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राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 36)

Posted on जनवरी 29, 2023मई 20, 2024

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश) भारत । mail id- drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya. Com

(फेडरलिज्म, संचार, संत ऑगस्टीन, संत थॉमस एक्विना, संयुक्त राष्ट्र संघ, संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद, योहान गालटुंग, जेम्स गिलिगन, पैक्स ब्रिटानिका, संशोधनवाद, संस्कृति, संस्कृतीकरण,फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल)

1- सत्रहवीं सदी में ब्रिटेन और न्यू इंग्लैंड के ईसाई धर्म शास्त्रियों ने ईश्वर और मनुष्य के बीच पवित्र और स्थाई क़िस्म की संघात्मकता कल्पित करते समय लैटिन भाषा के शब्द फोइड्स (कोवेनांट या प्रतिज्ञापत्र) की मदद से फ़ेडरल शब्द गढ़ा था । अपने व्यापकतम अर्थों में फेडरलिज्म का मतलब है लोगों और संस्थाओं को परस्पर सहमति से किसी ख़ास मक़सद के लिए आपस में इस प्रकार जोड़ना कि उनकी निजी अस्मिताओं का किसी भी तरह से क्षय न हो । एक राजनीतिक प्रणाली के रूप में फेडरलिज्म की लोकप्रियता 1787 में संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान पारित होने के बाद बढ़ती चली गयी । डेनियल जे. एलाजार संघवाद के अमेरिकी विद्वान हैं ।

2- संचार का सीधा सा मतलब होता है दो या दो से अधिक कर्ताओं के बीच सूचनाओं और संवादों का आदान-प्रदान । यह मनुष्यों और मनुष्यों के बीच, मानवों और गैर मानवों के बीच, संगठनों और संस्थाओं के बीच सम्पर्क और संवाद की शर्त है । आधुनिक युग में संचार सम्बन्धी प्रौद्योगिक चिंतन की शुरुआत 1948 में प्रकाशित क्लॉन शैनन की गणितीय रचना द मैथमेटिकल थियरी ऑफ कम्युनिकेशन से मानी जाती है । संरचनागत मानव शास्त्र के फ़्रांसीसी विद्वान क्लॉद लेवी- स्त्रास ने संचार की अवधारणा को संस्कृति के दो अन्य बुनियादी पहलुओं से जोड़ा है । वह कहते हैं कि संस्कृतियों में विवाह, स्त्री और धन की परिघटना पर गौर करके संकेतों और सूचकों की ऐसी अभिव्यक्ति पहचानी जा सकती है जिनके आधार पर मानवीय मस्तिष्क की कुछ सार्वभौमिक संरचनाओं का पता लगाया जा सकता है ।

3- संत ऑगस्तीन (345-430) का जन्म उत्तरी अफ़्रीका के उस इलाक़े में हुआ था जिसे आज अल्जीरिया कहा जाता है । धर्म शास्त्री और राजनीतिक दर्शन के महारथी संत ऑगस्तीन ऑफ हिप्पो को राज्य की संस्था और ईसाइयत के बीच सम्बन्धों को दार्शनिक और संस्थागत ढाँचा प्रदान करने का श्रेय दिया जाता है । उनकी महान रचना सिटी ऑफ गॉड (ईश्वर का नगर) सन् 400 ईसवी में प्रकाशित हुई थी जिसमें मनुष्य की नियति, संकल्प और राज्य के प्रति उनके कर्तव्य की व्याख्या करने वाले सूत्र पेश किए गए हैं । ऑगस्तीन का यह चिंतन मध्य युग में क़रीब 800 साल तक ईसाई समाजों के राजनीतिक जीवन को गहराई से प्रभावित करता रहा ।

3-A- संत ऑगस्टीन पाँचवीं शताब्दी के ईसाई पादरी लेखकों में सबसे महान था । उनकी माता मोनिका ईसाई थीं । 370 ईसवी में उसने कॉर्थेज के विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया । बाद में वह यहीं पर अलंकार शास्त्र का प्राध्यापक बना । यहीं पर उसकी मुलाक़ात सन्त अम्ब्रोज से हुई और उसने 33 साल की उम्र में ईसाई धर्म अपना लिया । सेबाइन ने संत ऑगस्टीन के बारे में लिखा है कि, “उसका दर्शन बहुत ही कम मात्रा में व्यवस्थित था, किन्तु उसके मन ने प्राचीन युगों की लगभग समस्त विद्या को अपने में ग्रहण कर लिया था और एक बड़ी मात्रा में यह उसके माध्यम से मध्य युग तक संप्रेषित की गई । उसकी कृतियाँ विचारों की खान थीं जिसकी बाद के कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट लेखकों ने खुदाई की है ।”

3-B- संत ऑगस्टीन की रचना सिटी ऑफ गॉड में कुल 22 अध्याय हैं । इसके प्रथम 10 अध्यायों में यह प्रयास किया गया है कि ईसाइयत को रोम के पतन की ज़िम्मेदारी से मुक्त किया जाए । दूसरे भाग के 11 अध्यायों में नितांत रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है । प्रसिद्ध विचारक डनिंग ने सिटी ऑफ गॉड की रचना के चार उद्देश्य बताए हैं : ईसाई धर्म पर लगाए जाने वाले आरोपों का खंडन करना, ईसाई धर्म को ग्रहण करने के बाद रोमन साम्राज्य के पतन का कारण बताना, नास्तिकता को कुचलकर ईसाई धर्म की रक्षा करना और ईसाई धर्म को शक्तिशाली बनाना और उसका आधिपत्य स्थापित करना ।

3-C- संत ऑगस्टीन के ईश्वरीय राज्य और शैतान के राज्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए हारमॉन ने लिखा है कि, “ईश्वरीय राज्य और सांसारिक राज्य स्वर्ग और संसार नहीं है । वे चर्च और राज्य भी नहीं हैं । वे वास्तव में अच्छी और बुरी शक्तियाँ हैं, जो अति प्राचीन समय से मनुष्यों की आत्माओं पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए संघर्ष करती चली आ रही हैं । वे ईश्वर और शैतान के राज्य हैं । मनुष्य को ईश्वरीय राज्य में मुक्ति और अनन्त जीवन प्राप्त करने में मदद करने के लिए ईश्वर द्वारा साधन प्रदान किए गए हैं । यह साधन हैं : चर्च और राज्य ।” अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि ऑगस्टीन के चिंतन में शैतान का राज्य पहले स्थापित हुआ है और ईश्वर का राज्य उसके पश्चात् ।

3-D- संत ऑगस्टीन के चिंतन में राज्य ईश्वरीय उत्पत्ति है और राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए राज्य की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य है । ऑगस्टीन ने शांति तथा व्यवस्था की स्थापना को राज्य का प्रमुख कार्य माना है । सी. एच. दुरनर ने लिखा है कि, “संत ऑगस्टीन का ईश्वरीय राज्य का सिद्धांत बीजरूप में मध्य युगीन पोपतंत्र का सिद्धांत था जिसमें रोम के नाम का उल्लेख नहीं था ।” प्रोफ़ेसर बार्कर ने लिखा है कि, “एक प्रकार से ईश्वरीय राज्य का सिद्धांत राज्य का विरोधी है और इसके अस्तित्व का उच्छेदक भी…। ईश्वरीय राज्य का अन्ततोगत्वा परिणाम राज्य के पूर्ण विनाश के रूप में है । यह चर्च को सिंहासनारूढ करना है ।”

4- संत ऑगस्तीन ने सिसरो का अध्ययन करके राजनीतिक सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त किया । प्लोटिनस को पढ़कर अफ़लातून के दर्शन की जानकारी हासिल की । 384 ईस्वी में वह मिलान के एक विश्वविद्यालय में अलंकार शास्त्र के प्राध्यापक बने । उनकी आत्मकथा कन्फ़ेशंस है ।उनके मुताबिक़ ईश्वर के प्रति निष्ठा रखने वाला प्रदेश सिटी ऑफ गॉड कहलाया और मनुष्य के आत्म- मोह से निष्ठा रखने वाला प्रदेश सिटी ऑफ मैन बना । ऑगस्तीन का कहना था कि ईश्वर ने मनुष्य को बनाते समय उसे पशुओं के ऊपर तो अधिकार दिया, पर साथी मनुष्यों के ऊपर नहीं । वह कुछ को मुक्त करता है, यह उसकी दया है । वह बहुतों को सजा देता है, यह उसका इंसाफ़ है ।

4-A- संत ऑगस्टीन के चिंतन की प्रासंगिकता के बारे में फिगिस ने लिखा है कि, “इसे समझे बिना कोई भी व्यक्ति मध्य युग को नहीं समझ सकता है ।” विद्वान चिंतक मैक्सी ने लिखा है कि, “मध्य युगीन यूरोप की राजनीतिक विचारधारा पर किसी अन्य व्यक्ति ने इतना प्रभाव नहीं डाला जितना चौथी शताब्दी के अफ़्रीका के इस विद्वान ने डाला है ।” आर. जी. गेटिल ने लिखा है कि, “उसने प्लेटो के आदर्श राज्य के दर्शन को, सिसरो के विश्व राज्य के विचार को और ईसाइयत के धर्मप्रेरित राज्य के सिद्धांत को समन्वित कर अपने ईश्वरीय राज्य की स्थापना की ।”

5- इटली के एक्विना के पास रोकासेका किले में रहने वाले एक धनी और कुलीन परिवार में जन्में संत थॉमस एक्विना (1224-1274) को यूरोप में राजनीतिक सिद्धांत शास्त्र की बुनियाद डालने का श्रेय दिया जाता है । उन्हीं के प्रयासों से यूरोपीय विश्वविद्यालयों में अरस्तू के दर्शन का अध्ययन करने की शुरुआत हुई । उनकी रचना सम्मा थियोलॉजिया (1266-1273) को मध्य युग के कैथोलिक धर्म शास्त्र और यूनानी दर्शन के महानतम संश्लेषण के रूप में देखा जाता है । इस ग्रंथ में एक्विना ने चिरंतन, दैवी, प्राकृतिक और मानवीय क़ानूनों पर विचार किया है । एक्विना अरस्तू की इस अवधारणा से पूरी तरह से सहमत थे कि एक बुद्धिसंगत, मानवीय और व्यवस्थित संसार सम्भव है ।

5-A- संत थॉमस एक्वीनास को मध्य युग का महानतम समन्वयवादी विचारक माना जाता है । डनिंग के अनुसार थॉमस एक्विना महानतम स्कॉलिस्टिक था । फ़ॉस्टर ने लिखा है कि, “एक्विना ने अपने दर्शन में आरम्भ से अंत तक यह सिद्धांत अंगीकार किया है कि अरस्तूवाद सत्य है, परन्तु पूर्ण सत्य नहीं है । यह सत्य है, जहां तक कि उसे विश्वास की सहायता के बिना मानव विवेक से खोजा जा सकता है, परन्तु विश्वास से परवर्ती प्रकटन ने उसको रद्द नहीं किया, जो कुछ विवेक ने खोज लिया, उसने तो केवल उसे पूर्ण किया है । इस प्रकार यह दर्शन के प्रत्येक विभाग में यूनानी आधार पर एक ईसाई भवन खड़ा करता है ।”

5-B- संत थॉमस एक्विना की प्रमुख कृतियाँ हैं : सुम्मा थियोलॉजिका अर्थात् धर्म शास्त्र का संक्षेप, अरस्तू की राजनीति पर व्याख्या, राजाओं का शासन और सुम्मा कण्ट्रा जेण्टाइल्स । विल दुरां ने लिखा है कि, “इतिहास में बहुत थोडे विद्वान हुए हैं, जिन्होंने एक साथ विचार के इतने विशाल क्षेत्र को इतने क्रमबद्ध रूप में और स्पष्टता के साथ प्रकाशित किया हो ।” सन् 1256 ईसवी में पेरिस विश्वविद्यालय ने उसे सम्मानपूर्वक धर्म के आचार्य की उपाधि प्रदान की । एक्विना कहता था कि, “विश्व में ईश्वर के अतिरिक्त और कोई दूसरी शक्ति नहीं है ।” राज्यों के वर्गीकरण में उसने अरस्तू का ही अनुकरण किया है । उसके अनुसार राजतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन है, क्योंकि यह ईश्वरीय शासन के सर्वाधिक अनुरूप है ।

5-C- संत थॉमस एक्विना ने राज्य और चर्च के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “राज्य रूपी जहाज़ पर राजा बढ़ई की भाँति है जिसका कार्य आवश्यक मरम्मत द्वारा जहाज़ को ठीक हालत में रखना है, परन्तु चर्च का कार्य जहाज़ के चालक जैसा है जो उसे निश्चित स्थान की ओर ले जाता है । जिस प्रकार बढ़ई जहाज़ के चालक के अनुशासन में रहता है उसी प्रकार राज्य और उसके शासक को चर्च के नियंत्रण में रहना चाहिए ।” दास प्रथा के बारे में उसका कहना था कि यह पापियों को दंड देने की ईश्वरीय व्यवस्था है । क़ानून की परिभाषा करते हुए एक्विना ने लिखा है कि, “क़ानून विवेक से प्रेरित और लोक कल्याण हेतु उस व्यक्ति द्वारा जारी किया गया आदेश है, जिस व्यक्ति पर समुदाय की व्यवस्था का भार होता है ।”

6- ग्यारहवीं सदी से पहले अरस्तू के राजनीतिक चिंतन से यूरोप परिचित नहीं था । उनकी रचना पॉलिटिक्स का लैटिन में अनुवाद भी बहुत देर से हुआ । रोमन कैथोलिक चर्च अरस्तू के विचारों को संदेह की दृष्टि से देखता था । इसके दो कारण थे : पहली बात तो यह थी कि अरस्तू अपने निजी जीवन में पागान धार्मिकता की ओर झुके हुए थे और दूसरी बात यह है कि इस्लामिक अरब अध्येताओं इब्न सीमा और इब्न रश्द को अरस्तू को अरस्तू का विशेषज्ञ माना जाता था । चर्च इस बात से चौंकता था कि कहीं अरस्तू के विचारों में इस्लाम को प्रोत्साहित करने वाले तत्व तो नहीं हैं । इसलिए 1277 में पेरिस के बिशप टेम्पियर ने अरस्तू के कई सिद्धांतों की आलोचना की ।

7- संयुक्त राष्ट्र संघ एक ऐसा अंतर- सरकारी संगठन है जो विश्व स्तर पर शांति और सुरक्षा क़ायम करने राष्ट्रों के आत्म- निर्णय के अधिकार की रक्षा करने, विभिन्न देशों के बीच सामाजिक व आर्थिक सहयोग सुनिश्चित करने और मानवाधिकारों की हिफ़ाज़त करने के लिए काम करता है । इसकी स्थापना प्रथम विश्व युद्ध के बाद बने लीग ऑफ नेशंस की विफलताओं से सबक सीखकर 1945 में उस समय की गई जब द्वितीय विश्वयुद्ध अपने आख़िरी दौर में था । अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, चीन और अन्य 47 देश इसके संस्थापक सदस्य थे । संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय न्यूयार्क में है ।

8- द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के दो साल बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अमेरिका के राष्ट्रपति एफ. डी. रूज़वेल्ट स एक मुलाक़ात की जिसके परिणामस्वरूप एक दस्तावेज जारी किया गया जिसे अटलांटिक चार्टर कहा जाता है । इसमें दोनों देशों ने अपने युद्ध सम्बन्धी उद्देश्यों का खुलासा किया था । इसके अनुसार ब्रिटेन और अमेरिका न केवल जर्मनी की पराजय चाहते थे बल्कि दोनों देशों के बीच शांति, सुरक्षा, सहयोग और स्वतंत्रता के हक़ में एक व्यापक और स्थायी अंतर्राष्ट्रीय बन्दोबस्त करने के भी इच्छुक थे

9- जनवरी, 1942 में 26 देशों ने उपरोक्त मानकों के आधार पर तैयार की गई संयुक्त राष्ट्र उद्घोषणा पर दस्तख़त किए । 1944 में सोवियत संघ, अमेरिका, चीन और ब्रिटेन के प्रतिनिधियों ने डम्बरडन ओक (अमेरिका) में बैठक करके एक नए अंतर्राष्ट्रीय संगठन के लिए ठोस प्रस्ताव तैयार किया । 1945 में सैन फ़्रांसिस्को में हुई संयुक्त राष्ट्र कॉंफ़्रेंस में 51 देशों ने इस संगठन के चार्टर पर बहस करके उसे पारित कर दिया । संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य छह घटक हैं : महासभा, सुरक्षा परिषद, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय, और ट्रस्टीशिप कौंसिल । महासभा की साल में एक बैठक होती है जिसमें सभी 195 सदस्य देश भाग लेते हैं ।

10- महासभा अपना कामकाज छह कमेटियों के माध्यम से सम्पन्न करती है । महासभा की दुनिया की राजनीति में कोई भूमिका नहीं है । वह अपनी पसंद के मुद्दों पर बहस करती है, दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करती है, अन्य संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं के लिए सदस्य चुनती है और अपने बजट को स्वीकार करती है । उसका रुतबा नैतिक क़िस्म का है और उसकी राय भूमंडलीय मत का पर्याय समझी जाती है । संयुक्त राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है सुरक्षा परिषद ।इसके पॉंच अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ़्रांस स्थायी सदस्य देश हैं और दस अस्थायी सदस्य अफ़्रीका, एशिया, पूर्वी यूरोप और ओशियाना क्षेत्र से दो साल के लिए चुने जाते हैं ।


11- संयुक्त राष्ट्र संघ ने कई क्षेत्रों में काम करने के लिए कुछ संस्थाओं को बनाया है और कुछ को अपनाया है । विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को उसने अपनी संस्था की हैसियत दी रखी है । इसके अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन, संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन, यून इंटरनेशनल चिल्ड्रंस फंड, संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग, यून कॉंफ़्रेंस ऑन ट्रेड ऐंड डिवेलपमेंट, यून डिवेलपमेंट प्रोग्राम और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम इसकी प्रमुख संस्थाएँ हैं । वर्तमान समय में केवल पलाउ आइलैंड ही अमेरिकी ट्रस्टीशिप के तहत रह गया है ।

12- संरचनावाद का जन्म आधुनिक भाषा विज्ञान के जनक फर्दिनैंद द सस्यूर (1857-1913) के अध्यापकीय व्याख्यानों से माना जाता है । इस सिद्धांत को मानव शास्त्र में क्लॉद लेवी- स्त्रॉस, मनोविज्ञान में जाक लकॉं, वास्तु शास्त्र में रॉबर्ट वेंचुरी, साहित्यिक समालोचना में टेरी ईगलटन, और भाषा विज्ञान में सस्यूर जैसे चिंतकों ने अपना आधार बनाया । मार्क्सवादी समीक्षा में भी संरचनावाद का प्रयोग हुआ है और इस क्षेत्र में लुई अलथुसे का नाम प्रमुख है । समाज शास्त्र में दुर्खाइम एवं बार्थ के विचारों से संरचनावाद का सूत्रपात हो जाता है जिसका प्रसार आगे चलकर पियरे बोर्दियो जैसे विचारकों के माध्यम से हुआ । मिशेल फूको, ज्यॉं- फ्रॉंस्वा ल्योतर एवं जाक देरिदा जैसे चिंतकों का भी संरचनावाद के विकास में योगदान है ।

13- संरचनावाद की मूल मान्यता है कि परस्पर विपरीत द्विभाजन के ज़रिए भाषा, संस्कृति, इतिहास, मनोविज्ञान जैसे समाज के विभिन्न आयामों का अर्थ ग्रहण किया जा सकता है । बहुआयामी कलेवर एवं विस्तृत क्षितिज से सम्बन्धित होने के कारण संरचनावाद के विभिन्न विचार सम्प्रदायों में मत- वैविध्य है । बावजूद इसके वे सभी भाषा के माध्यम से समाज, संस्कृति, व्यक्ति के मानस आदि की ऐसी व्याख्या करते हैं जहाँ व्यक्ति निष्ठता के स्थान पर वस्तुनिष्ठता प्रभावी हो जाती है । जहां आधुनिक वस्तुनिष्ठता का प्रतिपादक व्यक्ति है, वहीं संरचनावादी वस्तुनिष्ठता द्वारा व्यक्ति कर्ता के रूप में निर्मित होता है ।

14- उत्तर- संरचनावादी विचारक दरिदा ने विखंडन या वि- संरचना का सिद्धांत प्रतिपादित किया है । अर्थोत्पादन की प्रक्रिया में मतभेद का स्थगन न करना एवं अस्पष्ट भाग को अस्वीकार न करना ही विखंडन है । अर्थोत्पादन की इस प्रक्रिया के चार प्रमुख चरण हैं : सर्वप्रथम शब्द केन्द्रित द्विपदीय विपरीतार्थकों को एकत्रित करना । फिर उन संदर्भों की खोज करना जिनमें इसका निर्माण हुआ है । तीसरे उन शब्द केन्द्रित द्विपदीय विपरीतार्थकों के सोपान क्रम को समाप्त करना एवं चौथे, खंडित समाज रूपी मूल पाठों की सतही व्याख्या करना । देरिदा के मुताबिक़ इस विखंडन वादी प्रकिया द्वारा शब्दों को बहुआयामी अर्थ और इन अर्थों के लिए अवकाश मिल सकता है ।

15- उत्तर- संरचनावाद में भाषा और उसकी वैधता पर प्रकाश डालने का कार्य ल्योतर ने किया है ।वे कहते हैं कि संरचनावादी भाषा विन्यास एवं भाषा का अर्थ स्वयं प्रमाणित होता है, इसलिए यह वैध नहीं है । ल्योतर भाषा एवं अर्थ की वैधता को विभिन्न भाषायी खेलों से प्राप्त होने की बात करते हैं ।भाषा के यह खेल विभिन्न संकेतों एवं निर्देशों द्वारा निर्धारित होते हैं, जिनके अनेक आयाम हो सकते हैं । संकेतों एवं निर्देशों के यही आयाम भाषा एवं उसके अर्थों को वैधता प्रदान करते हैं । संकेतों एवं निर्देशों के यही आयाम भाषा एवं उसके अर्थों को वैधता प्रदान करते हैं ।यह भाषा ही विषय के सही स्वरूप से परिचित कराती है और सामाजिक सम्बन्धों को निरूपित करने का अवसर देती है ।

16- शांति अध्ययन के प्रमुख विद्वान योहान गालटुंग (1930- ) ने साठ के दशक में संरचनागत हिंसा का सूत्रीकरण किया । संरचनागत हिंसा सामाजिक संरचनाओं और संस्थाओं में अंतर्निहित होती है । हिंसा के इन लगभग मौन और प्रायः अदृश्य रूपों के कारण लोग अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने से महरूम रह जाते हैं । सामाजिक प्रभुत्व, राजनीति उत्पीडन और आर्थिक शोषण के तले रहते- रहते लोगों की उम्र घट जाती है । संरचनागत हिंसा के गर्भ से आगे चलकर प्रत्यक्ष हिंसा जन्म लेती है जिसकी अभिव्यक्ति पारिवारिक हिंसा, नस्ली हिंसा, घृणा आधारित अपराध, आतंकवाद, जाति संहार और युद्ध के रूप में होती है । संरचनागत हिंसा का अनुभव कम तनख़्वाह, निरक्षरता, गिरते हुए स्वास्थ्य, राजनीतिक और क़ानूनी अधिकारों में कमी जैसी चीजों में करते हैं ।

17- गालटुंग अपने विमर्श में सांस्कृतिक हिंसा का ज़िक्र भी करते हैं जिसके माध्यम से संरचनागत हिंसा के विभिन्न रूपों को जायज़ ठहराया जाता है । सांस्कृतिक हिंसा धर्म, विचारधारा, भाषा, कला और यहाँ तक कि विज्ञान की मदद से ऐसी अनुभूतियों की रचना करती है जिसमें संरचनागत हिंसा वैध, उपयुक्त और कम से कम अनापत्तिजनक लगने लगे ताकि उसे समाज द्वारा स्वीकार किया जा सके । संरचनागत हिंसा पैदा करने वाली कई कार्रवाइयों की नैतिक प्रकृति को सांस्कृतिक हिंसा अपने आइने में ‘लाल/ अनुचित’ के बजाय ‘हरा/उचित’ या ‘पीला/स्वीकारोग्य’ दिखाने की कोशिश करती है ।

18- जेम्स गिलिगन ने अपनी पुस्तक वायलेंस : रिफ्लेक्शंस ऑन द नैशनल एपिडेमिक में संरचनागत हिंसा की परिभाषा समाज की निचली पायदान पर रह रहे लोगों के बीच होने वाली मौतों और विकलांगता की बढ़ी हुई दर के रूप में की है । इसके मुक़ाबले ऊपर की पायदान पर रह रहे लोगों को कहीं कम मृत्यु दर का सामना करना पड़ता है । गिलिगन इन अतिरिक्त मौतों को अप्राकृतिक करार दे कर उनकी ज़िम्मेदारी कमतर सामाजिक और आर्थिक दर्ज़े से पैदा हुई शर्म, तनाव, भेदभाव और अवमानना जैसी अनुभूतियों पर डालते हैं । इस समझ तक पहुँचने के लिए गिलिगन ने उन अध्ययनों का सहारा लिया है जिनके ज़रिए भीषण विषमता की स्थितियों में भी व्यक्ति अपनी गरिमा के लिए जद्दोजहद करता है ।

19- पेत्रा केली, पॉल फ़ारमर और नेंसी शेपर- ह्यूज ने अपने अध्ययनों के ज़रिए संरचनागत हिंसा की अवधारणा को आगे बढ़ाया है । भविष्य वादी विद्वान वेंडेल का कहना है कि जब तक सामाजिक न्याय की परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए दीर्घकालीन दृष्टि का विकास नहीं होगा तब तक संरचनागत हिंसा के प्रभावों को कम नहीं किया जा सकता है । नस्लवाद और सेक्सिजम जैसी संरचनागत हिंसाएं ख़ामोशी से अपना कुटिल चक्र चलाती रहती हैं ।

20- ग्रेट ब्रिटेन में महारानी विक्टोरिया का शासन पैक्स ब्रिटानिका की नीति पर चलता था जिसके मुताबिक़ ब्रिटिश हुकूमत स्थानीय रीति रिवाजों और राजनीति में हस्तक्षेप करने से आम तौर पर परहेज़ करती थी । उसका ज़ोर व्यापार, विदेश नीति और प्रतिरक्षा को अपने नियंत्रण में रखने पर रहता था । इसी के मुताबिक़ उन्होंने गवर्नर द्वारा नियंत्रित किए जाने वाले उपनिवेशों में भी उसे सलाह देने के लिए अधिकारियों की एक कार्यकारी परिषद नियुक्त कर रखी थी । आगे चलकर उन्होंने विधान परिषदों का निर्वाचन भी करवाया ताकि बनाए गए क़ानून उपनिवेशित जनता को अपने प्रतिनिधियों द्वारा बनाए गए प्रतीत हों ।


21- संशोधनवाद वह अवधारणा है जो किसी वैचारिक संरचना के बुनियादी तत्वों को बदलने का प्रस्ताव रखती है । संशोधनवाद के प्रत्यय का जन्म 1894-95 के फ़्रांस में एक ऐसे प्रकरण के दौरान हुआ जिसे रिचर्ड ड्रीफस काण्ड के नाम से जाना जाता है । इसकी वजह से पैदा हुई राजनीतिक बेचैनियों के कारण कई बार यह दावा किया गया कि ड्रीफस को दी गई सजा न केवल इंसाफ़ की तौहीन है, बल्कि इतिहास में संशोधन भी है । अमेरिकी विद्वान हेनरी एल्मर बार्न्स द्वारा रचा गया प्रथम विश्व युद्ध का इतिहास द जेनेसिस ऑफ द वर्ल्ड वार (1929) संशोधनवादी इतिहास लेखन का प्रमुख नमूना माना जाता है ।

22- संशोधनवाद के संस्थापक के रूप में एडुअर्ड बर्न्सटीन (1850-1932) को माना जाता है । जर्मन मार्क्सवाद के एक प्रमुख हस्ताक्षर और जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के सिद्धांतकार एडुअर्ड बर्न्सटीन ने 1896-1900 के बीच अपने लेखों और पुस्तकों में मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी की कठोर आलोचना पेश की । बर्न्सटीन ने कहा कि पूँजीवादी समाज के अपरिहार्य ध्वंस और मज़दूर वर्ग के सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की मार्क्स द्वारा की गई भविष्यवाणी नाकाम हो चुकी है । उन्होंने दावा किया कि क्रान्ति को अंतिम लक्ष्य मानने का मार्क्स और एंगेल्स का विचार ठीक नहीं था ।मार्क्सवादियों का अंतिम लक्ष्य क्रांतिकारी नहीं बल्कि क्रम- विकासवादी होना चाहिए ।

23- संस्कृति शब्द का उद्भव मूल रूप से लैटिन के शब्द कल्चरा से हुआ है । अल्फ्रेड क्रोबर और क्लायड क्लुकहोन की रचना कल्चर : अ क्रिटिकल रिव्यू ऑफ कंसेप्ट्स ऐंड डेफ़िनिशंस में इसकी 164 परिभाषाएँ गिनायी गई हैं । समाज विज्ञान में इतिहास, मानवशास्त्र और समाजशास्त्र के अनुशासन संस्कृति को ऐसे अनौपचारिक और सहज एजेंट की तरह देखते हैं जो अनूठी मानवीय गतिविधियों के ज़रिए मनुष्य और उसकी सामाजिक संरचनाओं के क्रम विकास पर अपनी छाप छोड़ता है । संस्कृति में मानवीय सम्भावनाओं का आत्म- सचेत मूल्यांकन सुलभ कराने की सम्भावना होती है । वह मूल्यों के एक विन्यास की नुमाइंदगी करती है ।

24- संस्कृति एक ऐसा उपकरण है जिसके प्रयोग से मनुष्य और उसका पर्यावरण अपने भीतर होने वाले परिवर्तनों की गति और दिशा को एक सीमा तक नियंत्रित कर सकता है । संस्कृति की मौजूदगी यह बताती है कि हम सब एक ऐसे जगत में रहते हैं जो मनुष्यों द्वारा ही रचा गया है और जिसकी सार्थकता उन्हीं की देन है । शुरुआत में संस्कृति को सुधार की प्रक्रिया के रूप में देखा जाता था । उन्नीसवीं सदी में इसका अर्थ शिक्षा द्वारा व्यक्ति के परिष्कार से जुड़ गया । बीसवीं सदी में संस्कृति का विमर्श मानवशास्त्र के केन्द्र में आ गया और उसे सभी मानवीय परिघटनाओं की समेकित अभिव्यक्ति की संज्ञा दी गई । सांस्कृतिक मानवशास्त्र ने टैलकॉट पार्संस के नेतृत्व में संस्कृति को ठोस रूप से परिभाषित करने का यत्न किया ।

25- अठारहवीं सदी में यूरोप में संस्कृति को एकवचन के रूप में देखने का रुझान था । इनका तर्क था कि लोगों का व्यवहार जितना बुद्धिसंगत होगा, उनकी सांस्कृतिक प्रगति उतनी ही बेहतर होती चली जाएगी । इस तरह संस्कृति और तर्क बुद्धि के विकास को एक मान लिया गया । यही एजेंडा आगे चलकर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के रूप में सूत्रीकृत हुआ ।इसके विपरीत आधुनिक मानवशास्त्र ने उदारतावादी रवैया अपनाते हुए आग्रह किया कि संस्कृति को हमेशा बहुलवादी अर्थों में ही ग्रहण किया जाना चाहिए ।

26- अंग्रेज शिक्षाशास्त्री और लेखक मैथ्यू अरनॉल्ड ने 1896 में प्रकाशित अपनी पुस्तक कल्चर ऐंड एनार्की में तर्क दिया कि संस्कृति के उच्चतर सौन्दर्यशास्त्रीय रूपों का प्रचार- प्रसार किए बिना औद्योगीकरण और शहरीकरण से पैदा होने वाली विकृतियों का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता । चूँकि आधुनिक विकास के कारण साधारण लोगों को भी नागरिक अधिकारों की दावेदारी का मौक़ा मिल गया है इसलिए अरनॉल्ड का तर्क है कि सर्वाधिक शिक्षित वर्ग यानी अभिजन को ही अपने मूल्यों के आधार पर जन साधारण को शिक्षित करने और परिमार्जित करने का दायित्व उठाना पड़ेगा । कार्ल मार्क्स ने सामाजिक जगत में संस्कृति को आधार और अधिरचना के माध्यम से समझाने का प्रयास किया ।

27- फ्रेंक और क्वीनी लीविस जैसे साहित्यालोचकों ने स्कूली शिक्षा में ऐसे पहलुओं का समावेश करने का सुझाव दिया जिनकी मदद से छात्र शुरू से ही मुनाफ़े के मक़सद से किए जाने वाले संस्कृति के थोक उत्पादन और उसकी बिक्री के प्रति आलोचनात्मक रवैया अख़्तियार करना सीख सकें । लीविस का तर्क था कि ऐसे शिक्षित लोग तथाकथित लोकप्रिय संस्कृति की पतनशील प्रवृत्ति को भॉंप कर एक प्रामाणिक और आर्गेनिक संस्कृति की समझ ग्रहण करेंगे । थियोडोर एडोर्नो और मैक्स होर्खाइमर की दलील थी कि जिस तरह से औद्योगिक उत्पादन एक स्टैंडर्ड फ़ार्मूले के तहत सम्पन्न होता है उसी तरह सिनेमा, रिकार्डिंग, संगीत और रेडियो के कार्यक्रमों का उत्पादन एक तयशुदा ढर्रे के मुताबिक़ किया जा रहा है ।

28- थियोडोर एडोर्नो का कहना है कि लोकप्रिय संगीत की धुनें फ़ौजी मार्च की धुनों की ही तरह अपने श्रोताओं को आज्ञापालन की तरफ़ ले जाती हैं । दर्शकों और श्रोताओं के पास अधिक रचनात्मक और चुनौतीपूर्ण सांस्कृतिक उत्पादन को समझने, आनन्द लेने और सराहने की न तो समय है और न ही योग्यता । अमेरिकी समाजशास्त्री टैलकॉट पार्संस ने अन्य विद्वानों के सहयोग से समाज विज्ञानों को एकीकृत करने की कोशिश की । उन्होंने मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति और मानवशास्त्र की अंतर्दृष्टियों की मिली जुली मदद से संस्कृति को परिभाषित किया । पार्संस ने संस्कृति को ऐसे सामाजिक क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत किया जिसमें साझा प्रतीकात्मक तात्पर्य पनपते हैं ।इन्हीं तात्पर्यों के माध्यम से व्यक्ति विशिष्ट से सामान्य की ओर बढ़ता है ।

29- मार्क्सवादी चिंतक रेमण्ड विलियम का तर्क था कि संस्कृति को अभिजन दायरे से निकालकर रोज़ाना की ज़मीन पर पैदा होने वाले अनुभवों, विचारों और रीति- रिवाजों की रोशनी में परिभाषित किया जाना चाहिए । फ़्रांस में संस्कृति को एक भौतिक शक्ति के रूप में व्याख्यायित करके सांस्कृतिक पूँजी की अवधारणा का विकास समाजशास्त्री पिएर बोर्दियो ने किया । उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक पूँजी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित की जा सकती है । इसके आधार पर आर्थिक लाभ भी प्राप्त होता है ।

30- बरमिंघम विश्वविद्यालय स्थित सेंटर फ़ॉर कंटेम्परेरी कल्चरल स्टडीज़ में समाजशास्त्री स्टुअर्ट हाल के नेतृत्व में संस्कृति- अध्ययन का विकास हुआ । हाल ने इतालवी मार्क्सवादी एंटोनियो ग्राम्शी द्वारा प्रवर्तित वर्चस्व की धारणा का सहारा लेकर अपना विमर्श विकसित किया । अधिरचना होने के बावजूद ग्राम्शी संस्कृति को आधार का मोहताज मानने के लिए तैयार नहीं थे । उन्होंने उसे स्वतंत्र और स्वायत्त रूप से सामाजिक प्रभाव पैदा करने में सक्षम करार दिया । वर्ष 1999 में प्रकाशित सिमोन ड्यूरिंग (सम्पादित) की पुस्तक द कल्चरल स्टडी रीडर महत्वपूर्ण रचना है ।


31- संस्कृतीकरण का आशय एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया से है जिसके ज़रिये किसी समुदाय की आकांक्षा यह रहती है कि जाति के स्थानीय पदानुक्रम में उसका स्थान ऊपर उठ सके ।संस्कृतीकरण एक गहन और बहुपरती प्रक्रिया है । इसका असर समाज और उसकी संस्कृति के हर पहलू- भाषा, साहित्य, विचारधारा, संगीत, नृत्य, नाटक, जीवन शैली तथा अनुष्ठानों पर देखा जा सकता है । संस्कृतीकरण भारतीय समाजशास्त्र की विशिष्ट अवधारणा है । इस पर विशद और व्यापक काम करने का श्रेय एम. एन. श्री निवास को जाता है । संस्कृतीकरण की प्रक्रिया में मंदिरों और धार्मिक स्थलों की अहम भूमिका रही है ।

32- संस्कृति अध्ययन का उदय साठ के दशक में घटित बौद्धिक और राजनीतिक उथल-पुथल के परिणामस्वरूप हुआ ।ब्रिटेन के बरमिंघम विश्वविद्यालय ने 1964 में बरमिंघम सेंटर फ़ॉर कंटेम्परेरी कल्चरल स्टडीज़ की स्थापना की । रिचर्ड होगार्ट इस सेंटर के पहले निदेशक बनाए गए ।जिनकी विरासत बाद में जमैका में जन्में विद्वान स्टुअर्ट हाल ने सम्भाली । संस्कृति अध्ययन का विकास कई बौद्धिक मुक़ामों पर किए गए संवाद के माध्यम से हुआ । मसलन, नारीवादियों के साथ किए गए संवाद में केन्द्रीय प्रश्न यह था कि उप संस्कृतियाँ किस तरह से स्त्रियों को नज़रअंदाज़ करती हैं । समाजशास्त्रियों से पद्धति और सामान्यीकरण की समस्याओं के सन्दर्भ में बात की गई ।

33- पॉल दु गे और उनके साथियों की रचना डूइंग कल्चरल स्टडीज़ : द केस ऑफ सोनी वॉकमैन इस मार्क्सवादी आग्रह को चुनौती देती है कि सांस्कृतिक जिंसों के उत्पादक ही उनके मायनों को भी नियंत्रित करते हैं । नारीवादी संस्कृति विश्लेषक ग्रिसेल्डा पॉलक ने कला, इतिहास और मनोविश्लेषण के दायरे में योगदान किया है । इसी तरह फ़्रांस की नारीवादी चिंतक जूलिया क्रिस्टेवा ने भी कला और मनोविश्लेषण के दृष्टिकोण से संस्कृति- अध्ययन पर अपनी छाप छोड़ी है । सबाल्टर्न रचनाकारों ने बहुसंस्कृतिवाद के बारे में संवाद किया है । मानवशास्त्रियों के साथ नृजाति वर्णन के तौर- तरीक़ों पर बात की गई है ।

34- संस्कृति उद्योग जैसी अवधारणा का प्रतिपादन फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल के विद्वानों थियोडोर डब्ल्यू. एडोर्नो और मैक्स होर्खाइमर ने किया है । इसका उद्देश्य औद्योगिक पूँजीवाद के तहत बड़े पैमाने पर उत्पादित करके बाज़ार में उपभोग के लिए बेची जाने वाले सांस्कृतिक जिंसों के सामाजिक और राजनीतिक चरित्र की शिनाख्त की जा सके । इन विद्वानों के लिए संस्कृति- उद्योग का मतलब था सिनेमा, रेडियो, विज्ञापन और रिकार्डिंड म्यूज़िक जैसी सांस्कृतिक जिंसें, जिसे पूँजीवादी उत्पादन और बाज़ार समाज के हर तबके को कारख़ाना आधारित उत्पादन की तर्ज़ पर मुहैया कराने में कामयाब रहा है ।समाज में इस लोकप्रिय संस्कृति के चौतरफ़ा प्रचार- प्रसार को संस्कृति के लोकतंत्रीकरण का प्रचार बनने से रोकने का प्रयास किया गया ।

35- एडोर्नो और मैक्स होर्खाइमर ने वर्ष 1947 में प्रकाशित अपनी पुस्तक डायलेक्टिक ऑफ इनलाइटेनमेंट के अंतिम अध्याय द कल्चरल इंडस्ट्री : एनलाटेनमेंट एज मास डिसेप्शन में दिखाया कि बाज़ारू संस्कृति रोज़मर्रा की ज़िंदगी में फ़र्ज़ी ज़रूरतों की दुनिया गढ़ती है ताकि पूँजीवादी उत्पादन की निरंतर खपत से उसे संतुष्ट किया जा सके । जबकि मनुष्य की असली ज़रूरतें तो स्वतंत्रता, सृजनशीलता और सच्ची ख़ुशी है । संस्कृति उद्योग की थिसिज से पहले फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल के एक अन्य विद्वान हरबर्ट मार्क्यूज अपनी रचना इरोज ऐंड सिविलाइजेशन में असली और नक़ली आवश्यकताओं के बीच अंतर करने पर ज़ोर दे चुके थे ।

36- पश्चिम में संस्कृति के जगत् को आम तौर पर तीन हिस्सों में बाँटकर देखा जाता है : हाईब्राड यानी उच्चवर्गीय, मिडिलब्राउ यानी मध्यवर्गीय और लोब्राउ यानी निम्नवर्गीय । वस्तुतः संस्कृति उद्योग की अवधारणा दस्तकारों, कारीगरों और प्रतिभाशाली कलाकारों द्वारा रची गई संस्कृति और कलाकृतियों की अंतर्निहित स्वायत्तता के विपरीत खड़ी है । यह उद्योग बाज़ारू सिनेमा, सोप ऑपेरा, पॉप म्यूज़िक, सस्ती भावनाएँ भड़काने वाले रेडियो कार्यक्रम, कला आदि को बढ़ावा देता है । सोवियत संघ में लेनिन ने समाजवादी आन्दोलन को मज़बूत करने के लिए सांस्कृतिक आन्दोलन प्रोलेतकुल्त के नाम से चलाया था ।

37- हंगेरियन सिद्धांत शास्त्री लूकाच ने 1920 में लिखे अपने निबंध ओल्ड ऐंड न्यू कल्चर में सभ्यता और संस्कृति को अलग-अलग करके देखा । सभ्यता उनकी निगाह में किसी मकान की मज़बूती और टिकाऊपन का द्योतक थी । संस्कृति को उन्होंने उस मकान की बाहरी और भीतरी ख़ूबसूरती के मानिन्द बताया था । लूकॉच के लिए संस्कृति ऐसे मूल्यवान उत्पादों और योग्यताओं के सामूहिक प्रभाव से बनने वाली शै थी जिसे ज़िंदगी के फ़ौरी रख- रखाव के लिए इस्तेमाल किया जाता है । इस लिहाज़ से वह मानते थे कि पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया में संस्कृति नष्ट हो जाती है ।

38- फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल के विद्वानों एडोर्नो होर्खाइमर और हर्बर्ट मार्क्यूजे ने संस्कृति की एक साझा और विस्तृत समझ विकसित की । एडोर्नो ने वाल्टर बेंजामिन और फिर ब्रेख़्त से भी इस विषय में संवाद किया । मार्क्यूजे का सूत्रीकरण उनके निबंध ऑन द एफरमेटिव कांसेप्ट ऑफ कल्चर में स्पष्ट हुआ । संस्कृति की निहायत जटिल भूमिका की चर्चा करते हुए मारक्यूजे का ख़्याल था कि वह मुक्ति और ख़ुशी की उस आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करती है जिसे आधुनिक समाज पूरा नहीं होने देता । हक़ीक़त की ज़मीन पर इस इच्छा की पूर्ति नहीं हो पाती, पर यह कामना एक विभ्रम के जगत में प्रक्षेपित हो जाती है जिसका नतीजा विद्रोह की आकांक्षा को शांत करने में निकलता है ।

39- इतालवी मार्क्सवादी एंटोनियो ग्राम्शी ने वर्चस्व की धारणा का सूत्रीकरण करते हुए यह मत प्रस्तुत किया कि शासकों और शासितों के बीच वर्चस्व और प्रतिरोध का वास्तविक संघर्ष अधिरचना के दायरे में होता है । अधिरचना को उन्होंने नागर समाज और राजनीतिक समाज– दो स्तरों में बाँटा और कहा कि व्यवस्थाएँ बल प्रयोग और सहमति दोनों के संयुक्त आधार पर टिकी होती हैं । राजनीतिक समाज यानी राज्य और उसके तमाम अंग बल प्रयोग के स्थल हैं, जबकि नागर समाज (परिवार, धर्म- संस्थान, शिक्षा- संस्थान, संस्कृति आदि तमाम गैर राजनीतिक और गैर आर्थिक इकाइयाँ) सहमति का मुक़ाम हैं । ग्राम्शी के इस सूत्रीकरण ने संस्कृति की मार्क्सवादी समझ को गहराई से प्रभावित किया ।

40- संस्कृति पर मार्क्सवादी चिंतन के अधिक संश्लिष्ट आयाम रेमंड विलियम्स, लुई अलथुसे, रिचर्ड होगार्टन और स्टुअर्ट हाल जैसे समकालीन मार्क्सवादियों के विमर्श में मिलते हैं । संस्कृति अध्ययन के प्रमुख संस्थापक और सांस्कृतिक भौतिकवाद के प्रतिपादक रेमण्ड विलियम्स ने संस्कृति के उन रूपों को अपने चिंतन का विषय बनाया जो लोगों द्वारा जिये जा रहे रूप या लिव्ड कल्चर है । उन्होंने जीवन गुज़ारने के सम्पूर्ण तौर- तरीक़ों को संस्कृति माना । उन्होंने उपन्यास और फ़िल्म जैसे स्थापित सांस्कृतिक उत्पादनों को ही नहीं बल्कि बल्कि विज्ञापन और टेलीविजन को भी संस्कृति की विचारणीय अभिव्यक्तियों की तरह देखना शुरू किया ।


41- स्टुअर्ट हाल ने संस्कृति को सिर्फ़ अध्ययन की वस्तु न मानकर सामाजिक क्रियाशीलता और हस्तक्षेप की ऐसी ज़मीन की तरह चिन्हित किया जहां सत्ता सम्बन्ध न केवल बनते और स्थापित होते हैं, बल्कि उसी ज़मीन पर उन्हें अस्थिर किए जाने की सम्भावनाएँ भी होती हैं । स्टुअर्ट हाल टेलीविजन स्टडीज़ के क्षेत्र में एनकोडिंग- डिकोडिंग के सिद्धांतकार के तौर पर भी विख्यात हैं । मार्क्सवादी चिंतक फ्रेड्रिख जेमसन ने वर्ष 1991 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पोस्टमॉडर्निज्म, ऑर, द कल्चरल लॉजिक ऑफ द लेट कैपिटलिजम में कहा कि उत्तर आधुनिकता का विचार परवर्ती पूँजीवाद का सांस्कृतिक तर्क है जिसका स्रोत पूंजीवाद के इस दौर में हो रहे उत्पादन की विधियों में निहित है ।

42- समाजशास्त्र में संस्था का अर्थ मानकों और मूल्यों के सन्दर्भ में समझा जाता है । इस अनुशासन में संस्था उसे कहते हैं जो साझा मूल्यों के तहत बनी नियमों और नियमित प्रक्रियाओं की अंत: सम्बन्धित संहिता के आधार पर काम करती है । समाजशास्त्र इस परिभाषा में विश्वासों, आस्थाओं, सोच- विचार और अनुभूतियों को भी जोड़ता है । संस्थान का अर्थ है सार्वजनिक या अर्ध सार्वजनिक प्रकृति का कोई संगठन जिसका एक संचालक मंडल, भवन या किसी प्रकार की भौतिक व्यवस्था होती है । इन संस्थानों की रचना किन्हीं निश्चित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए की जाती है । मिशले फूको सामाजिक व्यवस्था को ज्ञान और सत्ता के संयोग का नतीजा मानते हैं ।

43- भारत के प्राचीनतम सांख्य दर्शन के प्रतिष्ठापक आचार्य कपिल और उनकी कृति सांख्य प्रवचन सूत्र को माना जाता है । इस दर्शन ने तर्क पूर्ण युक्ति युक्त चिंतन को महत्व दिया है । सांख्य दार्शनिकों ने तर्क और युक्ति के प्रति अपना विश्वास प्रकट करते हुए कहा कि ब्रम्हाण्ड पदार्थ से बना हुआ है । प्रकृति विकास की प्रक्रिया में है और जीवन तथा शक्ति, विचार और चेतना पदार्थ की ही उपज है । यह दर्शन सारत: अनीश्वरवादी था । इसने वेदों को मानने से इंकार कर दिया और ब्राह्मण वादी परम्पराओं से स्वतंत्र रहा । शंकराचार्य ने सांख्य दर्शन का खंडन करते हुए कहा कि सांख्य वेदान्त के खिलाफ लड़ने वाला प्रधान मल्ल है ।

44- सांख्य से तात्पर्य है संख्या से सम्बन्ध रखने वाला दर्शन और संख्या का प्रचलित अर्थ है गणना या गिनती । इस दर्शन में सबसे पहले तत्वों की संख्या पच्चीस बताई गई । इसलिए इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा । सांख्य दर्शन ने सत्कार्यवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया । इसे कार्य और कारण का समेकन करने वाले सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है । सांख्य दर्शन कहता है कि दुख और पीड़ा से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय अविकसित पदार्थ, विकसित ब्रम्हाण्ड और ज्ञाता के बारे में विवेकपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना है । सत्कार्यवाद के अनुसार कारण के बिना कार्य की परिकल्पना नहीं की जा सकती । किसी भी वस्तु के अस्तित्व का एक कारण होता है । सून्य से कोई वस्तु पैदा नहीं होती ।

45- सांख्य दर्शन की मान्यता है कि कारण की प्रक्रिया भी स्वत: प्रकृति में अंतर्निहित है । इस जगत की समस्त वस्तुएँ यहाँ तक कि शरीर और मस्तिष्क, बुद्धि और इंद्रियाँ भी प्रकृति के रूपांतरण का परिणाम हैं । पूरे ब्रम्हाण्ड की रचना प्रकृति से हुई है और प्रकृति ही आद्य पदार्थ है, जिससे पूरा सृजन हुआ है । अस्तित्व पूर्ण से ही अस्तित्व का जन्म होता है । जो अस्तित्व हीन है उसे किसी भी उपाय से अस्तित्व में नहीं लाया जा सकता है । धानों को कूटने से पहले उसमें चावल मौजूद रहते हैं, दुहने से पहले थनों में दूध मौजूद रहता है । इस प्रकार एक ऐसा कारण, जिसे पहचान पाना कठिन है, शाश्वत और सर्वव्यापी प्रकृति है जो अनन्त काल से अस्तित्व में है ।

46- सांख्य दर्शन की मान्यता है कि मानसिक- शारीरिक तत्वों के सम्मिश्रण से ही चेतना का अस्तित्व हो सकता है । आत्मा का शरीर से अलग कोई अस्तित्व नहीं है । उसमें ज्ञान की संज्ञा केवल तब जागती है जब बोध- इंद्रियों से उसका सम्पर्क होता है । सांख्य दर्शन के अनुसार मनुष्य तीन मूलभूत संघटकों से निर्मित है : दस बाह्य और तीन आन्तरिक इंद्रियाँ तन्मात्राओं सहित अनुभवाश्रित मनुष्य के भौतिक अधोस्तर का उसकी भौतिक आत्मा लिंग का निर्माण करती है । यह सूक्ष्म शरीर अथवा लिंग ही व्यक्ति का आध्यात्मिक, मानसिक यन्त्र होता है, इसमें मस्तिष्क, अहंकार, बुद्धि और पाँच सूक्ष्म तत्व शामिल होते हैं । सांख्य दर्शन भाग्य, अलौकिकता और ईश्वर की अवधारणा से पूरी तरह से मुक्त है ।

47- इमैनुअल कांट का विचार था कि मनुष्य इस जगत् का प्रत्यक्ष और अ- विमर्शित ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता नहीं रखता । वह दिक् और काल में पहले से मौजूद अवधारणाओं के मुताबिक़ अपनी समझ बनाता है । कांट के अनुयायी जोहान गोट्टफ्रीड हर्डर की मान्यता थी कि मानवीय अनुभव न केवल सार्वभौम विमर्श के हाथों बनता है, बल्कि वह पारिवेशिक सांस्कृतिक संरचनाओं के ज़रिए भी स्वरूप ग्रहण करता है । दार्शनिक और भाषा शास्त्री विल्हेल्म वॉन हुम्बोल्ट चाहते थे कि कांट और हर्डर के विचारों का संश्लेषण करने वाले मानवशास्त्र का सूत्रीकरण किया जाना चाहिए । समाजशास्त्री विलियम ग्राहम समर्स ने इस संदर्भ में उस मानवीय प्रकृति की तरफ़ ध्यान खींचा जिसके तहत न केवल व्यक्ति की समझ अपनी संस्कृति की सीमाओं में बँधी रहती है बल्कि वह उसी की कसौटियों पर अन्य संस्कृतियों का मूल्यांकन करता है । इस प्रवृत्ति को समर्स ने स्वजातिवाद या एथनोसेंट्रिजम करार दिया ।

48- सांस्कृतिक साम्राज्यवाद उन सांस्कृतिक मूल्यों, विचारों और आचरण संहिताओं का प्रचार, प्रसार और निर्यात है जिन्हें श्रेष्ठ माना जाता है । सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की थिसिज के मुताबिक़ विश्व में सूचना व्यवस्था के सूत्र उन देशों के हाथों में हैं जिनके पास उपग्रहीय प्रसारण की प्रौद्योगिकी है । जिनके ज़रिए छवियों, सूचनाओं, विचारों, विश्लेषणों और मनोरंजन के कार्यक्रमों का ग्लोबल प्रवाह नियंत्रित किया जाता है । विचार जगत् में साम्राज्यवाद और संस्कृति के सम्बन्धों का विधिवत उद्घाटन सबसे पहले सत्तर और अस्सी के दशक में सिद्धांत कार एडवर्ड सईद के चिंतन में प्राच्यवाद की बहुचर्चित थीसिस के ज़रिये हुआ था ।

49- वी. एस. नैपॉल ने अस्सी के दशक में अपनी दो रचनाओं एमंग द बिलीवर्स : एन इस्लामिक जर्नी और बियांड बिलीफ : इस्लामिक एक्सकर्जंस एमंग द कनवर्टिड पीपुल्स में इस्लाम की शिनाख्त सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के तौर पर की । उनका कहना था कि इस्लाम में सांस्कृतिक विविधता को जोर जबरदस्ती अपने रंग में रंगने की प्रवृत्ति है । 1975 में प्रकाशित डॉर्फमैन और मेटेलार्ट की रचना हाउ टु रीड डोनाल्ड डक में दिखाया गया था कि कॉमिक्स और एनिमेशन जैसे सांस्कृतिक उत्पादों के ज़रिए अन्य राष्ट्रीयताओं की नस्ली रूढ़ छवियों का कैसे इस्तेमाल किया जाता है ।

50- सेंसरशिप का अर्थ होता है समाज और राज्य के लिए आपत्ति जनक, नुक़सानदेह, संवेदनशील और असुविधाजनक समझी जाने वाली किसी भी सामग्री के प्रचार- प्रसार पर आंशिक या पूर्ण पाबन्दी । यह अभिव्यक्ति लैटिन भाषा के शब्द सेंसर से निकली है । रोमन सीनेट दो व्यक्तियों को सेंसर के पद पर निर्वाचित करती थी । यह दोनों सेंसर सार्वजनिक आचरण और नैतिकताओं की निगरानी करते थे । वर्ष 2008 में किए गए प्रिजन सेंसर से पता चलता है कि चीन लोक गणराज्य, क्यूबा, बर्मा, इरीट्रिया और उज़बेकिस्तान की सरकारी जेलों में सबसे ज़्यादा पत्रकार बंद हैं । भारत में राजनीतिक सेंसरशिप की एकमात्र अवधि जून, 1975 से 1977 तक चले आंतरिक आपातकाल की थी ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खण्ड 6, दूसरा संस्करण : 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7, से साभार लिए गए हैं ।

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