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बौद्ध धर्म और उनसे सम्बन्धित कुछ जानकारियाँ और मौलिक बातें

Posted on जून 4, 2025जून 4, 2025
  • डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, बुंदेलखंड कॉलेज झाँसी (उत्तर-प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : the Mahamaya.com
  • बौद्ध धर्म की उत्पत्ति प्राचीन भारत के कपिलवस्तु राज्य के नरेश महाराज शुद्धोधन के सुपुत्र सिद्धार्थ की कहानी से जुड़ी हुई है जिन्हें बौद्ध धर्म में बुद्ध अथवा तथागत के नाम से जाना जाता है । यह विश्व का चौथा सबसे बड़ा धर्म है । विश्व की लगभग 7 प्रतिशत जनसंख्या बौद्ध धर्म की अनुयायी है । भारत में बौद्ध धर्म मानने वालों की तादाद आधिकारिक रूप से 1 प्रतिशत या इसके आसपास है । बौद्ध धर्म के बारे में विस्तृत जानकारी मूल रूप से पाली साहित्य से प्राप्त होती है । बौद्ध साहित्य के ग्रन्थों को दो भागों में बांटा जाता है : विहित और अविहित ग्रन्थ । विहित ग्रंथों को मानक ग्रन्थ माना जाता है ।
  • सिद्धार्थ गौतम का जन्म 563 ईसा पूर्व लुम्बिनी (वर्तमान नेपाल में) में बैसाख पूर्णिमा के दिन हुआ था । उनकी माता रानी माया और पिता शुद्धोधन थे । सिद्धार्थ का विवाह राजकुमारी यशोधरा के साथ हुआ था और उनका एक पुत्र राहुल था । 29 वर्ष की आयु में उन्होंने गृह त्याग किया और ज्ञान की खोज में निकल पड़े । 35 वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ गौतम को बिहार के बोधगया नामक स्थान पर पीपल वृक्ष के नीचे बैसाख पूर्णिमा के दिन ही आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई और वह बुद्ध बने । ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन वाराणसी के निकट सारनाथ के मृगदाव नामक स्थान पर अपने पॉंच साथियों को दिया । बौद्ध धर्म में इस घटना को धम्म- चक्क पबत्तन कहा जाता है । सारनाथ के उनके पहले पॉंच शिष्य थे : कौण्डिण्य, वप्प, अस्सजि, भद्दिय और महानाम ।
  • तथागत बुद्ध को महापरिनिब्बान उत्तर प्रदेश के कुशीनगर (कुशीनारा) में 80 वर्ष की आयु में 483 ईसा पूर्व में (बैसाख पूर्णिमा के दिन) प्राप्त हुआ । अनेक बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध को शाक्यमुनि के नाम से भी जाना जाता है । मान्यता है कि वह पूर्ववर्ती कस्यप बुद्ध थे और उनके उत्तराधिकारी मैत्रेय बुद्ध (भावी बुद्ध) होंगे । बौद्ध धर्म के अंतर्गत अपनाए गए तीन रत्न हैं : बुद्ध, धम्म और संघ । बुद्ध स्वयं प्रबुद्ध हैं, धम्म बुद्ध की शिक्षाएँ हैं और संघ साधना में लीन लोगों का समूह है । बौद्ध धर्म के मूल नियमों की व्याख्या चार प्रमुख श्रेष्ठ सत्यों के माध्यम से की जाती है : (1) दुःख- संसार में दुःख है । (2) समुदय – दुःख के कारण हैं । (3) निरोध : दुःख के निवारण हैं । (4) मार्ग : निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग है ।
  • बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन दु:ख से भरा हुआ है । जीवन के सभी पक्षों में दुख के बीज समाहित होते हैं । दुख इच्छाओं के कारण उत्पन्न होता है और इच्छाएँ हमें संसार से बाँध कर रखती हैं । बारंबार पुनर्जन्मों का अंतहीन चक्र, दुःख और फिर मृत्यु को प्राप्त होना । यदि कोई मनुष्य अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं से मुक्त हो जाए तो वह चिरस्थायी शांति अर्थात् निर्वाण प्राप्त कर सकता है । इसे श्रेष्ठ आठ सूत्रीय मार्ग पर चलकर प्राप्त किया जा सकता है । इसमें सम्मिलित हैं : (1) दयालुता पूर्ण, सत्य और उचित सम्भाषण (2) निष्कपट, शांतिपूर्ण और उचित कर्म (3) उचित आजीविका की खोज करना, जिससे किसी को हानि न हो । (4) उचित प्रयास और आत्मनियंत्रण (5) उचित मानसिक चेतना (6) उचित ध्यान और जीवन के अर्थ पर ध्यान केंद्रित करना (7) निष्ठावान और बुद्धिमान व्यक्ति का मूल्य उसके उचित विचारों से है (8) अन्धविश्वास से बचना और सही समझ विकसित करना चाहिए ।
  • तथागत बुद्ध के महापरिनिर्वाण के कुछ समय बाद ही उनकी शिक्षाओं को संकलित करने के लिए चार बौद्ध संगीतियाँ (सम्मेलन) आयोजित किए गए । इसके परिणामस्वरूप तीन प्रमुख पिटकों का लेखन हुआ- विनय, सुत्त और अभिधम्म । इन्हें संयुक्त रूप से त्रिपिटक कहा जाता है । इन सभी को पाली भाषा में लिखा गया था । पहली बौद्ध संगीति राजगीर में लगभग 483 ईसा पूर्व में, बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद राजा अजातशत्रु के संरक्षण में सप्तपर्णी गुफा में आयोजित की गयी । इस संगीति की अध्यक्षता का गुरुतर दायित्व महाकाश्यप के द्वारा किया गया था । इस संगीति में उपालि ने विनय पाठ किया जिसमें बौद्ध व्यवस्था के नियम हैं जबकि आनंद ने सुत्तपिटक का पाठ किया । सुत्तपिटक बुद्ध के उपदेशों और नैतिक मान्यताओं का शानदार संग्रह है ।
  • बौद्ध धर्म की दूसरी संगीति या परिषद वैशाली में 383 ईसा पूर्व, तथागत बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग 100 साल बाद राजा कालाशोक के संरक्षण में आयोजित की गयी । इस संगीति की अध्यक्षता भिक्षु सबकामी के द्वारा की गयी थी । इस परिषद में मुख्य रूप से विनय पिटक के तहत 10 विवादित बिंदुओं पर चर्चा की गयी तथा उनका समाधान किया गया । तीसरी बौद्ध संगीति या परिषद 250 ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र में राजा अशोक के संरक्षण में आयोजित की गयी । इस परिषद की अध्यक्षता भिक्षु मोगलीपुत्त तिस्स ने किया था । इस संगीति में अभिधम्म पिटक का संकलन हुआ । चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन राजा कनिष्क के संरक्षण में, कश्मीर के कुण्डलवन में 72 ईसवी में किया गया । इस संगीति की अध्यक्षता भिक्षु वसुमित्र के द्वारा की गयी थी । इस परिषद में बौद्ध धर्म का विभाजन हीनयान और महायान में हुआ ।
  • बौद्ध धर्म के अन्तर्गत चार प्रमुख मत विकसित हुए : हीनयान बौद्धवाद, महायान बौद्धवाद, थेरवाद बौद्धवाद और वज्रयान बौद्धवाद । हीनयान का अर्थ है कम या (वाहन) साधन रहित होना । इस सम्प्रदाय में बुद्ध के मूल उपदेशों के अनुयायी सम्मिलित हैं । यह एक रूढ़िवादी परंपरा है । हीनयानी बुद्ध की मूर्ति या चित्र की पूजा करने में विश्वास नहीं करते । इसका अंतिम उद्देश्य निर्वाण है । हीनयान का एक उपसम्प्रदाय स्थविरवाद या थेरवाद है । हीनयान सम्प्रदाय के विद्वान जन संवाद के लिए पाली भाषा का प्रयोग करते थे । सम्राट अशोक ने हीनयान सम्प्रदाय को संरक्षण दिया क्योंकि महायान बहुत बाद में अस्तित्व में आया ।
  • महायान का अर्थ है बड़ा वाहन । महायान सम्प्रदाय हीनयान की तुलना में अधिक उदार है । यह बुद्ध और बोधिसत्वों को बुद्ध के दिव्य प्रतीक के रूप में मानता है । महायान का अंतिम लक्ष्य आध्यात्मिक उत्थान है । महायान के अनुयायी बुद्ध की मूर्ति या पूजा में विश्वास करते हैं । बोधिसत्व की अवधारणा महायान बौद्ध धर्म का ही परिणाम है । महायान को बोधिसत्वयान या बोधिसत्व का वाहन भी कहते हैं । जो बोधिसत्व सभी प्राणियों के लाभार्थ पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है उसे सम्यक् सम्बुद्ध कहा जाता है । कमलसूत्र तथा महावंश प्रमुख महायान ग्रन्थ हैं ।
  • महायान सम्प्रदाय प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा छह परिपूर्णताओं (या पारिमिताओं) का पालन किये जाने में विश्वास करता है : (1) दान (उदारता) (2) शील (सदाचार, नैतिकता, अनुशासन और सदाचार) (3) शांति (धैर्य, सहनशीलता, प्रतिग्रह) (4) वीर्य (ऊर्जा, कर्मठता, ओज, प्रयास) (5) ध्यान (एक बिंदु पर ध्यान केंद्रित करना) (6) प्रज्ञान (बुद्धिमत्ता और परिज्ञान) कुषाण वंश के सम्राट कनिष्क को पहली शताब्दी में महायान सम्प्रदाय का संस्थापक माना जाता है । नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, चीन, जापान, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, मंगोलिया तथा तिब्बत आदि देशों में महायान सम्प्रदाय का पालन होता है ।
  • महायान सम्प्रदाय के अन्तर्गत दो प्रमुख उप- सम्प्रदाय प्रचलित हैं : माध्यमिक और योगाचार । माध्यमिक, सून्यता सिद्धांत पर आधारित है । प्रमुख बौद्ध विद्वान नागार्जुन के द्वारा इसकी स्थापना की गई थी । सून्यता सिद्धांत का केन्द्रीय विचार इस तथ्य में निहित है कि सभी चीज़ें या परिघटनाएं (धर्म) प्रकृति, पदार्थ या सार (स्वभाव) से रिक्त (सून्य) हैं । चन्द्रकीर्ति और शातिदेव इस सम्प्रदाय के महान विद्वान थे । योगाचार को मन मात्र सम्प्रदाय भी कहा जाता है । यह बौद्ध दर्शन और मनोविज्ञान की वह प्रभावशाली परम्परा है जो ध्यान और योग पद्धतियों के आन्तरिक चश्मे के माध्यम से, धारणा और चेतना के अध्ययन पर बल देती है । इसकी स्थापना का श्रेय असंग और वसबंधु को दिया जाता है ।
  • बौद्ध धर्म में बोधिसत्व उसे कहा जाता है जो बुद्धत्व हासिल करने के क़रीब होता है । जिसने अपने आप को सहज इच्छा और मन को करुणामय बना लिया है । महायान में सार्वभौमिक मुक्ति की अवधारणा में विश्वास किया जाता है । जातक कथाओं के अनुसार बुद्ध अपने पूर्व जन्मों में बोधिसत्व थे । थेरवाद में बुद्धत्व हासिल करने के लिए व्यक्ति को जन्म, रोग, मृत्यु, दुख, अशुद्धता और भ्रमों से गुजरना पड़ता है । बुद्ध बनने के मार्ग पर बोधिसत्व को दस धराओं या भूमियों से गुजरना पड़ता है । यह धराएँ हैं : प्रसन्नता, निर्मलता, प्रकाश, दीप्ति, अति कठोर प्रशिक्षण, उत्कृष्टता, बहुत दूर जाना, अचल, अच्छे विवेक वाली बुद्धिमत्ता और धर्म रूपी बादल ।
  • बौद्ध धर्म में प्रमुख बोधिसत्व : अवलोकितेश्वर, वज्रपाणि, मंजुश्री, सामंत भद्र, क्षितिगर्भ, मैत्रेय, आकाशगर्भ, तारा, वसुन्धरा, स्कन्द और सीतातपात्र । अवलोकितेश्वर बोधिसत्व को पद्मपाणि के नाम से भी जाना जाता है । इन्हें कमल का फूल पकड़े हुए वर्णित किया गया है । ऐसी चित्रकारी अजन्ता की गुफाओं में देखने को मिलती है । इन्हें करुणा के बोधिसत्व कहा जाता है । इन्हें पवित्र दलाई लामा के रूप में अवतरित हुआ माना जाता है । वज्रपाणि बोधिसत्व को भी बुद्ध के तीन सुरक्षात्मक देवताओं में से एक माना जाता है । इन्हें भी अजन्ता की गुफाओं में चित्रित किया गया है ।
  • बोधिसत्व मंजुश्री बुद्ध की बुद्धिमत्ता से सम्बन्धित हैं । अजन्ता की गुफाओं में इनका भी चित्रण किया गया है । इनके हाथ में तलवार लिए हुए दिखाया जाता है । बोधिसत्व सामंतभद्र ध्यान और आचरण से सम्बन्धित हैं । बुद्ध और मंजुश्री के साथ मिलकर वह बौद्ध धर्म में शाक्य मुनि त्रिमूर्ति की रचना करते हैं । बोधिसत्व मैत्रेय भविष्य के बुद्ध, जो पृथ्वी पर आएँगे, पूर्ण ज्ञान प्राप्त करेंगे और शुद्ध धर्म की शिक्षा देंगे । हंसते हुए बुद्ध (लाफिंग बुद्धा) को मैत्रेय का अवतार माना जाता है । बोधिसत्व तारा वज्रयान बौद्ध सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं और कार्यों एवं उपलब्धियों के गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं । बोधिसत्व वसुन्धरा नेपाल में लोकप्रिय हैं और धन, समृद्धि तथा विपुलता से सम्बन्धित हैं । बोधिसत्व स्कन्द विहारों और बुद्ध की शिक्षा के रक्षक हैं ।
  • दीपंकर बुद्ध अतीत के बुद्धों में से एक थे, जो गौतम बुद्ध से पहले आत्मज्ञान तक पहुँचे थे । बौद्ध धर्म के अनुसार, दीपंकर पूर्व बुद्ध थे । इन्हें महायान, वज्रयान और थेरवाद में सम्मान दिया जाता है । थेरवाद बौद्ध धर्म के अन्तर्गत अर्हत उसे कहा जाता है जिसने अस्तित्व के वास्तविक स्वरूप में अंतर्दृष्टि प्राप्त कर लिया है तथा निर्वाण प्राप्त किया है । महायान बौद्ध धर्म के तहत अर्हत वह व्यक्ति है जो निर्वाण प्राप्त करने के मार्ग में बहुत आगे है लेकिन इसे प्राप्त नहीं किया है । अर्थात् अर्हत वह व्यक्ति है जिसने खुद के लिए शांति प्राप्त की है लेकिन इस शांति को दूसरों के लिए छोड़ना नहीं चाहता । महायान में बोधिसत्व एक जागृत व्यक्ति है जिसने दूसरों के लिए संसार में अनिश्चित काल तक रहने की प्रतिज्ञा ली है ।
  • थेरवाद बौद्ध धर्म वयस्क भिक्षुओं को संदर्भित करता है । यह सम्प्रदाय पालि सिद्धांत में संरक्षित बुद्ध के उपदेशों को अपने सिद्धांत के मर्म के रूप में मानता है । थेरवाद का अन्तिम लक्ष्य क्लेशों की समाप्ति और निर्वाण की उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त करना है । चिंता, भय, क्रोध, ईर्ष्या, लालसा और अवसाद क्लेशों की विभिन्न मानसिक स्थितियाँ हैं । थेरवादी परंपरा में समता और विपस्यना बुद्ध के द्वारा वर्णित अष्टांगिक मार्ग के विभिन्न अंग हैं । समता, मन को शांत करती है और विपस्यना अस्तित्व के तीन गुणों : अस्थायित्व, दुख और गैर आत्मा की अनुभूति की अंतर्दृष्टि प्रदान करती है । थेरवाद विभाज्यवाद अर्थात् विश्लेषण का शिक्षण की अवधारणा में विश्वास करता है ।
  • थेरवाद का सबसे बड़ा ग्रन्थ है विशुद्धि मार्ग अर्थात् शुद्धि करण का मार्ग । इसकी रचना पाँचवीं शताब्दी में श्रीलंका में बुद्धघोष ने किया था । उक्त ग्रन्थ में शुद्धिकरण के सात चरणों की चर्चा की गयी है । निर्वाण प्राप्ति हेतु इनका पालन करना पड़ता है । थेरवाद को हीनयान सम्प्रदाय का परवर्ती माना जाता है । विश्व के लगभग 35.8 प्रतिशत बौद्ध थेरवाद परम्परा से सम्बन्धित हैं । इसे मानने वाले देशों में श्रीलंका, कम्बोडिया, लाओस, थाईलैण्ड, म्यांमार आदि हैं । थेरवाद के लिए पालि पवित्र भाषा है ।
  • वज्रयान बौद्ध धर्म को तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहा जाता है । इसकी प्रमुख देवी तारा हैं । वज्रयान बौद्ध दर्शन के महायान पर आधारित है जिसमें तंत्र, मंत्र और यंत्रों की श्रेष्ठता को मुक्ति का साधन माना जाता है । इस सम्प्रदाय के अनुसार महायान की छह पूर्णता या पारमिता की तुलना में मंत्र बुद्धत्व प्राप्त करने का एक सरल उपाय है । विश्व की लगभग 5.7 प्रतिशत बौद्ध जनसंख्या इससे सम्बन्धित है । तिब्बत, भूटान और मंगोलिया देशों में वज्रयान का सबसे अधिक प्रभाव है ।
  • तथागत बुद्ध के दस महान् शिष्यों में सारिपुत्त, मौद्गल्यायन, महाकाश्यप, आनन्द, पूर्ण मैत्रायणी पुत्र, अनुरुद्ध, राहुल, कात्यायन, उपालि और सुभूति शामिल थे । सारिपुत्त को बुद्ध के ज्ञान में सबसे अग्रगण्य शिष्य माना जाता है । उन्हें दूसरे बुद्ध के निकट का दर्जा दिया गया है । वह बुद्ध के ऐसे पहले शिष्य थे जिन्हें बुद्ध ने अन्य भिक्षुओं को आदेश देने की अनुमति दी थी । मौद्गल्यायन को भी संघ में प्रथम दो शिष्यों की पंक्ति में देखा जाता है । महाकाश्यप को संघ का पिता कहा जाता था । वह बुद्ध के महापरिनिर्वाण के समय संघ के सबसे वरिष्ठ सदस्य थे । महाकाश्यप ने ही पहली बौद्ध संगीति की अध्यक्षता की थी । बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उन्होंने ही भिक्षुओं और भिक्षुणियों का नेतृत्व सम्भाला था ।
  • आनन्द भी बुद्ध के परम् शिष्यों में से एक थे । उन्हें सर्वश्रेष्ठ स्मृति के रूप में जाना जाता था । वह बीस से अधिक वर्ष तक बुद्ध के प्रिय शिष्य थे । आनन्द को बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद महाकाश्यप के मार्गदर्शन में ज्ञान की प्राप्ति हुई । बौद्ध ग्रंथों के अनुसार संघ में महिलाओं को प्रवेश दिलाने में आनंद की भूमिका रही है । पूर्ण मैत्रायणी पुत्र भी बौद्ध धर्म के महानतम शिक्षक थे । अनुरुद्ध बुद्ध के चचेरे भाई थे और बुद्ध के महापरिनिर्वाण के समय कुशीनारा में उपस्थित थे । राहुल सिद्धार्थ गौतम के इकलौते पुत्र थे ।वह ज्ञान के लिए अपनी उत्सुकता के लिए जाने जाते हैं । कात्यायन बुद्ध के संक्षिप्त वक्तव्यों का विस्तार करने में प्रवीण थे । उपालि को विनय के आचार्य के रूप में जाना जाता है । सुभूति श्रावस्ती में जेतवन विहार के समर्पण समारोह में बुद्ध की शिक्षा सुनने के बाद भिक्षु बन गए थे ।उन्हें संघ में उपहार योग्य होने में अग्रणी की उपाधि मिली थी ।
  • बौद्ध धर्म से संबंधित अन्य प्रमुख व्यक्तित्वों में नागसेन, नागार्जुन, वसुबन्धु, बोधिधर्म, बुद्धघोष, पद्मसम्भव, अतिश और दलाईलामा आदि नाम प्रसिद्ध हैं । नागसेन ने भारत- यूनानी सम्राट द्वारा बौद्ध धर्म पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दिए । यह प्रश्नोत्तर मिलिन्द पन्हो नामक ग्रन्थ में दर्ज हैं । यह 150 ईसवी के आस-पास की घटना है । नागार्जुन महायान बौद्ध धर्म के माध्यमिक सम्प्रदाय के संस्थापक थे । इनका जीवनकाल 150 से 250 ईसवी के लगभग रहा । वसुबन्धु चौथी- पांचवीं शताब्दी में गांधार के महायान बौद्ध धर्म के उन्नायक थे । इन्होंने सर्वस्तिवाद और सौत्रांतिक विचारधारा के दृष्टिकोण से लिखा । बोधिधम्म का जीवनकाल पाँचवीं और छठीं शताब्दी के आसपास था । इन्होंने बौद्ध धर्म का चीन देश में प्रचार प्रसार किया ।
  • बुद्धघोष पाँचवीं शताब्दी के भारतीय थेरवादी बौद्ध टीकाकार थे जिन्होंने विशुद्धिमग्ग जैसी विद्वतापूर्ण पुस्तक लिखी । पद्मसम्भव आठवीं शताब्दी के भिक्खु थे जिन्हें तिब्बत, भूटान और हिमालय- स्थित राज्यों में दूसरे बुद्ध के रूप में जाना जाता है । अतिश: एक बंगाली बौद्ध धर्म के गुरु और प्रमुख व्यक्तित्व थे जिन्होंने 11 वीं शताब्दी में एशिया में तिब्बत से सुमात्रा तक महायान एवं वज्रयान सम्बन्धी बौद्ध विचारों को प्रेरणा दी । दलाईलामा तिब्बती बौद्ध धर्म के पीली टोपी वाली शाखा के आधुनिक आध्यात्मिक गुरु हैं । जिनका पूरा नाम तेनजिन ग्यात्सो है । दलाई लामा एक मंगोलियाई पदवी है जिसका मतलब होता है ज्ञान का महासागर । उन्हें सम्मान से परमपावन भी कहा जाता है । 1989 में दलाई लामा को तिब्बत की मुक्ति के लिए अहिंसक संघर्ष जारी रखने के लिए शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया ।
  • बौद्ध धर्म से जुड़े हुए कुछ ऐतिहासिक महत्व के स्थल : तथागत बुद्ध ने बोधि प्राप्ति के बाद लगभग 40 वर्षों तक पदयात्री बन मानवता को प्रेम, दया, ममता और करुणा का संदेश दिया । जिन स्थानों पर तथागत बुद्ध का काफ़ी आवागमन था उनमें से कुछ प्रमुख स्थल निम्नलिखित हैं : बोधगया- यह वह स्थान है जहाँ पर बोधिवृक्ष के नीचे राजकुमार सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ था । आजकल यह बिहार राज्य के गया ज़िले में गया से 13 किलोमीटर दक्षिण में फल्गु नदी के पश्चिमी तट पर गंगा के मैदान के मध्य भाग स्थित है । यूनेस्को ने यहाँ पर स्थित महाबोधि विहार को विश्व धरोहर घोषित किया है । मान्यता है कि इस महाविहार की स्थापना सम्राट अशोक के शासनकाल में हुई थी । यहाँ पर आज भी मौजूद बोधिवृक्ष उस बोधिवृक्ष की पाँचवीं पीढ़ी है जिसके नीचे तथागत बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी । कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने इसी स्थान पर हीरों से बना राजसिंहासन बनवाया था ।
  • चंपानगर, बिहार में स्थित वह स्थान है जहाँ पर तथागत बुद्ध ने कंदरक सुत्त, प्रसिद्ध सोनादण्ड सुत्त की शिक्षा दी थी । गया – बिहार राज्य में स्थित यह वह स्थान है जहाँ पर तथागत बुद्ध ने अपना प्रसिद्ध अग्नि उपदेश दिया था । गुरपा- बिहार में स्थित वह पर्वत जहाँ पर महाकाश्यप मैत्रेय या भावी बुद्ध की प्रतीक्षा में हैं । इन्द्रसाल गुफ़ा- बिहार राज्य में स्थित वह स्थान जहाँ पर तथागत बुद्ध ने सक्कपन्हा सुत्त की शिक्षा दी थी । ऐसा माना जाता है कि इसी स्थान पर सक्क बुद्ध से अपने आठ प्रश्न पूछने आये थे । जेठियन- बिहार में स्थित यह वह नगर था जहाँ पर तथागत बुद्ध और राजा बिम्बिसार पहली बार मिले थे । सातवीं शताब्दी ईस्वी में जेठियन तत्कालीन महानतम संत जयसेन के आसन के रूप में प्रसिद्ध था । चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यहीं जयसेन के साथ अध्ययन करते हुए दो वर्ष व्यतीत किये थे ।
  • केसरिया- बिहार राज्य में स्थित यह वह स्थान है जहाँ पर तथागत बुद्ध ने अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में प्रसिद्ध कालाम सुत्त की दीक्षा दी थी । बुद्ध के समय में यह स्थान केशपुत्त के नाम से जाना जाता था । महापरिनिर्वाण प्राप्त करने से पहले कुशीनगर जाते समय तथागत बुद्ध ने यहाँ पर वैशाली के लोगों को भिक्षापात्र दान किया था । बाद में इस स्थान पर एक स्तूप का निर्माण किया गया । इस केसरिया स्तूप के फाहि्यान और ह्वेनसांग दोनों ने दर्शन किये थे । यह भारत में सबसे बड़ा स्तूप है । नालन्दा – बिहार राज्य में स्थित यह वह स्थान है जहाँ पर तथागत बुद्ध महाकाश्यप से मिले थे और उनका मत परिवर्तन किया था । अपनी कई यात्राओं के दौरान बुद्ध ने यहाँ पर अनेक उपदेश दिये हैं ।
  • पटना- यह बिहार राज्य की राजधानी है । तथागत बुद्ध कुशीनगर की अपनी अंतिम यात्रा सहित कई बार यहाँ से गुज़रते थे । प्रागबोधि- बिहार राज्य में स्थित यह वह पर्वत है जहाँ पर राजकुमार सिद्धार्थ ने तपस्या की थी । यह स्थान अब धुंगेश्वर के नाम से जाना जाता है । राजगीर- बिहार स्थित यह नगर बुद्ध के जीवन में घटित कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी रहा है । वैशाली- बिहार राज्य में स्थित यह स्थान बुद्ध को बहुत प्रिय था । ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध प्रायः वैशाली आते- जाते रहे हैं । वैशाली में ही बुद्ध ने अपने महापरिनिर्वाण से पहले अपना अंतिम उपदेश दिया था । यहाँ पर राजा कालाशोक के द्वारा द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया था ।
  • कौशाम्बी- उत्तर- प्रदेश में स्थित यह वह स्थान है जहाँ पर तथागत बुद्ध रुके थे और ज्ञान प्राप्ति के छठें और नवें वर्ष में उपदेश दिये थे । मथुरा- उत्तर प्रदेश स्थित इस नगर में बुद्ध केवल एक बार आये थे । अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध के वचन हैं “मथुरा की पॉंच प्रतिकूल स्थितियाँ हैं : भूमि असमान है, बहुत धूल है, कुत्ते भयंकर हैं, बुरी आत्माएं हैं और भिक्षा में भोजन प्राप्त करना कठिन है ।” प्रभोसा- उत्तर प्रदेश में स्थित यह वह पहाड़ी है जहाँ पर बुद्ध ने मौन रहकर अपनी छठीं वर्षाकाल बिताया था । संकिसा- उत्तर- प्रदेश में स्थित यह वह स्थान है जहाँ किंवदंती है कि बुद्ध तुसीता स्वर्ग से अवतरित हुए थे । माना जाता है कि बुद्ध ने अपनी मॉं को अभिधम्म पिटक की शिक्षा देते हुए तुसीता स्वर्ग में तीन महीने बिताए थे और फिर इसी गाँव में वापस धरती पर उतरे थे । कालांतर में यहाँ पर सम्राट अशोक ने एक विशाल स्तंभ स्थापित किया था ।
  • सारनाथ- उत्तर- प्रदेश में स्थित वह स्थान जहाँ तथागत बुद्ध ने हिरण पार्क में अपने पाँच साथी साधकों को शील, चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग पर अपना पहला उपदेश दिया था । श्रावस्ती- उत्तर प्रदेश में स्थित श्रावस्ती वह नगर था जहाँ तथागत बुद्ध ने 24 वर्षावास किया था । वह यहाँ जेतवन नामक विहार में विश्राम करते थे जो उन्हें एक धनी व्यापारी अनाथपिंडक ने उपहार में दिया था । जेतवन ही वह स्थान था जहाँ बुद्ध ने अपने सबसे अधिक उपदेश दिये थे । बौद्ध धर्म का दूसरा सबसे पवित्र वृक्ष आनन्द बोधि वृक्ष जेतवन में ही स्थित है । कुशीनगर- उत्तर प्रदेश में स्थित यह वह नगर था जहां पर 80 वर्ष की आयु में साल के वन में तथागत बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था । मुकुट बंधन चैत्य के नाम से प्रसिद्ध रामाभार स्तूप यहीं पर है जहाँ पर बुद्ध की शरीर को अग्नि में समर्पित किया गया था । नेपाल में स्थित लुम्बिनी नामक स्थान पर राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म हुआ था जो आगे चलकर बुद्ध बने ।
  • बौद्ध साहित्य को मानक और अमानक रचनाओं में विभाजित किया जाता है । मानक साहित्य के अन्तर्गत पालि भाषा में रचित त्रिपिटक को शामिल किया जाता है । जबकि जातक कथाओं को अमानक साहित्य में शामिल किया जाता है । जातक बुद्ध के पिछले जन्मों की कहानियों का संकलन है ।अश्वघोष द्वारा रचित महान् महाकाव्य बुद्धचरित भी बौद्ध साहित्य का अनमोल ख़ज़ाना है । श्रीलंका के अनुराधापुरा में रची गयी सम्भवतः तीसरी या चौथी शताब्दी की रचना दीपवंश भी बौद्ध साहित्य का प्रमुख ग्रंथ है । इसमें श्रीलंका में बुद्ध की यात्रा और बुद्ध के अवशेषों के सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है । श्रीलंका का ही दूसरा बौद्ध धर्म का ग्रन्थ महावंश भी पालि भाषा में लिखा गया महाकाव्य है । यह पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में राजा विजय के शासन के दौरान लिखी गयी थी ।
  • ललितविस्तर सूत्र एक महत्वपूर्ण महायान ग्रन्थ है । इसका अर्थ है पूर्ण नाटक ।इसमें सारनाथ में पहले प्रवचन तक बुद्ध के जीवन से जुड़ी विभिन्न कहानियाँ दी गयी हैं । इसी प्रकार से उदान प्राचीन थेरवाद के सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में से एक है । इसमें अंधों और हाथी की प्रसिद्ध कहानी दी गयी है । श्रीलंका में 12 वीं शताब्दी में एक गद्य कविता का संग्रह है जिसका नाम है बोधिवंश । इसी प्रकार विशुद्धि मग्ग पाँचवीं शताब्दी में बुद्धघोष के द्वारा श्रीलंका में लिखा गया ग्रन्थ है । इसका सम्बन्ध थेरवादी बौद्ध सम्प्रदाय से है और इसमें बुद्ध की विभिन्न शिक्षाओं पर चर्चा की गयी है ।
  • बौद्ध शिक्षा की तीन मुख्य विशेषताएँ- अनुशासन, ध्यान और ज्ञान थीं । छात्रों के मठों में प्रवेश के बाद पब्बजा (प्रव्रज्या) समारोह का आयोजन किया जाता था, जिसके बाद उन्हें परिवार के साथ सम्बद्ध तोड़ने पड़ते थे । पब्बजा समारोह होने के बाद 12 साल तक शिक्षा जारी रहती थी । उसके बाद ही उपसम्पदा समारोह का आयोजन किया जाता था जिसके बाद एक नवदीक्षित छात्र भिक्खु बन जाता था । बौद्ध शिक्षा बहुत सुसंगठित थी और छात्र एवं शिक्षक दोनों अनुशासित जीवन व्यतीत करते थे ।
  • बौद्ध त्योहारों में बुद्ध पूर्णिमा का सर्वाधिक महत्त्व होता है ।बुद्ध पूर्णिमा या बुद्ध जयंती को भगवान बुद्ध के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है । यह अप्रैल अथवा मई के महीने में आता है । इसे थेरवाद परम्परा में विशाखा पूजा और सिक्किम में सागा दावा कहा जाता है । इस दिन बौद्ध धर्म में ग्रन्थों का जाप, बुद्ध की मूर्ति की पूजा, बोधि वृक्ष की पूजा और ध्यान भी किया जाता है । महायान बौद्ध संगीति वाद्य यंत्र ग्यालिंग के साथ शोभायात्रा आयोजित करते हैं । वे कंग्यूर ग्रन्थों को भी पढ़ते हैं । थेरवाद बौद्ध केवल बुद्ध की मूर्तियों की औपचारिक पूजा करते हैं । सोंगक्रन बौद्ध त्योहार को बसंत की सफ़ाई के रूप में मनाया जाता है । अप्रैल महीने में मनाए जाने वाले इस त्योहार में लोग अपने घरों की सफ़ाई करते हैं और वस्त्र धोते हैं तथा भिक्खुओं पर सुगंधित जल छिड़कने का आनंद लेते हैं ।
  • जुताई त्योहार को बौद्ध धर्म में बुद्ध के पहले ज्ञान प्राप्ति के क्षण के रूप में मनाया जाता है । जब उनकी आयु सात वर्ष की थी और वह अपने पिता के साथ खेतों की जुताई देखने गए थे । इसे मई माह में मनाया जाता है । दो सफेद बैल सुनहरे रंग से पेंट किए गए हल को खींचते हैं जिनके पीछे श्वेत परिधान में चार कन्याएं अपनी टोकरियों में से धान के बीज फेंकती हैं । इसी प्रकार से हेमिस गोम्पा त्योहार को बौद्ध परंपरा में गुरु रिन्पोचे (पद्मसम्भव) की जन्म शताब्दी के रूप में लद्दाख के हेमिस गोम्पा मठ में आयोजित किया जाता है । इस त्योहार को बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाया जाता है । इस त्योहार का मुख्य आकर्षण लामाओं के द्वारा मुखौटे पहन कर किया जाने वाला नृत्य है ।
  • नरोपा महोत्सव भी बौद्ध धर्म का त्योहार है जिसे हिमालय का कुम्भ कहा जाता है । यह तिब्बत में मनाया जाता है । तिब्बती कैलेंडर के अनुसार हर 12 साल बाद लद्दाख में बौद्ध दार्शनिक और विद्वान नरोपा के जीवन पर जश्न मनाया जाता है जो 11 वीं शताब्दी ईसवी के दौरान रहते थे और नालंदा महाविहार में पढ़ाते थे । विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रमुख आचार्य अतिश थे जो दीपंकर श्रीज्ञान के नाम से जाने जाते थे । वह 11 वीं शताब्दी ईस्वी में तिब्बत गये और उन्होंने तिब्बत को बौद्ध धर्म का एक मज़बूत आधार दिया । तिब्बती मंत्री थोन्मी संभोत नालंदा में एक छात्र थे । यहाँ से वापस जाने के बाद उन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया । यहाँ तक कि वहाँ के राजा भी बौद्ध बन गये और उन्होंने बौद्ध धर्म को राज्य का धर्म घोषित कर दिया ।
  • बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए कई चीनी और भारतीय विद्वान प्राचीन रेशम मार्गों से यात्रा करते थे । बौद्ध धर्म चीन से कोरिया गया । सुण्डो पहले बौद्ध भिक्षु थे जिन्होंने बुद्ध की एक प्रतिमा और उनके सूत्रों के साथ 352 ईसवी में कोरिया में प्रवेश किया था । इसके बाद 384 ईसवी में आचार्य मल्लानंद वहाँ पर पहुँचे थे । ज्ञान के प्रति समर्पण के कारण बौद्ध ग्रंथों को कोरियाई लोगों ने 6000 जिल्दों में प्रकाशित करवाया । कोरिया से बौद्ध धर्म जापान में पहुँचा । यहाँ पर बौद्ध धर्म को राज्य धर्म का दर्जा दिया गया है । म्यांमार 11 वीं सदी से लेकर 13 वीं शताब्दी तक पगन बौद्ध संस्कृति का महान केन्द्र था ।
  • बौद्ध धर्म के उन्नयन में तत्कालीन महाविहारों/ विश्वविद्यालयों का भी बहुत बड़ा योगदान था । तक्षशिला विश्व का ऐसा पहला विश्वविद्यालय था जहाँ 60 विषयों से अधिक की पढ़ाई की जाती थी । ईसा पूर्व 900/800 में स्थापित इस विश्वविद्यालय में दुनिया भर के विद्यार्थी पढ़ने के लिये आते थे और ज्ञान हासिल कर अपने देश को वापस जाते थे । इसी तरह 5 वीं शताब्दी ईसवी सन् में स्थापित नालंदा महाविहार भारत में ज्ञान का दीपक था । चीनी यात्री ह्वेनसांग ने नालंदा में बौद्ध भिक्षु शीलभद्र के मार्गदर्शन में दो साल तक अध्ययन किया था । उसे यहाँ पर एक भारतीय नाम मोक्षदेव दिया गया था । दूसरे चीनी यात्री आई- त्सिंग 10 वर्ष तक नालंदा में रहा । 8 वीं शताब्दी में तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचार का नेतृत्व करने वाले शांतिरक्षित नालंदा के एक विद्वान थे ।
  • भारत का रेशम मार्ग जो सीधे चीन को जोड़ता है, प्राचीन समय से ही एक प्रमुख व्यापारिक मार्ग था जिसने बौद्ध धर्म को भारत से सुदूर पूर्व तक फैलाने में मदद की । यह मार्ग एशिया, यूरोप और अफ़्रीका के बीच वस्तुओं, विचारों और संस्कृति के आदान- प्रदान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता था । रेशम का व्यापार इस मार्ग का एक प्रमुख हिस्सा था इसलिए इसे रेशम मार्ग कहा जाता था । मैसूर में एक चीनी सिक्का मिला है जो 183 ईसा पूर्व का है । बौद्ध धर्मावलंबियों के भारत से बाहर जाने से पहले समुद्री सम्बन्धों के अस्तित्व को इंगित करता है । बोधिसेन जो मदुरै के एक बौद्ध भिक्षु थे, वह आठवीं शताब्दी ईस्वी में जापान में संस्कृत पढ़ाने गए थे । जापान में केगॉन स्कूल की स्थापना करने वाले वह पहले भारतीय थे ।
  • बौद्ध वास्तुकला के प्रतीक के रूप में सम्राट अशोक को शिद्दत के साथ याद किया जाता है । भारत में सम्राट अशोक का शासनकाल 273 ईसा पूर्व से 232 ईसा पूर्व तक था । 261 ईसा पूर्व में कलिंग के युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और 260 ईसा पूर्व में उन्होंने बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया था । सम्राट अशोक ने स्वयं भी बुद्ध की करुणा और अहिंसा का अनुसरण करना प्रारम्भ किया और अपने राज्य की जनता को भी इसके लिए प्रेरित किया । उन्होंने 14 राजाज्ञाओं के माध्यम से अपना दर्शन लिखा, जो सम्पूर्ण साम्राज्य में फैला । इन्हें सम्राट अशोक की राजाज्ञाओं के रूप में जाना जाता है । सम्राट अशोक ने हज़ारों बौद्ध स्तूपों और विहारों का निर्माण करवाया । उनके स्तूपों में से एक महान सॉंची स्तूप, 1989 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में चयनित किया गया ।
  • महायान बौद्ध धर्म के महान संरक्षक के रूप में सम्राट हर्षवर्धन को याद किया जाता है । वह उत्तर भारत के 606 से 647 ईसवी तक शासन करने वाले भारतीय सम्राट थे जिनकी राजधानी कन्नौज थी । 16 वर्ष की आयु में उन्होंने राजगद्दी सम्भाली और अपने शत्रुओं को पराजित कर अपनी बहन भाग्यश्री को बचाया । चीनी यात्री ह्वेनसांग लगभग 8 वर्षों तक कन्नौज में महाराजा हर्षवर्धन के अतिथि बनकर रहे । बौद्ध धर्म के प्रभाव के चलते उन्होंने अपने राज्य में पशुओं की हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया था । महाराजा हर्षवर्धन बहुत दानी थे । प्रयाग में लगने वाले कुंभ मेले में दान की परम्परा उन्होंने ही शुरू की थी । माना जाता है कि जीवन के अंतिम समय पर हर्षवर्धन ने अपनी सारी संपत्ति यहाँ तक कि अपने कपड़े भी दान कर दिया था । भारतीय इतिहास में हर्षवर्धन का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है ।
  • बौद्ध शिक्षाओं के संरक्षक के रूप में सम्राट धर्मपाल को याद किया जाता है । वह बंगाल के पाल वंश के द्वितीय शासक तथा पाल राजवंश के संस्थापक गोपाल के पुत्र थे । वह बौद्ध धर्म के महान् अनुयायी थे । उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित किया तथा विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की, जो बौद्ध धर्म का महान् शिक्षण केन्द्र बना । धर्मपाल ने सोमापुरी और पहाड़पुर में विहार का निर्माण करवाया । उन्होंने ओदन्तपुरी में एक मठ का निर्माण कराया । कालांतर में सम्राट धर्मपाल के शासनकाल से सम्बन्धित कई लेख प्राप्त हुए जिसमें नालंदा शिलालेख भी शामिल है ।
  • बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अजन्ता की गुफाओं को 1983 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थलों की सूची में शामिल किया । यह गुफाएँ महाराष्ट्र में औरंगाबाद के निकट बाघोरा नदी के तट पर सह्रयाद्री पर्वत श्रृंखला में चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफ़ाओं की श्रृंखला है । यहाँ पर कुल 29 बौद्ध गुफ़ाएँ हैं जिनमें से 25 का प्रयोग आवासीय गुफाओं के रूप में किया जाता था जबकि 4 का चैत्य (प्रार्थना हाल) के रूप में उपयोग किया जाता था । इन गुफाओं को 200 ईसा पूर्व से लेकर 650 ईसवी के बीच की अवधि में बनाया गया माना जाता है । अजन्ता की गुफाओं का सन्दर्भ चीनी यात्री ह्वेनसांग (सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान) और फाह्ययान (चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल के दौरान) के यात्रा वृत्तान्तों में पाया जाता है ।
  • अजन्ता की गुफाओं में बोधिसत्व के रूप में बुद्ध के पूर्व जीवन की जातक कथाओं से चित्रकारी की गयी है । गुफ़ा संख्या- 1 में त्रिभंग मुद्रा में विभिन्न बोधिसत्वों की चित्रकारियाँ : 1- वज्रपाणि (संरक्षक और मार्गदर्शक, बुद्ध की शक्ति का प्रतीक), मंजुश्री (बुद्ध की विद्वत्ता की अभिव्यक्ति) और पद्मपाणि (अवलोकितेश्वर)(बुद्ध की करुणा का प्रतीक) । गुफ़ा संख्या- 16 में मरणासन्न राजकुमारी । शिबि जातक का दृश्य, जहाँ राजा शिबि ने कबूतर को बचाने के लिए अपने ही मांस की पेशकश की । मातृ- पोषक जातक का दृश्य, जहाँ एक हाथी द्वारा बचाये गये कृतघ्न व्यक्ति ने उसके ठिकाने की जानकारी राजा को दे दी । इसके अलावा अजन्ता की गुफाओं में बुद्ध का महापरिनिर्वाण चित्र, बुद्ध की तपस्या के दौरान मार का आक्रमण तथा धम्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में बैठे बुद्ध की प्रतिमाएँ स्थापित हैं ।
  • सॉंची के बौद्ध स्मारक जिसे साँची स्तूप के रूप में जाना जाता है, 1989 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया । सांची के स्मारकों में तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर पांचवीं शताब्दी ईसवी तक के बौद्ध स्मारकों की श्रृंखला शामिल है । आज मध्य प्रदेश के जनपद रायसेन के अंतर्गत आने वाला यह सबसे पुराना बौद्ध पूजा स्थल है, जो अस्तित्व में है । यहाँ के बौद्ध स्मारकों में एकाश्म स्तम्भ, महल, मंदिर और मठ शामिल हैं । स्मारकों में महान् सॉंची स्तूप, अशोक स्तंभ, शुंग स्तंभ, विच्छिन्न शिलालेख, सातवाहन काल के श्री शातकर्णी का शिलालेख विभिन्न अन्य स्तूप आदि शामिल हैं । यहाँ का उत्कीर्णन बौद्ध धर्म के पहलुओं को दर्शाता है, लेकिन बुद्ध की मूर्ति नहीं है । 200 रुपए की भारतीय करेंसी के पीछे की तरफ़ सॉंची का स्तूप दर्शाया गया है ।
  • बौद्ध धर्म से संबंधित बोधगया के महाबोधि मंदिर परिसर को भी वर्ष 2002 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है । यह मंदिर बिहार राज्य में स्थित है । यह पूरी तरह से ईंटों से निर्मित सबसे प्राचीन बौद्ध मंदिरों में से एक है । यह गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़े चार पवित्र स्थलों में से एक है । यह वह स्थान है जहाँ पर बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था । यह मंदिर ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक के द्वारा बनवाया गया था । इस मंदिर परिसर में महाबोधि मन्दिर, पवित्र बोधिवृक्ष, वज्रासन या हीरक सिंहासन बोधिवृक्ष के नीचे स्थित है ।
  • नोट : उपरोक्त लेखन में सरलता से उपलब्ध अनेक स्रोतों का सहयोग लिया गया है । परन्तु सर्वाधिक तथ्यों को नितिन सिंहानिया की पुस्तक “भारतीय कला एवं संस्कृति” से साभार लिया गया है । यह पुस्तक “मैक ग्रा हिल” पब्लिकेशन” द्वारा प्रकाशित है । विस्तृत अध्ययन के लिए उक्त पुस्तक का अवश्य अवलोकन करें । धन्यवाद ।
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