11- मार्शल मैकलुहन ने वर्ष 1964 में प्रकाशित अपनी पुस्तक अंडरस्टैंडिंग मीडिया में शैनन की ही तरह प्रौद्योगिकी के विश्लेषण को अधिक महत्व दिया, न कि प्रसारित संदेश की सारवस्तु को । इसलिए उनका निष्कर्ष इस मशहूर वाक्य के रूप में सामने आता है कि माध्यम ही संदेश है । डोना हरावे ने अपनी रचना सायबर्ग मेनिफेस्टो में सूचना, सत्ता और देह के बीच एक बेहद पेचीदा सूत्र पर विचार करती हैं । उनका विश्लेषण निष्कर्ष निकालता है कि सत्ता जिस तरह उत्पादन के दैहिक सम्बन्धों में निवास करती है, उसी तरह अब उसका वास सूचना प्रणालियों में भी है । प्रभुत्व के इन्फ़ॉर्मेटिक्स की चर्चा करते हुए हरावे दावा करती हैं कि कोडिंग से कुछ भी बचा नहीं रह गया है : न कोई वस्तु, न कोई स्पेस और न ही मानवीय देह

12- इमैनुअल कैसेल्स सूचना समाज के सबसे चर्चित सिद्धांतकार हैं जिनकी रचना द इनफ़ॉर्मेशन एज : इकॉनॉमी, सोसाइटी ऐंड कल्चर ने इस प्रत्यय को प्रचलित किया । ज्यॉं- फ्रास्वां ल्योतर ने भी 1979 में प्रकाशित अपनी रचना पोस्टमॉडर्न कण्डीशन में यह चौका देने वाला अवलोकन किया था कि कम्प्यूटरीकृत पूँजीवादी युग में ज्ञान परिवर्तित हुए बिना नहीं रह सकता । ल्योतर ने उसी समय देख लिया था कि ज्ञान सूचनात्मक पण्य बनता जा रहा है । मैकलुहन इसी बात को इस तरह से कहते हैं कि सूचना एक गैर विमर्शी कोड या डाटा है जिसे टीवी के छोटे-छोटे साउंड बाइट्स की तरह से उत्पादित किया जाता है और मनुष्य जिसका मशीनों की तरह से उपभोग करते चले जाते हैं ।

13- सांस्कृतिक एकता के पक्षधर सूफ़ी संत पवित्र, सदाचारी और सादा जीवन व्यतीत करने वाले सदाचारी साधक होते हैं । ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (1190) से उनका क्रमबद्ध इतिहास मिलता है ।सूफ़ियों में चिश्तिया, सुहरावर्दिया, क़ादरिया, नक़्शबंदिया, मेहदरी और सत्तारी सिलसिले मशहूर हैं । सूफ़ी प्रेम गाथा के सभी कवि मुसलमान थे और उन पर फ़ारसी साहित्य का गहरा प्रभाव था ।सूफ़ी और तसव्वुफ को लेकर शेख फरीदुद्दीन सत्तार (1230) ने सूफ़ी संतों के बारे में अपनी पुस्तक तजकिरातुल औलिया में सत्तर परिभाषाएँ दिया है । सूफ़ी मानते हैं कि जीवन एक यात्रा है- इस यात्रा की अनेक मंज़िलें हैं- जिन्हें पार करने पर ही साधक ईश्वर तक पहुँच सकता है ।

14- सूफ़ी शब्द को सफ़ा, अहअल, सुफ्फाह, सफ़, सुफाह, बनसूफा, सूफवतुलकजा, सोफिया और सूफानी से जोड़ा गया । शेख़ हुज्वैरी का मानना है कि सफ़ा अर्थात् पवित्रता शब्द से सूफ़ी की व्युत्पत्ति हुई । कुछ विद्वानों का मानना है कि पैग़म्बर मोहम्मद साहब के समय मदीने की मसजिद नवबी के सामने सुफ्फा (चबूतरा) पर आसन लगाने वाले भक्त साधक सुफ्फाह कहलाए ।कुछ विद्वानों ने ग्रीक भाषा के शब्द सोफिया (ज्ञान) से सूफ़ी शब्द का सम्बन्ध माना है ।अरबी शब्द सूफ़ का अर्थ है ऊन (मोटे वस्त्र) पहनने वाला । अल गजाली उसे सूफ़ी मानते हैं जो ईश्वरानुभूति में तन्मय जीवन व्यतीत करता है । इसलिए सूफ़ी का अंतिम लक्ष्य है – मारफत ।निकल्सन की रचना द आइडिया ऑफ पर्सनैलिटी इन सूफीइज्म में सूफ़ी मत के विकास में नव- प्लेटोवादियों ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म का हाथ माना गया है ।

15- सूफ़ी काव्य परम्परा का प्राचीनतम काव्य मुल्ला दाऊद का चंदायन है । इस सूफ़ी काव्य परम्परा की प्रतिनिधि रचना पद्मावत है, जिसका सृजन मलिक मुहम्मद जायसी ने किया है इसकी रचना शेरशाह सूरी के शासन काल में हुई ।सूफ़ीयत में सर्वाधिक महत्व इश्क़ या प्रेम को प्राप्त है अंग्रेज विद्वान ग्रियर्सन ने जायसी को मुसलमान संन्यासी कहा है सूफ़ियों ने इश्क़ मिज़ाजी और इश्क़ हक़ीक़ी के माध्यम से भारतीय समाजसंस्कृति में मानवतावादी रंग प्रगाढ़ किया ।आपसी फूट, वैर और विद्वेष से तबाह होते मध्यकालीन समाज को प्रेम का पाठ पढ़ाया टूटे हुए हिन्दूमुसलमान ह्रदयों को जोड़ने का बड़ा भारी काम किया सूरदास, मीरा और रसखान की कविता में सूफ़ी प्रभाव है सूफ़ियों ने भारत में आकर भारतीयता को खुले मन से अपनाया, इसलिए यह खुलापन भारतीय ह्रदयों की मुक्ति का द्वार खोल सका

16- सेकुलरवाद की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सेकुलरिस से हुई है । सेकुलरिस से फ़्रेंच भाषा ने सेकुलर शब्द हासिल किया जिसे मध्य क़ालीन अंग्रेज़ी ने अपना लिया । इसका मतलब है आज का समय अर्थात् जो दैवी समय से भिन्न है । आज के समय की अवधारणा में ही इहलोक का विचार निहित है जो उस दुनिया यानी परलोक से अलग है । सेकुलरवाद धर्म के वर्चस्व, उसकी निरंकुशता और उसके आधार पर किए जाने वाले किसी भी क़िस्म के बहिर्वेशन के विरोध में खड़ा है । लेकिन वह अनिवार्यत: धर्म का उन्मूलन करने की अपील करने वाली विचारधारा नहीं है । वह धर्मों की स्वतंत्रता, धर्म से स्वतंत्रता, धर्मों की आपसी समानता और आस्तिकों व नास्तिकों के बीच समानता की वकालत करता है ।

17- जॉर्ज जैकब होलियॉक ने 1851 में पहली बार सेकुलर शब्द का प्रयोग किया । वह इंग्लैंड के एक रैडिकल अनीश्वरवादी थे । उनकी कोशिश थी कि नास्तिक, काफ़िर, फ्री थिंकर और अनीश्वरवादी जैसे शब्दों की जगह कोई नई अभिव्यक्ति खोजी जाए । उन्हें लगा कि यह ज़रूरत सेकुलरवाद पूरा कर सकता है । 1860 से 1914 की अवधि यूरोपीय देशों में सेकुलरीकरण का दौर माना जाता है । फ्राँस ने सेकुलर शब्दावली में लाइसिजम जैसी अभिव्यक्ति जोड़ी जो सम्भवतः राज्य और धर्म के अलगाव को सर्वाधिक कड़ाई से परिभाषित करती है । वर्ष 1993 में प्रकाशित सच्चिदानन्द सिन्हा की पुस्तक धर्मनिरपेक्षता : परम्परा और प्रासंगिकता, आज के प्रश्न, श्रृंखला एक महत्वपूर्ण पुस्तक है ।

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18- सेकुलरीकरण एक प्रकिया है जो आधुनिकता के इतिहास और आधुनिकीकरण के सिलसिले से जुड़ी हुई है । समाज विज्ञान की दुनिया में मैक्स वेबर जैसे उत्तर- मार्क्स समाजशास्त्रियों ने सेकुलरीकरण की प्रक्रिया को अपने विमर्श में महत्वपूर्ण स्थान दिया । खोसे कासानोवा ने सूत्रीकरण किया कि सेकुलरीकरण न सिर्फ़ राज्य, अर्थव्यवस्था और विज्ञान को अलग-अलग करते हुए स्वतंत्र दायरों में ले जाता है, बल्कि इसके कारण स्वयं धार्मिक दायरा अपने भीतर विभेदीकृत और विशिष्टीकृत होता चला जाता है । यह ऐसी प्रक्रिया है जो धार्मिकता के स्वरूप को और अंततः धर्म के स्वरूप को ही बदल देती है । यह एक ऐसी अस्मिता रचती है जो भले ही किसी पुराने नाम से पुकारी जाती हो, पर अपने सार में बदली हुई होती है ।

19- मूल्य आधारित सेकुलर राज्य सहिष्णुता के उसूल पर चलता है और धार्मिक आधार पर किसी के उत्पीडन की इजाज़त नहीं देता । अमेरिकी संविधान में फ़र्स्ट एमेंडमेंट के नाम से मशहूर अनुच्छेद सेकुलरवाद से जुड़ी हुई धार्मिक स्वतंत्रता का विस्तार एक अधिक सामान्य धरातल पर अभिव्यक्ति की, शांतिपूर्ण गोलबंदी की ओर राजनीतिक असहमति की स्वतंत्रता तक करता है । बीसवीं सदी में जर्मन धर्मशास्त्री बीट्रिश बॉनहोफर ने घोषित किया कि ईसाइयत की सेकुलर व्याख्या अनिवार्य है ।जियनवादी इज़राइल के संस्थापक थियोडोर हर्जल, मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की स्थापना करने वाले मुहम्मद अली जिन्ना और राजनीतिक हिन्दुत्व के संस्थापक विनायक दामोदर सावरकर बुद्धिवादी आग्रहों के हामी थे ।

20- सेकुलरिजम को हिन्दी में धर्मनिरपेक्षता के रूप में व्यक्त करने वालों की समझ यह है कि राज्य को किसी भी धर्म से निरपेक्ष होना चाहिए । लेकिन, सेकुलरिजम को पंथनिरपेक्षता के रूप में व्यक्त करने वाले धर्म और पंथ में फ़र्क़ करते हैं । उनकी निगाह में हिन्दू एक धर्म होने के नाते श्रेष्ठ और धारण किए जाने योग्य है । इस्लाम, ईसाई, सिक्ख आदि पंथ होने के नाते कमतर हैं और राज्य को इनसे निरपेक्ष रहना चाहिए । सेकुलरिजम का तीसरा अनुवाद सर्वधर्म समभाव के रूप में सामने आता है जिसका मतलब यह निकलता है कि राज्य को सभी धर्मों से बराबर की दूरी रखनी चाहिए । उर्दू में सेकुलरिज्म का एक अनुवाद ला- दीनियत प्रचलित है । कन्नड़ में सेकुलरिजम को लौकिकवाद के रूप में व्यक्त किया जाता है ।


21- सेलिब्रटी एक अस्मिता का नाम है । सेलिब्रटी, वह है जिसकी शिनाख्त मीडिया द्वारा सेलिब्रिटी होने के नाते ही की जाए । सेलिब्रिटी की ख्याति लम्बे अरसे तक भी चल सकती है और उसकी उम्र केवल पन्द्रह मिनट की भी हो सकती है । फिफ्टीन मिनट्स ऑफ फेम जैसा फिकरा ऐंडी वारहोल की देन है । सेलिब्रिटी परिघटना की नींव फ़ोटोग्राफ़ी और थियेटर के प्रचलन से पड़ी थी । जोशुआ गेमसन की मान्यता है कि सेलिब्रिटी बनने की प्रक्रिया दो परस्पर विरोधी विमर्शों के ज़रिए चलती रहती है : यह है लोकतांत्रिक और कुलीनवर्गीय विमर्श ।

22- सर सैयद अहमद खॉं (1817-1898) भारतीय आधुनिकता के अग्रदूतों में से एक थे ।उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का संस्थापक, मुस्लिम धर्म सुधारक, मुस्लिम नवजागरण की मशाल और राष्ट्रवादी चिंतक माना जाता है । वे सम्भ्रांत सैयद परिवार से ताल्लुक़ रखते थे । उनके पूर्वज मुग़ल दरबार में उच्च पदों पर कार्यरत रहे थे । उनकी दो मुख्य रचनाएँ असर- उस- सनादीद (1847), और असबाब-ए- बग़ावत (1869) मशहूर हैं । असर- उस- सनादीद दिल्ली के ऐतिहासिक स्मारकों के इतिहास और दिल्ली शहर की विशिष्ट संस्कृति पर लिखी गई सबसे पहली किताबों में से एक है । असबाब- ए- बगावत ब्रिटिश प्रशासन की उन कमज़ोरियों और ग़लतियों को उजागर करती है ।

23- सोप ओपेरा टीवी का मनोरंजक कार्यक्रम है । इसकी शुरुआत अमेरिकी टीवी पर तीस के दशक में हुई थी ।सोप ओपेरा का मतलब है एक ऐसी धारावाहिक कथा जिसका उपसंहार कभी नहीं होता और जिसकी हर किस्त इस आश्वासन के साथ ख़त्म होती है कि कहानी अगले दिन भी जारी रहेगी । चूँकि अमेरिका की बड़ी- बड़ी कपड़े धोने के साबुन की कम्पनियों (प्रोक्टर ऐंड गैम्बिल, कोलगेट- पामोलिव और लीवर- ब्रदर्स) ने उन्हें प्रायोजित किया था, इसलिए उनके नाम के साथ सोप जुड़ गया । इन धारावाहिक कार्यक्रमों को ओपेरा कहने की वजह यह थी कि इनमें रोज़ाना की ज़िंदगी का बेहद जज़्बाती और अति नाटकीय चित्रण किया जाता था ।

24- सोरेन आबी कीर्केगार्द (1813-1855) एक सौन्दर्यशास्त्री, दार्शनिक और धार्मिक चिंतक थे जिन्हें आधुनिक अस्तित्ववाद के उभार के लिए अवधारणात्मक ज़मीन साफ़ करने का श्रेय दिया जाता है । कीर्केगार्द ने कहा कि यह जगत एक नैतिक व्यवस्था है और व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह नैतिक नियमों के सामने समर्पण कर दे । उन्होंने सत्य को आत्मपरक बनाते हुए कहा कि चिंतन और चुनाव के लिए मनुष्य स्वतंत्र है और यह स्वतंत्रता उसके चिंतन का मूल है । कीर्केगार्द के अनुसार व्यक्ति की आंतरिकता ही उसका सत्य है । उनके उसी विचार ने दर्शन के क्षेत्र में अस्तित्ववाद के लिए मंच तैयार किया । वह सुकरात के चिंतन से प्रभावित थे ।

25-सोरेन आबी कीर्केगार्द के चिंतन का गहरा प्रभाव लूकाच, हाइडैगर और एडोर्नो जैसे विचारकों पर पड़ा । ख़ास तौर पर हाइडैगर की विख्यात रचना बीइंग ऐंड टाइम कीर्केगार्द के बिना सम्भव नहीं थी । विटगेंस्टाइन की तो मान्यता है कि कीर्केगार्द उन्नीसवीं सदी के सबसे गहन चिंतक थे । केवल 42 वर्ष जीने वाले इस विचारक ने अपने पीछे 55 खंडों में फैला हुआ विशाल वांगमय छोड़ा है । वे केवल डेनिश भाषा में लिखते थे । कीर्केगार्द का जन्म 5 मई, 1813 को डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में पैदा हुए एक समृद्ध व्यापारी माइकल पेडरसन कीर्केगार्द तथा उनकी दूसरी पत्नी सोरेनडेटर लुण्ड की सातवीं संतान थे । उनका प्रसिद्ध कथन है जज़्बाती प्रतिबद्धताओं के चक्कर में व्यक्ति अनासक्त चिंतन की क्षमता खोता जा रहा है ।

26- हज़रत मुहम्मद साहब (570 ई. – 632) का जन्म 570 ईसवी में अरब के एक व्यावसायिक केन्द्र मक्का में हुआ था । वह सारी दुनिया के मुसलमानों के लिए पैग़म्बर की हस्ती रखते हैं । मुहम्मद साहब इस्लाम धर्म के संस्थापक हैं । उन्हें मुहम्मद बिन अब्दुल्ला, पैग़म्बर मुहम्मद तथा मुहम्मद सल्लाहुआले हि वसल्लम भी कहा जाता है । मुहम्मद साहब के क़बीले का नाम क़ुरैश था।इनके माता-पिता का इन्तकाल मुहम्मद साहब के बचपन में ही हो गया था । इसलिए उनके दादा और बाद में उनके चाचा अबु तालिब ने उनकी परवरिश की । सन् 610-11 में जब मुहम्मद साहब की उम्र चालीस साल की थी, उन्होंने दावा किया कि अरबों में प्रचलित मूर्ति पूजा और बहुदेववाद वास्तविक धर्म नहीं है ।

27- मुहम्मद साहब ने कहा कि इस दुनिया के केवल एक ही शक्ति ने बनाया है जिसका नाम अल्लाह है । अल्लाह न मर्द है, न औरत, वह न मरता है, न ज़िंदा होता है । उसी ने आदम, नूर, मूसा और ईसा को पैग़म्बर बना कर दुनिया में भेजा है ।मुहम्मद साहब ने यह भी कहा कि इस श्रृंखला के आख़िरी पैग़म्बर या नबी वे ख़ुद हैं और उनके बाद कोई पैग़म्बर इस दुनिया में नहीं आएगा । इस तरह पहला कलिमा ला इल्लाहा इल्लाह, मुहम्मद रसूल्लाह इस्लाम नामक इस नए धर्म का मूलाधार बना ।इसका मतलब था : सिर्फ़ अल्लाह के अलावा कोई और ख़ुदा नहीं है और मुहम्मद ही अल्लाह के रसूल या नबी हैं । यह नया मज़हब मूलतः एक सामाजिक आन्दोलन था बराबरी पर आधारित था और एक समन्वय कारी लोकतान्त्रिक राजसत्ता के निर्माण के लिए संघर्षरत था ।

28- मुहम्मद साहब ने सन् 612 ईसवी में अपने अनुयायियों के साथ मक्का से यथरिब यानी मदीना की ओर कूच किया । इस यात्रा को हिजरत कहा गया ।मदीना पहुँचने के बाद मुहम्मद साहब ने एक नए क़िस्म की राजनीतिक सत्ता क़ायम की । इस सत्ता का केन्द्र कोई व्यक्ति न होकर अल्लाह नाम की एक सर्वव्यापी शक्ति थी । क्योंकि अल्लाह अमूर्त था । इसे उसे मानने वालों का समुदाय इस सत्ता का रक्षक बन गया । नबी का दर्जा इस सत्ता के रक्षकों और सत्ता के बीच समन्वय कराने का था इसलिए मस्जिद इस सत्ता का केन्द्र बनी । एक कोष की स्थापना की गई जिसे बैतूल माल कहा गया जो आगे चलकर इसलामिक साम्राज्य का वित्त मंत्रालय बना । काबा इसलामिक इबादतगाह बन गया ।

29- मुहम्मद साहब ने मक्का विजय के बाद यहाँ पर भी मदीना वाली राज व्यवस्था स्थापित की । लेकिन वे स्वयं मदीना में ही रहे । मुहम्मद साहब ने सन् 631 में अपना आख़िरी हज़ किया । हज़ के दौरान ही मुहम्मद साहब ने इसलाम के सम्पूर्ण होने की घोषणा की । अपने इस कुतबे (सम्बोधन) में उन्होंने इसलाम के पॉंच सिद्धांतों दिन में पॉंच बार नमाज़, साल में एक माह के रोज़े, हर साल अपनी कमाई का चालीसवाँ हिस्सा ज़कात, क्षमता के अनुसार जीवन में कम से कम एक हज़ और इन सब व्यावहारिकताओं के साथ- साथ एकेश्वरवाद में विश्वास रखने का आह्वान शामिल था । सन् 632 में 22 वर्ष तक विश्व के सफल धार्मिक राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले मुहम्मद साहब का मदीना में देहान्त हो गया ।उन्हें उनके घर में ही दफ़न किया गया ।

30- मुहम्मद साहब बिना पढ़े- लिखे होने के बावजूद क़ुरान का पहला लफ़्ज़ इकरा (पढ़ो) था ।बुख़ारी की हदीसों के अनुसार जब अल्लाह के फ़रिश्ते ज़िबराइल ने मुहम्मद साहब को नबी होने की ज़िम्मेदारी सौंपी तो उनसे इकरा यानी पढ़ो, कहने के लिए कहा तो मुहम्मद साहब ने जबाब दिया कि वे पढ़े- लिखे नहीं हैं । इस पर ज़िबराइल ने दोबारा ज़ोर देकर कहा इकरा । इस तरह से क़ुरान की आयतों का सिलसिला शुरू हुआ । मुहम्मद साहब के द्वारा दीन- ओ- दुनिया का नया इसलामिक विमर्श शुरू किया गया । इसकी बुनियाद थी कि इनसानी ज़िंदगी का हर कृत्य एक इबादत है जिसके दो पहलू हैं : ज्ञान का वर्तमान स्तर, जिसे दुनिया कहा जा सकता है और दूसरा ज्ञान के सृजन का माध्यम जो दीन है । मानव की मुक्ति दीन और दुनिया के सामंजस्य में ही है ।


31- हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (1907-1979) बलिया ज़िले के दुबे का छपरा गाँव में जन्में हिन्दी साहित्य के शीर्ष आलोचक और इतिहासकार, उपन्यासकार और संस्कृति- मर्मज्ञ विद्वान थे ।परम्परागत रूप से उनका परिवार ज्योतिषियों का था । पिता अनमोल द्विवेदी संस्कृत के विद्वान थे । उन्हें मध्ययुगीन साहित्य की आधुनिक दृष्टि से व्याख्या करने का श्रेय जाता है । द्विवेदी ने अपने सृजन चिंतन में दो बड़े काम किए : कबीर का नए प्रतिमानों से मूल्यांकन किया और भारतीय चिंतनधारा में लोक- परम्पराओं को रेखांकित किया । तीस के दशक में वे विश्वभारती, शांतिनिकेतन के हिन्दी भवन के निदेशक बने । 1950 में वह प्रोफ़ेसर बन कर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आये । उनकी पुस्तक हिन्दी साहित्य की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है ।

32- हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध अशोक के फूल में लिखा है कि ‘मनुष्य की जीवन शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है । न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती बहाती यह जीवन धारा आगे बढ़ी है । संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पायी है । हमारे सामने समाज का जो रूप है वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है’। द्विवेदी जी ने सौन्दर्य के बारे में लिखा है कि सौन्दर्य विद्रोह है : मानव मुक्ति का नया मार्ग है । सौन्दर्य ही सर्जना है । उन्होंने कहा था कि हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ । महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी जानता है तुलसीदास

33- हरबर्ट स्पेंसर (1820-1930) ब्रिटिश समाजशास्त्री और दार्शनिक व सामाजिक डार्विनवाद के संस्थापक थे । चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रतिपादित मत्स्य न्याय और प्राकृतिक वरण के सिद्धांत से प्रभावित स्पेंसर ने इसी की तार्किक परिणति के रूप में अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में भी मुक्त बाज़ार तथा राज्य के अहस्तक्षेप की नीति की पुरज़ोर वकालत की । दर्शन के क्षेत्र में उन्हें एक स्वनियुक्त दार्शनिक और सिंथेटिक फिलॉसफी का प्रणेता भी माना जाता है । उन्हें दूसरों का लेखन पढ़ने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी । वे साफ़ कहते थे कि जिनके विचारों से वह असहमत हैं, उनकी किताबें पढ़ने से उनका सिर दर्द करने लगता है । स्पेंसर मानते थे कि समाज निरंतर परिवर्तनशील है और वह एक के बाद एक प्रगति और विज्ञान के नए मुक़ामों को छूता जाएगा ।

34- स्पेंसर की मान्यता थी कि जीव- विज्ञान, समाज विज्ञान, राजनीति और अर्थव्यवस्था आदि हर क्षेत्र एक ही सार्वभौमिक नियम से संचालित होता है । यह नियम उनके अनुसार विकासवाद के सिद्धांत पर आधारित था । उनकी सबसे पहली पुस्तक 1850 में सोशल स्टैटिक्स नाम से प्रकाशित हुई । बाद में द स्टडी ऑफ सोसियॉलॉजी (1973) और प्रिंसिपल्स ऑफ सोसियॉलॉजी (1875) जैसी अहम रचनाएँ भी प्रकाशित हुईं । उनका मानना था कि पूरी सृष्टि दो भागों में विभाजित है : ज्ञेय और अज्ञेय । समाजशास्त्र के विश्लेषण का क्षेत्र ज्ञेय पक्ष से सम्बन्धित है । अज्ञेय का संबंध सम्भव है कि आत्मा- परमात्मा, रहस्य तथा धर्म से हो, पर विज्ञान ज्ञेय पर ही आश्रित होता है । स्पेंसर ने कहा कि समाज भी बदलती हुई संरचना है जिसका विकास सरल से जटिल तथा सजातीयता से विजातीयता की दिशा में होता रहा है ।

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35- स्पेंसर के अनुसार सामाजिक उद्विकास के निश्चित स्तरों से समाज तीन चरणों में गुजरा है : आदिम, बर्बर और औद्योगिक । स्पेंसर मानते थे कि सरकार व राज्य संस्था को प्रकृति द्वारा बनाए गए सबल और योग्य को जीवित रखने तथा कमजोर को समाप्त करने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । उन्होंने राज्य से लोकोपकारी नीतियाँ न अपनाने के लिए कहा । यहाँ तक कि उन्होंने नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ देने, सफ़ाई कार्य करने और डाक- तार विभाग खोलने जैसे कामों के लिए भी मना किया । उनका स्पष्ट मानना था कि अगर निर्बल वर्ग के पक्ष में राज्य लोकोपकारी कार्य करेगा तो इससे निर्बलों की संख्या बढ़ जाएगी और समाज कमजोर होता जाएगा ।

36- स्पेंसर ने समाज की तुलना जीवित प्राणी के शरीर से की है और इसी आधार पर उनके द्वारा विकसित सिद्धांत को समाज का सावयवी सिद्धांत भी कहा जाता है स्पेंसर मानते थे कि जिस तरह ऑंख, कान, नाक, मस्तिष्क आदि के अभाव में जीव की कल्पना नहीं की जा सकती है, उसी तरह समाज के अंगों के रूप में धर्म, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, विवाह, परिवार और क़ानून जैसी संस्थाओं का अस्तित्व होता है और इनके अभाव में समाज नहीं चल सकता इसी मान्यता के आधार पर कई समाजशास्त्रियों की राय है कि स्पेंसर ही समाजशास्त्र के क्षेत्र में आरम्भिक प्रकार्यवाद के जनक हैं जिसका आगे चलकर दुर्खाइम, पार्संस, रेडक्लिफ ब्राउन आदि समाजशास्त्रियों ने विस्तृत विकास किया है

37- हरियाणा का शाब्दिक अर्थ होता है : हरि या भगवान का घर । हरियाणा 1 नवम्बर, 1966 को भाषायी आधार पर पंजाब का पुनर्गठन होने के बाद सामने आया । हरियाणा का कुल क्षेत्रफल 44 हज़ार, 212 वर्ग किलोमीटर है । 2001 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 2 करोड़, 10 लाख, 82 हज़ार, 989 है ।यहाँ की साक्षरता दर 71.4 प्रतिशत है । हरियाणा से लोकसभा के कुल 10 सदस्य चुने जाते हैं । यहाँ की विधायिका एक सदनीय है जिसमें कुल 90 विधानसभा क्षेत्र हैं । हरियाणा के उत्तर में पंजाब और हिमाचल प्रदेश है । इसके पश्चिम और दक्षिण में राजस्थान है । हरियाणा के पूर्व में उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश है । हरियाणा दिल्ली को तीन तरफ़ से घेरे हुए है ।

38- हरित क्रांति की प्रौद्योगिकीय नींव चालीस के दशक में मैक्सिको में पड़ी थी । साठ के दशक में इसे अमेरिकी पूंजीवाद ने ज़ोर-शोर से अपनाया । इस खेतिहर प्रौद्योगिकी को शुरू से ही ग्रीन रेवोल्यूशन नहीं कहा जाता था । यह नाम उसे मार्च 1968 में मिला जब युनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फ़ॉर इंटरनेशनल डिवेलपमेंट के विलियम गौड ने अपने एक भाषण में खाद्यान्न उत्पादन में हो रही इस क्रांति को कम्युनिस्टों द्वारा प्रवर्तित लाल क्रांति के बरक्स रखकर पेश किया । दिसम्बर, 1969 में हरित क्रांति को अमेरिकी कांग्रेस के सामने अमेरिकी विदेश नीति के प्रमुख औज़ार के रूप में प्रस्तावित किया गया । प्रस्तावकों का ख़्याल था कि ग्रीन रेवोल्यूशन को अगर सारी दुनिया में फैला दिया जाए तो अमेरिकी कीट नाशकों, उर्वरकों, बीजों और ट्रैक्टरों के उद्योग को एक विशाल बाज़ार मिल जाएगा ।

39- कृषि अनुसंधान में गहरी रुचि रखने वाले अमेरिकी वैज्ञानिक नॉर्मन बोरलॉग ने मैक्सिको में अनुसंधान करते हुए गेहूँ की एक ऐसी क़िस्म का विकास किया जो सामान्य क़िस्मों से कहीं ज़्यादा उपज देती थी और साथ में फ़सल को नष्ट कर देने वाली बीमारियों का भी उस पर असर नहीं होता था ।बोरलॉग ने अपनी इस उपलब्धि के लिए 1970 में नोबेल पुरस्कार भी जीता भारत में हरित क्रांति के कदम साठ के दशक के मध्य में पड़े हालैण्ड से जेनेटिक्स की पढ़ाई करने के बाद कैम्ब्रिज से पी एच डी करने वाले मनकोम्बू सम्बाशिवम् स्वामीनाथन नॉर्मन बोरलॉग के संकर बीज भारत लेकर आए उन्होंने रॉकफ़ेलर फ़ाउंडेशन की मदद से अपनी दिल्ली स्थित और फ़िलीपींस के इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट की प्रयोगशालाओं में उन बीजों को स्थानीय बीजों के साथ मिलाकर एक नई क़िस्म विकसित की

40- हन्ना एरेंत (1906-75) हैनोवर में एक जर्मन यहूदी परिवार में जन्मीं बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक दार्शनिकों में से एक हैं । वे राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में घटनाक्रियाशास्त्र से निकली दार्शनिक पद्धति और साहित्यिक स्रोतों का इस्तेमाल करने वाली पहली विद्वान थीं । 1951 में प्रकाशित अपनी रचना द ओरिजिन ऑफ टोटेलिटेरियनिज्म में उन्होंने सर्वसत्तावाद की शिनाख्त बीसवीं सदी की एक विशिष्ट परिघटना के रूप में की है । यहूदियों के हत्यारे एडॉल्फ आइखमैन के मुक़दमे पर केन्द्रित अपनी रचना में उन्होंने दुष्टता के मामूलीपन पर रोशनी डाली । एरेंत की असमाप्त कृति लाइफ़ ऑफ माइंड में चिंतन, संकल्प और निर्णय करने की प्रक्रिया पर दार्शनिक विचार किया गया है ।


41- हन्ना एरेंत ने 1963 में आइखमैन इन यरूशलम लिखी जिसका उपशीर्षक ए रिपोर्ट ऑन द बैनलिटी ऑफ ईविल था । 1968 में एरेंत की रचना ऑन रेवोल्यूशन प्रकाशित हुई । एरेंत के विमर्श में अस्तित्ववादी दृष्टिकोण की झलक मिलती है । अस्तित्व वाद की मान्यता है कि आधुनिक पश्चिमी चिंतन इंसान के वजूद को ठीक से समझ पाने में असमर्थ रहा है । वे प्रिंसटन विश्वविद्यालय में राजनीति की पहली महिला प्रोफ़ेसर बनीं । वियतनाम में अमेरिका के फ़ौजी हस्तक्षेप का उन्होंने विरोध किया । 1975 में डेनमार्क सरकार ने एरेंत को यूरोपीय सभ्यता के लिए योगदान के उपलक्ष्य में सोनिंग पुरस्कार से सम्मानित किया । यह पुरस्कार प्राप्त करने वाली वे पहली महिला और पहली अमेरिकी थीं ।

42- हिन्दुत्व मुख्यतः एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका सूत्रीकरण विनायक दामोदर सावरकर ने किया था । हिन्दुत्व किसी भी तरह से हिन्दू धार्मिकता या धर्मशास्त्र का न तो अंग है और न ही इसके किसी हिस्से से उसका जन्म हुआ है । हिन्दुत्व की बुनियाद में सामाजिक अनुदारतावाद के दर्शन और अल्पसंख्यकों के अन्यीकरण का गठजोड़ है । सावरकर ने 1923 में लिखी अपनी पुस्तक हिन्दुत्व : हू इज अ हिन्दू ? के ज़रिए हिन्दू अस्मिता को धार्मिक और आध्यात्मिक सीमाओं से निकालकर राजनीतिकसांस्कृतिक रूप दिया इस पुस्तक के मुताबिक़ हिन्दू वह है जो भारत की धरती को अपनी पितृभूमि के साथ ही साथ पुण्यभूमि भी मानता हो सावरकर ने कहा कि धर्म राष्ट्रीयता का निर्णायक लक्षण है अर्थात् धर्म बदलने का मतलब है राष्ट्रीयता बदल लेना उन्होंने सिक्खों, बौद्धों, लिंगायतों और जैनों को भी हिन्दू दायरे में शामिल किया

43- हिमाचल प्रदेश उत्तर भारत की बर्फीली पर्वतीय चोटियों के बीच बसा हुआ है । 1971 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया । हिमाचल प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 21 हज़ार, 495 वर्ग किलोमीटर है । इसके उत्तर में जम्मू और कश्मीर, पश्चिम में पंजाब, उत्तर- पश्चिम में हरियाणा, दक्षिण में उत्तर प्रदेश और दक्षिण- पूर्व में उत्तराखंड स्थित है ।यहाँ मुख्यतः हिन्दी, पहाड़ी और डोगरी भाषाएँ बोली जाती हैं । वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 6 करोड़, 7 लाख, 900 और जनसंख्या घनत्व 109 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है ।यहाँ की साक्षरता दर 77.13 प्रतिशत है ।यहाँ एक सदनीय विधान सभा है जिसमें कुल 68 सीटें हैं । यहाँ से लोकसभा के लिए चार सदस्य चुने जाते हैं । हाइड्रो- इलेक्ट्रिक, पावर, पर्यटन और कृषि यहाँ की अर्थव्यवस्था के आधार हैं ।

44- त्रिपुरा भारत के उत्तर- पूर्व में स्थित आदिवासी संस्कृति और मनमोहक लोक कला का घर है । शुरू में इसे कीतर देश के रूप में जाना जाता था । भारत के साथ एकीकरण होने से पहले त्रिपुरा एक देशी रियासत थी । मध्य युग में त्रिपुरा के राजाओं ने माणिक्य की उपाधि धारण की । सितम्बर, 1947 में इसका भारत में विलय हो गया । भारत सरकार ने इसे 1949 में असम राज्य का अंग बना दिया । नवम्बर, 1956 में त्रिपुरा एक केन्द्र शासित प्रदेश बन गया । 1963 से इसे विधानसभा और सरकार मिली । 21 जनवरी, 1972 को त्रिपुरा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया । उत्तर, दक्षिण और पश्चिम में त्रिपुरा की सीमाएँ बांग्लादेश से लगी हुई है । इसके पूर्व में असम और मिज़ोरम है ।त्रिपुरा की राजधानी अगरतला है ।

45- त्रिपुरा राज्य का कुल क्षेत्रफल 10,491.69 वर्ग किलोमीटर है । 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 3 करोड़, 6 लाख, 71 हज़ार, 032 है । यहाँ की साक्षरता दर 87.75 प्रतिशत है ।बंगाली और कोकबरोक यहाँ की राजकीय भाषाएँ हैं । त्रिपुरा की विधायिका एक सदनीय है जिसमें कुल 60 सदस्य हैं । यहाँ से लोकसभा के लिए दो तथा राज्य सभा के लिए एक सदस्य चुना जाता है । त्रिपुरा की कुल 19 प्रमुख जनजातियाँ हैं जिनमें त्रिपुरी, रेंगज और चकमा प्रमुख हैं । इसमें त्रिपुरी जनजाति के लोगों की संख्या सबसे ज़्यादा है । 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ बंगाली तक़रीबन 70 प्रतिशत हैं, जनजातियाँ लगभग 30 प्रतिशत हैं ।त्रिपुरा का 50 प्रतिशत से अधिक भू- क्षेत्र जंगल है ।

46- फ्रेंज फ़ानो ने साठ के दशक में फ़्रांस के खिलाफ चल रहे अल्जीरियाई युद्ध के सन्दर्भ में अपनी विख्यात रचना रैचेड ऑफ द अर्थ में तर्क दिया कि उपनिवेशवाद विरोधी हिंसक विद्रोह मनुष्य के अंतःकरण को स्वच्छ कर देता है । बीसवीं सदी के पहले दशक में प्रकाशित जार्ज सोरेल की रचना रिफ़्लेक्शंस ऑन वायलेंस इसी तरह के विचारों के लिए प्रसिद्ध है । माओ त्से तुंग ने कहा था कि क्रांति कोई कसीदाकारी या टी- पार्टी नहीं होती । वह तो एक हिंसक कार्रवाई होती है जिसमें एक वर्ग दूसरे का तख्ता पलट देता है । संरचनात्मक हिंसा के मुख्य सिद्धांतकार योहान गालटुंग हैं । वह अपने विमर्श में सांस्कृतिक हिंसा का भी ज़िक्र करते हैं जिसके माध्यम से संरचनागत हिंसा के विविध रूपों को जायज़ ठहराया जाता है ।

47- वर्ष 2008 में प्रकाशित अपनी रचना वायलेंस : सिक्स साइडवेज रिफ्लेक्शंस में मार्क्सवादी दार्शनिक स्लावोज ज़िजेक ने हिंसा की परिघटना की कई कोणों से जाँच की है ।अपनी विशिष्ट शैली में जिजेक ने इतिहास, दर्शन, फ़िल्मों, लतीफ़ों और मनोचिकित्सा के लकॉनियन स्कूल की मदद लेकर 2005 में हुए पेरिस के हिंसक दंगों में की तीन क़िस्मों को रेखांकित किया है । जिजेक के अनुसार हिंसा का आत्मनिष्ठ रूप अपराध और आतंक की शक्ल में व्यक्त होता है । उसका वस्तुनिष्ठ रूप नस्लवाद, घृणा आधारित वक्तव्यों और भेदभाव के रूप में सामने आता है । उसका प्रणालीगत रूप आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था द्वारा बरपाये गए विनाश के रूप में अवक्षेपित होता है ।

48- हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) 12 जुलाई, 1817 को मैसाचुसेट्स राज्य के कांकार्ड नामक स्थान पर जन्में, अमेरिका के रैडिकल व्यक्तिवादी चिंतक और नागरिक अवज्ञा के प्रथम सिद्धांतकार थे । थोरो को कवि, प्रकृति प्रेमी, अराजकतावादी, नागरिक स्वतंत्रताओं के समर्थक और नवइंग्लैण्ड- अंत: प्रज्ञावाद का प्रमुख विचारक भी माना जाता है । थोरो को कई भाषाओं का ज्ञान था जिनमें अंग्रेज़ी, इतालवी, फ़्रांसीसी और स्पेनिश प्रमुख थीं । वह प्रतिरोध की परम्परा के सैद्धांतिक दार्शनिक थे । उनकी रचना ऑन द ड्यूटी ऑफ सिविल डिसओबिडिएंस इसकी प्रतिनिधि रचना है । थोरो ने लिखा है कि हम पहले मनुष्य हैं, किसी राज्य की प्रजा बाद में । इसलिए राज्य- नागरिक सम्बन्धों का निर्वाह करते हुए हमें मनुष्य होने का अधिकार नहीं छोड़ना चाहिए ।

49- हेनरी डेविड थोरो ने कहा कि अगर क़ानून सत्य के पक्ष में नहीं है तो व्यक्ति को अपनी सत्यनिष्ठा और नैतिक विवेक पर दृढ़ रहना चाहिए । उसे सत्य के खिलाफ खड़े क़ानून के खिलाफ फ़ौरन असहयोग शुरू करना चाहिए ।तत्काल असहयोग ही किसी भी अन्याय के विरूद्ध सक्रिय और विवेकसम्मत प्रतिक्रिया है । थोरो के विचार से जेल वस्तुतः राज्य की कमजोरी का प्रतीक है । इस तरह का व्यवहार करके राज्य स्पष्ट करता है कि वह आपका बौद्धिक- नैतिक स्तर पर मुक़ाबला नहीं कर सकता । उनके मुताबिक़ जेल जाने पर राज्य आपसे आपकी इच्छा के विरूद्ध किसी तरह का सहयोग नहीं ले सकता । अत: जेल में रहने वाला व्यक्ति स्वतंत्र है ।राज्य द्वारा आपको जेल भेजना अपनी हार स्वीकार करने के बराबर है ।

50- थोरो के विचार से लोकतंत्र जागरूकता और सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पोषक है थोरो के विचार से वही शासन सर्वोत्तम है, जो सबसे कम शासन करता हो 1840 में नवइंग्लैण्डवाद अंत: प्रज्ञावाद के मुखपत्र द डायल के प्रथम अंक में थोरो की कविता सिम्पैथी प्रकाशित हुई । 1842 में उनका लेख नेचुरल हिस्ट्री ऑफ मैसुचुसैट्स छपा । इसी के बाद कुछ कविताएँ टु द मैडन इन द ईस्ट जैसे बेहतरीन लेख और द विंटर वाल जैसे प्रकृति सम्बन्धी निबंध भी प्रकाशित हुए । सन् 1854 में उनकी प्रसिद्ध रचना वाल्डेन ऑर लाइफ़ इन द वुड्स प्रकाशित हुई । जुलाई, 1846 में वाल्डेन में थोरो को एक रात जेल में बितानी पड़ी । उसके पीछे कारण यह था कि उन्होंने पिछले छह साल से अपना टैक्स नहीं दिया था । उनका तर्क था कि टैक्स की रकम सरकार अनैतिक उद्देश्यों पर खर्च करती है जिसे वे उचित नहीं मानते इसलिए टैक्स नहीं देंगे ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खण्ड 6, दूसरा संस्करण : 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7, (पेज नंबर 2062 से 2195) से साभार लिए गए हैं ।

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