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राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग : 38)

Posted on फ़रवरी 18, 2023अक्टूबर 20, 2023

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya. Com

(सभ्यताओं का संघर्ष, समतावाद, सम्प्रभुता की अवधारणा, समाज कार्य, समाजवादी बसंत, हंगरी की क्रांति, सोलिडेरिटी आन्दोलन, प्राग बसंत, समाजवाद का मानवीय चेहरा, मार्शल टीटो, समाजीकरण, समानता की अवधारणा, समान नागरिक संहिता, समुदायवाद, सरकारियत, सर्वसत्तावाद, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, सर्वोदय, भूदान, स्वामी सहजानंद सरस्वती)

1- अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अमेरिकी विद्वान सैमुअल पी. हंटिगटन ने सभ्यताओं को विश्लेषण की इकाई बनाकर अपनी भविष्य दृष्टि पेश की जिसे सभ्यताओं के संघर्ष के नाम से जाना जाता है । 1993 में फारेन अफ़ेयर्स पत्रिका में छपे उनके लेख द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस ? से अकादमिक जगत में ज़बरदस्त बहस छिड़ गयी । इसके तीन साल बाद वर्ष 1996 में इसी शीर्षक से उनकी पुस्तक द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस ऐंड रिमेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर प्रकाशित हुई । हंटिगटन का यह सिद्धांत न केवल वर्तमान और भविष्य के टकरावों के बारे में एक समग्र दृष्टि पेश करता है बल्कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक प्रणाली के मुख्य लक्षणों को भी अपने दायरे में समेट लेता है ।

2- पी. हंटिगटन सारी दुनिया को दस मुख्य सभ्यताओं में बाँटकर देखते हैं : पश्चिमी, लातीनी अमेरिकी, अफ़्रीकी, इसलामी, चीनी, हिन्दू, ईसाई, बौद्ध और जापानी । सभ्यता की इकाई को परिभाषित करने के लिए उन्होंने माना है कि अगर भाषा, इतिहास, धर्म, रीति- रिवाज और संस्थाओं की समानता के आधार पर बनी समान आत्म पहचान किसी विशाल दायरे में फैले लोगों को एक सभ्यता की श्रेणी में ले आती है । उनकी सिफ़ारिश है कि सभ्यताओं के केन्द्र में मौजूद राज्यों को दूसरी सभ्यताओं के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से बाज़ आना चाहिए । आपसी संघर्ष के अंदेशों को निबटाने के लिए मध्यस्थता का रवैया अपनाना चाहिए । सभी सभ्यताओं को साझा मूल्यों के आधार पर एकजुटता की खोज करनी चाहिए ।

3- पी. हंटिगटन के अनुसार चीनी सभ्यता के मर्म में चीनी राज्य और जापान के मर्म में जापानी राज्य है । पश्चिमी सभ्यता के मर्म का निर्माण अमेरिका, फ़्रांस, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम जैसे राज्य करते हैं । परम्परानिष्ठ ईसाई सभ्यता का मर्म रूसी राज्य है । इस्लामिक सभ्यता का मर्म इस तरह के किसी राज्य से वंचित है । यही हालत लातीनी अमेरिका और अफ़्रीका की है । हंटिगटन को लगता है कि आने वाले समय में यह सभ्यताएँ आपस में टकराएँगी । परम्परानिष्ठ ईसाइयत का संघर्ष पश्चिमी ईसाइयत और इस्लाम से होगा । हिंदू सभ्यता मुसलमान सभ्यता से भिड़ जाएगी । चीनी सभ्यता भी हिन्दू सभ्यता से संघर्ष में जा सकती है । अफ्रीकी और लातीनी अमेरिकी सभ्यताएँ किनारे पड़ी रहेंगी ।

4- सामाजिक विज्ञान में समतावाद का सिद्धांत सभी मनुष्यों के समान मूल्य और नैतिक स्थिति की संकल्पना पर बल देता है । समतावाद का दर्शन ऐसी व्यवस्था का समर्थन करता है जिसमें सम्पन्न और समर्थ व्यक्तियों के साथ-साथ निर्बल, निर्धन और वंचित व्यक्तियों को भी आत्मविकास के लिए उपयुक्त अवसर और अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त हो सकें । समतावाद समाज के सब सदस्यों को एक ही श्रृंखला की कड़ियाँ मानता है जिसमें मज़बूत कड़ियाँ कमजोर कड़ियों की हालात से अप्रभावित नहीं रह सकतीं । उनका दावा है कि जिस समाज में भाग्यहीन और वंचित मनुष्य दुःखमय, अस्वस्थ और अमानवीय जीवन जीने को विवश हों, उसमें भाग्यशाली और सम्पन्न लोगों को व्यक्तिगत उन्नति और सुख संवृद्धि प्राप्त करने की असीम स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती ।

5- आम तौर पर विद्वानों ने समानता को मापने के तीन आधार बताए हैं : कल्याण की समानता, संसाधनों की समानता और कैपेबिलिटी या सामर्थ्य की समानता । कल्याण के समतावाद का सिद्धांत मुख्य रूप से उपयोगितावादियों से जुड़ा हुआ है । संसाधन समतावाद संसाधनों की समानता पर बल देता है । जॉन रॉल्स, डवॉर्किन, एरिक रोकोवोस्की आदि को संसाधन समतावादी विचारक माना जाता है । डवॉर्किन मानते हैं कि संसाधनों की समानता का अर्थ यह है कि जब एक वितरण योजना लोगों को समान मानते हुए संसाधनों का वितरण या हस्तांतरण करती है तो आगे संसाधनों को कोई भी हस्तांतरण लोगों के हिस्से को ज़्यादा समान बनाए । डवॉर्किन इस संदर्भ में एक द्वि- स्तरीय प्रक्रिया के बारे में बताते हैं : महत्वाकांक्षी- संवेदी नीलामी और बीमा योजना ।

6- समतावाद की एक अन्य अवधारणा सामर्थ्य या कैपेबिलिटी समतावाद की है । इसे अमर्त्य सेन ने प्रस्तुत किया है । इसके अनुसार लोगों की कैपेबिलिटी को बराबर करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए । कैपेबिलिटी एक निश्चित तरह के कार्य को करने की क्षमता है । मसलन साक्षरता एक कैपेबिलिटी है और पढ़ना एक कार्य है । सामर्थ्य समतावादी इस बात पर ज़ोर देंगे कि लोगों को बाहरी संसाधन उपलब्ध कराने से ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि लोगों की पढ़ने लिखने की कापेबिलिटी या सामर्थ्य अर्थात् आंतरिक क्षमता को बढ़ावा दिया जाए ।

7- माइकल वॉल्जर ने वर्ष 1983 में प्रकाशित अपनी पुस्तक स्फियर्स ऑफ जस्टिस : एडिफेंस ऑफ प्लूरलिज्म एड इक्वलिटी में जटिल समानता का विचार पेश किया है । वॉल्जर का मानना है कि समानता को कल्याण, संसाधन या कैपेबिलिटी जैसी किसी एक विशेषता पर ध्यान नहीं देना चाहिए । उनके अनुसार किसी भी वितरण का न्यायपूर्ण या अन्याय पूर्ण होना उन वस्तुओं के सामाजिक अर्थ से जुड़ा होता है जिनका वितरण किया जा रहा है । इसके साथ ही सामाजिक दायरों में वितरण का एक जैसा मानक नहीं होना चाहिए ।

8- कैरल पैटमन के अनुसार जॉन लॉक अपनी रचना टू ट्रीटाइजिज ऑफ गवर्नमेंट में स्त्रियों को सम्पत्ति के दायरे से बहिष्कृत कर देते हैं क्योंकि उनकी निगाह में स्त्री और पुरुष के बीच समानता नहीं हो सकती । लॉक के मुताबिक़ स्त्री की हैसियत स्वाभाविक रूप से पुरुष की अधीनस्थ है और पत्नी की पति के प्रति अधीनता का आधार प्रकृति में है । पैटमैन का दावा है कि लॉक का राजनीतिक सिद्धांत जाहिरा तौर पर रॉबर्ट फिल्मर द्वारा किए गए पितृसत्ता के बचाव के खिलाफ सूत्रबद्ध किया गया था, पर वह अंत में पितृसत्ता के आधुनिक रूप को न्याय संगत ठहराता हुआ नज़र आता है ।

9- सम्प्रभुता की अवधारणा का जन्म युरोप में आधुनिक राज्य के उदय के परिणामस्वरूप सत्रहवीं सदी में हुआ । सम्प्रभुता का मतलब है सम्पूर्ण और असीमित सत्ता । बोदॉं ने वर्ष 1576 में प्रकाशित अपनी रचना सिक्स बुक्स ऑफ कॉमनवील में एक ऐसे सम्प्रभु के पक्ष में तर्क दिया है जो खुद क़ानून बनाता है, पर स्वयं को उन क़ानूनों के ऊपर रखता है । इस विचार के मुताबिक़ क़ानून का अर्थ है लोगों को सम्प्रभु के आदेश पर चलना । उनकी मान्यता थी कि क़ानून बनाने और उसका अनुपालन कराने वाला सम्प्रभु शासक एक उच्चतर क़ानून अथवा ईश्वर या प्राकृतिक क़ानून के अधीन रहेगा । यानी लौकिक शासक के प्राधिकार पर दैवी क़ानून की मुहर ज़रूरी होगी ।

10- थॉमस हॉब्स ने 1651 में प्रकाशित अपनी रचना लेवायथन में सम्प्रभुता के विचार की व्याख्या प्राधिकार के सन्दर्भ में न करके सत्ता के सन्दर्भ में किया है । हॉब्स से पहले सेंट ऑगस्टीन ने एक ऐसे सम्प्रभु की ज़रूरत पर बल दिया था जो मानवता में अंतर्निहित नैतिक बुराइयों को क़ाबू में रखेगा । इसी तर्क का और विकास करते हुए हॉब्स ने सम्प्रभुता को दमनकारी सत्ता पर एकाधिकार के रूप में परिभाषित करते हुए सिफ़ारिश की कि यह ताक़त अकेले शासक के हाथों में होनी चाहिए । सत्रहवीं सदी में फ़्रांस के सम्राट लुई चौदहवें ने दर्प से कहा था कि मैं ही राज्य हूँ । अठारहवीं सदी में रूसो ने लोकप्रिय सम्प्रभुता की अवधारणा पेश की । उसने राजशाही की हुकूमत को ख़ारिज करते हुए अपनी पुस्तक सोशल कांट्रैक्ट में लिखा, मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है, पर सब जगह वह ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है ।


11- समाज- कार्य का अर्थ है सकारात्मक, सुचिंतित और सक्रिय हस्तक्षेप के माध्यम से लोगों और उनके सामाजिक माहौल के बीच अन्योन्यक्रिया प्रोत्साहित करके व्यक्तियों की क्षमताओं को बेहतर करना ताकि वे अपनी ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करते हुए अपनी तकलीफ़ों को कम कर सकें । इंग्लैंड में 1536 में एक क़ानून बना जिसमें निर्धनों की सहायता के लिए कार्य योजना बनाई गई । व्यक्तियों का मनोसामाजिक पक्ष सुधारने हेतु 1869 में लंदन चैरिटी संगठन तथा अमेरिका में 1877 में चैरिटी ऑर्गनाइज़ेशन सोसाइटी ने पहल किया । 1887 में न्यूयार्क में कार्यकर्ताओं को इन कामों के लिए प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया गया । अमेरिका में इस प्रकार के प्रशिक्षण हेतु 1910 में दो वर्ष का पाठ्यक्रम शुरू किया गया ।

12- भारत में 1905 में गोखले ने सर्वेंट्स ऑफ इंडिया की स्थापना करके स्नातकों को समाज सेवा के लिए प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया गया । इन प्रशिक्षुओं को वेतन भी दिया जाता था । इस तरह भारत में समाज कल्याण के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु समाज कार्य की नींव पड़ी । 1936 में बम्बई में सर दो राब जी टाटा ग्रेजुएट स्कूल ऑफ सोशल वर्क की स्थापना हुई । आज देश में 100 से भी अधिक संस्थाओं में समाज कार्य की शिक्षा दी जाती है । समाज कार्यकर्ता केवल उन्हीं को कहा जाता है जिन्होंने समाज कार्य की पूरी तरह से पेशेवर शिक्षा प्राप्त की हो । स्वैच्छिक समाज कल्याण के प्रयासों को समाज सेवा की संज्ञा दी जाती है और इन गतिविधियों में लगे हुए लोग समाज सेवी कहलाते हैं ।

13- सोवियत ख़ेमे में आने वाले तीन पूर्वी युरोपीय देशों हंगरी, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया में पचास और साठ के दशक में घटी उन घटनाओं को समाजवादी बसंत का नाम दिया जा सकता है जिनके दौरान मार्क्सवादी विचारधारा के तहत एक अपेक्षाकृत खुला समाज बनाने की पहलकदमियां ली गई थीं । समाजवादी बसंत की पहली घटना हंगरी में घटी थी जिसके नायक वहाँ के कम्युनिस्ट नेता इमरे नागी थे । दूसरी घटना पोलैंड में घटी जिसके शिखर पर व्लादिस्लाव गोमुल्का थे जिन्होंने पोलिश जनता से समाजवाद के नए संस्करण की स्थापना का वायदा किया था । तीसरी घटना चेकोस्लोवाकिया में घटी जिसे प्राग बसंत के नाम से याद किया जाता है । इसका नेतृत्व वहाँ की पार्टी के महासचिव अलेक्सांदेर दुबचेक के हाथ में था ।

14- हंगरी में 1556 की घटनाओं को सर्वसत्तावाद के खिलाफ पहली क्रान्ति की संज्ञा दी जाती है । 23 अक्तूबर, 1956 को दोपहर बाद बुडापेस्ट में छात्रों ने एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया । यह छात्र पोलिश कम्युनिस्ट नेता गोमुल्का द्वारा किए जा रहे सुधारों के साथ अपनी एकजुटता दिखाना चाहते थे । शाम तक छात्रों के समर्थन में दो लाख लोग संसद भवन के सामने जमा हो गए । वहाँ पर लगी हुई स्तालिन की विशाल प्रतिमा को प्रदर्शनकारियों ने तोड़ डाला । प्रदर्शनकारियों ने 1848 में हुई उदारवादी हंगारी क्रान्ति के उन्हीं प्रतीकों का इस्तेमाल किया जिनका उपयोग कर 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी ने ख़ुद को लोकप्रिय बनाया था । इस क्रांति में क़रीब ढाई हज़ार लोग मारे गए । 22 हज़ार लोग जेल में बंद कर दिए गए । 229 को फाँसी पर लटका दिया गया ।

15- हंगरी की क्रान्ति विफल हो गई, लेकिन उसकी स्मृतियाँ इस देश के लोकतांत्रिक संघर्ष को हमेशा प्रेरित करती रहीं । 1977 में 34 प्रमुख हंगारी बुद्धिजीवियों ने नागरिक अधिकारों की माँग करते हुए चार्टा- 77 नामक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए । 22 मार्च, 1989 को राजनीतिक दलों, ट्रेड यूनियनों और सामाजिक संगठनों ने मिलकर नेशनल राउंड टेबल की रचना की । 1956 की क्रान्ति के नायक इमरे नागी और उनके साथियों के शव को दोबारा बाक़ायदा दफ़नाने के लिए दो लाख लोग जुटे । 23 अक्तूबर के दिन क्रान्ति की शुरुआत हुई थी और उसी दिन हंगरी को गणराज्य घोषित कर राष्ट्रीय अवकाश मनाने का ऐलान किया गया । राउंड टेबल के परिणामस्वरूप देश की पहली ग़ैर कम्युनिस्ट सरकार चुनी गई जिसने अगले साल 23 मई को सत्ता सम्भाली ।

16- पोलैंड में कम्युनिस्ट नेता व्लादिस्लाव गोमुल्का द्वारा प्रस्तावित सुधारवादी एजेंडे का समर्थन तथा सोवियत चौधराहट से मुक्ति पाने के लिए मज़दूरों ने विद्रोह का बिगुल फूंका । 1988 से 1993 के बीच की अवधि पोलैंड के इतिहास में सोलिडरिटी नामक ट्रेड यूनियन द्वारा चलाए गए प्रतिरोध के सामाजिक- राजनीतिक आन्दोलन के लिए जानी जाती है । एक ट्रेड यूनियन के रूप में सोलिडेरिटी का गठन 1980-81 में गैर कम्युनिस्ट राजनीतिक शक्तियों, अर्थशास्त्रियों और मज़दूर नेताओं की प्रेरणा और सक्रियता से हुआ था । इसकी भूमिका कमेटी ऑफ वर्कर्स नामक संगठन द्वारा लम्बे अरसे तक संघर्ष करके बनाए गए बुद्धि जीवियों और मज़दूरों के संश्रय ने तैयार की थी ।लेक वालेसा इसके प्रमुख नेता थे ।

17- सोलिडेरिटी आन्दोलन के सामने 1988 में सरकार को झुकना पड़ा । 59 दिनों तक चली गोलमेज़ वार्ता के बाद देश में ऐतिहासिक सुधार घोषित किए गए । जून 1989 में सोलिडेरिटी को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में मान्यता दी तथा उसने चुनाव में हिस्सा लिया । सोलिडेरिटी पार्टी ने पोलैंड की सीनेट की 100 में से 99 सीटों पर जीत हासिल कर इतिहास बनाया । अगले साल राष्ट्रपति के चुनाव में लेक वालेसा को 77.5 प्रतिशत वोट मिले । इस समय तक पूर्वी यूरोप सोवियत संघ के हाथ से पूरी तरह से निकल चुका था । 1991 में एक राष्ट्र के रूप में सोवियत संघ का अस्तित्व मिट गया और पोलैंड ने लेक वालेसा के नेतृत्व में एक नए राजनीतिक दौर में प्रवेश किया ।

18- पूर्वी यूरोप के देश चेकोस्लोवाकिया में साठ के दशक में सोवियत तानाशाही के खिलाफ विद्रोह हुआ । यह देश चेक और स्लोवाक राष्ट्रीयताओं का संगम था । 1963 से शुरू हुई मज़दूरों, छात्रों और बुद्धिजीवियों की बार- बार होने वाली गोलबंदी हालाँकि 1968 में प्राग बसंत के रूप में शिखर पर पहुँची, लेकिन उनकी प्रेरणाओं का स्रोत वही अ- स्तालिनीकरण था जिसे ख्रुश्चेव द्वारा सोवियत संघ में 1956 से शुरू करके जल्दी ही ठंडे बस्ते में डाल दिया गया । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विद्वानों ने अगर किसी राजनीतिक प्रकरण का सबसे ज़्यादा अध्ययन किया है तो वह है प्राग बसंत ।चेकोस्लोवाकिया में शासन करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा 1968 में एक्शन प्रोग्राम की शक्ल में जारी घोषणा पत्र प्राग बसंत के केन्द्र में था । इसमें राजनीतिक प्रणाली में आमूलचूल सुधार करने की बात कही गई थी ।

19- चेकोस्लोवाकिया की कम्युनिस्ट पार्टी ने 1948 में सत्ता सम्भाली थी । प्राग बसंत के समय उसके नेता मास्को के पॉलिटिकल कॉलेज में शिक्षा प्राप्त दुबचेक स्वयं स्लोवाक राष्ट्रीयता के थे । कम्युनिस्ट होते हुए भी उन्हें स्लोवाक राष्ट्रवाद के प्रतिनिधि के तौर पर मान्यता प्राप्त थी । उनके नेतृत्व में चेकोस्लोवाकिया के कट्टरपंथी राष्ट्रपति नोवोत्नी के खिलाफ असन्तोष गोलबंद हुआ जिसके फलस्वरूप नोवोत्नी की जगह दुबचेक को मिली । दुबचेक के शासनकाल में कई ऐसे कदम उठाए गए जिन्हें समाजवाद के मानवीय चेहरे की संज्ञा दी गई । अप्रैल, 1969 में दुबचेक की जगह ग़ुस्ताख़ हुसाक को सत्ता में बैठाया गया । कालान्तर में लम्बे समय तक दुबचेक को राजनीतिक निर्वासन भुगतना पड़ा । 1992 में उनका देहान्त हुआ ।

20- 1950 के दशक में सोवियत नमूने से अलग हटते हुए अपना विशिष्ट समाजवाद बनाने का अत्यंत महत्वपूर्ण प्रयोग करने का श्रेय युगोस्लावियाई कम्युनिस्ट पार्टी के नेता जोसिप ब्रोज टीटो (1892-1980) को जाता है । क्रोएशिया के एक गाँव में 7 मई, 1892 को पैदा हुए जोसिप ब्रोज का बचपन बेहद ग़रीबी में बीता । पहले उन्हें एक होटल में वेटर का काम करना पड़ा और फिर उन्होंने ताला बनाने का काम सीखा । ताला फ़ैक्टरी में ही काम करते हुए वह समाजवादी आन्दोलन के सम्पर्क में आये । प्रथम विश्व युद्ध में वह ऑस्ट्रो- हंगेरियन फ़ौज में भर्ती हो गए । 1917 में उन्हें बोल्शेविक क्रांति में भागीदारी करने का मौक़ा मिला । युगोस्लाविया की राष्ट्रीय मुक्ति के लिए बनी फ़ासिस्ट विरोधी परिषद ने टीटो को मार्शल की उपाधि से विभूषित किया ।


21- 1948 में टीटो ने मुक्ति संग्राम के अपने साथी कमांडर मिलोवान जिलास को दूत बनाकर वार्ता के लिए सोवियत संघ भेजा ताकि स्तालिन से पूरी तरह से नाता तोड़ लिया जाए । धीरे-धीरे युगोस्लाविया अपना अलग रास्ता खोजने लगा ।पचास के शुरुआत से उसने मज़दूरों के स्व- प्रबन्धन के रूप में औद्योगीकरण लोकतंत्र की स्थापना का फ़ैसला किया । यह बात महत्वपूर्ण है कि चेकोस्लोवाकिया के साम्यवादी अर्थशास्त्री ओटा सिक ने भी मज़दूरों के स्व- प्रबन्धन का विचार वहीं से लिया । अलेक्सांदेर दुबचेक के नेतृत्व में जिस एक्सन प्रोग्राम की तजवीज़ की गई थी, उसके पीछे भी युगोस्लाव प्रयोग की प्रेरणाएँ थीं । टीटो ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।

22- समाजीकरण वह प्रक्रिया होती है जिसके माध्यम से मनुष्य समाज के विभिन्न व्यवहार, रीति- रिवाज, गतिविधियाँ इत्यादि सीखता है । जैविक अस्तित्व से सामाजिक अस्तित्व में मनुष्य का रूपांतरण भी समाजीकरण के ज़रिए ही होता है । समाजीकरण के माध्यम से ही वह संस्कृति को आत्मसात् करता है । समाजीकरण की प्रक्रिया मनुष्य का संस्कृति के भौतिक व अ- भौतिक रूपों से परिचय कराती है । समाजशास्त्र की भाषा में कहें तो समाज में अपनी परिस्थिति या दर्ज़े के बोध और उसके अनुरूप भूमिका निभाने की विधि को हम समाजीकरण के ज़रिये सीखते हैं । यह जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया देश और काल सापेक्ष होती है ।

23- समाजीकरण को विभिन्न विचारकों और समाजशास्त्रियों ने सिद्धांतों के आधार पर समझने का प्रयास किया है । इनमें जी.एच.मीड, चार्ल्स कूले तथा एमील दुर्खाइम प्रमुख हैं । जी.एच. मीड ने वर्ष 1934 में प्रकाशित अपनी पुस्तक माइंड, सेल्फ ऐंड सोसाइटी मुख्य रूप से सामान्यीकृत अन्य की धारणा को आधार बनाया है । इसमें दूसरों के अपने सम्बन्ध में विचारों व अपेक्षाओं को कोई बच्चा एवं वयस्क आंतरिकृत करता है । चार्ल्स कूले ने वर्ष 1922 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ह्यूमन नेचर ऐंड द सोशल आर्डर में अपने सिद्धांत की व्याख्या दर्पण में आत्मदर्शन के आधार पर की है । दुर्खाइम ने समाजीकरण को सामाजिक तथ्य और सामूहिक प्रतिनिधान के माध्यम से समझाने की कोशिश की है ।

24- समानता की अवधारणा राजनीतिक सिद्धांत के मर्म में निहित है । यह ऐसा विचार है जिसके आधार पर करोड़ों- करोड़ों लोग सदियों से निरंकुश शासकों, अन्यायपूर्ण समाज व्यवस्थाओं और अलोकतांत्रिक हुकूमतों के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं और करते रहेंगे । प्राचीन एथेंस में इस समतामूलक दायरे से स्त्रियों, दासों और विदेशियों को अलग रखा गया था । अरस्तू की रचना पॉलिटिक्स में इस बहिर्वेशन का ज़िक्र भी किया गया है, और उसे जायज़ भी ठहराया गया है । उनके लिए समानता का अर्थ था उस वर्ग के सदस्यों की समानता जिसे नागरिक कहा जाता था । वे न्याय को केवल उन लोगों के लिए उपलब्ध मानते थे जो उनकी समानता के दायरे में आते थे । जो उससे बाहर थे उनके लिए विषमता की स्थिति ही न्यायपूर्ण थी ।

25- अरस्तू की बुनियादी मान्यता थी कि प्रकृति ने लोगों को शासक और शासित में बाँटकर बनाया है । शासक की श्रेणी में होने के लिए बुद्धि संगत, विचारात्मक और अधिकार पूर्णता की खूबियाँ होना अनिवार्य है । अरस्तू की समानता की धारणा की आलोचना करते हुए हॉब्स ने अपने ग्रन्थ लेवायथन में प्रकृत अवस्था की संकल्पना करके उसके तहत हर व्यक्ति को समान ठहराया । रूसो ने अपने ग्रन्थ डिस्कोर्स ऑन ऑरिजिन ऐंड फ़ाउंडेशन ऑफ इनइक्वलिटी में समानता के बजाय विषमता पर विचार करते हुए उसे प्राकृतिक और अप्राकृतिक में बाँटा है । प्राकृतिक विषमता केवल शारीरिक शक्ति के क्षेत्र में होती है । जबकि विधि निर्माण और सम्पत्ति के स्वामित्व ने विषमता के अप्राकृतिक रूपों को जन्म दिया है ।

26- रूसो कहते हैं कि अमीरों के झूठे आश्वासनों में फँसकर गरीब उनकी सत्ता का वैधीकरण करने के लिए तैयार हो जाते हैं । मार्क्स कहते हैं कि शासक वर्ग अपनी विचारधारा पैदा करता है ताकि आर्थिक शोषण की व्यवस्था जारी रखी जा सके ।पूँजीवादी वर्ग के भीतर एक तरह का कार्य विभाजन होता है । एक हिस्सा पूँजी का स्वामित्व ग्रहण करता है और दूसरा विचारधारात्मक औज़ारों का इस्तेमाल करते हुए समानता और स्वाधीनता के ज़रिए भ्रम का माहौल बनाए रखता है । टॉकवील का कहना है कि सामंतशाही किसान से लेकर राजा तक एक लम्बी श्रृंखला बनाती चली जाती है । पर लोकतंत्र उसे तोड़कर श्रृंखला की हर कड़ी को मुक्त कर देता है ।दासता और निर्भरता की जकड़ से निकलने की इच्छा समानता के विचार को बढ़ाती है, इससे लोकतांत्रिक सम्भावनाएँ पैदा होती हैं ।

27- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में दर्ज है कि राज्य भारत के सभी नागरिकों को समान नागरिक संहिता उपलब्ध कराने का प्रयास करेगा । इसका सम्बन्ध विवाह, तलाक़, गोद लेने, भरण पोषण, अभिभावकत्व, विरासत तथा सम्पत्ति में महिलाओं के अधिकार से है । आज भी भारत में हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध हिन्दू निजी क़ानून के तहत आते हैं जबकि मुसलमानों, ईसाइयों और पारसियों के अपने अलग-अलग निजी क़ानून हैं । संविधान सभा में 23 नवम्बर, 1948 को समान नागरिक संहिता पर विचार- विमर्श प्रारम्भ हुआ था । डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर सहित लगभग एक दर्जन वक्ताओं ने इसमें भागीदारी की थी । पॉंच वक्ता मुसलमान समुदाय से ताल्लुक़ रखते थे ।इनमें मोहम्मद इस्माइल, नजीरूद्दीन अहमद, महमूद अली बेग, बी. पोकर तथा हुसैन इमाम थे ।

28- समान नागरिक संहिता को लेकर विभिन्न दृष्टिकोण हैं । पहला दृष्टिकोण इस संहिता को भारतीयता, उसकी एकता- अखंडता की नींव और पंथनिरपेक्षता की सशक्तता के दृढ़ आधार के रूप में स्वीकारता है । दूसरा दृष्टिकोण समान नागरिक संहिता को धार्मिक व जातीय पहचानें ख़त्म करने वाले प्रमुख कारक के तौर पर देखता है । तीसरा दृष्टिकोण वह है जो समान नागरिक संहिता को स्त्री- पुरुष समानता के सशक्त आधार के रूप में मान्यता देता है । बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने संविधान सभा में समान नागरिक संहिता के विरूद्ध प्रस्तुत संशोधन से असहमति व्यक्त की । उन्होंने कहा था कि सभी धर्मों को समान संरक्षण प्रदान करने वाले सेकुलर राज्य के लिए धर्म की आड़ में किए गए प्रत्येक कार्य का बचाव करना आवश्यक नहीं है ।

29- 1985 में शाह बानो के मुक़दमे में सर्वोच्च न्यायालय ने समान नागरिक संहिता के क्रियान्वयन पर टिप्पणी की । तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई. वी. चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित खंडपीठ की टिप्पणी थी कि एक समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय अखंडता की स्थापना में सहायक होगी । 1995 में पुनः सरला मुद्गल विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को समान नागरिक संहिता की याद दिलाई । मुसलमान स्त्रियों के संगठन आवाज़-ए- निस्वॉं, वुमन रिसर्च ऐंड एक्सन ग्रुप्स और मुसलमान स्त्रियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों के नेटवर्क लगातार लैंगिक न्याय के आधार पर अपने समाज के विवाह क़ानून में तब्दीली करवाने का अभियान चला रहे हैं ।

30- समुदायवाद राजनीतिक सिद्धांत के मर्म में उदारवादी चिंतन के गर्भ से निकले अमूर्त व्यक्ति की जगह मानव समुदाय की स्थापना करता है । समुदायवादियों का विचार है कि सामुदायिक जीवन में स्वेच्छा के साथ सचेत रूप से भागीदारी करने पर व्यक्ति अपने जीवन का बेहतर संचालन कर सकेगा । अरस्तू के विमर्श में समुदाय, अर्थात् पोलिश को उत्तम जीवन का सबसे अहम घटक माना गया है । हीगल ने भी एक उत्तम जीवन के लिए समुदाय को महत्वपूर्ण माना और राज्य को इस समुदाय के मूर्त रूप में देखा । मार्क्सवादी विमर्श के तहत समुदाय को कम्युनिस्ट आदर्श की एक मुख्य विशेषता के रूप में ग्रहण किया जाता है ।


31- अस्सी के दशक में माइकल सैंडल, माइकल वॉल्जर, ऐलिस्डेयर मैकेंटायर और चार्ल्स टेलर के प्रयासों से सामने आया समुदायवाद का विचार पारम्परिक मार्क्सवाद से बहुत अलग है । माइकल सैंडल का मानना है कि व्यक्ति की इयत्ता उसके लक्ष्यों से पहले नहीं आती बल्कि वह इससे निर्मित होती है। अर्थात् हम जिस समाज में जन्म लेते हैं और जहाँ हमारा पालन- पोषण और समाजीकरण होता है, उसी से हमारा लक्ष्य तय होता है । माइकल वॉल्जर जैसे समुदाय वादियों ने ज़ोर दिया कि न्याय के सार्वभौम सिद्धांत की खोज सही नहीं है ।न्याय के बारे में सही तरीक़े से सिद्धांत रचना का तरीक़ा यह है कि किसी विशिष्ट समुदाय के लिए सामाजिक वस्तुओं के महत्व पर ध्यान दिया जाए । इस सन्दर्भ में उन्होंने समकालीन पश्चिमी समाजों के लिए जटिल समानता की तरफ़दारी की है ।

32- चार्ल्स टेलर ने वर्ष 1985 में प्रकाशित अपनी पुस्तक फिलॉसफी ऐंड द ह्यूमन साइंस में सामुदायिकता के सम्बन्ध में सामाजिक थिसिज पेश किया है ।इसमें माना जाता है कि स्वायत्तता के विकास के लिए ख़ास तरह के सामाजिक वातावरण की ज़रूरत होती है । किसी रूढ़िवादी समाज में कोई व्यक्ति ग़लत प्रथाओं को उसी सूरत में चुनौती दे सकता है जब उसे ऐसा सामाजिक माहौल मिले जिसके तहत वह तार्किक रूप से विचार करने की क्षमता विकसित कर पाये । व्यक्तिगत आज़ादी के लिए सामाजिक संदर्भ की ज़रूरत होती है । इसे आगे देखने वाले समुदायवाद की संज्ञा दी जा सकती है । उदारतावादी राष्ट्रवाद और नव गणतंत्र वाद जैसे विचारों को इसी बौद्धिक परियोजना का परिणाम माना जाता है ।

33- सरकारियत या गवर्नमेंटलिटी का मतलब है अनुशासन और नियंत्रण की प्रौद्योगिकी । कहा जाता है कि सरकार चलाना या गवर्नेंस करना एक कला है । चूँकि यह कला या आर्ट है इसलिए इसकी बनावट में कृत्रिमता है । इसी बुनियादी अवधारणा के आधार पर सत्तर के दशक में फ़्रांसीसी दार्शनिक मिशेल फूको ने सत्ता का नया विश्लेषण करते हुए सरकारियत की अवधारणा का सूत्रीकरण किया । इसका मतलब है कि सरकार मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई एक ऐसी संस्था है जो कुछ व्यक्तियों और ज्ञान के कुछ रूपों का इस्तेमाल करते हुए खुद को प्रभावोत्पादक बनाती है । शासकीयता और इसके ज़रिये किये जाने वाले सामाजिक नियंत्रण और अनुशासन की आधारभूत तार्किकता, क्रियाविधियां इसी के हिसाब से तय होती हैं ।

34- भारतीय विद्वानों ने भी गवर्मेंटलिटी की थियरी के इर्द-गिर्द कुछ अहम सूत्रीकरण किए हैं जिनमें पार्थ चटर्जी द्वारा विकसित राजनीतिक समाज की अवधारणा प्रमुख है । चटर्जी ने अस्सी के दशक में सेकुलर वाद पर होने वाले महा विवाद में भाग लेते हुए सहिष्णुता के प्रश्न पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए भी सरकारियत के विचार का इस्तेमाल किया था । यह विचार आग्रह करता है कि राजनीतिक कार्यनीतियों, रणनीतिक संरचनाओं और राजनीतिक कार्यक्रमों की जॉंच की जानी चाहिए कि किस तरह से इनके ज़रिए कल्पनाएँ, आवश्कताएं और उद्यम गढ़े जाते हैं । इसके तहत नागरिकों और बाशिंदों के आचरण और जीवन शैलियों को एक ख़ास मोड़ दिया जाता है ।

35- सर्वसत्तावाद राजनीतिक व्यवस्था में निरंकुशता, अधिनायक वाद और तानाशाही जैसे पदों का समानार्थक है । बीसवीं सदी के दूसरे दशक से पहले समाज विज्ञान में इस पद का प्रयोग नहीं किया जाता था । 1923 में इतालवी फासीवाद का एक प्रणाली के रूप में वर्णन करने के लिए गियोवानी अमेंडोला ने इसका प्रयोग किया । इसके बाद फासीवाद के प्रमुख सिद्धांतकार गियोवानी जेंटील में बेनिटो मुसोलिनी के नेतृत्व में स्थापित व्यवस्था को टोटलिरिटो की संज्ञा दी । यह नये क़िस्म का राज्य जीवन के हर क्षेत्र को अपने दायरे में लाने के लिए तत्पर था ।वह राष्ट्र और उसके लक्ष्यों का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व करने का दावा करता था ।

36- मुसोलिनी ने टोटलिटेरियनिज्म को एक सकारात्मक मूल्य की तरह व्याख्यायित किया कि यह व्यवस्था हर चीज़ का राजनीतीकरण करने वाली है, चाहे वह आध्यात्मिक हो या पार्थिव । मुसोलिनी का कथन था : हर चीज़ राज्य के दायरे में, राज्य से बाहर कुछ नहीं, राज्य के विरूद्ध कुछ नहीं ।हन्ना एरेंत द्वारा किए गए विख्यात विश्लेषण में सर्वसत्तावाद को राजनीतिक उत्पीडन के पारम्परिक रूपों से भिन्न बताया गया है । एरेंत के अनुसार बीसवीं सदी में विकसित हुई इस राज व्यवस्था का इतिहास नाज़ीवाद से स्तालिन वाद के बीच फैला हुआ है । यह परिघटना विचारधारा और आतंक के माध्यम से न केवल एक राज्य के भीतर बल्कि सारी दुनिया पर सम्पूर्ण प्रभुत्व क़ायम करने के सपने से जुड़ी हुई है ।

37- हन्ना एरेंत ने उन आयामों की शिनाख्त की जिसके कारण सर्वसत्तावाद मुमकिन हो पाया । उन्होंने दिखाया कि यहूदियों की विशिष्ट सामाजिक और राजनीतिक हैसियत के कारण सामीवाद विरोधी मुहिम को नई ताक़त मिली, साम्राज्यवाद के कारण नस्लवादी आन्दोलन पैदा हुए और यूरोपीय समाज के उखड़े हुए समुदायों में बंट जाने के कारण अकेलेपन और दिशाहीनता के शिकार लोगों को विचारधाराओं के ज़रिए गोलबंद करने में आसानी हो गई ।एरेंत के बाद दार्शनिक कार्ल पॉपर ने 1945 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ओपन सोसाइटीज ऐंड इट्स एनिमीज में प्लेटो, हीगल और मार्क्स की रैडिकल आलोचना करते हुए यूरोपियन सोशल इंजीनियरिंग के प्रयासों को सर्वसत्तावाद का स्रोत बताया । पॉपर के चिंतन ने जिस समझ की नींव डाली उसके आधार पर आन्द्रे ग्लुक्समैन, बर्नाड हेनरी लेवी तथा दार्शनिकों ने आगे चिंतन किया ।

38- 1968 में अमेरिकी बुद्धिजीवी सैमुअल पी. हंटिगटन की रचना पॉलिटिकल ऑर्डर इन चेंजिग सोसाइटी का प्रकाशन हुआ । हॉब्स की युग प्रवर्तक रचना लेवायथन से प्रभावित इस कृति में हंटिगटन ने तर्क दिया कि अविकसित समाजों में कई बार फ़ौज के अलावा ऐसी कोई आधुनिक, पेशेवर और संगठित राष्ट्रीय संस्था नहीं होती जो लोकतंत्र की तरफ़ संक्रमण करने की मुश्किल अवधि में उनका नेतृत्व कर सके । ऐसे समाजों में केवल फ़ौजी शासन ही शांति व्यवस्था क़ायम रखते हुए आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से निकले अशांतकारी प्रभावों को क़ाबू में रख सकता है । हंटिगटन के इस विश्लेषण ने आधुनिकीकरण के साथ जुड़े हुए कार्य- कारण सम्बन्धों को एक नई दृष्टि से देखने का रास्ता साफ़ किया ।

39- युआन लिंज ने अपनी क्लासिक रचना एन एथॉरिटेरियन रिजीम : ए केस ऑफ स्पेन में एक ऐसी व्यवस्था की शिनाख्त की जिसमें लोकतंत्र और सर्वसत्तावाद के मिले- जुले लक्षण थे । इसके बाद गुलेरमो ओडोनल ने 1973 में दक्षिण अमेरिकी राजनीति के अध्ययन करने का दावा किया कि पूँजीवादी विकास और आधुनिकीकरण के गर्भ से लातीनी अमेरिका के अपेक्षाकृत निर्भर लेकिन विकसित देशों में एक नौकरशाह तानाशाही ने जन्म ले लिया है । अमेरिकी राजनीतिशास्त्री जीन किर्कपैट्रिक ने 1979 में प्रकाशित अपने बहुचर्चित लेख डिक्कटेटरशिप ऐंड डबल स्टैंडर्ड में हंटिगटन, लिंज और ओडोनल की व्याख्याओं के आधार पर स्पष्ट सूत्रीकरण किया कि सर्वसत्तावादी केवल मार्क्सवादी- लेनिनवादी हुकूमतें हैं ।

40- सविनय अवज्ञा का सामान्य अर्थ होता है कि धार्मिक, नैतिक या राजनीतिक सिद्धांत के कारण किसी भी क़ानून का जानबूझकर पालन न करना । ऐसे क़ानून का उल्लंघन करना भी सविनय अवज्ञा के दायरे में आता है जो अपने आप में अन्यायपूर्ण हो । सबसे पहले अमेरिकी चिंतक हेनरी डेविड थोरो ने सिविल डिसओबिडिएंस या सविनय अवज्ञा शब्द का प्रयोग किया । यह 1948 में उनके द्वारा लिखे गए एक निबन्ध का शीर्षक था । थोरो ने इसमें लिखा था कि उन्होंने मैसाचुसेट्स राज्य को बहुत दिनों तक टैक्स क्यों नहीं दिया ।इसके कारण उन्हें जेल में एक रात गुज़ारनी पड़ी । उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका की दो नीतियों का विरोध करने के लिए यह काम किया था । पहला, मैक्सिको के खिलाफ युद्ध का विरोध, दूसरा, दक्षिण में क़ायम दास प्रथा की निंदा ।

41- फ़्रांस के राजनीतिज्ञ और विचारक ला बोइती अपनी रचना डिस्कोर्स ऑन वालंटरी सरवीट्यूड में कह चुके थे कि अत्याचारी के अत्याचार के प्रतिकार का एक तरीक़ा यह भी है कि उससे सहयोग न किया जाए । अंग्रेज चिंतक इमर्सन ने ला बोइती की प्रशंसा में एक कविता भी लिखी थी और इमर्सन थोरो के मित्र भी थे । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सम्भवतः थोरो पर ला बोइती का भी प्रभाव रहा होगा । थोरो ने प्रतिरोध की इसी परम्परा को सैद्धान्तिक आधार प्रदान किया । इस सिलसिले में ऑन द ड्यूटी ऑफ सिविल डिसओबिडिएंस उनकी प्रतिनिधि रचना है ।थोरो व्यक्ति और राज्य के सम्बन्ध में विचार करते हुए कहते हैं कि हम मनुष्य पहले हैं, किसी राज्य की प्रजा बाद में ।

42- महात्मा गाँधी ने थोरो के तक़रीबन साठ- सत्तर साल बाद सविनय अवज्ञा के सिद्धांत और व्यवहार को और ज़्यादा परिष्कृत किया । 1932 में अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए नमक क़ानून को तोड़ने के लिए उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया । गांधी के विचार थोरो से इस अर्थ में अलग थे कि उन्होंने कठोरता से अहिंसा पालन करने, सविनय अवज्ञा के सामान्य कर्तव्य और सविनय अवज्ञा शुरू करने से पहले हर तरह की संवैधानिक, राजनीतिक कार्यवाई को अजमा लेने पर बल दिया । थोरो का नज़रिया ज़्यादा व्यक्तिवादी था । जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक अ थियरी ऑफ जस्टिस में सविनय अवज्ञा को परिभाषित करते हुए लिखा कि, “ यह सार्वजनिक, अहिंसक और अंत:करण पर आधारित कार्रवाई होती है जिसका लक्ष्य सरकार की नीतियों में बदलाव होता है ।”

43- सर्वोदय सभी के उत्थान और सत्ता के समतामूलक वितरण के आधार पर समाज की पुनर्रचना का हिमायती है । एक आन्दोलन और विचारधारा के रूप में सर्वोदय की शुरुआत 1948 में गांधी के निधन के डेढ़ महीने बाद की गई थी ।इसके आधार में गांधी द्वारा प्रतिपादित सर्वोदय समाज का आदर्श था ।गाँधी जॉन रस्किन के उद्योगवाद विरोधी विचारों से काफ़ी प्रभावित थे । उन्होंने उनकी रचना अन टू दिस लास्ट का अनुवाद भी सर्वोदय शीर्षक से किया था । 11 से 14 मार्च के बीच सेवाग्राम में गांधी के कुछ प्रमुख अनुयायियों ने विचार- विमर्श करके निर्णय किया कि वे गाँधी के इस ख़्याल को धरती पर उतारेंगे । इस आन्दोलन की केन्द्रीय विभूति विनोबा भावे थे जिन्हें अपने सत्याग्रह आन्दोलन के दौरान गांधी ने पहले सत्याग्रही की उपाधि दी थी ।

44- सर्वोदय आन्दोलन की स्थापना के एक वर्ष बाद इंदौर में हुए एक सम्मेलन में सर्व सेवा संघ का गठन किया गया और सर्वोदय आन्दोलन का संस्थानीकरण किया गया । विनोबा भावे ने 1951-52 में ज़मीन के बँटवारे के सवाल को रचनात्मक कार्यक्रम के मर्म में रखते हुए भूदान की मुहिम चलाई । भूदान के साथ 1956 में ग्राम दान का कार्यक्रम जोड़कर विनोबा भावे ने राज- नीति के मुक़ाबले लोक- नीति और राज- शक्ति के मुक़ाबले लोक- शक्ति की अवधारणाएँ विकसित कीं । सर्वोदय ने विकास की जगह उत्थान को प्राथमिकता दी जिसका मक़सद था नैतिक मूल्यों में तब्दीली करके ह्रदय परिवर्तन करना । गांधी के लिए सर्वोदय का व्यावहारिक मतलब था उनका बनाया हुआ 18 सूत्रीय रचनात्मक कार्यक्रम । विनोबा भावे ने इसे बढ़ाकर 22 सूत्रीय कर दिया ।

45– शिवनामपल्ली में 1951 में हुए सर्वोदय सम्मेलन में भाग लेने के बाद विनोबा ने तेलंगाना किसान संघर्ष के इलाक़ों में पैदल शांति- यात्रा करनी शुरू की । 18 अप्रैल को पोचमपल्ली गाँव के दलितों ने विनोबा भावे से कहा कि जीवन यापन के लिए उन्हें अस्सी एकड़ खेती योग्य ज़मीन की ज़रूरत है । विनोबा भावे ने गाँव के डरे हुए भू- स्वामियों से पूछा कि वे दलितों की यह आवश्यकता क्यों नहीं पूरी कर सकते ? इस पर रामचन्द्र रेड्डी नामक भू- स्वामी ने वहीं पर अपनी 100 एकड़ ज़मीन दान करने की घोषणा कर दी । इस अनायास घटना से भूदान की मुहिम शुरू हुई । तेलंगाना में विनोबा को प्रतिदिन 200 एकड़ ज़मीन दान में मिली । पवनार से दिल्ली तक की यात्रा में विनोबा ने औसतन तीन सो एकड़ भूमि का दान पाया ।

46- 1952 में उत्तर- प्रदेश में यात्रा करते समय विनोबा को एक पूरा गाँव ही दान में मिल गया । इस घटना से ग्रामदान की मुहिम का जन्म हुआ । 1964 तक 6,807 गाँव ग्रामदान के दायरे में आ चुके थे । विनोबा 13 साल तक लगातार चलते रहे । 12 सितम्बर, 1951 को उन्होंने पवनार आश्रम छोड़ा और 10 अप्रैल, 1964 को वापसी की । जुलाई, 1965 में उन्होंने बिहार की तूफ़ानी यात्रा शुरू की जो चार साल तक चलती रही । मई, 1960 में विनोबा के चरणों में चम्बल के कुछ डकैतों ने हथियार भी डाले । 1975 में ऑंकडों के अनुसार सारे देश में 25,000 मील के पैदल भ्रमण के दौरान 7,00,000 भू- स्वामियों से उन्हें 41,49,270 एकड़ ज़मीन मिली । 12,85,738 एकड़ ज़मीन भूमिहीनों में बाँटी गई ।

47- जो काम विनोबा ने पोचमपल्ली को चुनकर किया था, उसी को जयप्रकाश नारायण ने सत्तर के दशक में मुशहरी (बिहार) को ग्रामदान के लिए चुनकर दोहराया जो नक्सलवादी आन्दोलन के गढ़ के रूप में उभर रहा था । जयप्रकाश नारायण ने डेढ़ साल मुशहरी में गुज़ारे । उन्होंने इस अनुभव को अपनी रचना फ़ेस टु फ़ेस में दर्ज किया है । मुशहरी के अनुभव की रोशनी में जयप्रकाश इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भूदान- ग्रामदान के बजाय नीचे से पुनर्निर्माण के बजाय सभी दिशाओं से पुनर्निर्माण की राजनीति की जानी चाहिए । जयप्रकाश नारायण के कारण ही सर्वोदय का राजनीतिकरण हुआ और सरकार की नाराज़गी झेलनी पड़ी ।

48- इंदिरा गांधी ने जब 1977 में आपातकाल लागू किया तो सर्वोदयी नेताओं को उसका कोपभाजन बनना पड़ा । विनोबा भावे ने आपातकाल की आलोचना करने के बजाय उसे अनुशासन पर्व की संज्ञा दी । उन्होंने इंदिरा गांधी की अंतर्राष्ट्रीय भूमिका की प्रशंसा करते हुए कहा कि वे देश को एक रखने का प्रयास कर रही हैं । विनोबा ने सरकारी कर्मचारियों को लोकसेवक बताया । बदले में जयप्रकाश नारायण के समर्थकों ने विनोबा भावे को सरकारी संत करार दिया । 1979 में जे. पी. का देहान्त हो गया तथा इंदिरा गांधी की सरकार में वापसी होने पर सर्वोदय आन्दोलन से जुड़ी संस्थाओं की जॉंच के लिए कुदाल आयोग का गठन किया गया ।

49- स्वामी सहजानन्द सरस्वती (1880-1950) भारत में किसान आन्दोलन के प्रमुख जनकों में से एक, समाज सुधारक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और विद्वान लेखक थे ।उन्हें मार्क्सवाद का ठेठ देशी संस्करण कहा जाता था ।स्वामी सहजानंद सरस्वती अखिल भारतीय किसान सभा के संस्थापक अध्यक्ष थे और एक दशक से अधिक समय तक किसान सभा के अध्यक्ष या महासचिव रहे ।उन्होंने कृषि क्रांति को साम्राज्यवाद के विरूद्ध लड़ाई का हिस्सा माना और किसानों को आज़ादी के आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित किया । नेता जी सुभाष चन्द्र बोस स्वामी सहजानंद सरस्वती को उग्र वामपंथ का अग्रणी चिंतक और क्रांतिकारी धारा का पथ प्रदर्शक मानते थे । उन्हें राष्ट्रवादी वेदान्ती मार्क्सवादी भी कहा जाता है ।

50- महाशिवरात्री के दिन 1880 में उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले के देवा नामक ग्राम में एक निम्न मध्यवर्गीय किसान परिवार में नौरंग राय का जन्म हुआ । यही नौरंग राय आगे चलकर आदि शंकराचार्य सम्प्रदाय के दशनामी संन्यासी अखाड़े के दण्डी संन्यासी बने और स्वामी सहजानंद सरस्वती कहलाए ।वंश परम्परा से वह जुझौतिया ब्राह्मण थे । 1921 में वह ग़ाज़ीपुर ज़िला कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए । 1922 में उन्हें एक साल की जेल हुई । उन्होंने लगभग दो दर्जन पुस्तकों का प्रणयन किया । उनकी आत्मकथा मेरा जीवन संघर्ष नाम से प्रकाशित हुई । 26 जून, 1950 को स्वामी सहजानंद सरस्वती मुज़फ़्फ़रपुर में चिरनिद्रा मे लीन हो गए ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खण्ड 6, दूसरा संस्करण 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7 से साभार लिए गए हैं ।

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