11- कार्ल मैन्हाइम ने ज्ञान के समाज विज्ञान का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि ‘‘ प्रत्येक वर्ग या समूह का ज्ञान और उसकी मान्यताएं उसकी स्थिति के साथ जुड़ी रहती हैं। एक- दूसरे से मतभेद रखने वाले वर्गों के कुछ प्रबुद्ध सदस्य यह अनुभव कर सकते हैं कि उनका अपना अपना दृष्टिकोण अधूरा है और वे अपने विरोधियों के दृष्टिकोण को समझकर इसे पूरा कर सकते हैं। यह ज्ञान विचारधारा और कल्पना लोक दोनों की कमियों से मुक्त होगा।’’

12- हंगेरियाई मार्क्सवादी विचारक जार्ज ल्यूकॉच (1885-1971) ने कहा कि विचारधारा बुर्जुआ और सर्वहारा दोनों की चेतना का संकेत देती है। यह जरूरी नहीं कि उसमें नकारात्मक सम्बन्ध ही हो। स्वयं मार्क्सवाद सर्वहारा की विचारधारात्मक अभिव्यक्ति है। ल्यूकॉच ने चेतावनी दी है कि हमें वर्ग संघर्ष की जगह विचारधारात्मक संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करके संतोष नहीं कर लेना चाहिए।

13- प्रसिद्ध आस्ट्रियाई दार्शनिक कार्ल पापर (1902-1994) ने अपनी विख्यात कृति ‘ द ओपेन सोसायटी एंड इट्स एनिमीज’ (1945) के अंतर्गत लिखा है कि मुक्त समाज में विचारधारा के लिए कोई जगह नहीं होती। वह केवल सर्वाधिकारवादी समाज में ही पायी जाती है। क्योंकि यहां सभी मनुष्यों को केवल एक ही सांचे में ढालने की कोशिश की जाती है। मुक्त समाज में आलोचना की स्वतंत्रता होती है।

14- जर्मन यहूदी महिला दार्शनिक हन्ना आरेंट (1906-1975) ने अपनी पुस्तक ‘ द ओरिजिंस ऑफ टोटेलिटेरियनिज्म’ (1951) में लिखा कि ‘‘ यहूदियों की विशिष्ट सामाजिक और राजनीतिक स्थिति, जिसने यहूदी विरोध वाद को नई शक्ति दी, साम्राज्यवाद, जिसने प्रजातिवादी आंदोलनों को जन्म दिया और उजड़े हुए जन समूहों के रूप में यूरोपीय समाज के विलयन ने, यूरोप में सर्वाधिकारवाद को जन्म दिया।’’

15- अमेरिकी समाज वैज्ञानिक डेनियल बैल ने अपनी चर्चित कृति ‘ द एंड ऑफ आइडियोलॉजी’ (1960) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि सारे उत्तर- औद्योगिक समाज एक जैसे विकास की ओर अग्रसर होते हैं, चाहे वह किसी भी विचारधारा को मानते हों। यहां विचारधारा प्रमुखता में नहीं होती। सम्पूर्ण प्रशासन में तकनीकी विशिष्ट वर्ग का प्रभुत्व बढ़ रहा है।

16- अमेरिकी अर्थशास्त्री जे. के. गैल्ब्रेथ (1908-2006) ने वर्ष 1967 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ न्यू इंडस्ट्रियल स्टेट’ में विचारधारा के अंत का समर्थन करते हुए कहा कि ‘‘ औद्योगीकृत समाज अनिवार्यतः एक जैसे विकास की ओर अग्रसर होते हैं।उनमें व्यावसायिक वर्गों तथा तकनीक विदों का वर्चस्व स्थापित हो जाता है। यही कारण है कि अमेरिका की तरह ही रूस में भी केन्द्रीकरण और अधिकारीतंत्रीकरण हो गया।’’

17- अमेरिकी राजनीतिक समाज वैज्ञानिक सीमोर लिप्सेट (1922-2006) ने अपनी विख्यात कृति ‘ पॉलिटिकल मैन’ (1960) में लिखा कि ‘‘ आज वामपंथी और दक्षिणपंथी एक- दूसरे के करीब आ रहे हैं। उदारवादियों और समाजवादियों के विचारधारात्मक मतभेद के विषय केवल ये रह गए हैं कि सरकारी स्वामित्व और आर्थिक नियोजन के क्षेत्र को थोड़ा कम कर दिया जाए या बढ़ा दिया जाए।’’

18- ब्रिटिश राजनीति वैज्ञानिक रैल्फ डेरनडार्फ (1929- ) ने अपनी पुस्तक ‘ क्लास एंड क्लास कॉन्फ्लिक्ट इन द इंडस्ट्रियल सोसायटी’ (1969) में तर्क दिया कि यूरोपीय समाज उत्तर पूंजीवादी दौर में पहुंच चुका है। अब वहां पर आर्थिक संघर्ष और राजनीतिक संघर्ष के क्षेत्र समवर्ती नहीं रह गए हैं। परन्तु रिचर्ड टिटमस (1907-1973), सी. राइट्स मिल (1916-1962) और सी. बी. मैक्फर्सन (1911-1987) ने विचारधारा के अंत के सिद्धांत की कड़ी आलोचना की है।

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19- 1980 के दशक के अंत में इतिहास के अंत से सम्बंधित विवाद भी सुर्खियों में रहा। यह शब्दावली अमेरिकी राजनीतिक विश्लेषक फ्रांसिस फुकुयामा (1952 -) की देन है। उन्होंने अपनी चर्चित कृति, ‘ द एंड ऑफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन’ (1992) में इसकी विस्तृत व्याख्या की। उन्होंने कहा कि ‘‘ उदार लोकतंत्र में कोई बुनियादी अंतर्विरोध नहीं पाये जाते और वह मानव मन की सबसे गहरी आकांक्षाएं पूरी करने में समर्थ है। अतः इसकी विजय से इतिहास के लम्बे संघर्ष का अंत हो गया है।’’

20 ब्रिटिश समाजशास्त्री एंथनी गिडेंस (1938) ने अपनी विख्यात कृति ‘ बियोंड लैफ्ट एंड राइट’ (1994) में तर्क दिया कि समकालीन समाज में भूमंडलीकरण, परम्परा का पतन और सामाजिक जीवन में सहज प्रतिक्रिया की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण वामपंथ और दक्षिणपंथ की प्रासांगिकता लुप्त होती जा रही है। इससे सम्पूर्ण विश्व में उदार लोकतंत्र की स्थापना की संभावना बढ़ती जा रही है।


21- कार्ल पॉपर ने इतिहासवाद को छद्म विज्ञान की संज्ञा देते हुए, वर्ष 1945 में दो खंडों में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ द ओपेन सोसायटी एंड इट्स एनिमीज’ में प्लेटो, हीगल और मार्क्स के इतिहासवादी दृष्टिकोणों पर प्रहार किया। उसने लिखा कि ‘‘ प्लेटो बंद समाज का सिद्धांतकार है। प्लेटो का दर्शन सत्तावादी और सर्वाधिकारवादी है।। वह ऐसा प्रतिक्रिया वादी है जो दार्शनिक विशिष्ट वर्ग को पूर्ण सत्ता प्रदान करके सामाजिक परिवर्तन को रोकने की कोशिश करता है।’’

22- कार्ल पॉपर ने लिखा, ‘‘ मार्क्स समग्रवादी और नियतिवादी है जो भविष्यवाणी को प्रधानता देते हुए व्याख्या को गौण बना देता है। वह कहता है कि पूंजीवाद का पतन अवश्यंभावी है, फिर अपने अनुयायियों को विद्रोह के लिए प्रेरित करता है ताकि वे अवश्यंभावी को क्रियान्वित कर सकें।’’ पॉपर ने कहा कि ऐसा कोई नियम नहीं हो सकता जो सम्पूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया पर लागू हो सके।

23- वर्ष 1957 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ द पावर्टी ऑफ हिस्टोरिसिज्म’ के अंतर्गत पॉपर ने लिखा कि ‘‘ कोई भी ऐतिहासिक परिवर्तन ज्ञान के विकास का परिणाम है।’’ प्रणाली वैज्ञानिक व्यक्तिवाद, प्रणाली वैज्ञानिक समग्रवाद का विपरीत रूप है।पॉपर ने प्रणाली वैज्ञानिक व्यक्तिवाद के आधार पर कहा कि सामाजिक सुधार का एक मात्र तरीका खंडस: निर्माण है।इसे उत्तरोत्तर परिवर्तन का सिद्धांत भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें थोड़ा थोड़ा करके आगे बढ़ते हैं।

24- व्यक्तिवाद, राजनीति विज्ञान का वह सिद्धांत है जो मनुष्य को विवेक शील प्राणी मानकर व्यक्ति की गरिमा, उसका स्वाधीन अस्तित्व और उसकी निर्णय क्षमता को मान्यता दिए जाने की मांग करता है। इसमें व्यक्ति को साध्य और राज्य को साधन माना जाता है। अरस्तू ने मनुष्य को राजनीतिक प्राणी मानते हुए यह तर्क दिया था कि ‘ राज्य का अस्तित्व मनुष्य से पहले है।’

25- अंतर्विषयक उपागम, अध्ययन की वह प्रणाली है जिसमें अन्य सामाजिक विज्ञानों के ज्ञान का प्रयोग, अन्य सामाजिक विज्ञानों से अपनी सामग्री का सत्यापन तथा अन्य सामाजिक विज्ञानों में योगदान किया जाता है। डेविड ईस्टन, रॉबर्ट डाल, गेब्रियल ऑल्मड, जेम्स कोलमैन, लुसियन पाई, डेविड एप्टर, कार्ल ड्यूस तथा हेरल्ड लॉसवेल ने राजनीति विज्ञान के अध्ययन को अंतर्विषयक उपागम बनाने का भरपूर प्रयास किया है।

26- जॉन सीली (1834-1895) ने इतिहास और राजनीति विज्ञान के निकट सम्बन्धों की चर्चा करते हुए लिखा कि ‘‘ राजनीति शास्त्र न हो तो इतिहास के वृक्ष में फल ही नहीं लगेगा और इतिहास न हो तो राजनीति शास्त्र के वृक्ष की जड़ ही नहीं रहेगी।’’ अरस्तू, कार्ल मार्क्स या बैरिंगटन मूर जूनियर (1913-2005) राजनीति सिद्धांत की महत्वपूर्ण निधि हैं।

27- मैक्स वेबर (1864-1920), रॉबर्ट मिशेल्स (1876-1936), विल्फ्रैडो पैरेटो (1848-1923) और इमील दुर्खीम (1858-1917) जैसे समाज वैज्ञानिकों ने अपने अपने समाज वैज्ञानिक अनुसंधान के अंतर्गत राजनीति विश्लेषण को भी उपयुक्त स्थान दिया है। अमेरिकी विद्वान आर्थर बेंटली (1870-1957) और फ्रैंकलिन गिडिंग्स (1855-1931) ने भी इस क्षेत्र में शोध को बढ़ावा दिया है।

28- विद्वान चिंतक हेरल्ड लॉसवेल (1902-1978) ने उग्रवादी आन्दोलनों की आकर्षक क्षमता में मनोवैज्ञानिक तत्वों के प्रभाव के अध्ययन की ओर शोध को बढ़ावा दिया। लोकमत का निर्माण और अभिव्यक्ति, नेतृत्व के प्रतिमान, राजनीतिक संस्कृति का प्रचार और जन सम्पर्क के साधनों की भूमिका जैसे विषयों का अध्ययन मनोवैज्ञानिक राजनीति अथवा राजनीतिक मनोविज्ञान के अंतर्गत आता है।

29- प्लेटो और अरस्तू ने राज्य को सद्जीवन का साधन स्वीकार कर राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र के अंतर्सम्बन्धों को स्पष्ट किया।आगे चलकर आइवर ब्राउन (1891-1974) ने राजनीति को नैतिकता का विराट रूप माना। जबकि व्यवहारवाद ने दलील दी कि राजनीति विज्ञान को मूल्यों से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए। परन्तु उत्तर व्यवहारवाद ने मूल्यों की पुनः स्थापना की वकालत की।

30- हित समूह, मनुष्यों के ऐसे संगठित समूह हैं जिनका ध्येय अपने सदस्यों के हित को बढ़ावा देने के लिए शासन के निर्णयों को प्रभावित करना है। परन्तु वे स्वयं अपने सदस्यों को शासन के पदों पर स्थापित करने का प्रयत्न नहीं करते।हित समूहों का उद्देश्य विशेषोन्मुखी होता है।वे विशेष समूह के विशेष हित से सरोकार रखते हैं और किसी विशेष विचार या भावना से प्रेरित लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं।


31- विकसित देशों में हित समूहों की उन्नत परम्परा है और वहां की राजनीति में यह समूह महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वर्ष 1908 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ द प्रॉसेस ऑफ गवर्नमेंट’ में आर्थर वेंटली ने हित समूहों का पहला व्यवस्थित अध्ययन प्रस्तुत किया था। वस्तुत: हित समूहों की गतिविधि अपने ढंग से कृत्यात्मक प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देती है। उदारवादी देशों में हित समूहों के दो प्रतिरूप- बहुलवाद और समवायवाद पाये जाते हैं।

32- संयुक्त राज्य अमेरिका के हित समूह बहुलवाद की श्रेणी में आते हैं। यह सरकार और जनता के बीच कड़ी का काम करते हैं।स्वीडन, नार्वे और डेनमार्क के हित समूह समवायवाद के अंतर्गत आते हैं।इन हित समूहों के प्रबंधक, प्रवक्ता या नेता को पूरे समूह के दृष्टिकोण का प्रतिनिधि माना जाता है। यहां पर हित समूहों के नेता ‘ सत्ता के दलालों की भूमिका’ निभाते हैं।

33- संयुक्त राज्य अमेरिका के हित समूहों की प्रभावकारिता को स्पष्ट करते हुए राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (1856-1924) ने कहा था कि ‘‘ संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ऐसा शिशु है जो विशेष हितों से जुड़े संगठनों की देखरेख में पला है।’’ दूसरी ओर राष्ट्रपति जॉन कैनेडी (1917 -1963) का विचार था कि अमेरिका के संगठित हित समूह लोकतंत्रीय प्रक्रिया का आवश्यक अंग हैं। अमेरिका में दीर्घा प्रचार या लॉबी प्रचार की परम्परा लम्बे समय से चली आ रही है। अमेरिका में लॉबी को कांग्रेस का तीसरा सदन कहा जाता था।

34- अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद मार्क्स और एंगेल्स की शिक्षाओं के साथ जुड़ा हुआ है। वर्ष 1848 में प्रकाशित कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो के अनुसार ‘ कामगारों का अपना कोई देश नहीं होता। इसलिए सम्पूर्ण विश्व के कामगारों को संगठित हो जाना चाहिए। वर्ष 1864 में प्रथम अंतर्राष्ट्रीय कामगार संघ की स्थापना हुई जिसे प्रथम अंतर्राष्ट्रीय संगठन कहा जाता है। वर्ष 1889 में पेरिस में द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना हुई।

35- वर्ष 1911 में सोवियत रूस में वहां के सत्तारूढ़ साम्यवादी दल ने तृतीय अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की।जिसे साम्यवादी अंतर्राष्ट्रीय संगठन या कॉमिंटर्न कहा जाता है।आगे चलकर जोसेफ स्टालिन ने ‘ एक देश में समाजवाद’ का नारा देकर अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद के आंदोलन को आगे बढ़ने से रोक दिया।

36- विद्वान लेखक ई. एच. कार (1892-1982) ने अपनी विख्यात कृति ‘ ट्वेंटी ईयर्स क्राइसिस’ (1939) तथा हैंस मॉर्गेन्थो (1904-1980) ने अपनी चर्चित कृति ‘ अमेरिकन फॉरेन पॉलिसी’ में राजनीति के यथार्थवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि ‘‘ राजनीतिक अनिवार्यता और नैतिक कर्तव्य दोनों यह मांग करते हैं कि किसी देश का राष्ट्र हित ही उसकी विदेश नीति का एकमात्र मार्गदर्शक होना चाहिए।’’

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37- अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रणाली विश्लेषण की प्रस्थापना है कि सारे राष्ट्र – राज्य अपनी अपनी नीतियां निर्धारित करने के लिए पूरी तरह से स्वायत्त नहीं हैं बल्कि वे एक अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के दायरे में रहकर कार्य करते हैं। प्रणाली विश्लेषण के मुख्य प्रवक्ता मॉर्टन ए. कैप्लैन (1921 -) ने अपनी विख्यात कृति, ‘ सिस्टम एंड प्रॉसेस इन इंटरनेशनल पॉलिटिक्स’ (1957) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि 1945 के बाद की ‘शिथिल द्विध्रुवीय’ प्रणाली उन्नीसवीं शताब्दी की ‘शक्ति संतुलन’ प्रणाली से सर्वथा भिन्न थी।

38- विद्वान लेखक कार्ल ड्यूश (1912-1992) और जे. डी. सिंगर (1925 -) ने 1964 में ‘वर्ल्ड पॉलिटिक्स’ में प्रकाशित अपने लेख के अंतर्गत यह तर्क दिया कि साधारणतया बहुध्रुवीय प्रणालियां, द्विध्रुवीय प्रणालियों की तुलना में अधिक स्थिर और शांतिपूर्ण सिद्ध होती हैं।कार्ल ड्यूश का नाम निर्णयन सिद्धांत के साथ भी जुड़ा हुआ है। वर्ष 1963 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति ‘ द नर्व्स ऑफ गवर्नमेंट’ के अंतर्गत उन्होंने लिखा कि ‘‘ विभिन्न देशों के नीति निर्माता विश्व राजनीति के अंतर्गत लगातार बदलती हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अपने लिए उपयुक्त राज्य- नीति का निर्णय करते हैं।’’

39- कार्ल ड्यूश ने ही 1954 के ‘ कनाडियन जर्नल्स ऑफ इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिटिक्स’ में प्रकाशित लेख ‘ गेम थ्योरी एंड पॉलिटिक्स’ के अंतर्गत राजनीति विज्ञान में खेल सिद्धांत के सम्भावनाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया। खेल सिद्धांत की मूल अवधारणा है कि जब प्रस्तुत व्यक्ति या समूह अपनी लक्ष्य- सिद्धि की सम्भावना को अधिकतम बढाना चाहता है और सम्भावित हानियों को न्यूनतम स्तर पर लाना चाहता है तब कौन सी रणनीति या कार्यप्रणाली सर्वोत्तम सिद्ध होगी।

40- विधि का शासन का अर्थ यह है कि नागरिकों पर जो कानून लागू होना है, उसे विधिवत पारित किया गया हो और फिर शासन का संचालन उस कानून से जुड़ी अधिकृत प्रक्रिया के अनुसार किया जाए। कानून को संविधान की कसौटी पर परखने की शक्ति को न्यायिक पुनरीक्षण की शक्ति कहा जाता है।


41- न्याय के परम्परागत दृष्टिकोण का मुख्य सरोकार व्यक्ति के चरित्र से था जबकि आधुनिक दृष्टिकोण का मुख्य सरोकार सामाजिक न्याय से है। सामाजिक न्याय मुख्यत: समाज के वंचित वर्गों की दशा सुधारने की मांग करता है ताकि उन्हें सम्मानपूर्ण जीवन जीने का अवसर मिल सके।आज के युग में सामाजिक न्याय की मुख्य समस्या यह है कि सामाजिक जीवन के अंतर्गत विभिन्न व्यक्तियों या समूहों के प्रति वस्तुओं, सेवाओं, अवसरों, लाभों, शक्ति और सम्मान के साथ साथ दायित्वों और बाध्यताओं के आवंटन का उचित आधार क्या होना चाहिए ?

42- अरस्तू ने दो प्रकार के न्याय में अंतर किया है- पहला, वितरण न्याय और दूसरा, प्रतिवर्ती/ परिशोधनात्मक अथवा प्रतिकारात्मक न्याय। वितरण न्याय का सरोकार पद, सम्मान और सम्पत्ति के वितरण से है। यह विधायक के क्षेत्र में आता है।इसका मूल सिद्धांत यह है कि समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाए।

43- अरस्तू ने कहा कि, वितरण न्याय के अंतर्गत पद प्रतिष्ठा और धन सम्पदा का वितरण अंकगणितीय अनुपात से नहीं होना चाहिए बल्कि रेखागणितीय अनुपात से होना चाहिए।इसका यह अर्थ है कि इनमें से सबको बराबर हिस्सा नहीं मिलना चाहिए बल्कि प्रत्येक को अपनी अपनी योग्यता के अनुसार हिस्सा मिलना चाहिए। आदर्श राज्य में सद्गुण ही योग्यता का मानदंड होगा।जो जितना सद्गुण सम्पन्न होगा उतना ही उसे पद, प्रतिष्ठा, सम्मान और सम्पत्ति मिलेगी।

44- अरस्तू के अनुसार, प्रतिवर्ती न्याय का सरोकार लोगों के परस्पर लेन देन को नियमित करने और अपराधों का दंड निर्धारित करने से है। यह न्यायाधीश के विचार क्षेत्र में आता है।इसका उद्देश्य व्यक्तियों के परस्पर व्यवहार में संतुलन स्थापित करना या बिगड़े हुए संतुलन को फिर से स्थापित करना है। यहां सामाजिक स्थिति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।इसके अतिरिक्त अरस्तू ने एक विश्वव्यापी अथवा प्राकृतिक कानून की भी चर्चा किया है, जो किसी देश या किसी युग विशेष के कानून से परे है और जिसका सम्बन्ध सम्पूर्ण मानव जाति से है।

45- आधुनिक युग में डेविड ह्यूम (1711-1776) ने कहा कि, ‘‘ न्याय का अर्थ नियमों का पालन मात्र है।’’ फिर उपयोगितावाद के प्रवर्तक जरमी बेंथम (1748-1832) ने कि ‘‘ प्राकृतिक कानून सरीखी शब्दावली यथार्थ मूल्यों को धुंधला कर देती है।’’ जॉन स्टुअर्ट मिल ने न्याय को सामाजिक उपयोगिता का सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना।

46- एच. सी. मार्शल ने अपनी चर्चित कृति ‘ नेचुरल जस्टिस’ (1959) के अंतर्गत लिखा कि, ‘‘ वर्तमान युग में प्राकृतिक न्याय शब्दावली का प्रयोग सीमित अर्थ में होता है और इस अर्थ में वह न्यायिक प्रक्रिया के कुछ नियमों का संकेत देती है। प्राकृतिक न्याय के दो मूल तत्व हैं, पहला- कोई भी व्यक्ति स्वयं अपने मामले का न्यायाधीश नहीं होगा। दूसरा- दोनों पक्षों की सुनवाई अवश्य की जाएगी।’’

47- जे. आर. ल्यूकस ने वर्ष 1976 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ द प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिक्स’ के अंतर्गत प्राकृतिक न्याय को परिभाषित करते हुए लिखा कि, ‘‘ प्राकृतिक न्याय के नियम यह मांग करते हैं कि कोई व्यक्ति स्वयं अपने मामले का न्यायाधीश नहीं होगा। न्यायाधीश प्रस्तुत मामले पर पूरा- पूरा विचार करेगा। एक ही तरह के मामलों का निर्णय एक ही तरह से किया जाएगा। केवल न्याय ही नहीं किया जाएगा बल्कि यह दिखाई देना चाहिए कि न्याय हुआ है।’’

48- राजनीतिक न्याय ‘ स्वतंत्रता’ के आदर्श को प्रमुखता देता है। आर्थिक न्याय ‘ समानता’ के आदर्श को महत्व देता है और सामाजिक न्याय ‘ बंधुत्व’ के आदर्श को साकार करना चाहता है।इन तीनों को मिलाकर ही सामाजिक जीवन में न्याय के व्यापक आदर्श की सिद्धि की जा सकती है। विस्तृत अर्थ में सामाजिक न्याय का मूल मंत्र यह है कि संगठित सामाजिक जीवन से जो भी लाभ प्राप्त होते हैं उनमें सबको समुचित हिस्सा मिले।

49- टॉम बॉटॉमोर ने वर्ष 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ क्लासेज इन मॉडर्न सोसाइटी’ में लिखा कि ‘‘ अठारहवीं शताब्दी में जब अमेरिकी क्रांति (1976) और फ्रांसीसी क्रांति (1789) ने उथल-पुथल मचाई, तब जाकर यह अनुभव किया गया कि सामाजिक वर्ग व्यवस्था विषमता की जीती जागती मिसाल है। अतः इस पर विस्तृत विवाद हुआ और सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से इसे चुनौती दी गई।तब जाकर ‘ सभी मनुष्य जन्म से या प्रकृति से स्वतंत्र एवं समान हैं’ सरीखी शब्दावली को मान्यता दी गई। कालान्तर में यही सामाजिक न्याय का आधार बना।’’

50- सामाजिक जीवन में न्याय को स्थापित करने के लिए प्रक्रियात्मक न्याय और तात्विक न्याय में अंतर किया जाता है। प्रक्रियात्मक न्याय के समर्थक मानते हैं कि मूल्यवान वस्तुओं, सेवाओं, लाभों इत्यादि के आबंटन की प्रक्रिया या विधि न्याय पूर्ण होनी चाहिए। तात्विक न्याय के समर्थक मानते हैं कि इन लाभों का वितरण न्याय पूर्ण होना चाहिए। प्रक्रियात्मक न्याय की धारणा उदारवाद के साथ निकट से जुड़ी हुई है।

(नोट- उपरोक्त सभी तथ्य, ओम् प्रकाश गाबा, की पुस्तक ‘राजनीति विज्ञान विश्वकोष, ISBN 81-214-0683-8, प्रकाशन- नेशनल पब्लिशिंग हाऊस, 2/35, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली से साभार लिए गए हैं।)

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5 thoughts on “राजनीति विज्ञान : महत्वपूर्ण तथ्य ( भाग- 6)

  1. डॉ राज बहादुर जी आप के द्वारा दिये गए political science के facts net और यूपीएससी अन्य परीक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। कृपया अपनी facts ब्लॉग को जारी रखने का प्रयास करते रहे।

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