ग़रीबी के अभिशाप से ग्रस्त “कोरकू” आदिवासी समुदाय…
21 वीं सदी में जब इंसान अपना आशियाना चांद पर बनाने की योजना बना रहा है, तब भी धरती पर ऐसे अभागे लोग हैं जिनके नसीब में ज़लालत और जिल्लत लिखा है। यह वंचित लोग हमारी ओर कातर दृष्टि से देख रहे हैं। सभ्य समाज से उम्मीद की किरण पाले हुए हैं। “कोरकू “आदिवासी समुदाय इसी प्रकार के दर्द के साथ जी रहा है।
कोरकू शब्द “कोरों”या कोर शब्द से बना हुआ है।कु लगाने से यह बहुबचन हो जाता है। जिसका शाब्दिक अर्थ होता है “आदमियों की जमात”। मध्य प्रदेश में कोरकू आदिवासी सतपुड़ा के वनीय अंचलों में, छिंदवाड़ा, बैतूल, जिले की भैंसदेही और चिचोही तहसील में, होशंगाबाद जिले की हरदा टिमसी और खिडकिया तहसील में, पूर्व निमाड़ जिला खण्डवा की हरसूद और बुरहानपुर तहसील के गांवों में निवास करने वाली प्रमुख आदिवासी समुदाय है। मध्य – प्रदेश के अलावा महाराष्ट्र में अकोला, मेलघाट तथा मोर्सी तालुके में भी कोरकू निवास करते हैं। वर्ष 1991 में इस समुदाय की आबादी 4,52,149 थी। साधारणतया कोरकुओं का रंग काला, आंखें काली,नाक कुछ चपटी, नथुने फुले हुए,होंठ मोटे तथा चेहरा गोल होता है।इनका शरीर बहुत हष्ट – पुष्ट होता है।शरीर लम्बा और बाल घुंघराले होते हैं। पुरुषों की दाढ़ी में बाल कम होते हैं।
कोरकू चार समूहों में पाये जाते हैं- रूमा,पोतडया,ढुलरिया और बोबयी अथवा बोण्डई। इनके कुल 36 गोत्र होते हैं जिनके टोटेम (गोत्र चिन्ह) अलग-अलग होते हैं।कोरकुओं के चार गण हैं-कोरो (आदमी), राक्षस (शैतान),सराकू (बन्दर),बाना (रीछ)। कोरकू अपने गोत्र चिन्हों की पूजा करते हैं।उसका अनादर कभी नहीं करते।गोत्र – चिन्हों को यह शरीर पर गुदवाते हैं।सगोत्र विवाह नहीं करते हैं।कोरकुओं के एक गोत्र”मोरी राना”का गोत्र चिन्ह् “राजवंश मयूर” है।कोरकुओं में नव जन्में बच्चे का नामकरण यदि बच्ची हो तो तीसरे दिन और यदि लड़का हो तो पांचवें दिन होता है। इस समुदाय में मृतक की समाधि पर एक लकड़ी का स्तम्भ लगाने की प्रथा है। यह स्तम्भ कोरकू जनजाति के सुतार बनाते हैं। इनके यहां मृत्यु गीतों को “सिडौली गीत” कहा जाता है, जिनका स्वर करुणामय होता है।यह लोग पीने में “सीडू”(महुए से बनी शराब)का सेवन करते हैं। कोरकू लोगों का मुख्य भोजन कृषि कृत पदार्थ, जंगली फल – फूल और मांस है। हथियारों में कुल्हाड़ी इनके जीवन का अभिन्न अंग है। अधिकांश कोरकू कृषि मजदूरी करके अपना भरण-पोषण करते हैं।
कोरकू आदिवासी समुदाय में विवाह की चार प्रथाएं हैं- 1.लमझना या घर दामाद 2.चिथोडा प्रथा (मध्यस्थ प्रथा),3.राजी- बाजी प्रथा (प्रेम विवाह),4.तलाक और विधवा विवाह। यहां दहेज को “गोनोम” कहा जाता है। देवाधिदेव महादेव इनके पितामह हैं। कोरकू इनकी पूजा करते हैं। रावण, मेघनाद,खनेरा देव,खेडा इनके देव हैं। कोरकू समाज के पुरोहित को “भोमका” कहते हैं।पडियार कोरकुओं का पूज्य और अतिविशिष्ट व्यक्ति होता है। अतिथि के आने पर “जोहार जोए” अर्थात् शिर झुकाकर प्रणाम करने की परम्परा है।गुडी पड़वा,देव दशहरा, आखातीज,डोडबली,जिरौती,पोला, दीपावली,माघ दशहरा तथा होली प्रमुख त्योहार हैं।थापटी,चाचरी,गोंगोल्या,ढांढल इस समुदाय के प्रिय नृत्य हैं।ढोल, मृदंग,टिमकी,ढप,चिटकोरा,टुटडी,अलगोझा, बांसुरी,पवयी प्रमुख वाद्य यंत्र हैं। कोरकू बोली मुण्डा परिवार की है।खेतों में काम करने वाले कोरकू “भाग्या”कहलाते हैं। जंगल काटकर खेती करने की प्रथा को “बदलवा प्रथा” कहते हैं।
ग़रीबी इस समुदाय में अभिशाप है।अनाज के अभाव में पेट भरने के लिए “लचका” खाते हैं।घास – फूस की झोपड़ी और बांस तथा लकड़ी के बने कच्चे मकानों में रहते हैं। गरीबी के कारण अभी भी अधिकतर कोरकू आदिवासी समाज के लोग मिट्टी तथा लकड़ी के बर्तनों का उपयोग करते हैं।अशिक्षा यहां एक भयंकर बीमारी है। बेकारी में इस समुदाय के लोग शहरों में मज़दूरी करने जाते हैं। बावजूद इसके कोरकू स्वभाव से सरल और सहज होते हैं। ईमानदारी और सच्चाई के साथ जीवन जीते हैं।यह बहुत ही परिश्रमी होते हैं तथा शारीरिक कार्यों में अधिक रूचि लेते हैं। वीरेंद्र जैन का उपन्यास “पार” आदिवासी जीवन की पीड़ा पर केन्द्रित है।इस समुदाय की बेहतरी का प्रयास किया जाना चाहिए।यही मानवीय गरिमा और सम्मान तथा संवेदना का प्रतीक होगा।
– डॉ.राजबहादुर मौर्य, झांसी
जनजातीय समाज पर आपके द्वारा अध्ययन एवं रखे हुए विचार किसी राजनीतिशास्त्री की तरह नहीं बल्कि एक मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा गया है। मुझे पूरा विश्वास है कि आपके इस दृष्टिकोण से ना केवल शोध में संलग्न विद्यार्थियों को बल्कि शासन-प्रशासन के नीति नियामकों को इनके लिए विकास योजनाओं को बनाने, संचालन करने अर्थात क्रियान्वयन करने में सहयोगी होगा। सादर