपुल्स राइट्स, द अमेरिकन कन्वेंशन ऑन ह्यूमन राइट्स और यूरोपियन कन्वेंशन ऑन ह्यूमन राइट्स भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं ।

40- अराजकतावाद के पैरोकारों की मान्यता है कि राज्य पूरी तरह से अनावश्यक बुराई है ।रूसी अराजकतावादी दार्शनिक पीटर क्रोपाटकिन मानवीय प्रकृति को ही सर्वोत्तम मानते थे । उनका विचार था कि राज्य के प्राधिकार का दूषित प्रभाव और पूंजीवाद द्वारा किया जाने वाला शोषण ही मनुष्य को उसकी मूलभूत श्रेष्ठता से भटकाता है । मानवीय प्रकृति के जैविक सिद्धांत के शीर्ष पर चार्ल्स डार्विन की रचना ऑन द ओरिजिंस ऑफ स्पीशीज (1959) स्थित है । डार्विन की खोज के आधार पर सामाजिक डार्विनवाद का सूत्रीकरण हरबर्ट स्पेंसर ने किया ।

41- फ़्रांसीसी अस्तित्ववादी दार्शनिक ज्यॉं- पॉल सार्त्र के अनुसार ऐसी कोई इंसानी फ़ितरत होती ही नहीं है जिसके मुताबिक़ व्यक्ति अपना आचार- व्यवहार तय करता हो । मनुष्य का सार तो बाद में बनता है, उसका अस्तित्व पहले होता है । वह अपनी स्वतंत्रता का आनंद लेकर खुद को परिभाषित करता है जिसकी अभिव्यक्ति उसके कार्य- व्यवहार से होती है । किसी भी तरह की निर्धारित मानवीय प्रकृति के साथ उसे बांधना उसकी इस आज़ादी का अपमान है । सन् 1816 में प्रकाशित अपनी रचना अ न्यू व्यू ऑफ द सोसाइटी में समाजवादी चिंतक रॉबर्ट ओवेन ने दावा किया था कि किसी भी समुदाय में अच्छा या बुरा, ज्ञानी या अज्ञानी चरित्र विकसित किया जा सकता है ।

42- बीसवीं सदी में कोनार्ड लोरेंज और निकोटिम्बरगन ने पशुओं के व्यवहार का विस्तार से अध्ययन किया और मानवीय प्रकृति से सम्बन्धित सिद्धांत प्रस्तावित किए । इन अध्ययनों के प्रभाव में युद्ध और सामाजिक हिंसा के कारणों को खोजने की कोशिशें की गयीं ।सत्तर के दशक में सामाजिक- जैविकी के अनुशासन का उदय हुआ और क्रम विकासात्मक मनोविज्ञान उभरा । ज्ञान- विज्ञान के क्षेत्र में इन आयामों के गर्भ से बायोटिक क्रान्ति निकली और मानवीय डी एन ए पर पड़ा पर्दा हटा । रिचर्ड डॉकिंस ने 1989 में प्रकाशित अपनी रचना द सेल्फिश जीन के ज़रिये मनुष्य को जीन मशीन के रूप में दिखाया और दावा किया कि इनसान की ख़ुदगर्ज़ी और परोपकार का मूल उसकी जैविकी में निहित है ।

43- मानववाद ऐसी किसी भी विचार- प्रणाली को कहा जा सकता है जो मानती हो कि मनुष्य हर चीज का मानक है । मानववाद, मनुष्य की हैसियत, शक्ति, उपलब्धियों, सम्भावनाओं, रुचियों, सरोकारों और उसके प्राधिकार की संरचनाओं को अपना केन्द्रीय सरोकार बनाता है ।इस सन्दर्भ में सन् 1947 में मार्टिन हाइडेगर की रचना लैटर ऑन ह्यूमनिज्म का प्रकाशन हुआ । हाइडैगर ने तर्क दिया कि प्रत्येक मानववाद का आधार या तो तत्त्वमीमांसा में निहित है या वह खुद को किसी न किसी तत्त्वमीमांसा का आधार बना लेता है । उनके अनुसार मानववाद मनुष्य की मानवता के साथ न्याय नहीं कर पाता क्योंकि मनुष्य की हैसियत स्वामी की न होकर एक खेवनहार जैसी है ।

44- सन् 1962 में प्रकाशित अपनी रचना द सेवेज माइंड में लेवी- स्त्रास ने विज्ञानसम्मत मानवशास्त्र को लाजमी तौर पर साम्राज्यवाद विरोधी, ऐतिहासिकतावाद के खिलाफ और मानववाद- विरोधी करार दिया ।उन्होंने रैडिकल घोषणा की कि मानव- विज्ञानों का अंतिम लक्ष्य विधेयक तत्वों की खोज के ज़रिये मनुष्य को रचने के बजाय उसका विसर्जन होना चाहिए । सन् 1968 के बाद उत्तर- संरचनावाद का दौर आया । इसमें नीत्शे के विचारों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए फूको ने कहा कि किसी भी पाठ के अर्थ का उत्पादन और उसके आधार पर बनने वाली आत्मपरकता दरअसल समाज में चल रहे सत्ता सम्बन्धी विमर्शों का नतीजा होती है ।

45- मानवेन्द्र नाथ राय (1887-1954) अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के विकास में अहम भूमिका निभाने वाले और रैडिकल ह्यूमनिज्म के प्रतिपादक थे ।उनका मानना था कि भारत में बुर्जुआ वर्ग अन्य उपनिवेशों से कहीं ज़्यादा विकसित हो चुका है । वह कहते थे कि भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया तेज होती जा रही है इसलिए भारतीय बुर्जुआ मौजूदा अवसरों का अधिकतम लाभ उठाना चाहेगा । राय का मत था कि भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को कांग्रेस और गांधी के नेतृत्व में चलाये जा रहे मध्यवर्गीय राष्ट्रीय आन्दोलन से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए । उनकी रचना इंडिया इन ट्रांज़िशन महत्वपूर्ण कृति है ।

46- फ़्रांसीसी विद्वान मारसेल मौज (1872-1950) को प्राक- औद्योगिक और लघु संस्कृतियों में जादू, बलि और उपहारों के आदान-प्रदान का अध्ययन करके आधुनिक मानवशास्त्र को मानकीय रूप से समृद्ध करने का श्रेय जाता है । वह विख्यात समाजशास्त्री एमील दुर्खाइम के भतीजे थे । मौज के अध्ययनों ने कालान्तर में संरचनागत मानवशास्त्र के संस्थापक क्लॉद लेवी- स्त्रास पर भी गहरा प्रभाव डाला । मारसेल मौज का जन्म इस्पिनाल, वोजेज (फ़्रांस) के एक यहूदी परिवार में हुआ था । उनकी सबसे महत्वपूर्ण रचना द गिफ़्ट : फॉर्म्स ऐंड फ़ंक्शंस ऑफ एक्सचेंज इन आर्काइक सोसाइटीज है, जो रॉटलेज, लंदन से प्रकाशित हुई है ।

47- मारसेल मौज ने अपनी रचना द गिफ़्ट में दिखाया कि उपहारों का लेन देन पारस्परिक नैतिक दायित्व की एक ऐसी अनुभूति को जन्म देता है जो पूरे समाज को प्रभावित करती है । तोहफ़ा देने की मासूम सी लगने वाली कार्रवाई समाज के आर्थिक, विधिक, राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्रों पर असर डालकर एक सम्पूर्ण सामाजिक तथ्य बन जाती है । वह कहते हैं कि तोहफ़ा कभी मुफ़्त में नहीं मिलता । मानव समाज का इतिहास बताता है कि तोहफ़ा आपसी लेन- देन को जन्म देता है । यह विनिमय आर्थिक भी हो सकता है और राजनीतिक भी । यह विनिमय व्यक्तिगत भी हो सकता है और सामाजिक भी ।

48- मारसेल मौज मानते हैं कि तोहफ़े में वह ताक़त निहित होती है जिसके कारण उसे लेने वाले के भीतर कुछ देने की कामना पैदा हो जाती है । उन्होंने उपहार देने की प्रक्रिया को आध्यात्मिक और भौतिक के जादुई दोराहे पर स्थित बताया और कहा कि उसे देने वाला केवल एक वस्तु का हस्तांतरण ही नहीं करता, बल्कि साथ में अपने वजूद का एक हिस्सा भी प्रदान कर देता है । विनिमय की प्रक्रिया के दौरान उपहार दोनों पक्षों के साथ अभिन्न होकर एक सामाजिक बंधन को जन्म देता है जिसके तहत प्राप्तकर्ता का दायित्व उस समय तक पूरा नहीं होता जब तक वह बदले में कुछ न दे दे ।ऐसा करने में विफल रहने पर प्राप्तकर्ता की प्रतिष्ठा और हैसियत पर ऑंच आती है ।

49- मौज के उपहार सिद्धांत का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उपहार की अविभाज्यता है । अर्थात् उपहार देने और उपहार लेने वाले के अस्तित्व का अभिन्न अंग हो जाता है ।मौज के एक शिष्य मॉरिस लीनहार्ट ने उपहार को एक सम्पूर्ण सामाजिक तथ्य करार दिया, क्योंकि सामाजिक जीवन का कोई भी क्षेत्र उसके प्रभाव से अछूता नहीं रहता । यहाँ तक कि राजनीति में भी एक सम्भावित नेता उपहार के बदले निष्ठा की अपेक्षा करता है और अधिकतर मामलों में उसकी वह अपेक्षा पूरी होती है ।मौज ने एमील दुर्खाइम के साथ मिलकर प्रिमिटिव क्लासिफिकेशन का लेखन किया । हेनरी ह्यूबर्ट के साथ मिलकर उन्होंने आउटलाइन ऑफ जनरल थियरी ऑफ मैजिक और ऐसे ऑन द नेचर ऐंड फ़ंक्शन ऑफ सेक्रीफाइस की रचना की ।

50- मीडियम का बहुवचन है मीडिया । हर वह चीज मीडियम है जिसके ज़रिये किसी संदेश का सम्प्रेषण होता है । इसके तहत सामग्री का प्रवाह मुख्यतः एक से अनेक की ओर है और इसके उत्पादन में अनेक की भूमिका का तक़रीबन कोई वजूद नहीं है । वर्ष 2010 में दुनिया के सबसे बड़े मीडिया साम्राज्य की लगाम वाल्ट डिजनी कॉर्पोरेशन के हाथ में थी । इसके बाद न्यूज़ कॉर्पोरेशन, टाइम वारनर और वाइकॉम का नम्बर आता है ।वर्ष 2000 में प्रकाशित पीटर स्टीवन की कृति द नो- नान्सेंस गाइड टु ग्लोबल मीडिया इस विषय की महत्वपूर्ण पुस्तक है ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खंड 4, दूसरा संस्करण : 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7, से साभार लिए गए हैं ।

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