डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com
1- मगध नरेश बिम्बिसार के द्वारा बनवाया गया वेणुवन विहार का क्षेत्रफल 40 एकड़ था । वेणुवन के प्रबन्धाचार्य कौन्डण्य नामक एक भिक्खु थे । राजगृह मगध की राजधानी थी । भिक्खु स्वास्ति उरुवेला का निवासी था । उस उरुवेला को आज बोधगया के नाम से जाना जाता है । स्वास्ति अस्पृश्य जाति का था । वह भैंसों का चरवाहा था जिसका मालिक रामभूल था । स्वास्ति की दो बहनें थीं : बाला और भीमा । रुपक स्वास्ति का भाई था । उरुवेला से राजगृह पहुँचने में 10 दिन का समय लगता था । बोधिवृक्ष, पीपल के वृक्ष को कहा जाता था । संघ में प्रवृज्या 20 वर्ष की आयु पूरी होने पर दी जाती थी ।
2- भिक्खु वह होता है जो : 1- बुद्ध को गुरु मानता हो, 2- धम्म को आत्म जागृति का मार्ग मानता हो, 3- संघ को ऐसा समुदाय मानता हो जो सद्धर्म मार्ग पर चलने में एक- दूसरे को सहायता प्रदान करता हो । भिक्षाटन करने से : 1- अहंकार सून्यता आती है, 2- अन्य लोगों के साथ सम्पर्क साधने का एक माध्यम है, 3- यह समझने में सहायता मिलती है कि प्रेम और प्रज्ञा (सौहार्द) का मार्ग क्या है ।
3- तथागत बुद्ध का कथन है कि, “भिक्खु को अपनी 6 इन्द्रियों : ऑंख, कान, नाक, जिन्हा, शरीर और चित्त पर नज़र रखनी चाहिए जिससे वह आसक्तियों में भ्रमित न हों ।” 1- भिक्खु को उपदेशों का प्रयोग करके जाग्रत रखना चाहिए । 2- भिक्खु को उन मार्गों से बचना चाहिए जो ख्याति, धन एवं इन्द्रिय सुख की कामना जगाते हैं । 3- भिक्खु को ध्यान और आनंद की चाह न रखते हुए चार आर्य सत्यों पर निर्भर रहना चाहिए । 4- भिक्खु को सम्यक् जागरूकता के चार चरणों के जानना चाहिए । 5- भिक्खु को अपने उस समाज से निकट के सम्पर्क बनाए रखना चाहिए जिससे वह भिक्षा भप्त (प्राप्त) करता है । 6- भिक्खुओं को वयोवृद्धों के ज्ञान और अनुभव पर निर्भर रहना चाहिए ।
4- तथागत बुद्ध का कथन है कि, “सद्धर्म की खोज का अर्थ है, जीवन की पीड़ाओं का समाधान निकालना न कि जीवन से पलायन ।” “लोग अनन्त कष्ट इसलिए भोगते हैं कि उनका भावबोध तिमिराछिन्न होता है । वह अनित्य को नित्य, अनात्म को आत्मयुक्त, जो मरणधर्मा है उसे अजर-अमर समझते हैं और जो अविभाज्य है उसे खंडों में विभक्त मानकर चलते हैं । भय, क्रोध, घृणा, अहंकार, द्वेष, लोभ और अज्ञान विविध मानसिक अवस्थाएँ हैं । यह चेतन ज्ञान की विरोधी हैं । एक अन्धकार है : प्रकाश के अभाव से उत्पन्न ।”
5- तथागत बुद्ध का कथन है कि, “कष्ट ग्रस्त लोगों के प्रति ममत्व पूर्ण दृष्टि, सहायता और स्नेह पूर्ण ह्रदय के भाव उनको अधिक सम्बल प्रदान करते हैं । सह्रदयता से करुणा और प्रेम के भावों का उदय होता है । प्रेम करने के लिए पूर्ण सत्य समझ लेने की आवश्यकता होती है । तब जीवन शुद्ध ज्ञान, शुद्ध विचारों, शुद्ध वाणी, सत्कर्मों, शुद्ध आचरण, सही प्रयासों, सच्ची जागरूकता और चित्त के केन्द्रीयकरण से प्रकाशित हो उठता है ।” तथागत बुद्ध ने इसे आर्य मार्ग कहा ।
6- तथागत बुद्ध कहते हैं कि, “जीवन को स्वीकार करने का अर्थ है अनित्यता और अनात्म होना । सभी कष्टों का स्रोत इस भ्रामक भाव बोध में निहित है कि हम अपने अस्तित्व को स्थायी और स्वयं को पृथक सत्ता मानते हैं । यदि लोग इस सत्य (प्रतीत्य समुत्यपाद) को समझ लें तो न जन्म का भाव रहे, न मरण का, न उत्पत्ति और विनाश का, न एकत्व और बहुत्व का, न अन्त: और न वाह्य का, न अशुचिता और शुचिता का । प्रतीक परक से समस्त भ्रान्त धारणाएँ तो बुद्धि की उपज हैं । यदि व्यक्ति सभी वस्तुओं की असारता को समझ ले तो वह समस्त मानसिक संकल्पों विकल्पों को पार कर लेगा और कष्टों के दुश्चक्र से मुक्त हो जाएगा ।” सम्बोधि का अर्थ है : दिव्य ज्ञान अथवा चेतना का परम आनंद ।
7- तथागत बुद्ध कहते हैं कि, “अज्ञान में डूबे विचारों की असंख्य लहरों से वास्तविकता का सत्य, कर्ता और कर्म, स्व पर विद्यमानता तथा अविद्यमानता, जन्म और मरण तथा भ्रान्त विचारों से जन्में विभिन्न विभेदों में विभक्त हो जाता है । जन्म, ज़रा, रोग तथा मृत्यु उस कारागार की दीवारों को और मोटी कर देता है । ऐसी अवस्था में यही किया जा सकता है कि कारागार के द्वारपाल को पकड़ लिया जाए और उसका वास्तविक रूप परख लिया जाए । यह द्वारपाल था : अज्ञान । इस अज्ञान पर विजय प्राप्त करने का साधन है- पवित्र अष्टांगिक मार्ग ।
8- तथागत बुद्ध ने उरूवेला के बच्चों को सचेतावस्था की शिक्षा देते हुए कहा कि, “चेतन जागरूकता का अर्थ है वर्तमान के इस क्षण को पूर्णता के साथ जीना जिसमें तुम्हारा चित्त और शरीर इस समय यहाँ हो । सचेतावस्था में रहने वाला व्यक्ति जानता है कि इस समय क्या सोच रहा है, क्या कह रहा है और क्या कर रहा है । ऐसा व्यक्ति उन विचारों, शब्दों व कार्यों से बच सकता है जिससे उसे स्वयं तथा दूसरों को कष्ट हो ।” चूँकि मागधी बोली में जागृति को बुध कहते हैं इसलिए उरूवेला के बच्चों ने सिद्धार्थ गौतम को बुद्ध कहा । उनके ज्ञान प्राप्ति के मार्ग के सहोदर पीपल वृक्ष को बोधिवृक्ष कहा । सम्बोधि प्राप्ति के 49 दिन बाद तक बुद्ध उरूवेला गाँव के पास ही रहे ।
9- तथागत बुद्ध कहते हैं कि, “प्रत्येक चेतन प्राणी में वह ह्रदय विद्यमान है जिसके माध्यम से वह मुक्त चेतना की प्राप्ति कर सकता है । उस चेतन प्रकाश के बीज प्रत्येक प्राणी के ह्रदय में विराजमान होते हैं । चेतन प्राणियों को चेतना का प्रकाश अपने से बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि सृष्टि का समस्त ज्ञान और शक्ति तो उनके भीतर ही समाहित है ।” यही बुद्ध की महान खोज थी और सभी के हर्षित होने का कारण ।
10- तथागत बुद्ध की देशना है, “धम्म पथ के अनुगामी को अतियों से बचना चाहिए । एक छोर तो विषय वासना में आकण्ठ डूबने का है और दूसरा छोर घोर तपस्या के द्वारा शरीर को कष्ट देने या मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित करने का है । इन दोनों प्रकार की अतियों से अन्त में विफलता ही हाथ लगती है । सर्वोत्तम मध्य मार्ग है जिसमें दोनों प्रकार की अतियों के लिए कोई स्थान नहीं है और यह मार्ग ज्ञान, मुक्ति तथा शांति के पथ पर अग्रसर करने की क्षमता रखता है ।” यह पवित्र अष्टांगिक मार्ग है ।
11- तथागत बुद्ध का कथन है कि, “अष्टांगिक मार्ग इसलिए सम्यक् मार्ग है कि इसमें न तो कष्टों से बचा जा सकता है और न ही उसे अस्वीकार किया जा सकता है बल्कि कष्टों का सीधे सामना किया जाता है ताकि उनसे उबरा जा सके । पवित्र अष्टांगिक मार्ग सचेतन अवस्था में जीने का मार्ग है । सतत सचेतनता इसकी आधारशिला है । सचेतनता का अभ्यास करने से चित्त में इतनी एकाग्रता आ जाती है कि इससे ज्ञान की प्राप्ति की जा सकती है । सम्यक् एकाग्रता से चेतना, विचारों, वाणी, कर्म, जीवनयापन और प्रयास की सम्यकता प्राप्त होती है । इस प्रकार जो ज्ञान प्राप्त होता है उससे कष्टों के हर बंधन को मुक्ति मिल जाती है और सम्यक् शांति तथा आनंद का उदय होता है ।”
12- तथागत बुद्ध के अनुसार चार आर्य सत्य हैं : दुःखों की विद्यमानता, दुःखों का मूल, दुःखों का अन्त और दुःखों के नाश का उपाय एवं मार्ग । प्रथम सत्य है : दुःखों की विद्यमानता अर्थात् जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, शोक, क्रोध, द्वेष, चिंता, उद्वेग, भय और निराशा सभी दुःख हैं । प्रिय जन का वियोग और अप्रिय जन का मिलन भर दुख है । कामनाएँ, मोह, ममता और जिन पंच स्कन्धों से जीवधारियों का निर्माण हुआ है वे सभी दुःखमय हैं ।
13- तथागत बुद्ध कहते हैं कि द्वितीय आर्य सत्य है : दुःखों का मूल । दुख का मूल कारण है अज्ञान और लोगों के द्वारा जीवन विषयक सत्य का दर्शन न कर पाना । सांसारिक वस्तुओं की तृष्णा, क्रोध, द्वेष, दुख, चिन्ता, भय और निराशा की आग में जीवधारी झुलसते रहते हैं । तृतीय आर्य सत्य है : दुःखों का अन्त । जीवन के सच्चे स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर प्रत्येक दुख और शोक का अन्त हो जाता है और इससे शांति तथा आनन्द का उदय होता है । चतुर्थ आर्य सत्य है : दुःखों के नाश का उपाय एवं मार्ग । वह मार्ग श्रेष्ठ अष्टांगिक मार्ग है ।
14- तथागत बुद्ध की देशना है कि, “प्रत्येक वस्तु सारहीन और अनित्य है । पंच स्कन्ध (शरीर, कामनाएँ, संकल्पनाएँ, अवधारणाएँ एवं भाव बोध) सतत प्रवाहमान पॉंच सरिताओं के समान हैं जिनमें पृथक अस्तित्ववान तथा स्थायी कुछ भी नहीं है । इन पंच स्कन्धों पर ध्यान देने से इनका परस्पर घनिष्ठ एवं अद्भुत सम्बन्ध दिखने लगता है ।” पंचशील में पॉंच गुण सम्मिलित हैं : अहिंसा, चोरी न करना, इन्द्रिय भोग से विरति, असत्य भाषण से विमुखता और मदिरा का सेवन न करना । जन्म और मरण से मुक्ति ही निर्वाण है । शुद्ध आचरण ही शील है । पंचशील के अतिरिक्त पॉंच महत्वपूर्ण शील हैं : नृत्य गान से विरति, गंध माला आदि से विरति, उच्चशैया- महाशैया से विरति, असमय भोजन से विरति और सोना चाँदी से विरति ।
15- तथागत बुद्ध ने काश्यप को समझाते हुए कहा था कि, “विषमताओं का कारण अज्ञान है । जिससे सत्य का दर्शन भ्रमित दृष्टि से होता है । अनित्य को नित्य समझना अज्ञान है । आत्मा नहीं होती, उसकी सत्ता मानना अज्ञान है । अज्ञान से लोभ, क्रोध, भय, द्वेष और असंख्य विषमताएँ जन्म लेती हैं । मुक्ति का मार्ग यही है कि सब कुछ को चेतन होकर सत्य रूप से देखा जाए, जिससे उसकी अनित्यता, आत्मा का पृथक सत्ता और सभी वस्तुओं के परस्पर अवलम्बन के सत्य की अनुभूति कर ली जाए । यह वह मार्ग है जिससे अज्ञान को पराभूत किया जा सकता है । यदि अज्ञान पर विजय पा ली जाए तो विषमताओं के पार भी ज़ाया जा सकता है । यही सच्ची मुक्ति है । ऐसी अवस्था में मुक्ति होने के लिए आत्मा की आवश्यकता ही कहॉं होती है । यदि व्यक्ति अज्ञान और चित्त के संकल्पों, विकल्पों के पार नहीं जाता तो वह मुक्ति के पाने के लिए उस तट तक कैसे पहुँचेगा, भले ही वह व्यक्ति अपना समस्त जीवन प्रार्थना करने में क्यों न लगा दे ।”
16- तथागत बुद्ध कहते हैं कि, “भिक्खुओं, सभी धर्म दग्ध हैं । जल क्या रहा है ? छ: ज्ञानेंद्रियां : नेत्र, कर्ण, नासिका, जिन्हा, शरीर और चित्त- सभी दग्ध हैं । इन ज्ञानेंद्रियों के विषय रूप : ध्वनि, गंध, स्वाद, स्पर्श और मन के संकल्प- विकल्प सभी दग्ध हैं । इनके छ: गुण- धर्म : दृष्टि, श्रवण, गंध, स्वाद, भावनाएँ और विचार भी दग्ध हो रहे हैं । सब जन्म, जरा, रोग और मरण तथा कष्टों, उद्देगों, हताशा, चिंता, भय और निराशा की ज्वाला से दग्ध हैं ।”
17- भिक्खु कौण्डन्य के वचन हैं, “बुद्ध सम्बुद्ध बोधिसत्व हैं । सम्बुद्ध व्यक्ति जीवन और ब्रम्हाण्ड के स्वरूप को देख सकता है । प्रज्ञा चक्षु होने के कारण वह भ्रमजाल, भय, क्रोध अथवा कामनाओं के बंधन में नहीं बंधता । सम्बुद्ध व्यक्ति मुक्त प्राणी होता है जो शांति और आनंद, प्रेम तथा ज्ञान से भरपूर होता है । हम सभी में बुद्ध प्रकृति विद्यमान है । हम सब बुद्ध बनने में सक्षम हैं । बुद्ध प्रकृति चेतना के जागरण और समस्त अज्ञान को निर्मूल करना है ।”
18- तथागत बुद्ध की देशना है कि, “यदि कोई व्यक्ति सिद्धांत के विश्वास का बंदी बन जाता है तो उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है । जब कोई दुराग्रही बन जाता है तो वह मानता है कि उसका सिद्धांत ही एकमात्र सत्य है और अन्य सिद्धांत सुनी- सुनाई बातें । समस्त झगड़े और संघर्ष विचारों की संकीर्णता से उत्पन्न होते हैं और वे अनन्त रूप से चलते रहते हैं जिससे मूल्यवान समय ही नष्ट नहीं होता बल्कि युद्ध तक हो जाते हैं ।किन्हीं मान्यताओं से बंध जाना आध्यात्मिक मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है । संकीर्ण विचारों से बंधा हुआ व्यक्ति उनकी क़ैद में फँस जाता है और सत्य के द्वार खुलना असम्भव हो जाता है ।”
19- तथागत बुद्ध कहते हैं कि, “मेरी शिक्षाएँ न तो कोई सिद्धांत हैं और न ही कोई दर्शन । यह न तो किसी वाद- विवाद के निष्कर्ष हैं और न ही विभिन्न दर्शनों के समान मानसिक मान्यताएँ । जिनके अनुसार हम यह दावा करते हैं कि अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आत्मा से सृष्टि का सृजन ही आधारभूत सत्य है अथवा सृष्टि का अन्त होता है या वह अनन्त है अथवा सृष्टि नित्य है या अनित्य है । इस प्रकार की ध्रुव सत्य जैसी मान्यताएँ और विचार- विमर्श जन्य विचारधाराएँ उन चींटियों के समान हैं तो कटोरी के किनारे की ही सतत परिक्रमा करती हैं और पहुँचती कहीं भी नहीं हैं । यह तो प्रत्यक्ष अनुभूतियों के परिणाम हैं । आप मेरे कथन की अनुभूतियों द्वारा पुष्टि कर सकते हैं ।”
20- तथागत बुद्ध की देशना है कि, “मैं शिक्षा देता हूँ कि सभी वस्तुएँ अनित्य हैं, प्रतीत्य समुत्पाद है और उनकी कोई पृथक सत्ता नहीं होती । मेरी शिक्षा है कि प्रत्येक पदार्थ सृजन, वर्धन और मरण के लिए सभी पदार्थों पर निर्भर है । कोई भी पदार्थ किसी एक मूल स्रोत से उत्पन्न नहीं होता । मैंने इस सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव किया है, जिसे आप भी कर सकते हैं ।” क्रोध, घृणा, संदेह, द्वेष और निराशा कष्टों के कारक बनते हैं । यह सभी बातें प्रज्ञाहीनता के कारण ह्रदय में आती हैं ।
21- ईश्वर वादी दर्शन में जो स्थान ईश्वर का है बौद्ध दर्शन में वही स्थान कर्म का है । पारमिताएँ बोधिसत्व के कर्म हैं । प्रमुख पारिमिताएं हैं : दान पारिमिता (प्रतिफल की इच्छा के बिना दान), शील पारमिता (सद् आचरण), प्रज्ञा पारमिता (बुद्धि द्वारा निरहंकार ज्ञान की खोज), शांति पारमिता (क्षमा भाव) और वीर्य पारमिता (सम्यक् प्रयत्न)। इसके अतिरिक्त अन्य पारमिताएँ हैं : नैष्क्रम्य पारमिता, सत्य पारमिता, अधिष्ठान पारमिता और मैत्री पारमिता ।
22- तथागत बुद्ध के वचन हैं, “कष्टों के बंधन में हम स्वयं को जकड़े रहते हैं, इस कारण हम जीवन के अद्भुत दृश्यों की अनुभूति की क्षमता खो देते हैं । जब हम अज्ञान के अन्धकार का भेदन कर पाते हैं तो हमारे सामने शांति, आनंद, मुक्ति और निर्वाण के विराट से साक्षात्कार का क्षेत्र उन्मुक्त होता है । निर्वाण से अज्ञान, लोभ और क्रोध का समूल नाश हो जाता है । ज्ञान होने पर ही हम प्रेम कर सकते हैं । जब हमें ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तो सभी दुःखों से उबर सकते हैं । मुक्ति का सच्चा मार्ग प्रज्ञा का मार्ग है ।”
23- तथागत बुद्ध की देशना सागर के समान है जिसमें भिक्खुओं की सरिताएँ आ आकर अस्तित्व हीन बन जाती हैं । भले ही हम भिन्न-भिन्न जातियों में जन्में हों किन्तु संघ में सम्मिलित होने पर हमारे बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रह जाता । बोधि प्राप्ति के बाद तथागत बुद्ध ने पहला वर्षा प्रवास मृगदाव में किया था, दूसरा और तीसरा वर्षा प्रवास वेणुवन में किया था । सुदत्त कोशल की राजधानी श्रावस्ती में रहता था । वह एक धनवान व्यापारी था । वह गरीब लोगों की मदद करता था इसलिए उसे अनाथ पिंडक भी कहा जाता है । सुदत्त की पत्नी पुण्य लक्षणा थी । अचिरावती नदी को आज राप्ती नदी के नाम से जाना जाता है ।
24- तथागत बुद्ध कहते हैं कि, “दुःख के बीज प्रेम में विद्यमान हैं । व्यक्ति की कल्याण कामना प्रिय पात्र के अभाव में, दुःखों में परिणत हो जाती है ।” “प्रेम का आधार है मैत्री और करुणा । मैत्री ऐसा प्रेम है जो दूसरों को हर्षित करता है । करुणा ऐसा प्रेम है जिससे दूसरों के दुख दूर करना सम्भव होता है । मैत्री और करुणा के बिना जीवन अर्थहीन और खोखला होता है । मैत्री और करुणा से जीवन शांति, उल्लास और संतोष से भर जाता है । करुणा सदाशयता का परिणाम होती है । सद्धर्म का मार्ग अपनाने से जीवन के सच्चे स्वरूप का दर्शन होता है । उसका सच्चा स्वरूप है : अनित्यता ।
25- तथागत बुद्ध ने अपने पिता शुद्धोदन की चिता को मुखाग्नि देते हुए कहा था, “जन्म, ज़रा, रोग तथा मरण सभी व्यक्तियों के जीवन में होता है । हमें प्रतिदिन जन्म, ज़रा, रोग तथा मरण पर गहन दृष्टि से विचार करना चाहिए जिससे इच्छा, आकांक्षाओं का तिरोभाव कर सकें और शांति तथा संतोष भरे जीवन को प्राप्त कर सकें ।” तथागत बुद्ध की देशना ममत्व, भावहीनता, सुख-दुःख निरपेक्षता, शांति और मुक्ति प्राप्त करने में सहायक हैं । संघ में श्रामणेर को 10 शीलों, प्रवृज्या प्राप्त भिक्खुओं को 45 तथा वरिष्ठ भिक्खु को 120 शीलों का पालन करना होता है । संघ की भावना का उल्लंघन करने वाला पहला भिक्खु सुदिन था जिसके कारण तथागत बुद्ध को पंचशीलों का निर्माण करना पड़ा ।
26- तथागत बुद्ध कहते हैं कि मज़ाक़ में भी झूठ का सहारा मत लो । अपने कार्यों, विचारों और शब्दों को इसी प्रकार समझो जैसे अपना मुख दर्पण में देखते हो । एक किसान के प्रश्नों का उत्तर देते हुए तथागत बुद्ध कहते हैं कि, “हम सच्चे ह्रदय की धरती में विश्वास का बीज बोते हैं । हमारा हल है मानसिक चेतनावस्था । हमारी भैंसें हैं : परिश्रम पूर्वक साधना । हमारी फसल है – प्रेम और सौहार्द । विश्वास, सौहार्द और प्रेम के बिना जीवन दुख की बंजर भूमि के अलावा क्या रहेगा । प्रेमपूर्ण कृपालुता, दया, करुणा, सहानुभूति, आनन्द और ममत्वहीनता चित्त की सुन्दर एवं विशालयुक्त अवस्थाएँ हैं ।”
27- तथागत बुद्ध, “भिक्खु को पॉंच बातों की आवश्यकता होती है : सौहार्द तथा सदाशयता वाले मित्र, शीलों का पालन, धर्म शिक्षाओं के लिए पर्याप्त अवसर प्राप्त करना, परिश्रम पूर्वक साधना करना और प्रज्ञा ।” संघ सद्धर्म मार्ग का साधना अभ्यास करने वालों का समुदाय है । इससे साधक को सहायता और मार्ग निर्देश प्राप्त होता है । इसलिए संघ शरणम् गच्छामि का व्रत लेना आवश्यक है ।
28- तथागत बुद्ध ने आत्ममुक्ति या अर्हत प्राप्त करने के उपायों पर चर्चा करते हुए कहा कि, “भिक्खु को मरण, करुणा, अनित्यता और श्वसन क्रिया के प्रति पूर्ण सचेतनता की अवस्था में रहना । 2- इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए मृत शरीर, शव के विक्षत होने, प्राणान्त से अस्थियों की राख तक नौ अवस्थाओं को ध्यान में लाना । 3- क्रोध एवं घृणा पर विजय प्राप्त करने के लिए करुणा की धारणा पर ध्यान करना । 4- माया जन्य विक्षेपों से उबरने के लिए श्वसन क्रिया के प्रति पूर्ण सचेतन अवस्था ।”
29- तथागत बुद्ध की देशना है कि, ज्ञानेंद्रियों (ऑंख, कान, नाक, जीभ, शरीर और मन) और इनके विषयों (दृश्य, ध्वनि, गंध, स्वाद, शरीर और मन के कर्म) के मध्य सम्पर्क होने पर ही भाव बोध का जन्म होता है । ज्ञानेंद्रियों के विषय अनित्य हैं और अपनी विद्यमानता के लिए यह एक दूसरे पर अवलम्बित हैं । शरीर, भावनाओं, अवधारणाओं, भाव बोध और चेतनता इन पॉंचों स्कन्धों में से कुछ भी नित्य नहीं है और आत्मा जैसा कोई तत्व नहीं है । शरीर आत्मा नहीं है और आत्मा अशरीरी है । शरीर को आत्मा में नहीं खोजा जा सकता और आत्मा में शरीर की स्थिति नहीं पायी जा सकती है ।
30- तथागत बुद्ध कहते हैं कि आत्मा के सम्बन्ध में तीन प्रकार के विचार हैं : 1- शरीर ही आत्मा है अर्थात् भावनाएँ, अवधारणाएँ, भाव बोध और चेतना ही आत्मा है । यह विचार भ्रामक है । 2- शरीर आत्मा नहीं है या आत्मा शरीर से भिन्न प्रथक चीज है अथवा शरीर आत्मा के वशीवर्ती है । तो यह विचार दूसरी भ्रान्ति है । 3- शरीर में आत्मा विद्यमान होती है या आत्मा में शरीर की विद्यमानता है । इसका अर्थ है आत्मा और शरीर की एक दूसरे में विद्यमानता स्वीकारना । अनात्मता पर गहन ध्यान करने का अर्थ है कि शरीर के स्कन्धों का ध्यान करना । जिससे यह ज्ञात हो सके कि न तो आत्मा है, न आत्म सम्बन्ध और न ही आत्मा का अन्तर्ग्रन्थन । एक बार जब हम तीनों भ्रामक विचारों की वास्तविकता समझ लेते हैं तो हम सभी धर्मों की सून्यता की सत्य प्रकृति से अवगत हो जाते हैं ।
31- तथागत बुद्ध कहते हैं कि निर्वाण प्राप्ति के मार्ग की पॉंच बाधाएँ हैं : ज्ञानेंद्रियॉं, इच्छा, आकांक्षा, दुर्भावना, प्रमाद, उद्वेग और शंकाएँ । शरीर के पंच स्कन्ध हैं : शरीर, कामनाएँ, अवधारणाएँ, भाव बोध और चेतना । सचेतन अवस्था के सात तत्व हैं : पूर्ण ध्यान, धर्मानुसंधान, ऊर्जा, हर्ष, सहजावस्था, ध्यान और विरति । जो इन चारों महाविधानों पर आचरण करते हैं वे सात वर्षों में निर्वाण प्राप्त कर अर्हत बन जाते हैं । जो इस पर पूर्ण आचरण करते हैं वे सात महीनों में ही निर्वाण प्राप्ति के अधिकारी बन जाते हैं । जो इन महाविधानों के अनुसार सात दिन तक पूर्ण गहनता के साथ ध्यान धारणा कर ले वह सात दिन में ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है ।
32- तथागत बुद्ध की देशना है कि, “एक धर्म का जन्म या मृत्यु अन्य सभी धर्मों के जन्म या मरण से सम्बन्धित है । एक में सब है और सब में एक । एक के बिना बहुतों की सत्ता सम्भव नहीं है और बहुत की सत्ता के बिना एक का अस्तित्व सम्भव नहीं । परस्परावलम्बी सहवर्धन की शिक्षा का यह अद्भुत सत्य है ।” बुद्ध के वचन हैं, “शरीर सतत् जन्म लेता, मरता और बदलता है । भावनाएँ सतत् उत्पन्न होती, मरती और बदलती रहती हैं । सभी अवधारणाएँ, भाव बोध और चेतना जन्म मरण के एक ही नियम से बँधे हुए हैं । सभी अनित्य हैं ।” शरीर और भावनाएँ एक दीपक के समान हैं जिसका तेल और बाती चुक रही है । दोनों अवस्थाएँ प्रकाश होने या प्रकाश न होने से सम्बद्ध हैं ।
33- तथागत बुद्ध ने नदी से मानव जीवन को सम्बद्ध कर उदाहरण देते हुए कहा कि, “नदी के किनारे रुक जाने का अर्थ है : छ: इन्द्रियों और उनके विषयों में फँस जाना । डूब जाने का अर्थ है : इच्छा आकांक्षाओं का दास हो जाना । रेत में फँस जाने का अर्थ है : स्वार्थी हो जाना । सदैव अपनी ही इच्छाओं, अपने ही लाभ तथा अपनी ही प्रतिष्ठा की बात सोचना । जल से निकाल लिए जाने का अर्थ है : स्वयं को निरुद्देश्य बना लेना । भंवर में फँसने का अर्थ : पॉंच प्रकार की इच्छाओं- सुस्वादु भोजन, विषय वासना, वित्तेषणा, यशेषणा और निद्रा में फँसे रहना । भीतर से सड़ने का अर्थ है : दिखावे के सद्गुणों वाला जीवन जीना, संघ को धोखा देना, धम्म को अपनी इच्छा आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रयोग करना ।” यदि कोई व्यक्ति उपरोक्त 6 भ्रम जालों में न फँसे तो वह सम्बोधि प्राप्त कर सकता है ।
34- तथागत बुद्ध ने महापुरुषों की आठ अनुभूतियों का ज़िक्र किया है : 1- सभी धर्म अनित्य और अनात्म हैं, इसका ज्ञान होना । 2- जितनी अधिक इच्छाएँ होती हैं उतना ही दुख होता है । 3- सादगी भरे जीवन और सीमित इच्छाओं से शांति, हर्ष और सौहार्द का उदय होता है । 4- परिश्रम पूर्वक साधना करने से सम्बोधि सम्भव है । 5- अज्ञान के कारण ही जन्म- मरण के अनन्त चक्र में फँसना पड़ता है । 6- प्रत्येक व्यक्ति को समदृष्टि से देखना चाहिए । किसी के अतीत के ग़लत काम के लिए निंदा नहीं करना चाहिए और न वर्तमान समय में हानि पहुँचाने वाले से घृणा करनी चाहिए । 7- समस्त प्राणियों को करुणा की दृष्टि से देखें । 8- हमें अपना सर्वस्व अन्य सभी लोगों के ज्ञानार्जन में लगा देना चाहिए ।
35- तथागत बुद्ध कहते हैं कि, “भिक्खुओं, आदि और अन्त केवल मन की धारणाएँ हैं । वस्तुतः सृष्टि का सृजन और अंत कुछ नहीं है । अज्ञान में फँसे होने से ही हम आदि और अन्त के विषय में सोचते हैं । जन्म और मृत्यु अज्ञान जन्य धारणाएँ हैं । जन्म, मृत्यु तथा सृजन और विनाश दोनों का अन्तहीन चक्र है । अज्ञानता के कारण ही हम जन्म और मृत्यु के अनन्त चक्र में फँसे रहते हैं ।”
36- तथागत बुद्ध के वचन हैं, “यह लोक उन सभी पदार्थों तथा वस्तुओं का समुच्चयन है जो परिवर्तन शील हैं और विश्रृंखल हो जाते हैं । सभी धर्म 18 अंशों में विभाजित हैं : 6 इन्द्रियॉं, 6 इन्द्रियों के विषय और 6 इन्द्रिय जन्य तमन्नाएँ । छ: इन्द्रियॉं हैं : दृष्टि, श्रवण शक्ति, घ्राण शक्ति, स्वाद, काया और चेतना । छ: इन्द्रियों के विषय हैं : रूप, ध्वनि, गन्ध, स्वाद, स्पर्श और चित्त के विषय । छ: तमन्नाएँ हैं : देखना, सुनना, स्वाद लेना, स्पर्श करना और समझना । इन 18 अंशों से भिन्न कोई भी धर्म नहीं है । यह सभी जन्म, मृत्यु, परिवर्तन और विभंजन से बँधे हुए हैं । इसलिए मैं कहता हूँ कि लोक सभी पदार्थों का समुच्चयन है जिसकी प्रकृति ही परिवर्तन और विभंजन है ।”
37- तथागत बुद्ध ने आनन्द को देशना देते हुए कहा कि, “समस्त संसार में कोई भी धर्म सून्य से उदित नहीं हो सकता है । बिना बीज के बोधिवृक्ष भी नहीं होता । बोधिवृक्ष का अस्तित्व बीज से ही सम्भव है । वृक्ष तो बीज का सातत्य बनाए रखने वाला है । बीज ने पृथ्वी में जब जड़ें पकड़ी तो वृक्ष बीज में समाहित था । जब एक धर्म पहले से विद्यमान हो तो वह जन्म कैसे ले सकता है ? प्रकृतित: बोधिवृक्ष अज है । जब बीज ने पृथ्वी में जड़ें पकड़ीं तो क्या बीज की मृत्यु हो गई ? नहीं, बीज कभी नहीं मरता । मृत्यु का अर्थ है : अस्तित्व से अनस्तित्व में चले जाना । क्या सृष्टि में कोई धर्म है जो अस्तित्व से अनस्तित्व में विलीन हो जाए । एक पत्ता, एक धूलि कण इनमें से कोई भी अस्तित्व से अनस्तित्व में विलीन नहीं होता । यह सभी धर्म बस भिन्न धर्मों में रूपांतरित हो जाते हैं ।”
38- तथागत बुद्ध कहते हैं कि, “सभी धर्म अज और अमर हैं । जन्म और मृत्यु तो मानसिक अवधारणा है । सभी धर्म न पूर्ण हैं और न सून्य हैं, न ये सृजित होते हैं और न विनष्ट, न तो मलिन होते हैं, न निर्मल, न बढ़ते हैं, न घटते हैं, न आते हैं और न जाते हैं और न एक हैं न अनेक । यह सभी बातें मानसिक बोध हैं ।” सद्धर्म मार्ग पर प्रगति करने के लिए दो शर्तें आवश्यक हैं : एक, विनम्रता और दूसरी, मुक्त चित्तता ।
39- तथागत बुद्ध के वचन हैं, “भिक्खुओं, मेरी देशना की तीन मुद्राएँ हैं : सून्यता, अनिमित्तता और अप्पनिहिता । ये वे तीन द्वार हैं जिनसे आत्म मुक्ति प्राप्त की जा सकती है ।” सून्यता का अर्थ है : किसी की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है । अनियमित्तता का अर्थ है : अवधारणाओं और भेद बुद्धि से ऊपर उठ जाना । अप्पनिहिता का अर्थ है : किसी की भी प्राप्ति के लिए उसके पीछे मत भागो । तथता का सत्यतर अर्थ है, “वह जो कहीं से आता नहीं है और कहीं जाता नहीं ।” इस तथता से उदित किसी व्यक्ति को तथागत कह सकते हैं । तथता अर्थात् अवस्था निरपेक्ष ।
40- तथागत बुद्ध ने सिगार को देशना देते हुए कहा कि, “नमन् करने से वर्तमान एवं भविष्य में प्रसन्नता प्राप्त होती है : पूर्व की ओर नमन् करते हुए अपने माता-पिता को ध्यान में लाओ । पश्चिम की ओर नमन् करते हुए अपनी पत्नी और बच्चों को ध्यान में लाओ । उत्तर की ओर नमन् करते हुए अपने मित्रों के प्रेम का स्मरण करो । दक्षिण की ओर नमन् करते हुए अपने गुरुओं के आभार का स्मरण करो । पृथ्वी की ओर नमन् करते हुए अपने सहकर्मियों को ध्यान में लाओ । आकाश की ओर नमन् करते हुए अपने ज्ञानियों और मुनियों पर ध्यान लगाओ ।”
41- तथागत बुद्ध ने कहा है कि, “अच्छा मित्र वही है जिसकी मित्रता में स्थिरता हो । आपकी अमीरी- ग़रीबी, हर्ष- विषाद, सफलता- विफलता, सभी स्थितियों में एक जैसा व्यवहार करे । उसकी भावनाएँ आपके प्रति डगमगाती न रहें । वह आपकी बात सुने, कष्ट के दिनों में साथ दे । अपने हर्ष- विषाद में आपको वस्तु- स्थिति बताए और आपके सुख-दुःख को अपना सुख- दुःख समझे ।” आनंद को सम्बोधित करते हुए तथागत बुद्ध ने कहा है कि, आनंद, सम्बोधि प्राप्ति की सक्षमता ही बुद्ध है । सद्धर्म शिक्षाएँ ही धर्म हैं और लोक समुदाय का समर्थन ही संघ है ।”
42- तथागत बुद्ध कहते हैं कि, “उपासक भी गृहस्थ जीवन जीते हुए सद्धर्म मार्ग का अनुसरण करते हुए सच्चा सुख पा सकता है । सबसे पहले, धन कमाने की इच्छा के वशीभूत होकर इतने काम में मत फँसो कि अपनी और अपने परिवार की वर्तमान की ख़ुशियों से विमुख हो जाओ । प्रसन्नता सबसे महत्वपूर्ण है । समझदारी की एक दृष्टि डाल देना, किसी मुस्कराहट को स्वीकार करना, प्रेम पूर्वक बातें कर लेना, किसी के साथ सप्रेम भोजन कर लेना और सचेतनता की अवस्था में रहना, यह सब ऐसी बातें हैं जिनसे वर्तमान के क्षणों को सुखद बनाया जा सकता है ।”
43- तथागत बुद्ध का महापरिनिब्बान कसया (कुशीनगर) में हुआ था । भिक्खु राहुल का निर्वाण 51 वर्ष की आयु में ही हो गया था । महाप्रजापति गौतमी तथा यशोधरा की मृत्यु भी बुद्ध के रहते ही हो गई थी । मगध नरेश अजातशत्रु, राजा बिम्बिसार के पुत्र तथा कोशल नरेश प्रसेनजित के दामाद थे । राजा प्रसेनजित की बहन कौशना देवी मगध नरेश बिम्बिसार की पत्नी थी । कूटागार शाला बुद्ध विहार का निर्माण वैशाली के लिच्छिवियों ने करवाया था । आम्रपाली पाटलिपुत्र के उत्तर में वैशाली में रहती थी । महाप्रजापति पहली महिला थीं जिनको भिक्खु संघ में प्रवेश मिला था ।
44- तथागत बुद्ध के पूर्व भी अनेक बुद्ध हुए हैं । जातक अट्ठकथा में उनके नाम, गोत्र, वर्ण, स्थान, माता-पिता के नाम, अग्रश्रावकों के नाम का पूरा- पूरा वर्णन मिलता है । 28 बुद्धों के नाम यथाक्रम इस प्रकार हैं : (1) तनहंकर, (2) मेघंकर, (3) शरणंकर, (4) दीपंकर, (5) कोंडन्य, (6) मंगल, (7) सुमन, (8) रेवत, (9) शोभित, (10) अनोमदस्सी, (11) पदुम, (12) नारद, (13) पदुमुत्तर, (14) सुमेध, (15) सुजात, (16) पियदस्सी, (17) अत्थदस्सी, (18) धम्मदस्सी, (19) सिद्धार्थ, (20) तिस्स, (21) फुस्स, (22) विपस्सी, (23) सिखी, (24) वैस्वभू, (25) ककुसन्ध, (26) कोनागमन, (27) कस्सप, (28) गौतम । गौतमबुद्ध के बाद जो बुद्ध होंगे उनका नाम मैत्रेय बुद्ध है ।
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सन्दर्भ स्रोत : उपरोक्त सभी तथ्य वियतनामी बौद्ध भिक्षु तिक न्यात हन्ह की प्रसिद्ध पुस्तक “जहं जहं चरन परे गौतम के” से साभार लिए गए हैं । यह पुस्तक हिन्द पाकेट बुक्स, नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित है ।