(सिमोन द बोउवार, सुकरात, सुब्रमण्यम भारती, सूचना, ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, सूफ़ी परम्परा सेकुलरवाद, सेकुलरीकरण, सेलिब्रिटी, सर सैयद अहमद खान, सोप ओपेरा, सोरेन आबी कीर्केगाद, हजरत मुहम्मद साहब, हजारी प्रसाद द्विवेदी, हरबर्ट स्पेंसर हरियाणा, हरित क्रान्ति, हन्ना एरेंत, हिन्दुत्व, हिमाचल प्रदेश, त्रिपुरा, तथा डेविड हेनरी थोरो)
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश), भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com
1- सिमोन द बोउवार (1908-1986) फ़्रांस की अस्तित्ववादी दार्शनिक, उपन्यासकार और पत्रकार हैं । वर्ष 1949 में प्रकाशित उनकी विख्यात रचना द सेकण्ड सेक्स को यूरोप और अमेरिका में दूसरी लहर की प्रणेता माना जाता है । इतिहास, मानवशास्त्र, मिथक, नृजातिवर्णन, जैविकी, साहित्य और समाजशास्त्र के औज़ारों का इस्तेमाल करके बोउवार ने साबित किया कि स्त्रियों को कैसे कमतर रखा जाता है जिसके कारण उनकी सृजनशीलता कुंठित हो गई है और वे आसानी से पराजय और दासता स्वीकार कर लेती हैं । उन्होंने अपने घनिष्ठ मित्र ज्यॉं- पॉल सार्त्र की 1943 में प्रकाशित रचना बीइंग ऐंड नथिंगनेस में प्रतिपादित अस्तित्ववादी श्रेणियों का इस्तेमाल भी किया और कई बार उनके परे भी गईं ।
2- सिमोन द बोउवार की रचना द सेकण्ड सेक्स दो खंडों में प्रकाशित एक बृहद रचना थी जो छपते ही बेहद लोकप्रिय हुई । बोउवार ने अपना वर्णन शब्दों की महिला के रूप में किया है । उनका यह कथन बहुत लोकप्रिय हुआ कि औरत पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है । उन्होंने दिखाया कि एक पित्रृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की स्थिति बहुत ही ऐतिहासिक और भौतिक सीमाओं से घिरी होती है । बोउवार ने यह भी कहा कि कई बार महिलाएँ भी अपने दमन को बढ़ावा देती हैं । बहुत से मौक़ों पर महिलाएँ जेंडर द्वारा तय की गई भूमिकाओें से बाहर काम करने की आज़ादी का उपयोग नहीं करतीं । उन्होंने एक व्यक्ति की आज़ादी और उस आज़ादी का उपयोग करने की उसकी सीमित सामर्थ्य के बीच अंतर किया ।
3- सिमोन द बोउवार ने अपनी पुस्तक द सेकण्ड सेक्स में दो मुख्य तर्क पेश किया : पहला, एक श्रेणी के रूप में महिला का निर्माण सामाजिक रूप से होता है, और दूसरा, ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को, हीगेलवादी शब्दों में अन्य के रूप में देखा जाता है । उनकी एक कृति वर्ष 1994 में अंग्रेज़ी में द एथिक्स ऑफ एम्बीगुइटी के रूप में प्रकाशित हुई । वर्ष 1954 में बोउवार की पुस्तक मंडारिंस प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में जर्मन क़ब्ज़े के खिलाफ फ़्रेंच प्रतिरोध का वर्णन किया गया है । 1954 में ही इस पुस्तक को पुरस्कृत किया गया । इस किताब में उन्होंने एक ऐसी महिला की स्थिति का वर्णन किया है जो एक बुरे विश्वास का प्रयोग कर रही है क्योंकि वह काफ़ी पहले ख़त्म हो चुके सम्बन्ध के बाहर निहित स्वतंत्रता को मान्यता देने से इंकार करती है ।
4- बोउवार ने चार खंडों में अपनी आत्मकथा लिखी । पहला खंड मेमॉयर्स ऑफ द ड्युटीफुल डॉटर 1954 में प्रकाशित हुआ । दूसरा खंड 1960 में द प्राइम ऑफ लाइफ़ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । 1963 में तीसरा खंड फ़ोर्स ऑफ कमस्टांसेज शीर्षक से प्रकाशित हुआ । बोउवार की माँ की मौत ऑंतों के कैंसर से 1963 में हो गई । मॉं की याद में उन्होंने 1964 में द वेरी इजी डेथ नामक किताब लिखी । आत्मकथा का चौथा खंड आल सैड एंड डन 1972 में प्रकाशित हुआ । वर्ष 1974 में वह नारी मुक्ति आन्दोलन की अध्यक्ष चुनीं गईं । 1978 में उनके जीवन पर एक फ़िल्म बनाई गई । 1979 में उनके आजीवन साथी रहे सार्त्र की मृत्यु हो गयी । 14 अप्रैल, 1986 को बोउवार का निधन हो गया । प्रभा खेतान ने बोउवार की पुस्तक द सेकण्ड सेक्स का संक्षिप्त हिन्दी रूपांतर स्त्री : उपेक्षिता के नाम से 1998 में प्रकाशित किया है । इसे हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली ने छापा है ।
5- सुकरात (469-399 ईसा पूर्व) प्राचीन एथेंस के महान दार्शनिक थे । उन्हें पश्चिमी दर्शन का पितामह माना जाता है, बावजूद इसके कि उन्होंने कभी कुछ नहीं लिखा ।वे मुख्यतः वाचिक परम्परा के दार्शनिक थे । सुकरात के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए उनके शिष्य जेनोफोन और अफ़लातून (प्लेटो) की रचनाओं का सहारा लेना पड़ता है । सुकरात के चिंतन ने पिछली सहस्राब्दियों में मानवीय चिंतन को गहराई से प्रभावित किया है । सुकरात ख़ुद को अज्ञानी कहकर स्वघोषित विशेषज्ञों और जानकारों के घमंड भरे दावों को भीतर तक हिला देते थे । इससे नए विचारों के विकास के लिए रास्ता साफ़ करने में मदद मिलती थी । वह ऐसे अनूठे दार्शनिक थे जिन्होंने अपने विचारों के लिए जान देना पसंद किया ।
6- सुकरात के लिए दार्शनिक का मतलब था एक ऐसा विनम्र व्यक्ति जो ख़ुद को अज्ञानी समझता हो । उसकी निगाह में ऐसा व्यक्ति ही दार्शनिक अर्थात् प्रज्ञा का सच्चा प्रेमी हो सकता है । प्लेटो के मुताबिक़ सुकरात ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति स्वत: ग़लत काम नहीं करता । इसका मतलब था हर ग़लत काम ज्ञान की कमी का फलितार्थ होता है । इसका विरोधाभासी मतलब यह निकलता है कि अच्छा काम करना अथवा सद्गुण सम्पन्न होना ही ज्ञान है । इसे ही सोक्रेटिक पैराडॉक्स कहा जाता है । दूसरी सदी के ईसाई चिंतकों तथा पन्द्रहवीं सदी के नव- प्लेटो वादियों ने सुकरात को ईसा के पूर्वगामी होने का दर्जा देकर सम्मानित किया । मध्ययुगीन इस्लाम में सुकरात को मूर्तिपूजा के विरूद्ध बोलने वाले एकेश्वरवाद के समर्थक के रूप में देखा गया ।
7- सुकरात को रिनेसॉं और फिर ज्ञानोदय के दौर में मानवीय गुणों के ऐसे सर्वोत्तम प्रतिनिधि के रूप में चित्रित किया गया जिसके बुद्धिवाद को अँधविश्वास के हाथों अपनी बलि देनी पड़ी । आधुनिक दर्शन में हीगल, कीर्केगार्द और नीत्शे ने सुकरात को मानवीय चिंतन के विकास की धुरी मानकर उसके इर्द-गिर्द अपने दर्शन के कई पहलुओं की रचना की । मिशेल फूको के विचारों पर भी सुकरात का गहरा प्रभाव माना जाता है ।कार्ल पॉपर ने व्यक्तिवादी उदारतावादी चिंतक के रूप में पेश किया । सुकरात कहते थे कि स्वयं न परखा हुआ जीवन जीने योग्य नहीं होता । व्यक्ति ख़ुद को जितना अधिक जानेगा और बुद्धि आधारित चयन में जितना समर्थ होगा उसी के अनुपात में वह ख़ुशी हासिल करता चला जाएगा ।
8- सुकरात ने निष्कर्ष निकाला कि शासन का सबसे अच्छा रूप न तो निरंकुशता है और न ही लोकतंत्र । वही शासन अच्छा काम करता है जिसकी बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में हो जो योग्यता, ज्ञान और सद्गुणों में सबसे आगे हों । सुकरात दैहिक सौन्दर्य की जगह मस्तिष्क की श्रेष्ठता के पैरोकार थे । ईसा से 399 साल पहले सुकरात के ऊपर तीन आरोप लगाए गए । पहला, वे यूनान के देवी– देवताओं को मानने से इंकार करते हैं, दूसरा, वे नए देवताओं की तजवीज़ करते हैं और तीसरे, वे युवाओं को भ्रष्ट कर रहे हैं । तत्कालीन एथेंस के क़ानून के मुताबिक़ उन्हें मौत की सजा दी गई और उन्हें हेमलॉक नाम के ज़हर से भरा प्याला पीने का आदेश दिया गया ।इसी से उनका प्राणांत हुआ ।
9- सुब्रमण्यम भारती (1882-1921) आधुनिक भारतीय साहित्य निर्माताओं में से एक थे । उनका कृतित्व सांस्कृतिक नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन की लय से सम्पन्न था ।वे दृष्टा कवि, भारतीय नवजागरण के अग्रदूत तथा नयी वैचारिक संवेदना के संदेश वाहक हैं । भारती को देशभक्ति का कवि गायक माना जाता है । उनका जन्म तमिलनाडु के तिरुनेलवेली एट्टपुरम् ग्राम में हुआ था ।भारत की प्राचीन भाषाओं में तमिल का स्थान संस्कृत के बराबर है । इस भाषा के पास दो हज़ार वर्षों की सृजन चिंतन परम्परा का ख़ज़ाना है । तमिल परम्परा में 473 कवियों की पुष्प माला है जिसे एटटुनोगे तथा पात्तुपार में संकलित किया गया है । इस सम्मिलित रूप को ही संगम काव्य कहा जाता है । इसके बाद तमिल में महाकाव्य का युग आया ।
10- अनुसंधान से विवेक तक की यात्रा का पहला महत्वपूर्ण पड़ाव सूचना है । शोध और संग्रह से तथ्यों और सामग्री की प्राप्ति होती है जिनके सुव्यवस्थित रूप से सूचना बनती है । सूचना या सूचनाओं के आधार पर ज्ञान की संरचनाएँ खड़ी होती हैं । समाज विज्ञान की निगाह में सूचना एक ऐसा प्रतिमान है जिसके माध्यम से सामाजिक विकास की नयी प्रवृत्तियों की व्याख्या की जा सकती है । सूचना पर सैद्धांतिक चिंतन की शुरुआत 1948 में प्रकाशित क्लॉड शैनन के लेख द मैथेमेटिकल थियरी ऑफ कम्युनिकेशन से मानी जाती है । शैनन ने अपने इस लेख में संचार के तकनीकी पहलुओं को उसके समाजशास्त्रीय या दार्शनिक सार से काटकर देखने की कोशिश की । उनके अनुसार सूचना का स्रोत, ट्रांसमीटर, चैनल और रिसीवर तथा डेस्टिनेशन सूचना के प्रमुख घटक होते हैं ।
11- मार्शल मैकलुहन ने वर्ष 1964 में प्रकाशित अपनी पुस्तक अंडरस्टैंडिंग मीडिया में शैनन की ही तरह प्रौद्योगिकी के विश्लेषण को अधिक महत्व दिया, न कि प्रसारित संदेश की सारवस्तु को । इसलिए उनका निष्कर्ष इस मशहूर वाक्य के रूप में सामने आता है कि माध्यम ही संदेश है । डोना हरावे ने अपनी रचना सायबर्ग मेनिफेस्टो में सूचना, सत्ता और देह के बीच एक बेहद पेचीदा सूत्र पर विचार करती हैं । उनका विश्लेषण निष्कर्ष निकालता है कि सत्ता जिस तरह उत्पादन के दैहिक सम्बन्धों में निवास करती है, उसी तरह अब उसका वास सूचना प्रणालियों में भी है । प्रभुत्व के इन्फ़ॉर्मेटिक्स की चर्चा करते हुए हरावे दावा करती हैं कि कोडिंग से कुछ भी बचा नहीं रह गया है : न कोई वस्तु, न कोई स्पेस और न ही मानवीय देह ।
12- इमैनुअल कैसेल्स सूचना समाज के सबसे चर्चित सिद्धांतकार हैं जिनकी रचना द इनफ़ॉर्मेशन एज : इकॉनॉमी, सोसाइटी ऐंड कल्चर ने इस प्रत्यय को प्रचलित किया । ज्यॉं- फ्रास्वां ल्योतर ने भी 1979 में प्रकाशित अपनी रचना पोस्टमॉडर्न कण्डीशन में यह चौका देने वाला अवलोकन किया था कि कम्प्यूटरीकृत पूँजीवादी युग में ज्ञान परिवर्तित हुए बिना नहीं रह सकता । ल्योतर ने उसी समय देख लिया था कि ज्ञान सूचनात्मक पण्य बनता जा रहा है । मैकलुहन इसी बात को इस तरह से कहते हैं कि सूचना एक गैर विमर्शी कोड या डाटा है जिसे टीवी के छोटे-छोटे साउंड बाइट्स की तरह से उत्पादित किया जाता है और मनुष्य जिसका मशीनों की तरह से उपभोग करते चले जाते हैं ।
13- सांस्कृतिक एकता के पक्षधर सूफ़ी संत पवित्र, सदाचारी और सादा जीवन व्यतीत करने वाले सदाचारी साधक होते हैं । ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (1190) से उनका क्रमबद्ध इतिहास मिलता है ।सूफ़ियों में चिश्तिया, सुहरावर्दिया, क़ादरिया, नक़्शबंदिया, मेहदरी और सत्तारी सिलसिले मशहूर हैं । सूफ़ी प्रेम गाथा के सभी कवि मुसलमान थे और उन पर फ़ारसी साहित्य का गहरा प्रभाव था ।सूफ़ी और तसव्वुफ को लेकर शेख फरीदुद्दीन सत्तार (1230) ने सूफ़ी संतों के बारे में अपनी पुस्तक तजकिरातुल औलिया में सत्तर परिभाषाएँ दिया है । सूफ़ी मानते हैं कि जीवन एक यात्रा है- इस यात्रा की अनेक मंज़िलें हैं- जिन्हें पार करने पर ही साधक ईश्वर तक पहुँच सकता है ।
14- सूफ़ी शब्द को सफ़ा, अहअल, सुफ्फाह, सफ़, सुफाह, बनसूफा, सूफवतुलकजा, सोफिया और सूफानी से जोड़ा गया । शेख़ हुज्वैरी का मानना है कि सफ़ा अर्थात् पवित्रता शब्द से सूफ़ी की व्युत्पत्ति हुई । कुछ विद्वानों का मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद साहब के समय मदीने की मसजिद नवबी के सामने सुफ्फा (चबूतरा) पर आसन लगाने वाले भक्त साधक सुफ्फाह कहलाए ।कुछ विद्वानों ने ग्रीक भाषा के शब्द सोफिया (ज्ञान) से सूफ़ी शब्द का सम्बन्ध माना है ।अरबी शब्द सूफ़ का अर्थ है ऊन (मोटे वस्त्र) पहनने वाला । अल गजाली उसे सूफ़ी मानते हैं जो ईश्वरानुभूति में तन्मय जीवन व्यतीत करता है । इसलिए सूफ़ी का अंतिम लक्ष्य है – मारफत ।निकल्सन की रचना द आइडिया ऑफ पर्सनैलिटी इन सूफीइज्म में सूफ़ी मत के विकास में नव- प्लेटोवादियों ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म का हाथ माना गया है ।
15- सूफ़ी काव्य परम्परा का प्राचीनतम काव्य मुल्ला दाऊद का चंदायन है । इस सूफ़ी काव्य परम्परा की प्रतिनिधि रचना पद्मावत है, जिसका सृजन मलिक मुहम्मद जायसी ने किया है । इसकी रचना शेरशाह सूरी के शासन काल में हुई ।सूफ़ीयत में सर्वाधिक महत्व इश्क़ या प्रेम को प्राप्त है । अंग्रेज विद्वान ग्रियर्सन ने जायसी को मुसलमान संन्यासी कहा है । सूफ़ियों ने इश्क़ मिज़ाजी और इश्क़ हक़ीक़ी के माध्यम से भारतीय समाज– संस्कृति में मानवतावादी रंग प्रगाढ़ किया ।आपसी फूट, वैर और विद्वेष से तबाह होते मध्यकालीन समाज को प्रेम का पाठ पढ़ाया । टूटे हुए हिन्दू– मुसलमान ह्रदयों को जोड़ने का बड़ा भारी काम किया । सूरदास, मीरा और रसखान की कविता में सूफ़ी प्रभाव है । सूफ़ियों ने भारत में आकर भारतीयता को खुले मन से अपनाया, इसलिए यह खुलापन भारतीय ह्रदयों की मुक्ति का द्वार खोल सका ।
16- सेकुलरवाद की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सेकुलरिस से हुई है । सेकुलरिस से फ़्रेंच भाषा ने सेकुलर शब्द हासिल किया जिसे मध्य क़ालीन अंग्रेज़ी ने अपना लिया । इसका मतलब है आज का समय अर्थात् जो दैवी समय से भिन्न है । आज के समय की अवधारणा में ही इहलोक का विचार निहित है जो उस दुनिया यानी परलोक से अलग है । सेकुलरवाद धर्म के वर्चस्व, उसकी निरंकुशता और उसके आधार पर किए जाने वाले किसी भी क़िस्म के बहिर्वेशन के विरोध में खड़ा है । लेकिन वह अनिवार्यत: धर्म का उन्मूलन करने की अपील करने वाली विचारधारा नहीं है । वह धर्मों की स्वतंत्रता, धर्म से स्वतंत्रता, धर्मों की आपसी समानता और आस्तिकों व नास्तिकों के बीच समानता की वकालत करता है ।
17- जॉर्ज जैकब होलियॉक ने 1851 में पहली बार सेकुलर शब्द का प्रयोग किया । वह इंग्लैंड के एक रैडिकल अनीश्वरवादी थे । उनकी कोशिश थी कि नास्तिक, काफ़िर, फ्री थिंकर और अनीश्वरवादी जैसे शब्दों की जगह कोई नई अभिव्यक्ति खोजी जाए । उन्हें लगा कि यह ज़रूरत सेकुलरवाद पूरा कर सकता है । 1860 से 1914 की अवधि यूरोपीय देशों में सेकुलरीकरण का दौर माना जाता है । फ्राँस ने सेकुलर शब्दावली में लाइसिजम जैसी अभिव्यक्ति जोड़ी जो सम्भवतः राज्य और धर्म के अलगाव को सर्वाधिक कड़ाई से परिभाषित करती है । वर्ष 1993 में प्रकाशित सच्चिदानन्द सिन्हा की पुस्तक धर्मनिरपेक्षता : परम्परा और प्रासंगिकता, आज के प्रश्न, श्रृंखला एक महत्वपूर्ण पुस्तक है ।
18- सेकुलरीकरण एक प्रकिया है जो आधुनिकता के इतिहास और आधुनिकीकरण के सिलसिले से जुड़ी हुई है । समाज विज्ञान की दुनिया में मैक्स वेबर जैसे उत्तर- मार्क्स समाजशास्त्रियों ने सेकुलरीकरण की प्रक्रिया को अपने विमर्श में महत्वपूर्ण स्थान दिया । खोसे कासानोवा ने सूत्रीकरण किया कि सेकुलरीकरण न सिर्फ़ राज्य, अर्थव्यवस्था और विज्ञान को अलग-अलग करते हुए स्वतंत्र दायरों में ले जाता है, बल्कि इसके कारण स्वयं धार्मिक दायरा अपने भीतर विभेदीकृत और विशिष्टीकृत होता चला जाता है । यह ऐसी प्रक्रिया है जो धार्मिकता के स्वरूप को और अंततः धर्म के स्वरूप को ही बदल देती है । यह एक ऐसी अस्मिता रचती है जो भले ही किसी पुराने नाम से पुकारी जाती हो, पर अपने सार में बदली हुई होती है ।
19- मूल्य आधारित सेकुलर राज्य सहिष्णुता के उसूल पर चलता है और धार्मिक आधार पर किसी के उत्पीडन की इजाज़त नहीं देता । अमेरिकी संविधान में फ़र्स्ट एमेंडमेंट के नाम से मशहूर अनुच्छेद सेकुलरवाद से जुड़ी हुई धार्मिक स्वतंत्रता का विस्तार एक अधिक सामान्य धरातल पर अभिव्यक्ति की, शांतिपूर्ण गोलबंदी की ओर राजनीतिक असहमति की स्वतंत्रता तक करता है । बीसवीं सदी में जर्मन धर्मशास्त्री बीट्रिश बॉनहोफर ने घोषित किया कि ईसाइयत की सेकुलर व्याख्या अनिवार्य है ।जियनवादी इज़राइल के संस्थापक थियोडोर हर्जल, मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की स्थापना करने वाले मुहम्मद अली जिन्ना और राजनीतिक हिन्दुत्व के संस्थापक विनायक दामोदर सावरकर बुद्धिवादी आग्रहों के हामी थे ।
20- सेकुलरिजम को हिन्दी में धर्मनिरपेक्षता के रूप में व्यक्त करने वालों की समझ यह है कि राज्य को किसी भी धर्म से निरपेक्ष होना चाहिए । लेकिन, सेकुलरिजम को पंथनिरपेक्षता के रूप में व्यक्त करने वाले धर्म और पंथ में फ़र्क़ करते हैं । उनकी निगाह में हिन्दू एक धर्म होने के नाते श्रेष्ठ और धारण किए जाने योग्य है । इस्लाम, ईसाई, सिक्ख आदि पंथ होने के नाते कमतर हैं और राज्य को इनसे निरपेक्ष रहना चाहिए । सेकुलरिजम का तीसरा अनुवाद सर्वधर्म समभाव के रूप में सामने आता है जिसका मतलब यह निकलता है कि राज्य को सभी धर्मों से बराबर की दूरी रखनी चाहिए । उर्दू में सेकुलरिज्म का एक अनुवाद ला- दीनियत प्रचलित है । कन्नड़ में सेकुलरिजम को लौकिकवाद के रूप में व्यक्त किया जाता है ।
21- सेलिब्रटी एक अस्मिता का नाम है । सेलिब्रटी, वह है जिसकी शिनाख्त मीडिया द्वारा सेलिब्रिटी होने के नाते ही की जाए । सेलिब्रिटी की ख्याति लम्बे अरसे तक भी चल सकती है और उसकी उम्र केवल पन्द्रह मिनट की भी हो सकती है । फिफ्टीन मिनट्स ऑफ फेम जैसा फिकरा ऐंडी वारहोल की देन है । सेलिब्रिटी परिघटना की नींव फ़ोटोग्राफ़ी और थियेटर के प्रचलन से पड़ी थी । जोशुआ गेमसन की मान्यता है कि सेलिब्रिटी बनने की प्रक्रिया दो परस्पर विरोधी विमर्शों के ज़रिए चलती रहती है : यह है लोकतांत्रिक और कुलीनवर्गीय विमर्श ।
22- सर सैयद अहमद खॉं (1817-1898) भारतीय आधुनिकता के अग्रदूतों में से एक थे ।उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का संस्थापक, मुस्लिम धर्म सुधारक, मुस्लिम नवजागरण की मशाल और राष्ट्रवादी चिंतक माना जाता है । वे सम्भ्रांत सैयद परिवार से ताल्लुक़ रखते थे । उनके पूर्वज मुग़ल दरबार में उच्च पदों पर कार्यरत रहे थे । उनकी दो मुख्य रचनाएँ असर- उस- सनादीद (1847), और असबाब-ए- बग़ावत (1869) मशहूर हैं । असर- उस- सनादीद दिल्ली के ऐतिहासिक स्मारकों के इतिहास और दिल्ली शहर की विशिष्ट संस्कृति पर लिखी गई सबसे पहली किताबों में से एक है । असबाब- ए- बगावत ब्रिटिश प्रशासन की उन कमज़ोरियों और ग़लतियों को उजागर करती है ।
23- सोप ओपेरा टीवी का मनोरंजक कार्यक्रम है । इसकी शुरुआत अमेरिकी टीवी पर तीस के दशक में हुई थी ।सोप ओपेरा का मतलब है एक ऐसी धारावाहिक कथा जिसका उपसंहार कभी नहीं होता और जिसकी हर किस्त इस आश्वासन के साथ ख़त्म होती है कि कहानी अगले दिन भी जारी रहेगी । चूँकि अमेरिका की बड़ी- बड़ी कपड़े धोने के साबुन की कम्पनियों (प्रोक्टर ऐंड गैम्बिल, कोलगेट- पामोलिव और लीवर- ब्रदर्स) ने उन्हें प्रायोजित किया था, इसलिए उनके नाम के साथ सोप जुड़ गया । इन धारावाहिक कार्यक्रमों को ओपेरा कहने की वजह यह थी कि इनमें रोज़ाना की ज़िंदगी का बेहद जज़्बाती और अति नाटकीय चित्रण किया जाता था ।
24- सोरेन आबी कीर्केगार्द (1813-1855) एक सौन्दर्यशास्त्री, दार्शनिक और धार्मिक चिंतक थे जिन्हें आधुनिक अस्तित्ववाद के उभार के लिए अवधारणात्मक ज़मीन साफ़ करने का श्रेय दिया जाता है । कीर्केगार्द ने कहा कि यह जगत एक नैतिक व्यवस्था है और व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह नैतिक नियमों के सामने समर्पण कर दे । उन्होंने सत्य को आत्मपरक बनाते हुए कहा कि चिंतन और चुनाव के लिए मनुष्य स्वतंत्र है और यह स्वतंत्रता उसके चिंतन का मूल है । कीर्केगार्द के अनुसार व्यक्ति की आंतरिकता ही उसका सत्य है । उनके उसी विचार ने दर्शन के क्षेत्र में अस्तित्ववाद के लिए मंच तैयार किया । वह सुकरात के चिंतन से प्रभावित थे ।
25-सोरेन आबी कीर्केगार्द के चिंतन का गहरा प्रभाव लूकाच, हाइडैगर और एडोर्नो जैसे विचारकों पर पड़ा । ख़ास तौर पर हाइडैगर की विख्यात रचना बीइंग ऐंड टाइम कीर्केगार्द के बिना सम्भव नहीं थी । विटगेंस्टाइन की तो मान्यता है कि कीर्केगार्द उन्नीसवीं सदी के सबसे गहन चिंतक थे । केवल 42 वर्ष जीने वाले इस विचारक ने अपने पीछे 55 खंडों में फैला हुआ विशाल वांगमय छोड़ा है । वे केवल डेनिश भाषा में लिखते थे । कीर्केगार्द का जन्म 5 मई, 1813 को डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में पैदा हुए एक समृद्ध व्यापारी माइकल पेडरसन कीर्केगार्द तथा उनकी दूसरी पत्नी सोरेनडेटर लुण्ड की सातवीं संतान थे । उनका प्रसिद्ध कथन है जज़्बाती प्रतिबद्धताओं के चक्कर में व्यक्ति अनासक्त चिंतन की क्षमता खोता जा रहा है ।
26- हज़रत मुहम्मद साहब (570 ई. – 632) का जन्म 570 ईसवी में अरब के एक व्यावसायिक केन्द्र मक्का में हुआ था । वह सारी दुनिया के मुसलमानों के लिए पैग़म्बर की हस्ती रखते हैं । मुहम्मद साहब इस्लाम धर्म के संस्थापक हैं । उन्हें मुहम्मद बिन अब्दुल्ला, पैग़म्बर मुहम्मद तथा मुहम्मद सल्लाहुआले हि वसल्लम भी कहा जाता है । मुहम्मद साहब के क़बीले का नाम क़ुरैश था।इनके माता-पिता का इन्तकाल मुहम्मद साहब के बचपन में ही हो गया था । इसलिए उनके दादा और बाद में उनके चाचा अबु तालिब ने उनकी परवरिश की । सन् 610-11 में जब मुहम्मद साहब की उम्र चालीस साल की थी, उन्होंने दावा किया कि अरबों में प्रचलित मूर्ति पूजा और बहुदेववाद वास्तविक धर्म नहीं है ।
27- मुहम्मद साहब ने कहा कि इस दुनिया के केवल एक ही शक्ति ने बनाया है जिसका नाम अल्लाह है । अल्लाह न मर्द है, न औरत, वह न मरता है, न ज़िंदा होता है । उसी ने आदम, नूर, मूसा और ईसा को पैग़म्बर बना कर दुनिया में भेजा है ।मुहम्मद साहब ने यह भी कहा कि इस श्रृंखला के आख़िरी पैग़म्बर या नबी वे ख़ुद हैं और उनके बाद कोई पैग़म्बर इस दुनिया में नहीं आएगा । इस तरह पहला कलिमा ला इल्लाहा इल्लाह, मुहम्मद रसूल्लाह इस्लाम नामक इस नए धर्म का मूलाधार बना ।इसका मतलब था : सिर्फ़ अल्लाह के अलावा कोई और ख़ुदा नहीं है और मुहम्मद ही अल्लाह के रसूल या नबी हैं । यह नया मज़हब मूलतः एक सामाजिक आन्दोलन था बराबरी पर आधारित था और एक समन्वय कारी लोकतान्त्रिक राजसत्ता के निर्माण के लिए संघर्षरत था ।
28- मुहम्मद साहब ने सन् 612 ईसवी में अपने अनुयायियों के साथ मक्का से यथरिब यानी मदीना की ओर कूच किया । इस यात्रा को हिजरत कहा गया ।मदीना पहुँचने के बाद मुहम्मद साहब ने एक नए क़िस्म की राजनीतिक सत्ता क़ायम की । इस सत्ता का केन्द्र कोई व्यक्ति न होकर अल्लाह नाम की एक सर्वव्यापी शक्ति थी । क्योंकि अल्लाह अमूर्त था । इसे उसे मानने वालों का समुदाय इस सत्ता का रक्षक बन गया । नबी का दर्जा इस सत्ता के रक्षकों और सत्ता के बीच समन्वय कराने का था इसलिए मस्जिद इस सत्ता का केन्द्र बनी । एक कोष की स्थापना की गई जिसे बैतूल माल कहा गया जो आगे चलकर इसलामिक साम्राज्य का वित्त मंत्रालय बना । काबा इसलामिक इबादतगाह बन गया ।
29- मुहम्मद साहब ने मक्का विजय के बाद यहाँ पर भी मदीना वाली राज व्यवस्था स्थापित की । लेकिन वे स्वयं मदीना में ही रहे । मुहम्मद साहब ने सन् 631 में अपना आख़िरी हज़ किया । हज़ के दौरान ही मुहम्मद साहब ने इसलाम के सम्पूर्ण होने की घोषणा की । अपने इस कुतबे (सम्बोधन) में उन्होंने इसलाम के पॉंच सिद्धांतों दिन में पॉंच बार नमाज़, साल में एक माह के रोज़े, हर साल अपनी कमाई का चालीसवाँ हिस्सा ज़कात, क्षमता के अनुसार जीवन में कम से कम एक हज़ और इन सब व्यावहारिकताओं के साथ- साथ एकेश्वरवाद में विश्वास रखने का आह्वान शामिल था । सन् 632 में 22 वर्ष तक विश्व के सफल धार्मिक राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले मुहम्मद साहब का मदीना में देहान्त हो गया ।उन्हें उनके घर में ही दफ़न किया गया ।
30- मुहम्मद साहब बिना पढ़े- लिखे होने के बावजूद क़ुरान का पहला लफ़्ज़ इकरा (पढ़ो) था ।बुख़ारी की हदीसों के अनुसार जब अल्लाह के फ़रिश्ते ज़िबराइल ने मुहम्मद साहब को नबी होने की ज़िम्मेदारी सौंपी तो उनसे इकरा यानी पढ़ो, कहने के लिए कहा तो मुहम्मद साहब ने जबाब दिया कि वे पढ़े- लिखे नहीं हैं । इस पर ज़िबराइल ने दोबारा ज़ोर देकर कहा इकरा । इस तरह से क़ुरान की आयतों का सिलसिला शुरू हुआ । मुहम्मद साहब के द्वारा दीन- ओ- दुनिया का नया इसलामिक विमर्श शुरू किया गया । इसकी बुनियाद थी कि इनसानी ज़िंदगी का हर कृत्य एक इबादत है जिसके दो पहलू हैं : ज्ञान का वर्तमान स्तर, जिसे दुनिया कहा जा सकता है और दूसरा ज्ञान के सृजन का माध्यम जो दीन है । मानव की मुक्ति दीन और दुनिया के सामंजस्य में ही है ।
V informative!
Thank you