तुलनात्मक राजनीति / राजनीति विज्ञान : महत्वपूर्ण तथ्य (भाग : एक) (तुलनात्मक राजनीति- विश्लेषण तथा राजनीतिक प्रणालियों का वर्गीकरण)
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com
1- राजनीति ऐसा क्षेत्र है जहां समाज के मूल्यवान संसाधनों- वस्तुओं, सेवाओं, अवसरों और लाभों के वितरण के लिए परस्पर विरोधी माँगों के समाधान के उपाय ढूंढे जाते हैं । सार्वजनिक निर्णयों तक पहुँचने के लिए कई तरह की संस्थाएँ स्थापित की जाती हैं, उपयुक्त कार्य – विधि निर्धारित की जाती है, मानक और प्रथाएँ अपनायी जाती हैं , इससे कई तरह के व्यवहार प्रतिमान अस्तित्व में आ जाते हैं । जब हम राजनीति की समस्याओं को समझने और सुलझाने के उद्देश्य से इन सब तत्वों की पहचान करते हैं और इनके परस्पर सम्बन्ध का पता लगाते समय तुलनात्मक पद्धति का प्रयोग करते हैं, तब हमारा प्रयत्न तुलनात्मक राजनीति विश्लेषण की कोटि में आ जाता है ।
2- तुलनात्मक पद्धति : जब हम किन्हीं दो या दो से अधिक वस्तुओं या प्रक्रियाओं को तर्कसंगत आधार पर एक ही श्रेणी में रखते हैं, फिर उनके विभिन्न अंशों की समानताओं और विभिन्नताओं के आधार पर किसी निश्चित नियम या प्रवृति के बारे में प्राक्कलन प्रस्तुत करते हैं, तब हमारी कार्यविधि को तुलनात्मक पद्धति की संज्ञा दी जाती है । यूनानी दार्शनिक अरस्तू को तुलनात्मक राजनीति का जनक माना जाता है । अरस्तू ने प्राचीन काल में अपने शिष्यों के माध्यम से तत्कालीन यूनानी नगर राज्यों के 158 नगर राज्यों के विवरण तैयार कराया था और उनके आधार पर कुछ सामान्य निष्कर्ष निकाले थे ।
3- माइकल कर्टिस ने 1978 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “कंपेरेटिव गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स : एन इंट्रोडक्टरी ऐस्से इन पॉलिटिकल साइंस” में लिखा है कि, “ तुलनात्मक राजनीति का सरोकार ऐसे व्यवहार, संस्थाओं, प्रक्रियाओं, विचारों और मूल्यों से है जो एक से अधिक देशों में पाये जाते हैं । इसके अंतर्गत एक से अधिक राष्ट्र- राज्यों के बीच उन नियमितताओं और प्रतिमानों, उन समानताओं और विभिन्नताओं का पता लगाते हैं जिससे राज्यों की मूल प्रकृति, कार्य विधि और मान्यताओं को स्पष्ट करने में सहायता मिलती है । इस अध्ययन के अंतर्गत सम्पूर्ण राष्ट्र- राज्यों या राजनीतिक प्रणालियों की तुलना भी कर सकते हैं, या फिर किन्हीं विशेष प्रक्रियाओं या संस्थात्मक गतिविधियों की तुलना कर सकते हैं”।
4- डेविड रॉबर्ट सन ने 1985 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, “ए डिक्शनरी ऑफ मॉडर्न पॉलिटिक्स” के अंतर्गत ‘तुलनात्मक शासन’ और ‘तुलनात्मक राजनीति’ शब्दावली को एक- दूसरे की समानार्थक मानते हुए लिखा है कि, “एक अध्ययन के रूप में तुलनात्मक शासन का सार- तत्व यह तुलना करना है कि भिन्न- भिन्न समाज विभिन्न समस्याओं का सामना कैसे करते हैं, इनसे जुड़ी हुई राजनीतिक संरचनाओं की भूमिका में इसकी ख़ास दिलचस्पी रखती है । इसका उद्देश्य इस तरह का ज्ञान विकसित करना है कि भिन्न-भिन्न संस्थात्मक ढॉंचे उनके संदर्भ में किस तरह कार्य करते हैं ?”
5- यूनानी दार्शनिक अरस्तू (384-322 ईसा पूर्व) के शासन प्रणालियों के वर्गीकरण के दो मुख्य आधार थे : क्या शासन को एक व्यक्ति चलाता है, गिने- चुने व्यक्ति चलाते हैं, या बहुत सारे व्यक्ति चलाते हैं ? दूसरे, क्या वहाँ का शासन सामान्य कोटि का है या भ्रष्ट कोटि का है । अरस्तू ने एक व्यक्ति के सामान्य कोटि के शासन को राजतंत्र की संज्ञा दी है । उसने लिखा है कि सामान्य स्थिति में राजतंत्र उत्तम होता है । परन्तु राजा की शक्ति पर कोई अंकुश न होने के कारण वह धीरे-धीरे भ्रष्ट होकर नृशंसतंत्र में बदल जाता है । नृशंस तंत्र एक व्यक्ति का भ्रष्ट शासन है ।
6- अरस्तू के अनुसार नृशंस तंत्र के बाद अभिजाततंत्र की स्थापना होती है । यह गिने- चुने लोगों का सामान्य कोटि का शासन है । सामान्य स्थिति में अभिजाततंत्र उत्तम होता है परन्तु अंकुश के अभाव में यह गुटतंत्र में बदल जाता है । यह अभिजाततंत्र का भ्रष्ट रूप है ।फिर जनसाधारण विद्रोह करके गुटतंत्र को नष्ट कर देते हैं और बहुतंत्र स्थापित हो जाता है । बहुतंत्र बहुत सारे लोगों का- विशेषत: निर्धन लोगों का- सामान्य कोटि का शासन है । इस शासन में स्वार्थ और अविवेक के कारण बहुत सारे लोगों का भ्रष्ट शासन अस्तित्व में आ जाता है जिसे अरस्तू ने लोकतंत्र की संज्ञा दी है । सारे विश्लेषण के बाद अरस्तू इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि स्थिर शासन प्रणाली विकसित करने के लिए बहुतंत्र और अभिजाततंत्र का समन्वय उपयुक्त होगा, जिसे उसने मिश्रित संविधान की संज्ञा दी है ।
7- इतालवी दार्शनिक निकोलो मैकियावेली (1469-1527) ने कहा है कि किसी देश के लिए उपयुक्त शासन प्रणाली का निर्णय करते समय वहाँ के लोगों के चरित्र को ध्यान में रखना चाहिए । वर्ष 1513 में प्रकाशित अपनी पुस्तक डिसकोर्सेज ऑन लिवी में मैकियावेली ने लिखा है कि जिस देश के लोग सच्चरित्र हों, उसके लिए गणतंत्र उपयुक्त होगा क्योंकि वही सर्वोत्तम शासन प्रणाली है । परन्तु जिस देश के लोग नितांत स्वार्थी और लालची हों, उन्हें वश में करने के लिए राजतंत्र का सहारा लेना चाहिए । इस तरह मैकियावेली ने लोगों के चरित्र और उपयुक्त शासन प्रणाली में सह सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया । उसने राजतंत्र के प्रबंध को अधिक कठिन मानते हुए इसकी समस्याओं पर विस्तृत विचार विमर्श किया ।
8- मैकियावेली ने वर्ष 1513 में प्रकाशित अपनी पुस्तक प्रिंस में लिखा है कि कुशल नृपति को अपने अंदर शेर और लोमड़ी दोनों के गुण रखने चाहिए । उसके अनुसार, मनुष्य साधारणत: कृतघ्न, सनकी, धूर्त, डरपोक और लालची होते हैं, इसलिए उनके मन में भय पैदा करके उन्हें वश में करना चाहिए, प्रीति जगाकर नहीं । मैकियावेली के शब्दों में, “लोग अपने पिता की मृत्यु को जितनी जल्दी भूल जाते हैं, पैतृक सम्पत्ति की हानि को उतनी जल्दी भुला नहीं पाते ।” ऐसे लोगों के साथ व्यवहार करते समय नृपति को केवल सच्चरित्रता का ढोंग करना चाहिए ।
9- फ़्रांसीसी दार्शनिक चार्ली द मांतेस्क्यू (1689-1755) ने वर्ष 1748 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द स्पिरिट ऑफ लॉज के अंतर्गत तीन प्रकार की शासन प्रणालियों का वर्गीकरण किया है । इसके दो मुख्य आधार हैं : एक, शासन की प्रकृति तथा दूसरे, शासन का सिद्धांत । मांतेस्क्यू के अनुसार शासन प्रणालियों के तीन मुख्य रूप हैं : गणतंत्र, राजतंत्र और निरंकुश तंत्र । इसमें दो उत्कृष्ट शासन प्रणालियाँ हैं, तीसरी निकृष्ट है । गणतंत्र में प्रभुसत्ता पूरे जनसमुदाय या किन्हीं परिवारों के हाथ में रहती है । इसका मूल सिद्धांत सद्गुण या सदाचार है ।इसके गुण हैं : देश प्रेम, समानता में विश्वास और सर्वहित के लिए सुख के त्याग की भावना । निरंकुश तंत्र भय पर आधारित है ।
10- मांतेस्क्यू से पहले अंग्रेज दार्शनिक जॉन लॉक (1632-1704) ने शासन की कार्यकारी, विधायी और न्यायिक शक्तियों में अंतर किया था । मांतेस्क्यू ने इससे आगे बढ़कर इन शक्तियों के पार्थक्य को स्वतंत्रता की ज़रूरी शर्त के रूप में सामने रखा । उसने यह माँग की कि “एक शक्ति को दूसरी शक्ति पर रोक लगानी चाहिए ।” इस तरह मांतेस्क्यू ने सीमित शासन के सिद्धांत की नींव रखी ।
11- टर्की के शहर इस्तांबुल में जन्में आर. सी. मैक्रिडीस (1918-1991) ने वर्ष 1955 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द स्टडी ऑफ कंपरेटिव गवर्नमेंट में लिखा है कि, “ आज तक राजनीतिक संस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन नाममात्र को तुलनात्मक रहा है । अब तक इसमें विदेशी शासन प्रणालियों, उनके ढाँचों और औपचारिक संगठन का अध्ययन केवल ऐतिहासिक, वर्णनात्मक और क़ानूनी दृष्टि से किया गया है, परन्तु तुलनात्मक राजनीति के अंतर्गत सिद्धांतों, ढाँचों और यथार्थ व्यवहार पर भी विचार होना चाहिए ।” दूसरे शब्दों में, “ तुलनात्मक राजनीति का उद्देश्य राजनीति का तुलनात्मक विश्लेषण होना चाहिए जो राजनीतिक व्याख्या में सहायता दे सके । इसमें राजनीतिक संस्थाओं के ऊपरी ढाँचों की तुलना से संतोष नहीं कर लेते बल्कि उन सब संस्थाओं और प्रक्रियाओं का अनुभव मूलक विश्लेषण करते हैं जो अपने- अपने ढंग से राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं ।”
12- अमेरिकन राजनीति वैज्ञानिक सिडनी वर्बा (1932-2019) ने वर्ष 1963 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द सिविक कल्चर में लिखा है कि, “ यदि आप तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं तो मात्र वर्णन से काम नहीं चलेगा, बल्कि समस्याओं के सैद्धांतिक पक्ष का भी अन्वेषण करना होगा… शासन की औपचारिक संस्थाओं के अध्ययन से काम नहीं चलेगा बल्कि राजनीतिक प्रक्रियाओं और राजनीतिक गतिविधियों का निरीक्षण करना होगा । यहाँ पश्चिमी यूरोप के राष्ट्रों पर ध्यान केंद्रित करना पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के नवोदित राष्ट्रों का अध्ययन भी ज़रूरी होगा ।” आज राजनीतिक प्रणाली को सामाजिक प्रणाली के भीतर एक उप- प्रणाली माना जाता है ।
13- जी.ए. ऑल्मंड और जी.बी. पॉवेल ने वर्ष 1966 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, कंपेरेटिव पॉलिटिक्स : ए डिवेलपमेंटल एप्रोच के अंतर्गत परम्परागत तुलनात्मक राजनीति की तीन मुख्य- मुख्य कमियों का उल्लेख किया है, पहली संकीर्ण दृष्टि, दूसरे संरूपणात्मक पद्धति और तीसरे औपचारिकता । परन्तु दूसरे विश्व युद्ध के बाद विश्व राजनीति का परिदृश्य बदला और राष्ट्रों की संख्या में भारी वृद्धि हुई, शक्ति का फैलाव हुआ तथा साम्यवाद का उदय हुआ । ऐसे दौर में तुलनात्मक राजनीति के नए लक्ष्यों की पहचान की गई, जिसमें अधिक विस्तृत विचार क्षेत्र की खोज हुई । यथार्थवाद की खोज की गई, सुनिश्चितता की खोज पर बल दिया गया ।साथ ही बौद्धिक व्यवस्था की खोज हुई ।
14- पद्धति या विधि एक सामान्य शब्द है जो किसी कार्य को करने के लिए विशेष ढंग का संकेत देता है । अर्थात् पद्धति का अर्थ अन्वेषण की ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा विश्वस्त ज्ञान प्राप्त किया जा सकता हो और विश्वस्त निष्कर्ष निकाले जा सकते हों। दूसरी ओर उपागम के अंतर्गत किसी घटना की विस्तृत जानकारी के लिए न केवल उपयुक्त पद्धति का चयन किया जाता है, बल्कि अध्ययन की केन्द्रीय समस्या का निर्णय भी किया जाता है ।
15- वर्नन वान डाइक ने वर्ष 1960 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, पॉलिटिकल साइंस : ए फिलॉसॉफिकल एनालिसिस के अंतर्गत लिखा है कि, “उपागम का अर्थ है: ऐसे मानदंड जिनके आधार पर विचारणीय समस्याओं या प्रश्नों का निर्णय किया जाता है और जिनके लिए उपयुक्त आधार सामग्री का चयन किया जाता है ।” उपागम और पद्धति में अंतर की ओर इशारा करते हुए डाइक ने कहा है कि, “उपागम का अर्थ होता है कि महत्वपूर्ण समस्याओं तथा उपयुक्त आधार- सामग्री का चयन किस आधार पर किया जाए, जबकि पद्धति का अर्थ यह है कि आधार- सामग्री प्राप्त करने और उसका प्रयोग करने के तरीक़े क्या हों ?
16- तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के उपागमों को मूलतः दो भागों में विभाजित किया जाता है : परम्परागत उपागम तथा आधुनिक उपागम । परम्परागत उपागम के अंतर्गत ऐतिहासिक उपागम, क़ानूनी उपागम तथा संस्थात्मक उपागम आते हैं जबकि आधुनिक उपागमों में प्रणाली विश्लेषण व संरचनात्मक- कृत्यात्मक विश्लेषण सम्मिलित हैं । इसके अतिरिक्त राजनीतिक अर्थशास्त्र उपागम तथा राजनीतिक समाजशास्त्र उपागम भी तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के उपागम हैं ।
17- तुलनात्मक राजनीति के ऐतिहासिक उपागम के अंतर्गत भिन्न-भिन्न राज्यों की शासन प्रणालियों के ऐतिहासिक विवरण तैयार करके उनकी तुलना करते हैं और यह पता लगाते हैं कि हमें अपने वर्तमान लक्ष्यों की पूर्ति के लिए और सम्भावित त्रुटियों के निवारण के लिए कौन- कौन से उपाय करने चाहिए । ऐतिहासिक उपागम के संस्थापकों में इतालवी विचारक निकोलो मैकियावेली (1469-1527), दो फ़्रांसीसी दार्शनिकों चार्ली द मांतेस्क्यू (1689-1755), तथा अलेक्सी द ताकवील (1805-1859) और दो अंग्रेज विचारक वाल्टर बेजहॉट (1826-1877) तथा हेनरी सम्मन मेन (1822-1888) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
18- तुलनात्मक राजनीति के क़ानूनी- औपचारिक उपागम के अंतर्गत भिन्न-भिन्न देशों में प्रचलित संविधानों के आधार पर वहाँ की शासन प्रणालियों के संगठनात्मक ढाँचों, शासन के अंगों की क़ानूनी शक्तियों और उनके परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषण किया जाता है और जहां आवश्यक हो वहाँ संगठनात्मक सुधार के उपायों पर विचार किया जाता है । इस उपागम के प्रवर्तकों में वुडरो विल्सन, ए. वी. डायसी, जेम्स ब्राइस, के. सी. ह्वीयर, हरमन फाइनर, आइवर जैनिंग्स, कार्ल फ्रैड्रिक और कार्ल लोएंस्टाइन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
19- तुलनात्मक राजनीति का संस्थात्मक उपागम इसके क़ानूनी- औपचारिक उपागम के साथ निकट के साथ जुड़ा हुआ है । यह ऐसा उपागम है जो राजनीति को दर्शनशास्त्र, इतिहास या क़ानून का उपाश्रित न मानते हुए इसके स्वाधीन अस्तित्व को मान्यता देता है तथा शासन और राजनीति से जुड़ी सारी संस्थाओं के गठन और भूमिका पर विचार किया जाता है । इस उपागम से हमें वर्तमान संस्थाओं के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए भी उपयुक्त अंतर्दृष्टि प्राप्त हो सकती है ।
20- आर. सी. मैक्रिडीस ने तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के परम्परागत उपागमों की कमियों की ओर संकेत करते हुए लिखा है कि, इसमें तुलनात्मक दृष्टि का नितांत अभाव है । इसमें वर्णन की प्रधानता रहती है । इसका दृष्टिकोण बहुत संकुचित रहा है । इसमें गतिशील तत्वों की उपेक्षा की जाती है । इसमें ऐसे सामान्य नियम स्थापित नहीं किए जाते जो तुलनात्मक अध्ययन का आवश्यक अंग हैं ।
21- वर्ष 1908 में इंग्लैंड में दो महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिन्हें आधुनिक उपागमों का अग्रदूत माना जाता है । इनमें एक पुस्तक ग्रैहम वैलेस की ह्यूमन नेचर इन पॉलिटिक्स थी और दूसरी आर्थर वेंटली की द प्रॉसेस ऑफ गवर्नमेंट थी । इन पुस्तकों के अंतर्गत राजनीतिक संस्थाओं पर अकेले- अकेले विचार नहीं किया गया था बल्कि राजनीति की अनौपचारिक प्रक्रियाओं पर प्रकाश डाला गया था । ग्रैहम वैलेस ने मनोविज्ञान की प्रेरणा से मनुष्य के व्यवहार के अध्ययन को प्रमुखता दी और आर्थर वेंटली ने समाज विज्ञान की प्रेरणा से राजनीति में समूहों के व्यवहार पर ध्यान केन्द्रित किया । ग्रैहम वैलेस ने मैकियावेली और हॉब्स के उस चिंतन पर प्रहार किया जिसमें यह कहा गया था कि, ‘मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी, लालची और झगड़ालू होता है ।’ वैलेस की दलील थी कि मानव प्रकृति के बारे में कोई राय क़ायम करने से पहले उससे सम्बन्धित तथ्यों और साक्ष्यों की जाँच करनी चाहिए ।
22- तुलनात्मक राजनीति आधुनिक उपागमों में राजनीति के सामाजिक सन्दर्भ पर विशेष ध्यान दिया जाता है । इसमें वैज्ञानिक पद्धति को प्रमुखता दी जाती है । इसमें विश्लेषण और व्याख्या का प्रयत्न किया जाता है । इसमें संविधान के ढाँचे की जगह सम्पूर्ण राजनीतिक प्रणाली पर विचार किया जाता है । इसमें अंतर्विषयक उपागम का सहारा लिया जाता है ।
23- अमेरिकी राजनीति– वैज्ञानिक डेविड ईस्टन ने तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के लिए प्रणाली- विश्लेषण को ईजाद किया । वर्ष 1953 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पॉलिटिकल सिस्टम : एन इंक्वायरी इंटू द स्टेट ऑफ पॉलिटिकल साइंस के अंतर्गत राजनीति से जुड़ी हुई प्रक्रिया को राजनीतिक प्रणाली के रूप में समझने का सुझाव दिया । पुनः वर्ष 1957 में प्रकाशित अपनी पुस्तक एन एप्रोच टु द एनालिसिस ऑफ पॉलिटिकल सिस्टम तथा वर्ष 1965 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ए सिस्टम एनालिसिस ऑफ पॉलिटिकल लाइफ़ के अंतर्गत डेविड ईस्टन ने इस विश्लेषण पद्धति की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की ।
24- प्रणाली उन तत्वों के समूह को कहते हैं जो (अ) एक- दूसरे पर क्रिया करते हों, (ब) एक – दूसरे पर आश्रित हों और (स) एक- दूसरे से सम्बद्ध हों । ईस्टन के अनुसार, राजनीतिक प्रणाली किसी समाज के अंदर उन अंत: क्रियाओं की प्रणाली को कहते हैं जिसके माध्यम से अनिवार्य या आधिकारिक आबंटन किए जाते हैं । एक राजनीतिक प्रणाली को अपने पर्यावरण से जो तत्व प्राप्त होते हैं, उन्हें आगत कहा जाता है और यह प्रणाली जिन वस्तुओं का उत्पादन या निर्माण करती है उन्हें निर्गत कहा जाता है । डेविड ईस्टन के अनुसार राजनीतिक प्रणाली को सामाजिक जीवन से मांगें और समर्थन आगत के रूप में प्राप्त होते हैं और यह प्रणाली नीतियाँ और निर्णय बना- बनाकर उन्हें निर्गत के रूप में पर्यावरण की ओर प्रवाहित करती है ।
25- डेविड ईस्टन के अनुसार नीतियाँ और निर्णय आधिकारिक आबंटन का आधार बनते हैं । परन्तु निर्गत भी पर्यावरण में जाकर उसके तत्वों से क्रिया करते हैं जिससे नए आगत अस्तित्व में आते हैं और यह आगत पुनर्निवेश के माध्यम से राजनीतिक प्रणाली में वापस चले जाते हैं । इस तरह राजनीतिक प्रणाली का एक चक्र पूरा होता है । इस प्रणाली में दबाव गुट और राजनीतिक दल द्वारपाल की भूमिका निभाते हैं । इन माँगों पर सांस्कृतिक तंत्र का कड़ा अंकुश रहता है । रूपांतरण प्रक्रिया के दौरान भी माँगों को नियंत्रित कर सकते हैं ।
26- तुलनात्मक राजनीति में संरचनात्मक- कृत्यात्मक उपागम के प्रयोग की प्रेरणा रैडक्लिफ- ब्राउन और बी. मैलीनोस्की सरीखे मानव वैज्ञानिकों की कृतियों से आई है । इन अनुसंधानकर्ताओं ने अनेक जनजातीय समुदायों के अध्ययन में इस कृत्यात्मक उपागम का प्रयोग करते हुए यह दिखाया कि इनके कुछ विशेष कृत्य- जैसे कि विधि विधान, तंत्र- मंत्र और संस्कार इनमें एकता क़ायम रखने में किस तरह सहायक सिद्ध होते हैं । सभ्य समाज के अध्ययन के लिए ऐसा सैद्धान्तिक ढाँचा तैयार करने का श्रेय प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक टैल्कट पार्संस को है ।उसके बाद गेब्रियल ऑल्मंड ने राजनीति विश्लेषण के लिए इस उपागम का उपयुक्त सैद्धान्तिक ढाँचा विकसित किया ।
27- गेब्रियल ऑल्मंड ने वर्ष 1960 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द पॉलिटिक्स ऑफ द डिवेलपिंग एरियाज में चार प्रकार के आगत कृत्यों और तीन प्रकार के निर्गत कृत्यों तथा इनसे जुड़ी हुई संरचनाओं का पता लगाया । पहला आगत कृत्य है : राजनीतिक समाजीकरण और भर्ती, दूसरा : हित स्पष्टीकरण, तीसरा : हित समूहन और चौथे राजनीतिक सम्प्रेषण है । राजनीतिक प्रणाली के तीन निर्गत कृत्य हैं : नियम निर्माण, नियम- अनुप्रयोग और नियम- अधिनिर्णयन । इन कार्यों को शासन की परम्परागत संरचनाएँ क्रमशः विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सम्पन्न करती हैं ।
28- तुलनात्मक राजनीति के सन्दर्भ में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के दो रूप पहचाने जाते हैं : चिरसम्मत राजनीतिक अर्थव्यवस्था और आधुनिक राजनीतिक अर्थव्यवस्था । चिरसम्मत राजनीतिक अर्थव्यवस्था के उन्नायकों में एडम स्मिथ, रॉबर्ट माल्थस और डेविड रिकार्डो के विचार महत्वपूर्ण हैं । एडम स्मिथ की वर्ष 1776 में प्रकाशित पुस्तक इन्क्वायरी इंटू द नेचर एंड कॉजेज ऑफ द वेल्थ ऑफ नेशंस महत्वपूर्ण कृति है । स्मिथ के सम्पूर्ण चिंतन की कुंजी एक स्वायत्त, स्वयं- नियमित अर्थव्यवस्था की संकल्पना है जिसे उसने नागरिक समाज की संज्ञा दी है । स्मिथ ने वाणिज्य और स्वतंत्रता में निकट सम्बन्ध स्वीकार करते हुए यह कहा कि, “वाणिज्य की वृद्धि से स्वतंत्रता की वृद्धि होती है और स्वतंत्रता की वृद्धि से वाणिज्य की वृद्धि होती है ।”
29- एडम स्मिथ (1723-90) ने वाणिज्य एवं व्यापार की स्वतंत्रता को प्राकृतिक स्वतंत्रता की संज्ञा दी और यह तर्क दिया कि जब प्रत्येक व्यक्ति अपने- अपने हित को बढ़ावा देता है तो वह अनजाने में समाज के हित को भी बढ़ावा देता है । बाज़ार के अदृश्य हाथ की संकल्पना प्रस्तुत करते हुए स्मिथ ने यह विचार प्रकट किया कि मुक्त प्रतिस्पर्धा अपनी विनियमन- शक्ति के बल पर संसाधनों के इष्टतम आबंटन की व्यवस्था करती है । अत: राष्ट्र की सम्पदा और समृद्धि को बढ़ाने के लिए राज्य को अहस्तक्षेप की नीति अपनानी चाहिए अर्थात् व्यक्तियों की आर्थिक गतिविधियों में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । इस तरह राज्य के तीन कार्य रह जाते हैं : सुरक्षा, न्याय और सार्वजनिक निर्माण ।
30- ब्रिटिश अर्थशास्त्री टॉमस रॉबर्ट माल्थस (1766-1834) ने वर्ष 1798 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ऐस्से ऑन द प्रिंसिपल ऑफ पॉपुलेशन’ के अंतर्गत अर्थशास्त्रवेत्ताओं के इस परम्परागत विचार को चुनौती दी कि विस्तृत और बढ़ती हुई जनसंख्या सम्पदा का पर्याय है । उसने तर्क दिया कि जनसंख्या रेखागणितीय श्रेणी (2,4,6,8,10) में बढ़ती है जबकि खाद्य आपूर्ति अंकगणितीय श्रेणी (2,4,8,16,32) में बढ़ती है ।अत: कालांतर में बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए खाद्यान्न की कमी पड़ जाती है । माल्थस ने तर्क दिया कि बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकने के लिए दो उपाय हैं : सकारात्मक और नकारात्मक । सकारात्मक रोकथाम का उपाय है : युद्ध और महामारी, इत्यादि के कारण मृत्यु दर में वृद्धि और नकारात्मक उपाय है : ब्रम्हचर्य और विवाह में देरी ।
31- ब्रिटिश अर्थशास्त्री डेविड रिकोर्डो (1772-1823) ने वर्ष 1817 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल इकॉनामी एंड टैक्सेशन के अंतर्गत राजनीतिक अर्थव्यवस्था के दो मुख्य सिद्धांत प्रस्तुत किए : अधिशेष का सिद्धांत और श्रम आधारित मूल्य सिद्धांत । रिकार्डो के अनुसार भूमि का ऊँचा किराया या उससे प्राप्त होने वाला अधिशेष प्रकृति की कृपा की देन नहीं बल्कि उर्वर भूमि की कमी और भूस्वामियों के लोभ का परिणाम है । इससे जनसाधारण पर बोझ पड़ता है और राष्ट्र की सम्पदा की हानि होती है । इंग्लैंड में भूमि का किराया कम करने के लिए रिकार्डो ने अन्न क़ानूनों के उन्मूलन की वकालत की ।
32- श्रम आधारित मूल्य सिद्धांत से रिकार्डो का अभिप्राय यह था कि उत्पादन के भिन्न-भिन्न तत्वों : भूमि, श्रम, पूंजी और संगठन में श्रम ही वस्तुतः सारे उत्पादन की कुंजी है और वही मूल्य का यथार्थ स्रोत है । अन्य तत्व अपने आप कोई उत्पादन नहीं करते, केवल श्रम के संयोग से ही वे उत्पादन में सहायक होते हैं । आगे चलकर कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को अपनाया और इसके आधार पर उसने अतिरिक्त मूल्य की संकल्पना प्रस्तुत किया । तुलनात्मक राजनीति विज्ञान के अध्ययन में इन उपागमों का महत्व यह है कि विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों की तुलना करते समय हमें यह देखना चाहिए कि प्रस्तुत प्रणाली किस हद तक बाज़ार व्यवस्था के अनुरूप है ।
33- आधुनिक राजनीतिक अर्थव्यवस्था उपागम के अंतर्गत तुलनात्मक राजनीति विश्लेषण के मुख्य दो प्रतिरूप मानें जा सकते हैं : उदारवादी विश्लेषण और मार्क्सवादी विश्लेषण । उदारवादी विश्लेषण के अंतर्गत राजनीति को वर्तमान बाज़ार व्यवस्था के तुल्य मानते हुए राजनीति और आर्थिक गतिविधि के बीच श्रृंखला सम्बन्ध की तलाश की जाती है । वर्ष 1977 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पॉलिटिक्स एंड मार्केट्स के अंतर्गत चार्ल्स लिंडब्लोम ने लिखा है कि, “विश्व की सभी राजनीतिक प्रणालियों में अधिकांश राजनीति अपने आप में अर्थशास्त्र भी है और अधिकांश अर्थशास्त्र राजनीति भी है । यह मानने के अनेक युक्तियुक्त कारण हैं कि बुनियादी सामाजिक यंत्र व्यवस्थाओं और प्रणालियों के विश्लेषण में राजनीति और अर्थशास्त्र को साथ- साथ रखना चाहिए ।”
34- इस उपागम के अंतर्गत ऐसी संकल्पनाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है जो राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों में समान रूप से पायी जाती हैं, जैसे कि, संसाधनों का आबंटन, माँगें, लागत, उपयोगिता, इष्टतमकरण इत्यादि । साथ ही इसमें राजनीतिक प्रक्रिया को विनिमय की प्रक्रिया माना जाता है, चुनाव को बाज़ार की स्थिति के रूप में देखा जाता है और वोट को मुद्रा के तुल्य समझा जाता है जिसके बदले में मनचाही नीतियाँ और कार्यक्रम प्राप्त किए जा सकते हैं । गठबंधन निर्माण और दो दलीय प्रणालियों को बाज़ार प्रणाली के रूप में देखा जाता है । इस उपागम के विकास में वर्ष 1957 में प्रकाशित एंथनी डाउन्स की पुस्तक एन इकॉनॉमिक थ्योरी ऑफ डेमोक्रेसी, जे. बुकैनन और जी. टल्लॉक की वर्ष 1962 में प्रकाशित पुस्तक द कैल्कुलस ऑफ कंसेन्ट, एम.ओस्लन की 1965 में प्रकाशित पुस्तक द लॉजिक ऑफ कलैक्टिव एक्शन तथा आर. करी और एल. वेड की 1968 में प्रकाशित पुस्तक ए थ्योरी ऑफ पॉलिटिकल एक्सचेंज का विशेष योगदान रहा है ।
35- तुलनात्मक राजनीति का मार्क्सवादी विश्लेषण कार्ल मार्क्स (1818-83) तथा फ्रैड्रिक एंगेल्स (1820-95) के सिद्धांतों पर आधारित है । मार्क्सवादी विचारक राजनीति को मानव जीवन की मौलिक गतिविधि या स्वायत्त गतिविधि नहीं मानते । उनके विचार से किसी भी देश और किसी भी युग की राजनीति वहाँ की अर्थव्यवस्था के साथ निकट से जुड़ी रहती है । यहाँ पर सामाजिक जीवन की संरचना में आधार और अधिरचना में अंतर करना ज़रूरी है । समाज की आर्थिक संरचना इसका आधार या नींव है और क़ानूनी तथा राजनीतिक संरचना ऊपरी ढाँचा है । आधार का स्वरूप ही अधिरचना के चरित्र को निर्धारित करता है और आधार के रूप में कोई परिवर्तन होने पर अधिरचना का चरित्र भी बदल जाता है ।
36- तुलनात्मक राजनीति में राजनीतिक समाजशास्त्र उपागम का भी महत्वपूर्ण योगदान है । यह ऐसा उपागम है जो राजनीति विज्ञान और समाज विज्ञान की सीमाओं को स्पर्श करता है । यहाँ राजनीति वैज्ञानिक और समाज वैज्ञानिक एक- दूसरे के निकट आ जाते हैं और एक- दूसरे की उपलब्धियों से लाभ उठाते हैं तथा एक- दूसरे के ज्ञान भण्डार में वृद्धि करते हैं । इसके साथ यह मान्यता जुड़ी हुई है कि किसी भी समाज में राज्य- व्यवस्था की संरचना वहाँ के सामाजिक संगठन की संरचना से निर्धारित होती है । इस दृष्टि से यहाँ समाज वैज्ञानिक के अध्ययन के मुख्य विषय हैं : राजनीतिक सहमति और मतभेद, सामाजिक संरचना और राजनीतिक शक्ति में परस्पर सम्बन्ध, विशिष्ट वर्गों का विश्लेषण, राजनीतिक सहभागिता इत्यादि ।
37- चार्ल्स मरियम और हेरल्ड लासवेल ने सम्पूर्ण सामाजिक जीवन को व्यक्तियों और समूहों की अधिमान्यताओं, उनके परस्पर संघर्ष, और शक्ति एवं प्रभाव के प्रयोग का क्षेत्र मानते हुए सम्पूर्ण समाज विज्ञान को राजनीति- समाज विज्ञान का विषय बनाने का समर्थन किया है । फ़्रांसीसी दार्शनिक चार्ली द मांतेस्क्यू, स्कॉटिश दार्शनिक एडम फ़र्गुसन, फ़्रांसीसी दार्शनिक अलेक्सी द ताकवील के अन्वेषण के विषय भी राजनीतिक समाजशास्त्र के विचार क्षेत्र में आते हैं । बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जर्मन समाज वैज्ञानिक मैक्स वेबर, इतालवी समाज वैज्ञानिक विल्फ्रेटो परेटो, और गितानो मोस्का ने अपने ढंग से शक्ति के सामाजिक आधार का विश्लेषण प्रस्तुत किया है ।
38- मैक्स वेबर ने माना कि शक्ति और वैधता के संयोग से जिस सत्ता का सृजन होता है, वह तीन प्रकार की होती है : परम्परागत सत्ता, करिश्माती सत्ता और कानूनी तर्कसंगत सत्ता । किसी भी राजनीतिक प्रणाली के अंतर्गत शक्ति के सामाजिक आधार का पता लगाने के लिए वहाँ पर प्रचलित सत्ता की प्रकृति पर ध्यान देना चाहिए । इसी प्रकार पैरेटो के विचार से विशिष्ट वर्ग के मुख्य गुण बुद्धिमत्ता और योग्यता हैं, जबकि मोस्का के विचार से उसकी मुख्य विशेषता संगठन की क्षमता है । संक्षेप में, विशिष्टवर्गवाद के अनुसार, किसी राजनीतिक प्रणाली के अंतर्गत शक्ति के सामाजिक आधार का पता लगाने के लिए वहाँ के विशिष्ट वर्गों की संरचना पर ध्यान देना चाहिए ।
39- अमेरिकी राजनीति वैज्ञानिक चार्ल्स मरियम (1874-1953) ने वर्ष 1925 में प्रकाशित अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक न्यू आस्पैक्ट्स ऑफ पॉलिटिक्स तथा हेरल्ड लासवैल (1902-78) ने वर्ष 1936 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पॉलिटिक्स : हू गैट्स, ह्वाट, ह्वैन, हाउ ? के अंतर्गत समाज विज्ञान की दृष्टि से राजनीतिक शक्ति के विश्लेषण का प्रयत्न किया । उन्होंने शक्ति के विज्ञान की चर्चा करते हुए राजनीतिक विशिष्ट वर्ग की भूमिका पर प्रकाश डाला । ज्योवानी सार्टोरी ने वर्ष 1994 में प्रकाशित अपनी पुस्तक कंपेरेटिव कांस्टीट्यूशनल इंजीनियरिंग में लिखा है कि हमें राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र के परस्पर योगदान पर फिर से ध्यान देना चाहिए ।
40- विचारकों ने तुलनात्मक राजनीति- विश्लेषण की समस्याओं को भी संज्ञान में लिया है । तुलनात्मक राजनीति- विश्लेषण की पहली समस्या यह है कि इसे विश्वव्यापी रूप कैसे दिया जाए । दूसरी समस्या सर्वमान्य संकल्पनाओं का अभाव है । तीसरी समस्या उपयुक्त जानकारी और आधार सामग्री एकत्र करने की है और चौथी समस्या विभिन्न परिवर्त्यों में सही सहसम्बन्ध स्थापित करने की है ।
41- कार्ल फ्रैडरिक के अनुसार, “संविधान ऐसी प्रक्रिया का संकेत देता है जिसके द्वारा शासन की गतिविधि पर प्रभावशाली अंकुश रखा जाता है… इसे ऐसी प्रक्रिया समझा जाता है जिसका कार्य केवल संगठित करना नहीं बल्कि (संगठन पर) अंकुश रखना भी है ।” जब किसी राज्य का संगठन नियत- निश्चित संविधान के अनुसार किया जाता है तो उसके शासन को सांविधानिक शासन कहते हैं । उन्होंने आगे कहा कि, “सांविधानिक प्रणाली का अर्थ है खेल के नियमों के अनुसार राजनीति का संचालन, ताकि सरकारी तथा अन्य राजनीतिक गतिविधियों को प्रभावशाली अंकुश में रखा जा सके ।”
42- उदार- लोकतंत्रीय प्रणाली में एक से अधिक राजनीतिक दलों का अस्तित्व होता है ।सत्ता प्राप्ति हेतु उनमें मुक़ाबला खुले तौर पर होता है, गुप्त नहीं । इसमें राजनीतिक पद किसी वर्ग का विशेषाधिकार नहीं होता बल्कि यहाँ तक पहुँचने का रास्ता सबके लिए समान रूप से खुला होता है । यहाँ पर व्यापक मताधिकार के आधार पर निश्चित अंतराल पर चुनाव होते हैं ।इसमें दबाव समूहों, मज़दूर संघों तथा अन्य स्वैच्छिक साहचर्यों पर शासन का कठोर नियंत्रण नहीं रहता । यहाँ पर नागरिक स्वतंत्रताओं को शासन के द्वारा मान्यता दी जाती है और उनका संरक्षण किया जाता है । इसमें न्यायपालिका स्वाधीन होती है तथा जन- सम्पर्क के साधनों को पर्याप्त स्वतंत्रता होती है । ब्रिटेन, अमेरिका, फ़्रांस, जर्मनी, स्वीडन और भारत इसके उदाहरण हैं ।
43- सत्तावादी प्रणाली में किसी व्यक्ति, गुट, संस्था, नियम या प्रमाण ग्रन्थ में निहित मान्यता को सार्वजनिक निर्णय की प्रामाणिकता का आधार माना जाता है । इसमें जनसाधारण को अपना स्वाधीन मत या अधिमान्यताएँ प्रकट करने या अपनी माँगें प्रस्तुत करने का अवसर या अधिकार नहीं दिया जाता । निर्णय की प्रक्रिया में सार्वजनिक चर्चा या सार्वजनीन मतदान की अनुमति नहीं दी जाती । यहाँ सत्ताधारी जनसाधारण या लोकमत के प्रति उत्तरदायी नहीं होता । सत्तावाद किसी न किसी विचारधारा के साथ जुड़ा रहता है । इसमें सत्ताधारी के निर्देशों को किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती और किसी समानांतर सत्ता को भी सहन नहीं किया जा सकता है । अन्ततः जनसाधारण के पास सत्ताधारी को हटाने का कोई विधिसम्मत तरीक़ा नहीं रह जाता ।
44- अधिनायकतंत्र में ऐसे क़ानून या प्रथाएँ प्रचलित नहीं होतीं जिनसे शासक या शासक वर्ग से जवाब तलब किया जा सके । शासक वर्ग जो चाहे वह कर सकते हैं । इसमें शासन के नियमित उत्तराधिकार की कोई व्यवस्था नहीं होती । यहाँ पर सत्ता का प्रयोग एक छोटे से गुट को लाभ पहुँचाने के लिए किया जाता है । इसमें शासक की आज्ञाओं का पालन केवल डर से किया जाता है । इसमें आतंक का विस्तृत प्रयोग होता है और सारी शक्ति एक ही व्यक्ति के हाथों में केन्द्रित होती है । अधिनायकतंत्र तीन प्रकार का होता है : राजनीतिक दल का अधिनायकतंत्र, सैनिक अधिनायकतंत्र और फ़ासिस्ट अधिनायकतंत्र ।
45- आर.एम. मैकाइवर ने 1965 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द वैब ऑफ गवर्नमेंट में लिखा है कि, “अधिनायकतंत्र विशेष रूप से तब अस्तित्व में आता है, जब मनुष्य अपनी परम्पराओं को तिलांजलि दे देते हैं, ऐसे घोर संकट के समय जब मनुष्य केवल इस शर्त पर बहुत कुछ बलिदान करने को तैयार हो जाते हैं कि कोई शक्तिशाली व्यक्ति उनके उखड़े हुए विश्वास और व्यवस्था को फिर से स्थापित कर दे ।” वस्तुतः अधिनायकतंत्र संकटग्रस्त समाज में पनपता है । यह समुदाय से कटा रहता है । फ़ासिस्ट इटली, नाजी जर्मनी इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं ।
46- संसदीय और अध्यक्षीय प्रणालियों में मौलिक अंतर यह है कि संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका संसद अर्थात् विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होती है । दूसरी ओर, अध्यक्षीय शासन प्रणाली के अंतर्गत कार्यपालिका विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं होती, न उसे विधानमंडल अपने पद से हटा सकता है । ग्रेट ब्रिटेन और भारत संसदीय प्रणाली के उपयुक्त उदाहरण हैं । अध्यक्षीय प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका की शासन प्रणाली है ।
47- संसदीय शासन- प्रणाली में एक प्रतीकाध्यक्ष राज्याध्यक्ष की व्यवस्था की जाती है जबकि उसका राजनीतिक प्रभाव बहुत मामूली होता है । इसमें राजनीतिक कार्यपालिका विधानमंडल का अंग होती है । यदि विधानमंडल उसे समर्थन देना बंद कर दे, तो कार्यपालिका को त्यागपत्र देना पड़ता है और इसमें विधानमंडल का निर्वाचन निर्वाचक मंडल के द्वारा किया जाता है । दूसरी ओर अध्यक्षीय शासन प्रणाली में राष्ट्रपति या अध्यक्ष प्रतीकात्मक राज्याध्यक्ष भी होता है और यथार्थ राज्याध्यक्ष भी वही होता है । इसमें राष्ट्रपति का चुनाव विधानमंडल नहीं करता बल्कि पूरा निर्वाचक मंडल स्वयं करता है । इसमें राष्ट्रपति विधानमंडल का अंग नहीं होता । उसे यह अधिकार नहीं होता कि वह विधानमंडल को समय से पहले भंग करके आम चुनाव की घोषणा कर दे । राष्ट्रपति अपने मंत्रिमंडल के सदस्य अपनी पसंद से रख सकता है ।केवल महाभियोग से उसे हटाया जा सकता है ।
48- संसदीय प्रणाली की विशेषता यह है कि इसमें विधानमंडल और कार्यपालिका में निकट सम्पर्क रहता है जबकि अध्यक्षीय प्रणाली शक्ति प्रथक्करण, नियंत्रण और संतुलन पर आधारित होती है । संसदीय प्रणाली को सुनम्य अथवा लचीली माना जाता है जबकि अध्यक्षीय प्रणाली को कठोर या अनम्य श्रेणी में रखा जाता है । संसदीय प्रणाली में अस्थिरता का माहौल बना रहता है जबकि अध्यक्षीय प्रणाली में स्थिरता बनी रहती है । संसदीय प्रणाली में सर्वसाधारण की प्रभुसत्ता का निरंतर सम्मान किया जाता है । अध्यक्षीय प्रणाली में विधानमंडल के सदस्य किसी भी विधेयक पर स्वतंत्र मतदान कर सकते हैं । यहाँ राष्ट्रपति और विधानमंडल दोनों का कार्यकाल निश्चित होता है अतः वह जनमत के प्रति उतने संवेदनशील नहीं होते ।
49- तुलनात्मक राजनीति में एकात्मक और संघात्मक प्रणालियों का अध्ययन भी सम्मिलित है । एकात्मक राज्य एक ही केन्द्रीय सरकार के अंतर्गत संगठित होता है । राज्य के पूरे भू- क्षेत्र में केन्द्र की सत्ता सर्वोच्च होती है और किसी क़ानून के अंतर्गत उसके किसी हिस्से को कोई ऐसी विशेष शक्तियाँ प्राप्त नहीं होतीं जो केंद्र की शक्ति को सीमित कर सकें । ए. वी. डायसी के शब्दों में, “एकात्मकता ऐसे राजनीतिक संगठन का संकेत देती है जिसमें एक केन्द्रीय शक्ति नियमपूर्वक सर्वोच्च विधायी सत्ता का प्रयोग करती है ।” ग्रेट ब्रिटेन, फ़्रांस और बेल्जियम एकात्मक राज्यों के प्रसिद्ध उदाहरण हैं ।
50- संघात्मक या संघीय राज्य उसे कहते हैं जिसमें एक राष्ट्रीय या केन्द्रीय सरकार के अलावा अनेक समकक्ष राज्य कुछ उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एकता के सूत्र में बँधे रहते हैं । ए. वी. डायसी के शब्दों में, “ संघात्मक राज्य ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता और शक्ति के साथ- साथ राज्य अधिकारों की रक्षा करना हो ।” संघात्मक राज्यों के प्रमुख उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत, स्विट्ज़रलैंड , जर्मनी, आस्ट्रेलिया और कनाडा हैं । पूर्ण विकसित संघात्मक प्रणाली में संविधान की सर्वोच्चता होती है और संघीय सरकार तथा संघ की इकाइयों के बीच शक्तियों का वितरण होता है । एक सर्वोच्च न्यायालय होता है ।
51- विकेन्द्रीकरण का अर्थ होता है : किसी संगठन के अंतर्गत वह प्रक्रिया जिसमें नीति- निर्माण, निर्णयन, प्रशासन तथा अन्य गतिविधियों को एक ही जगह केन्द्रित नहीं होने दिया जाता, बल्कि उसे दूर- दूर तक फैली हुई इकाइयों को सौंप दिया जाता है ताकि उस संगठन की कार्यकुशलता बढ़ाई जा सके और उसके समस्त अंगों में उत्तरदायित्व की भावना का संचार किया जा सके । शासन प्रणालियों के सन्दर्भ में संघीय व्यवस्था को विकेन्द्रीकरण का एक उपयुक्त साधन मान सकते हैं । समाजवादी या साम्यवादी प्रणालियों में विकेन्द्रीकरण की गुंजाइश बहुत कम होती है । साम्यवादी व्यवस्था, साम्यवादी दल लोकतंत्रीय केन्द्रवाद पर आधारित होता है ।
52- लोकतंत्रीय केन्द्रवाद वह सिद्धांत है जिसका तात्पर्य यह है कि दल और शासन के निचले अंग अपने से ऊंचे अंगों का निर्वाचन करेंगे, फिर प्रत्येक अंग अपने से ऊंचे अंग का निर्णयों का पालन करने के लिए बाध्य होंगे । इस तरह निर्णय की शक्ति क्रमशः ऊंचे अंगों के हाथों में सिमटती चली जाती है । साम्यवादी देशों में सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ, युगोस्लाविया और चेकोस्लोवाकिया में संघीय प्रणाली अपनायी गयी थी, परन्तु अब वहाँ पर साम्यवाद का पतन हो गया है ।
53- पूँजीवादी और समाजवादी प्रणालियों में अंतर करते हुए कहा जा सकता है कि जहॉं उत्पादन के प्रमुख साधनों का स्वामित्व निजी क्षेत्र यानी पूँजीपतियों के हाथों में रहता है, वहाँ पर पूँजीवादी प्रणाली पायी जाती है । दूसरी ओर जहॉं उत्पादन के प्रमुख साधनों का स्वामित्व सार्वजनिक क्षेत्र अर्थात् सरकार के हाथों में रहता है, वहाँ पर समाजवादी प्रणाली पायी जाती है । पूँजीवादी प्रणाली मूलतः एक उत्पादन प्रणाली ह। इसके अंतर्गत वस्तुओं का उत्पादन, सेवाओं का प्रबंध और तकनीकों का आविष्कार निजी लाभ को बढ़ावा देने के उद्देश्य से किया जाता है । पूँजीवादी व्यवस्था के लिए विशाल पूँजी के निवेश की ज़रूरत होती है । अनुबंध की स्वतंत्रता और सम्पत्ति का अधिकार पूँजीवादी प्रणाली की बुनियादी विशेषता है ।
54- समाजवादी प्रणाली के अंतर्गत उत्पादन और वितरण के प्रमुख साधनों पर राज्य का स्वामित्व और नियंत्रण रहता है और उनका प्रयोग सार्वजनिक सेवा के उद्देश्य से किया जाता है । यदि किसी देश में उदार- लोकतंत्रीय प्रणाली अपनाने पर सत्तारूढ़ सरकार लगातार समाजवादी नीतियों को बढ़ावा देती है तो यह व्यवस्था समाजवादी प्रणाली की श्रेणी में नहीं आ जाती । यह प्रणाली मार्क्सवादी- लेनिनवादी विचारधारा पर आधारित है । यहाँ पर साम्यवादी दल ही सम्पूर्ण राजनीतिक गतिविधि और निर्णय प्रक्रिया की धुरी होता है । मतदाताओं को केवल साम्यवादी दल के द्वारा मनोनीत उम्मीदवारों का चयन करना पड़ता है ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, ओम् प्रकाश गाबा, की पुस्तक “तुलनात्मक राजनीति की रूपरेखा” पाँचवाँ संस्करण, 2022, नेशनल पेपरबैक्स, 4230/1, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, ISBN : 978-93-88658-34-8 से साभार लिए गये हैं ।