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विरासत राजवंशों की, किन्तु विपन्नता में जीते “कोल आदिवासी”…

Posted on फ़रवरी 24, 2020जुलाई 12, 2020

अपने अतीत में गौरवशाली विरासत को संजोए हुए “कोल “आदिवासी आज मुफलिसी और अभाव का जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं।समय और परिस्थितियों के थपेड़ों ने उन्हें लाचार और बेबस बना दिया है।दर – बदर की ठोकरें खाते यह लोग आज गरिमा पूर्ण जीवन से वंचित हैं। लाचारी और बेबसी ही इसकी नियति बन गई है।

कोल आदिवासी समुदाय का अस्तित्व मध्य- प्रदेश के बघेलखण्ड़ अंचल के रीवा,सीधी,सतना और शहडोल, जबलपुर, रायगढ़ और मण्डला में है।बघेलखण्ड मध्य- प्रदेश का पूर्वी अंचल है। कभी इसे” विंध्य- प्रदेश “के नाम से जाना जाता था, जिसमें वर्तमान बुंदेलखंड,बघेलखण्ड और उत्तर – प्रदेश का सीमांचल क्षेत्र शामिल है। मध्य- प्रदेश के अलावा पड़ोसी राज्यों उत्तर- प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, महाराष्ट्र और त्रिपुरा में” कोल” रहते हैं। उत्तर – प्रदेश के इलाहाबाद, बांदा, मिर्जापुर और वाराणसी में कोल हैं। बांदा में कोल दक्षिण- पूर्वी -पठारी ,भू – भाग में रहते हैं।इसे “पाठा” नाम से जाना जाता है।

इसी प्रकार वाराणसी जनपद का “कोल असला ” परगना भी “कोलों ” से सम्बन्धित है। मध्य – प्रदेश के कोल अपना मूल निवास, रीवा जिले का” फरेंदा ” गांव मानते हैं जबकि मिर्जापुर के कोल अपना मूल निवास, पूर्व रीवा राज्य के बरदीराजा क्षेत्र के “कुराली गांव ” को मानते हैं।कोल या मुण्डा अपनी बोली में अपने सदस्यों को “हर” “होर” “हो ” तथा “कोरो ” नाम से पुकारते हैं। मान्यता है कि कोल शब्द” कूल” से बना है” कूल ” अर्थात् किनारा।जो जातियां पर्वतों की तलहटी में नदियों के किनारे रहती थीं वे ही कालांतर में “कोल ” कहलायीं।

“कोल” मुण्डा परिवार की अत्यंत प्राचीन जाति है।यह रामायण कालीन शबरी से भी अपना सम्बंध जोड़ते हैं और अपने को शबरी की संतान मानते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के उपरांत कोल, भील ,निषाद, शबर आदि जातियों का वर्णन रामायण कालीन और महाभारत के पाण्डवों के वनवास के समय मिलता है। मोहन – जोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई में जो “अस्थि – पंजर “मिले थे इनमें “कोल – मुण्डा ” मुख मुद्रा वाले मानवों के अवशेष भी मिले थे। इससे स्पष्ट है कि कोल – मुण्डा जाति भी प्राचीन भारत में निवास करती थी। आर्यों के आगमन से पूर्व कोल,किरात, नाग ,यक्ष ,किन्नर , कुणिंद यहां के मूल निवासी थे। आदिवासी राजा “दिवोदास ” के ऐतिहासिक प्रमाण हैं। “ऋग्वेद” में श्वपच -चाण्डाल, बुक्कल, कोल्हटि ,बुरूड आदि जातियों के नाम आये हैं। सम्भवतः “कोल्हटि” नाम कोलों के लिए ही प्रयुक्त हुआ हो बाद में कोल्हटि से “कोल्ह “या “कोल “हो गया। रामायण में भी कोल और किरात जाति को मकान बनाने में दक्ष और श्रमशील माना गया है। 15 वीं सदी में सम्राट अकबर और महाराणा प्रताप के बीच हुए युद्ध में आदिवासी राजा “मड़निहा ” ने महाराणा प्रताप की सैन्य शक्ति से काफी सहायता किया था। राजा “हर्षवर्धन” के साथ भी “कोलों” के सम्बन्धों का जिक्र मिलता है।

सोनभद्र जिले के विजयगढ़ परगना में राबर्ट्सगंज नगर से लगभग 20 किलोमीटर पूर्व और दक्षिण की ओर “विजय गढ़” का किला है।यह अपना ऐतिहासिक महत्व रखता है। इस किले का निर्माण विशाल प्रस्तर- खण्डों से किया गया था।अब यह मात्र खंडहर है। विजय गढ़ किले का “तिलिस्म ” प्रसिद्ध है। “चन्द्रकान्ता” के अनेक खण्डों की रचना इसी क्षेत्र की घटनाओं पर आधारित है। इस किले की दीवारों पर जड़े हुए शिलालेखों पर उल्लेख है कि यहां पांचवीं शताब्दी में “कोलों” का शासन था। “त्योंथर ” में आज भी कोल राजा की गढ़ी है,जो खण्डहर अवस्था में है। गहड़वाल लेखों से पता चलता है कि बनारस जिला आज की तरह परगनों में,जिनको “पत्तला” कहते थे,बसा था और हर परगने में बहुत से गांव होते थे। इन्हीं में से एक “कोल्लक” परगना था, जहां कोलों का राज्य था। आज कल इसे “कोल असला” परगना कहते हैं।

कोल सामान्यत: मध्यम कद, छरहरा बदन,काले,भूरे और घुंघराले बाल वाले होते हैं।इनकी नाक चपटी और शिर बड़ा होता है। दांत सफेद और ओंठ मोटे होते हैं।शरीर मजबूत और गठीला होता है।स्त्रियां अपेक्षाकृत कमजोर होती हैं। कोल डरपोक प्रवृत्ति के, अपने में मस्त रहने वाले, सच्चे, ईमानदार और मेहनती होते हैं। वर्ष 1981 में मध्य – प्रदेश में कोलों की जनसंख्या 1,23,811 थी। यहां कोल क्षेत्रीय बोली “बघेली” बोलते हैं।कोलों में कुर,करी, कुल या बाण की व्यवस्था है। यह अनेक उपजातियों में बंटे हुए हैं। उत्तर – प्रदेश के पाठा के कोल दो बड़े सामाजिक समुदाय ठाकुरिया और रावटिया में विभक्त हैं। कोल आदिवासी जहां रहते हैं उसे कोलिन टोला कहते हैं। इनके घर प्राय: मिट्टी तथा घास फूस से बने होते हैं जिसे मडिया या झोपड़ी कहते हैं।यह समूह में रहना पसंद करते हैं। पत्थर का जांता, मिट्टी के चकरा,मूसर कांडी, मिट्टी का कुटीला, बांस की दौरी,सूपा, कपड़ा टांगने की अलगनी, ओढ़ने बिछाने के लिए गोंदरी,कथरी,कम्बल इनकी गृहस्थी होती है।खाने के बर्तनों में टाठी,लोटा, बटुआ,करछुली,तवा,तसली,बेलना इत्यादि होते हैं। कोल शाकाहारी और मांसाहारी दोनों होते हैं। पर्व त्यौहारों पर सुआरी बनाते हैं।मछुआ की मदिरा मदाइन इनका प्रमुख पेय है। कोल मुख्यत: खेती पर निर्भर रहते हैं।

कोल पुरुष पंचा धोती, कुर्ता और शिर पर साफा बांधते हैं। महिलाएं धोती पहनती हैं। चांदी और गिलट के गहने धारण करती हैं।पांव की अंगुलियों में बिछिया पहनती हैं। यहां स्त्री को पुरुष से अधिक महत्व दिया जाता है। कोल उल्लास के साथ पर्व त्यौहार मनाते हैं,जो उनकी अपार खुशियों और संस्कृति के पोषक हैं। इनके प्रमुख त्योहार हरियाली अमावस्या, नागपंचमी, जन्माष्टमी,तीजा,खिचरहाई होली, दीवाली और नवरात्रि हैं।कोलों में सामाजिक संगठन की संरचना बहुत ही सुव्यवस्थित है। सामाजिक संगठन में परिवार,नारी, मुखिया,बरुआ,भुइहार, ओझा,देवार और निउतिया का महत्वपूर्ण स्थान है। समाज के हित में काम करना तथा जातीय नियम बंधनों का पालन करना सभी लोगों का कर्तव्य है। परिवार के सभी सदस्य बड़े – बूढों का आदर सम्मान करते हैं और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। कोल महिलाऐं सच्ची बात कहने से नहीं हिचकतीं। झूठ और बनावटी पन से दूर रहती हैं। कोल आदिवासी समुदाय का मुखिया गांव – टोला का सर्वोच्च अधिकारी होता है। “बरुआ” कोलों का धार्मिक नेता है।इनकी जातीय पंचायत पारिवारिक,धन, ज़मीन, मकान, तथा अन्य सभी प्रकार के विवादों को निपटाने में सक्षम होती है।

कोल संगीत नृत्य – प्रिय जाति है।”कोलदहका” इनका सर्वाधिक लोकप्रिय नृत्य है।”कोलदहका” का अर्थ है “कोलों का दहकना” यानी अति उत्साह, उमंग और आनन्द के साथ कुशल हस्त – पद संचालन और अपनी आदिम ऊर्जा के साथ नृत्य करना।यह नृत्य रात भर चलता है।”केहरा” नृत्य का प्रचलन पूरे “बघेलखण्ड़” में है।इसकी मुख्य ताल “कहरवा” है।इसी प्रकार “दोतलिया” और “नारदी” नृत्य कोल स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले पारम्परिक नृत्य हैं। महिलाओं में गुदना की प्रथा है। यह उनके जीवन का प्रतीक चिन्ह है।”बादी” जाति की स्त्रियां गोदना का काम करती हैं उन्हें “गोदनहार” कहते हैं।लुकौडा़ (आंख – मिचौली),सुटुररा,सोन गांठि,खोक्खि,अक्को-बक्को,ऊरा-पूरा,पंचगोबटा,छिप्पी,चुक चुकसे,तुआ,पुतरा- पुतरी इनके प्रमुख खेल हैं। पहेलियों को यह “किहानी” कहते हैं।

गौरवशाली अतीत और समृद्धिशाली लोक परम्परा को अपने अंतस्थल में संजोए मुफलिसी और अभाव का जीवन जीते कोल आदिवासियों को हक़ और हुकूक के लिए इंसाफ की दरकार है।

– डॉ. राजबहादुर मौर्य ,झांसी


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3 thoughts on “विरासत राजवंशों की, किन्तु विपन्नता में जीते “कोल आदिवासी”…”

  1. अनाम कहते हैं:
    मार्च 1, 2020 को 11:15 पूर्वाह्न पर

    आप का मार्ग दर्शन मेरे लिए अनमोल है। बहुत बहुत आभार आपका सर।

    प्रतिक्रिया
  2. Dr JITENDRA KUMAR TIWARI कहते हैं:
    मार्च 1, 2020 को 2:00 पूर्वाह्न पर

    जनजातीय जीवन और संस्कृति पर आपके द्वारा किया गया अध्ययन और प्रस्तुत साहित्य मेरे लिए बहुत लाभकारी है । मैं अल्प समय में भारत के विभिन्न जनजातीय समाज को जान पा रहा हूं। जनजातीय समाज पर एक नया विमर्श जन्म ले रहा है कि जनजातीय समाज हिंदू है अथवा नहीं । यह भारतीय समाज का विघटनकारी सोच प्रदर्शित कर रहा है । जिस पर आप जैसे मनीषी का विचार आना अत्यंत आवश्यक है । आशा करता हूं कि जनजातीय समाज पर गहन अध्ययन के उपरांत इस तरह के रेखांकित प्रश्नों का हल जरूर ढूढेंगे, जिससे ना केवल जनजातीय समाज, तथाकथित सभ्य समाज के साथ-साथ नीति नियामकों के सोच में भी परिवर्तन आएगा और जनजाति समाज को एक अजायबघर ना मानकर खुले सोच से उनको समझने का प्रयास करेगें। आपका

    डॉ जितेंद्र कुमार तिवारी, एसोसिएट प्रोफेसर /विभागाध्यक्ष – समाजशास्त्र , बुंदेलखंड महाविद्यालय झांसी

    प्रतिक्रिया
  3. Pratima कहते हैं:
    फ़रवरी 29, 2020 को 12:40 अपराह्न पर

    Sir I really inspire by you view, contents & thoughts hats off to you sir for you feb job.

    प्रतिक्रिया

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