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- डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान, बुन्देलखण्ड कॉलिज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, Website : themahamaya.com
- नोट : निम्नलिखित आलेख में शामिल सभी तथ्य और विषय सामग्री, मिनसोटा विश्वविद्यालय, संयुक्त राज्य अमेरिका में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर मलफर्ड क्यू. सिबली की पुस्तक “राजनीतिक विचार और विचार धाराएँ” जिसका हिंदी अनुवाद, भारत में राजस्थान विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर प्रभुदत्त शर्मा के द्वारा किया गया है, से साभार ग्रहण की गई है । यह पुस्तक राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, राजस्थान से प्रकाशित है । पुस्तक का पहला संस्करण 1999 में प्रकाशित किया गया था । इस पुस्तक का ISBN : 81-7137-295-3 है । विस्तृत अध्ययन के लिए उक्त पुस्तक का अवलोकन किया जा सकता है ।
- 1- प्रोफेसर सिबली ने लिखा है कि हीब्रू पैगंबर जब राजनीतिक इतिहास को पहचानने और उसे एक सुव्यवस्थित रूप देने की कोशिश कर रहे थे तभी यूनान का बौद्धिक परिवेश भी व्यवस्थित विचारधाराओं को जन्म दे रहा था । इसी बौद्धिक इतिहास में आगे चलकर प्लेटो और अरस्तू जैसे महान विचारक जन्म लेते हैं जिनका सम्पूर्ण राजनीतिक चिंतन जगत आज भी ऋणी है । उन्होंने आगे लिखा है कि भौगोलिक दृष्टि से यूनान एक पर्वतीय प्रदेश है और इसी कारण से प्राचीन काल में यहाँ आवागमन कठिन रहा होगा । बावजूद इसके समान भाषा और समान धार्मिक परम्पराओं के कारण यह क्षेत्र संयुक्त स्थिति में रहा होगा । यूनान में धार्मिक विश्वासों के आधार पर अनेक प्रकार के देवी देवता थे- जेयस को यूनानी आदि देव मानते हैं जबकि अपोलो एक ऐसा देवता है जो हर यूनानी के दिल में निवास करता है ।
- 2- प्रोफेसर सिबली ने लिखा है कि चरागाहों और खेतिहरों की वह ज़िंदगी जिसे समाजशास्त्री फोकवेज और मोर्स कहते हैं, प्राचीन हैलन्स की शताब्दियों तक जीवन शैली रही होगी । उस समय कुछ सामाजिक निर्णयों को लेने के लिए वहाँ पर परम्परागत अग्रज परिषद (गेरुसिया) का ज़िक्र भी आया है । इसकी चर्चा होमर ने भी किया है । सिबली ने लिखा है कि यदि होमर सचमुच एक ऐतिहासिक चरित्र था तो वह सम्भवतः 950 बी. सी. के लगभग जीवित रहा होगा । उसके लेखन में आरम्भिक यूनानी जीवन की झलक परवर्ती यूनान का एक स्वरूप दृष्टिगोचर होता है । यूनान की एक मान्यता और यह है कि ओलम्पिक त्योहारों के आयोजन की शुरुआत भी यहीं से हुई है । यह खेल 776 बी. सी. में प्रारम्भ हुए । उस समय अमोज पैगंबर था ।
- 3- प्रोफेसर सिबली ने लिखा है कि बीसवीं शताब्दी में जीने वाले लोगों के लिए यह बेहद मुश्किल है कि हम अपने आप को उस प्राचीन दौर में ले चलें, जहाँ का जीवन अत्यंत लघु स्तरीय रहा होगा । फिर भी यह कहा जा सकता है कि ट्राइबल जीवन बहुत छोटे-छोटे गाँवों में व्यवस्थित था जो आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर थे और रीति रिवाजों के द्वारा अनुशासित होते थे । निश्चय ही नौकायन की कला उन्हें आती थी । जैसे- जैसे नगर राज्यों में जनसंख्या का दबाव बढ़ा होगा वैसे- वैसे लोगों ने नए आवासीय क्षेत्रों की खोज की होगी । इस तरह उपनिवेशीकरण का एक ऐसा युग शुरू होता है जो शताब्दियों तक हैलेनिक अंश के लोगों को दक्षिण इटली, उत्तरी अफ़्रीका, एशिया माइनर तथा आइल्स ऑफ द सी के क्षेत्रों में नए शहर बसाने के लिए जनसंख्या प्रदान करता रहा ।
- 4- प्राचीन हैलेनिक में जैसे- जैसे उपनिवेशीकरण और व्यापार का विकास हुआ वैसे- वैसे यूनानी यूनानी सभ्यता और संस्कृति में सामूहिकता के स्थान पर वैयक्तिकता का उदय हुआ । प्राचीन जनजातियों में एकता के स्थान पर विघटन की प्रवृत्ति बढ़ने लगी । नगर- राज्य जीवन के केन्द्र के रूप में एक गढ़ का विकास प्रारम्भ हुआ । इसी के साथ धर्म के विशेष क्षेत्र में विदेशी रीति रिवाजों और विश्वासों का प्रवेश हुआ । कालांतर में विज्ञान और दर्शन का अभ्युदय भी शुरू हुआ । आदिम और ट्राइबल हैलेनिक समाज में परम्परा यह थी कि भूमि पर सामान्य स्वामित्व था, सम्पत्ति संग्रह नहीं के बराबर था और अर्थव्यवस्था मुद्रा रहित थी । परन्तु अब ट्राइबल व्यवस्था टूटने के कारण भूमि का स्वामित्व निजी संपत्ति बनता जा रहा था ।
- 5- यूनानी लोग आदिकाल से ईश्वर के आरेकल्स को सम्मान देते आ रहे थे । इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध डेल्फी का आरेकिल था जहाँ पर अपोलो की ईश्वर की भाँति पूजा होती थी । यूनानी प्रायद्वीप के सभी प्रकार के नगर राज्यों से जनसामान्य और नेता डेल्फी की तीर्थयात्रा करते थे और आरेकल से सलाह माँगते थे । छठीं शताब्दी में इस डेल्फी के आरेकिल के चारों ओर एक नये प्रकार का धार्मिक समन्वयवाद आरम्भ हुआ । अपोलो अपने धर्मक्षेत्र में यथावत बना रहा, किन्तु उसके मन्तव्यों की साझेदारी में देवता डायोनियस और जुड़ गया।
- 6- छठीं शताब्दी में यूनान में विज्ञान और दर्शन का अभ्युदय हुआ । इसके विकास में व्यक्ति की वैयक्तिक चेतना का विकास, प्राचीन ट्राइब्स के विघटन की प्रवृत्ति, ग्रामीण जीवन के विपरीत शहरी जीवन की विकास तथा विदेशी संस्कृतियों विशेषकर ओर्फिज्म का प्रभाव प्रमुख कारण थे । ट्राइबल जीवन शैली के टूटने के कारण व्यक्ति यह पूछने लगे कि क्या सब कुछ परिवर्तनशील है और स्थायी कुछ भी नहीं है ? छठीं शताब्दी में थेल्स ने यह सुझाव दिया कि वह मूल और स्थायी तत्व जिससे सभी पदार्थ जन्में हैं ‘पानी’ है । अनेक्सीमन्डेर का मानना था कि गति स्थायी है जबकि अनेक्सीमन्स ने यह कहा कि जो तत्व परिवर्तन से परे है वह हवा है ।
- 7- कुछ समय बाद प्रकृति के विषय में पूछा जाने वाला यह बन गया कि “मान लो कोई भी एक तत्व मौलिक है तो फिर यह एक से अनेक कैसे बन गया ?” दूसरे शब्दों में “जो तत्व प्राणीशास्त्र या भौतिक शास्त्र की दुनिया में प्रवाहमान है वे किसी भी एक मूल तत्व से (चाहे वह हवा, पानी, आग या गति कुछ भी हो) कैसे उदित हुए ।” इसी समय हरिक्लिट्स यह बतला रहा था कि सभी वस्तुएं पैदा होती हैं और विरोध के माध्यम से विलीन भी होती रहती हैं । विरोध की स्थिति में विलोम युग्म समरसता पैदा करता है । जो यथार्थ है, वह है ही नहीं, सिर्फ़ होता है । फिर भी हैरिक्लट्स का यह विचार था कि “एक (वह्रि) अग्नि केन्द्रीय है जो कभी नहीं बुझती ।”
- 8- दूसरे यूनानी पर्मेन्डीज ने कहा कि “इन्द्रियों का अनुभव एक ग़लतफ़हमी है और समस्या यह है कि इन अनुभूतियों से आगे जाकर उस एक अनुभव तक कैसे पहुँचा जाए जो इन्द्रियगोचर नहीं है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा रहा है कि “प्रवाहमान विश्व वास्तविक नहीं है, किन्तु उसके पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि यह ग़लतफ़हमी ही क्यों पैदा हुई कि वस्तुएँ प्रवाहमान हैं ।” लगभग 450 बी. सी. के आसपास एम्पीडोकल्स ने कहा कि “आकस्मिक युग्मों के माध्यम से होने वाला विकास प्रकृति को समझने की कुंजी है ।” लगभग इसी समय प्रकृति के क्षेत्र के विषय में सवाल पूछता हुआ मानव सम्बन्धों के क्षेत्र तक पहुँच गया और न्याय और अन्याय के प्रश्नों से जूझने लगा ।
- 9- पाइथागोरस ने कहा कि यदि न्याय या औचित्य (राइचनेस) ट्राइबल शैली नहीं है (चूँकि वह देश और काल सापेक्ष है) तो फिर स्थायी रूप से अच्छा क्या है या बचता क्या है ? यदि स्थायी अच्छाई जैसी कोई चीज़ है तो तेज़ी से बदलते हुए समाज में विरोध और प्रवाह के बीच कोई इसे कैसे पहचाने ? तो क्या यह खोज असम्भव है ? पाइथागोरस ने यह माना कि यह असम्भव तो नहीं हो सकता । उसने निष्कर्ष निकाला कि “सभी वस्तुओं की प्रकृति संख्या है और उपयुक्तता या अच्छाई एक वर्ग संख्या है ।”
- 10- यूनानी जगत् में सभी प्रकार के चिंतन में स्पार्टा एक प्रतिमान है । किंवदंतियाँ हैं कि स्पार्टा वह पहला नगर राज्य था जिसे जानबूझकर बनाया गया था । यहाँ की संस्थाओं का उद्घाटन नवीं शताब्दी में लाइकरगस नामक एक अर्ध मिथक दैव द्वारा किया गया था । स्पार्टा को जिस रूप में क्लासिकल राजनीतिक विचारकों ने देखा था वहाँ वह पॉंच डोरियन गाँवों का एक संघ था । यहाँ पर पूर्ण नागरिकता प्राप्त निवासियों की संख्या बहुत कम थी और अधिकतर लोग शाही ज़मीन पर खेती करते थे । क़स्बे के चारों ओर के गाँव में परियोसी या आस-पास के निवासी रहते थे ।उन्हें स्पार्टा के नगर राज्य में कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे । इस दौर में स्पार्टा के राजा अपनी सेना के सेनापति थे और अपोलो देव पुरोहित के रूप में कार्य करते थे ।
- 11- एक मान्यता के अनुसार लाइकरगस ने स्पार्टा में गेरुसिया या अग्रज परिषद (सीनेट) की स्थापना की थी । यह राजा और जनता के बीच बफर का काम करती थी । इसका प्रमुख कार्य मुख्य मुद्दों को अपेला के सम्मुख प्रस्तुत करना था जो आपराधिक मामलों का न्यायालय था । स्पार्टा में जन सभा को अपेला कहा जाता था । तीस साल की उम्र पा लेने वाला प्रत्येक स्पार्टन पूर्ण नागरिक इसका सदस्य था । इसकी बैठक प्रतिमाह होती थी । अपेला गेरुसिया मजिस्ट्रेट तथा ईफर्स का चयन भी करती थी । यहाँ पर एक इफोरेट नामक संस्था भी होती थी । इसमें पॉंच सदस्य होते थे जो लाटरी के द्वारा चुने जाते थे । ईफर्स, एक सर्वोच्च दीवानी न्यायालय की भांति भी काम करते थे । पेरिओएसी के मामलों में यह आपराधिक न्यायाधीश भी थे । ईफर्स ही हैलोटो या गुलामों को अनुशासित करते थे ।
- 12- स्पार्टा में क्राइपेटिया नामक एक गुप्त पुलिस संगठन था । इसका महत्वपूर्ण कार्य हैलोट या गुलामों को अनुशासित करना था । स्पार्टा की स्कूल व्यवस्था सार्वजनिक थी जिसका उद्देश्य युवाओं को युद्ध के लिए तैयार करना था । सात साल की उम्र में बालक को को एक पोलिस अधिकारी को सौंप दिया जाता था और बीस साल की उम्र तक वह एक विशाल बैरक जैसे स्कूल में प्रशिक्षण पाता था । यहाँ कठोर अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाता था । कैप्टिन और प्रीफेक्ट बीस और तीस साल के युवक होते थे । यहाँ पर न केवल बालकों को प्रशिक्षण दिया जाता था बल्कि उन्हें समलैंगिक सम्पर्क स्थापित करने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता था । बालिकाओं को भी बालकों की तरह ही कठोर अनुशासन से सैनिक जीवन के लिए तैयार किया जाता था ।
- 13- स्पार्टा में जो लोग अविवाहित रह जाते थे उन्हें अयोग्य माना जाता था और उन्हें त्योहार आदि पर आने में प्रतिबंध था । बीस वर्ष की आयु पर एक स्पार्टा वासी को विवाह करने की अनुमति मिलती थी । उसकी पत्नी उसकी अपनी धरोहर नहीं थी । स्पार्टा की प्रथा के अनुसार कोई भी पति अपनी पत्नी को ऐसे पुरुष को किराए पर दे देता था जिसे वह प्रजनन के लिए सक्षम मानता था । विशेषता ऐसे प्रौढ़ व्यक्ति जिनकी पत्नियाँ युवा होती थीं उन्हें उपयुक्त युवकों के साथ रहने को प्रोत्साहित करते थे जिससे वे भावी सैनिकों को अपने गर्भ में धारण कर सकें । व्यापार को निरुत्साहित करने के लिए स्पार्टा ने क्लासिकी युग में लौह मुद्रा की योजना बनाई थी ।
- 14- नगर राज्य के विकास को समझने का दूसरा उपलब्ध ऐतिहासिक उदाहरण एथेंस है । सातवीं शताब्दी में एथेन्स की पालिस की परम्परागत स्तरीय व्यवस्था चार वर्ग मौजूद थे । पहला यूपाट्रिडे वर्ग जिसमें बड़े बड़े भूमिपति थे जिन्हें नोबिल्टी कहा जाता था । दूसरा वर्ग जोर्जी या कृषक वर्ग था जो अपनी जमीनें स्वयं जोतता था । इसी प्रकार डेमीउर्गी नामक तीसरा वर्ग व्यापार और वाणिज्य से जीविका कमाता था । एक नागरिक के रूप में उनके अधिकार बहुत सीमित थे । अन्तिम वर्ग फ्रीमैन कहलाता था और यह लोग नगर राज्य के नागरिक भी नहीं थे । प्रोफेसर सिबली ने लिखा है कि इस वर्ग में वे सारे कृषि मज़दूर और कारीगर कामगार आदि आते थे जो अपनी निम्न स्थिति से असंतुष्ट थे ।
- 15- सातवीं शताब्दी के एथेंस में एक धनिकतंत्र में पैदा हो गया था । यह धनिकतंत्र भी चार स्तरीय था : पहला, पेंटाकोसियोमेदेमनी, दूसरा नाइट्स, तीसरा जोगिताए और चौथा थेट्स । पेंटाकोसियोमेदेमनी में वह लोग आते थे जिनकी आमदनी कार्न और तेल अथवा मदिरा व्यवसाय से कम से कम 500 मेदेमनी थी । नाइट्स वे लोग थे जो कम से कम 300 मेदेमनी आय वर्ग में से थे और इस आमदनी से एक घोड़ा रख सकते थे जिससे कि वे युद्ध में भाग ले सकें । जोगिताए अथवा टी मास्टर्स वे लोग थे जिन्हें समृद्ध किसान कहा जाता था और आज की एटिक लाइफ में भी यह लोग अर्थव्यवस्था के आधार हैं । थेट्स वे नागरिक थे जिन्हें राजनीतिक सहभागिता का अधिकार प्राप्त नहीं था । यह लोग साधारण किसान थे ।
- 16- प्रोफेसर सिबली ने लिखा है सन् 622 बी. सी. में एथेंस के एक विधिवेत्ता ड्राइकोने ने यहाँ के संवैधानिक ढाँचे में बदलाव की पहल की । जिस तरह से स्पार्टा में अपेला थी उसी प्रकार एथेंस में एक इक्लीजिया या असेम्बली का प्रस्ताव किया गया । एक परिषद या एरोपागस कौंसिल तथा कुछ आर्कोन्स वे सारे काम करेंगे जो पहले राजा किया करता था । इसके अलावा एक पालिमार्च होगा जिसके कार्य न्यायिक और सैनिक रहेंगे । इसी ड्राकोनियन क़ानूनों के अंतर्गत एथेंस में एक गेसिया ऑफ स्पार्टा जैसी एक परिषद गठित की गई थी जिसमें 401 सदस्य शामिल थे और उनका चुनाव पूर्णाधिकार प्राप्त नागरिकों में से लाट द्वारा किया जाता था । यह काउंसिल ऑफ एरोपागस आपराधिक न्याय के विशेषाधिकारों की स्वामिनी थी ।
- 17- सातवीं शताब्दी के अन्त तक पहुँचते- पहुँचते एथेंस में युद्धों के अनन्त संघर्ष के कारण वहाँ पर मुद्रा स्फीति और मुनाफ़ाख़ोरी का दौर शुरू हो गया । एथेंस का क़ानून क़र्ज़ के बदले में इन्सानों को अपना शरीर बन्धक बनवाने की इजाज़त देता था । जैसे- जैसे मुद्रा स्फीति, युद्ध और दरिद्रता बढ़ने लगी वैसे- वैसे हज़ारों सीमांत किसान और निर्धन मज़दूर पास उधार लेने के लिए अपने आप को नीलाम करते हुए बन्धुवा मज़दूर बनने के लिए मजबूर हो गए । जब वे अपना क़र्ज़ चुकाने में असफल रहे तो वे उस स्थिति में चले गए जिसे अरिस्टोटल दासता कहता है और आज के व्याख्याकार ग़ुलामी बतलाते हैं । कालान्तर में एथेंस में ग़रीबों और अमीरों के दो दलों ने एक मध्यस्थ नियुक्त किया जिसका काम अधिक सामाजिक विग्रहों को रोकना था । यह चुना हुआ मध्यस्थ सोलन था ।
- 18- सोलन 954 बी. सी. में आर्कोन चुना गया । एथेंस में सोलन के दौर को सोलन क्रांति के नाम से जाना जाता है । उसे ग्रीक लोक संस्कृति के आदर्शों का सच्चा प्रतिनिधि कहा जा सकता है । डेल्फिक आरेकिल की सलाह कि अति सर्वत्र वर्ज्ययेत वह अक्षरशः मानता था । उसने एथेंस में पापुलर कोर्ट्स की स्थापना की । उसने अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग कर उन सारे ऋणों को माफ़ कर दिया जिनके लिए लोगों ने अपने आप को बँधुआ बना रखा था । वे सभी लोग क़र्ज़ के बोझ से गुलाम बन गए थे, आज़ाद कर दिए गए और उन्हें कोई क्षतिपूर्ति नहीं देनी पड़ी । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि उसने यह क़ानून बनाया कि भविष्य में इंसान को बँधुआ बनाना और बंधक बनाए रखना क़ानून विरोधी माना जाएगा । सोलन के प्रभाव से ही वहाँ पर एक कौंसिल की स्थापना की गई जिसमें 400 सदस्य थे जिसमें प्रत्येक ट्राइब 100-100 प्रतिनिधि भेजती थी ।
- 19- सोलन के परिदृश्य से हटने के बाद यूनान में 570 बी. सी. में एक जनतांत्रिक गुट पिसिस्ट्रिटस के नेतृत्व में उभरा । इस गुट का नेता पालीमार्क चुना गया जिसने सलामीज के विरुध्द युद्ध जीतकर अपनी प्रतिष्ठा को वर्धित किया । 561 बी. सी. में पिसिस्ट्राटस ने ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से सत्ता हथिया ली और लगभग 19 वर्षों तक वह अत्याचारी शासक बना रहा । पिसिस्ट्राटस की मृत्यु के बाद एथेंस की सत्ता उसके पुत्र हिपियाज और हिपारकस के हाथों में चली गयी । कालांतर में हिपारकस की हत्या कर दी गई और सत्ता हिपियाज के पास पहुँच गयी । आगे चलकर एथेंस का सत्ता संघर्ष इसागोरस और क्लेइसथींस के गुटों के विरोध पर केन्द्रित हो गया । अपनी पराजय से भयभीत इसागोरस ने स्पार्टा के राजाओं को सहायता के लिए आमंत्रित किया ।
- 20- यूनान में कुछ समय के बाद क्लिस्थींस शासक बना और एथेंस के जनजीवन को बदलने का प्रयास किया । सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि जब 500 बी. सी. के आस-पास पर्सियन युद्ध आरम्भ हुआ तब तक प्राचीन यूनान का जनतंत्र विजयोन्मुख बन चुका था । नागरिकता का विस्तार हो चुका था । इक्लिजिया की शक्तियाँ काफ़ी बढ़ चुकी थीं । प्राचीन ट्राइबल जीवन शैली बहुत कुछ टूट चुकी थी । अब अधिक संख्या में नागरिक अर्कोन के पद के लिए पात्र बन चुके थे । पर्सियन युद्धों की समाप्ति से लेकर पेलोपोनिसियन युद्ध के आरम्भ तक (479-431) बी. सी. एक ऐसा समय है जिसे बाद के यूनानी अपना स्वर्ण काल बताते हैं । इस दौर में एथेंस सामुद्रिक शक्ति के रूप में विजयी हुआ ।
- 21- इसी समय एथेंस में पैरेक्लिस उभर कर सामने आता है । इसी ने आर्कोन्स को वेतन देना शुरू किया और लोकप्रिय जजों के मौलिक और अपीलीय अधिकारों को बढ़ावा दिया । एथेंस की भव्य इमारतें पार्थेनान और नोबल फ़ाइल्स बनवाये । एथेंस को एक समृद्ध शहर बनाने की कोशिश की । सन् 429 बी. सी. में पैरेकिल्ज की मृत्यु हो गयी और एथेंस की सत्ता मध्य वर्ग के हाथों से निकलकर ऐसे नेताओं के पास चली गई जिनमें यूक्रेटस रस्सी बेचा करता था, हाइपरबोलस लालटेन बनाता था और क्लियोन का जूतों का व्यापार था ।
- 22- सन् 429-403 के मध्य एथेंस में जो जनतांत्रिक नेतृत्व दिखलाई देता है वह अपने आप में उल्लेखनीय है । इस समय लगभग सभी उच्च प्रशासक वोट के द्वारा न चुने जाकर केवल लाटरी से चयनित किए जाते थे । इकलीजिया को यह नैतिक अधिकार प्राप्त था कि वह प्रक्रिया नियमों को जल्दी- जल्दी बदलकर यहाँ तक कि न्यायालयों के निर्णयों को भी उलट सकती थी । पुनः सन् 421 बी. सी. में प्लेग और युद्ध के कारण जनधन की भारी क्षति हुई । 414 -413 तक सिसलियन अभियान की सूचना से एथेंस के जनतंत्र के सामने संकट आया । इकलीजिया ने दस सदस्यों की समिति, जो युद्ध का संचालन कर रही थी, उसे विस्तार देकर तीस सदस्यीय बना दिया ।
- 23- इस तीस सदस्यीय समिति ने निर्णय लिया कि सार्वजनिक आमदनी को केवल युद्ध लड़ने के लिए ही खर्च किया जाएगा और तब तक लोक सेवक अवैतनिक सेवाएँ देंगे । इस प्रकार देश का प्रशासन 5000 सम्पत्तिशाली एथेंस वासियों को सौंप दिया जाएगा । कुछ समय बाद इन पाँच हज़ार धनाढ्य व्यक्तियों ने संविधान निर्माण का विशेषाधिकार 100 व्यक्तियों की एक समिति को सौंप दिया । इस तरह से एक कुलीनतंत्री योजना तैयार हुई । इसी समय दिन प्रतिदिन के कार्यों के सम्पादन के लिए 400 सदस्यों की एक नई समिति गठित की गई । इस समिति के पास मजिस्ट्रेटों का चुनाव और लोक लेखाओं का परीक्षण करने का दायित्व था ।
- 24- अरस्तू हमें बतलाता है कि इन 400 लोगों का शासन केवल चार महीने ही चल पाया ।यह सन् 411 बी. सी. की बात है । सिसली अभियान की विफलता एथेंस में हताशा पैदा किया । इकलीजिया ने हताश और दुखी होकर 100 व्यक्तियों की समिति को भंग कर दिया और सत्ता 5000 के हाथों में आ गयी । एक वर्ष बाद एथेंसवासियों की एगोसपोटामी के युद्ध में करारी हार हुई और स्पार्टावासी एथेंस में प्रविष्ट हुए । इससे भयभीत होकर इकलीजिया ने एक तीस व्यक्तियों की समिति गठित की जिन्हें बाद में तीस तानाशाह कहकर संबोधित किया गया । यह सन् 404 बी. सी. की घटना है ।
- 25- इन तीस व्यक्तियों का शासन प्रारम्भ में तो उदार था किन्तु जैसे- जैसे उनका शासन मज़बूत होता गया वैसे- वैसे उन्होंने अपनी आलोचना को प्रतिष्ठा का विषय बनाकर लगभग 1500 लोगों को छोटी सी कालावधि में मौत के घाट उतार दिया । फलस्वरूप तीन हज़ार प्रमुख नागरिकों ने साहस दिखलाकर इन अत्याचारियों को अपदस्थ कर दिया और सत्ता दस की परिषद को सौंप दिया । लेकिन यह लोग भी गद्दार सिद्ध हुए और स्पार्टा से मिलकर पथभ्रष्ट हो गए । अन्ततः इस समिति को समाप्त कर दिया गया । सन् 403 में कुछ महीनों के प्रयास से लोकतांत्रिक विधान वापस लौटने लगा । इकलीजिया को पूर्व की स्थिति में लौटाया गया ।
- 26- सन् 401-400 बी. सी. तक इकलीजिया ने एक नए और अत्याधुनिक लोकतांत्रिक संविधान की स्थापना की । यही वह संविधान था जो एथेंस में उस समय लागू था जब सुकरात की हत्या की गई थी । इसी दौरान प्लेटो अपने डायलॉग्स लिख रहा था और अरस्तू अपनी वैज्ञानिक, नैतिक और राजनीतिक गवेषणाओं में व्यस्त था । उपरोक्त सारे विवेचन का सार यह है कि यूनानी प्रायद्वीप में ट्राइबल जीवन शैली से शुरू हुआ राजनीतिक और सामाजिक जीवन तथा चिंतन का सिलसिला अनेक उतार-चढ़ाव को झेलता हुआ नगर राज्यों के विकास के इस स्तर तक पहुँचा है । ये सब वे परिस्थितियाँ थीं जिनमें रहते हुए ग्रीक विचारक चिंतन और मनन करते रहे ।
- 27- यूनानी लोग रीति- रिवाजों को नोमोस कहा करते थे और यही नोमोस मानव जीवन की समग्रता पर शासन करते थे । रीति रिवाजों के अनुकूल जीवन जीने को ग्रीक लोग डाइक कहते थे जिसे आज की भाषा में जस्टिस कहा जाता है । रीति रिवाज या परम्परा की अवहेलना करने को यूनानी लोग हुब्रिस कहते थे । लोगों की पारंपरिक जीवन शैली चाहे वह आदिम राजा की रही हो या सामान्य इंसान की इसी नोमोस और डाइक से अनुशासित होती थी । इस परंपरा का ज़िक्र होमर के लेखन इलयड और ओडेसी में मिलती है । प्लेटो से पूर्व के यूनानी राजनीतिक चिंतन में पायथागोरस, हैरोडोटस, दुखान्तिका रचनाएँ, अरिस्टोफेंस, सोफिस्ट और सुकरात का उल्लेख किया जाता है ।
- 28- पायथागोरस : प्रोफेसर मल्फ़र्ड सिबली ने लिखा है कि पाइथागोरस का जन्म यूनान में सोलन की आर्कोनशिप के युग में सैमोओ द्वीप पर कहीं सन् 582 बी. सी. के आसपास हुआ होगा । सन् 535 के लगभग जब अत्याचारी शासक पालीक्रेटस ने सैमोओ की सत्ता सम्भाली तो पाइथागोरस उसकी हरकतों से क्षुब्ध होकर सन् 532 में सैमोओ को छोड़कर क्रोटोन नामक यूनानी इटालवी नगर राज्य में रहने चला गया । उसका बचा हुआ जीवन इसी क्रोटोन पालिस में गुजरा । सन् 507 बी. सी. में, जबकि एथेंस कैलस्थीनियन क्रांति के जनतांत्रिक दौर से गुजर रहा था, तभी उसकी मृत्यु हुई जो कि एक अनुमानित तिथि है । हीगल मानता है कि पायथागोरस की राजनीतिक गतिविधियों और उसकी राजनीतिक शिक्षाओं में कम से कम सम्बन्ध है ।
- 29- प्रोफेसर सिबली ने लिखा है कि आर्फिज्म की इस प्रवृत्ति को कि शरीर आत्मा से अलग एक भिन्न प्रकार की इकाई है, पायथागोरस ने अपने विज्ञान और राजनीतिक शिक्षाओं के लिए चुना था । उसके कास्मोलोजिकल विचारों तथा सामाजिक सिद्धांत ने इसी कठोर द्विभाजन पर अपने को केंद्रित किया है । कास्मोलॉजी की भाषा में पायथागोरस ने मूलतः यह सोचा कि होल (whole) एक संख्या है । अतः उसने अपने जीवन का एक बहुत बड़ा भाग संख्या की प्रकृति को समझने में खर्च किया और अपनी सभी प्रकार की अभिव्यक्तियों को संख्यात्मक तथा ज्योमितीय फ़ार्मूलों में रखकर देखा । संख्या सभी वस्तुओं का आरम्भ अथवा आर्के (Arche) है अतः यह वही है जो यथार्थ या रियलिटी है । सारी गति के पीछे यही एक व्यवस्था सिद्धांत है जिसे अनेक के पीछे एक के रूप में देखा जा सकता है ।
- 30- पायथागोरस के अनुसार रायचनेस या नैतिकता एक गणितीय अनुपात है जो एक वर्ग संख्या (Square Number) मानी जा सकती है । यह सचमुच एक समकोणीय त्रिभुज की तरह है जिसके हाइपोटेनूज का वर्ग सदैव ही अन्य दो भुजाओं के वर्गों के जोड़ के बराबर है ।(गणित के विद्यार्थी इसे पायथागोरस की थ्योरम के नाम से जानते हैं) यह सदैव ऐसा ही रहेगा चाहे अन्य दो भुजाएं कितनी ही बड़ी क्यों न हो जाएँ । इस प्रकार न्याय अथवा रायचनेस को एक वर्ग के रूप में पहचानने के बाद पायथागोरियन्स यह बतलाने का प्रयास करते हैं कि राजनीति के लिए इस समीकरण के क्या निहितार्थ हैं । एक तो यह है कि नगर राज्यों की दुनिया में समानता सम्पूर्णता न होकर आनुपातिक सिद्धांत के अनुसार ही होगी ।
- 31- हैरोडाट्स : प्रोफेसर सिबली ने लिखा है कि प्राचीन यूनानी राजदर्शन में हैरोडाट्स का भी महत्वपूर्ण योगदान है । पॉंचवीं शताब्दी पूर्वार्द्ध (484 बी. सी.) में पैदा होने वाले हैरोडाट्स ने महान् इतिहास जैसा महाकाव्य लिखा जो पर्सियन साम्राज्य के उस समय के उत्थान और पतन की कहानी का इतिहास है । इस महाकाव्य ने यूनान के एक ऐसे संदर्भ की सृष्टि की जिसमें पॉंचवीं और चौथी शताब्दियों के चिंतकों ने अपने- अपने प्रश्नों को पूछने की कोशिश की है । इस ग्रन्थ के सम्पादन में हैरोडाट्स ने मेडस, लीडियन्स, लीबियन्स, पर्सियन्स और यहाँ तक कि इन्डियन्स के विषय में भी उसने ऐतिहासिक तथ्य एकत्रित किया था । अपनी पुस्तक में वह केवल पर्सियनों द्वारा यूनान विजय की कथा का एक इतिवृत्त ही नहीं बतलाता बल्कि तुलनात्मक रीति- रिवाजों का एक अविश्वसनीय अध्ययन भी प्रस्तुत करता है ।
- 32- हैरोडाट्स इस बात को स्पष्ट करता है कि संस्कृतियाँ और राज व्यवस्थाएँ किसी भी स्थिति में एक जैसी नहीं होती । वह कवि मिंडार की इस उक्ति को प्रमाणित करने की कोशिश करता है कि रीति- रिवाज ही राजा है । यूनानी परिप्रेक्ष्य में वह यह कहने की कोशिश करता है कि नोमोस या कस्टम से आगे कुछ भी नहीं है । जे. बी. बेरी ने 1958 में प्रकाशित अपनी पुस्तक एनसियेन्ट ग्रीक हिस्टोरियन्स में लिखा है कि हैरोडाट्स का तुलनात्मक नृवंशशास्त्र का अध्ययन उसे पांचवीं और चौथी शताब्दियों के नोमोस फिजिसियस विवाद के सन्दर्भ में सापेक्षवादी बनाता है ।
- 33- प्राचीन यूनानी चिंतन के विकास में दुखान्तिका साहित्यकारों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । इनमें एस्चिलियस (525-456), सोफोक्लस (496-406), युरुपीडीज (480-406) और कितने ही अन्य साहित्यधर्मी जिनकी पाण्डुलिपियाँ आज अभिनय के लिए उपलब्ध नहीं हैं, राजनीतिक विषयों की निहित व्याख्याएँ करते हैं । इन रचनाकारों ने परम्परागत कथाओं का चित्रण करते हुए यूनानी समाज की छठीं और पॉंचवीं शताब्दी की उन समस्याओं पर कलम चलाई है जो यूनानी समाज को उद्वेलित कर रही थीं । यह रचनाएँ बार-बार इस विषय पर बल देती हैं कि राजनीति में बल की भूमिका एक ऐसा धागा है जो सभी दुखांतिकाओं को एक साथ सीता हुआ नज़र आता है ।
- 34- प्रोफेसर सिबली ने लिखा है कि राजनीतिक जीवन के दुखद पहलू की जड़ में यूनानियों की हुबरिस की अवधारणा है । जिस व्यक्ति या नगर- राज्य के पास धन सम्पदा और बल है वही हुबरिस का प्रतीक बन जाता है जिसे लोग कभी-कभी घमण्ड भी समझते हैं । हुबरिस की अवधारणा में मद का भाव है । प्रतिशोध अनिवार्य रूप से हुबरिस के पीछे- पीछे चलता है । एगामेमनोन नामक अपने एक ग्रन्थ में एस्चेलस ने इसका वर्णन किया है । यूरिपिडिज का नाटक इलेक्ट्रा, सोफोकल्स का नाटक एन्टीजोन भी दुखान्तिका लीजेण्ड को प्रस्तुत करता है । इस प्रकार पाँचवीं शताब्दी एथेंस की नैतिक और राजनैतिक समस्या की बहस में ये ट्रेजेडियन्स एक नया आयाम जोड़ते हैं । यह दृष्टि मानती है कि समुदाय का मनुष्य न्याय का प्रसुप्त और सार्वदेशिक अर्थ खोजने में लगा है, किन्तु उसके अपने ही निर्णय उसे चारों ओर से घेरे हुए हैं ।
- 35- अरिस्टोफेन्स : इसी दौर में यूनान में व्यंग्यकार अरिस्टोफेन्स (488-380 बी. सी.) यूनानी मस्तिष्क को एक नया दृष्टिकोण समझा रहा था । उसका प्रसिद्ध नाटक द नाइट्स है । सन् 424 बी. सी. में प्रणीत यह नाटक लोकतंत्र का मजाक उड़ाता है । नाटक के माध्यम से अपनी बात कहने में अरिस्टोफेन्स ने काफ़ी हद तक एथेंस और यूनानी जनमत को अभिव्यक्ति देने की कोशिश की है । अपने नाटक के माध्यम से वह यह भी समझने का प्रयास करता है कि पोलिस की संरचना और आत्मा के बीच क्या सम्बन्ध है और पोलिस की अव्यवस्था तथा बाहरी अव्यवस्था किस प्रकार से अन्योन्याश्रित है । अरिस्टोफेन्स के अनुसार युद्ध अप्राकृतिक है । एथीनियन जीवन का एक बहुत बड़ा भाग इसलिए नष्ट हो गया था कि मनुष्य न्याय के मार्ग से भटक गया था । अरिस्टोफेन्स मानता है कि यदि हम पुरानी व्यवस्था को पुनर्जीवित कर सकें तो हम पालिस की दोनों बीमारियों को समाप्त कर सकते हैं- पहली आन्तरिक अव्यवस्था तथा दूसरी वाह्य युद्धों के कारण उत्पन्न होने वाला विघटन ।
- 36- सोफिस्ट्स चिंतन : प्रोफेसर सिबली ने लिखा है कि सोफिस्ट वे दार्शनिक थे जो एथेंस के क्षितिज पर पैरिकिल्स के युग में आविर्भूत हुए थे । यह लोग अधिकतर विदेशी थे जो एथेंस की सांस्कृतिक चकाचौंध से आकृष्ट हुए और खुली बहस के वातावरण में प्रसन्न रहते थे । विदेशी होने के कारण एथेंस वासी इन्हें संदेह की दृष्टि से देखते थे । प्लेटो और सुकरात की आँखों से देखने पर ऐसा लगता है कि सोफिस्ट लोग अपनी सेवाओं के लिए पैसा लिया करते थे । पाँचवीं शताब्दी के कुछ विचारक तो उन्हें बौद्धिक वेश्याएं तक कहते थे । कार्ल पॉपर और विन्सपीयर उन्हें गम्भीर विचारक मानते हैं जिन्होंने जनतंत्र और सामाजिक परिवर्तन की मज़बूत बुनियाद रखी ।
- 37- सोफिस्टों में प्रोटोगोरस प्रायः सबसे पुराना सोफिस्ट माना जाता है ।उसका जन्म सन् 481 बी. सी. में एबडेरा नगर में एक निर्धन परिवार में हुआ था । सन् 410 बी. सी. के आस-पास उसकी मृत्यु हुई । प्रोटोगोरस आर्फियस सम्प्रदाय के सभी भक्तों का विरोधी था । उसे भौतिकवादी कहा जाता है क्योंकि उसकी मान्यता थी कि सभी वस्तुओं की व्याख्या पदार्थ में खोजी जा सकती है । मनुष्य पदार्थ को विभिन्न दृष्टियों की अनुरूपता में देखते हैं और यह दृष्टियाँ जन्म, सामाजिक स्थिति तथा प्रशिक्षण के कारण प्रकृति की विभिन्नताएँ उपस्थित करती हैं । इस प्रकार प्रोटाोगोरस एक सापेक्षवादी है जिसका यह विश्वास है कि पदार्थ के विषय में हमारा दृष्टिकोण काल और परिस्थिति के सापेक्ष होता है ।
- 38- प्रोटोगोरस के अनुसार यह सर्वथा असम्भव है कि हम किसी भी घटनाक्रम को उस तरह से देख सकें जैसा वह सचमुच में होता है । सभी घटनाक्रम हमारी विभिन्नता भरी दृष्टियों से प्रभावित होते हैं । अतः मनुष्य ही अपनी सारी स्थितियों की एक मात्र मापक छड़ी है । प्रोटोगोरस यह भी मानता है कि “नैतिकता या न्याय केवल वही है जो कि एक समाज विशेष कहता है ।”
- 39- सुकरात का चिंतन : प्रोफेसर सिबली ने लिखा है कि सुकरात को जानने के लिए आज हमारे पास तीन महत्वपूर्ण संस्करण उपलब्ध हैं । पहला, अरिस्टोफेंस का नाटक द क्लाउड्स है । यहाँ पर सुकरात नामक पात्र का मजाक उड़ाया गया है क्योंकि वह भू- गर्भ शास्त्र, भूगोल तथा अन्य विषयों पर अनुसंधान कर रहा है । सुकरात का दूसरा चित्र एक्सनोफेन ने अपने संस्मरण मेमोरेबिलिया में दिया है । यहाँ पर प्राचीन इतिहासकार सुकरात को केवल परम्परागत नैतिकता अथवा स्वीकार्य यथार्थ के प्रस्तुतकर्ता के रूप में देखता है । सुकरात की तीसरी छवि प्लेटो ने बनाई है जो उसके डायलॉग्स में सुकरात नामक पात्र ने बनाई है । यह वह सुकरात है जो सदैव सवाल पूछता रहता है, किन्तु शायद ही कभी कोई निश्चित उत्तर प्रस्तुत कर सका है । यह वह दार्शनिक है जो अपने अज्ञान का ढोल पीटता है पर किसी दूसरे को भी ज्ञानी नहीं मानता ।
- 40- सुकरात का जन्म 470 बी. सी. में हुआ था । उसका परिवार आर्थिक रूप से ठीक- ठाक था क्योंकि उसके पिता की मौत पर जो क्षमता उसे विरासत में मिली थी उसने उसे सेना में हायलाइट के पद पर पहुँचाने में मदद की थी । उस समय यूनान में आर्मड इन्फेंट्री का यह पद ऐसा था जहॉं एक सैनिक को अपना समर सामान स्वयं ही ख़रीदना पड़ता था । सुकरात ने 432 से 431 तक के अभियानों में सेना में अपनी सेवाएँ दी थीं । इन सबके साथ-साथ वह बौद्धिक विवादों में भी रुचि रखता था । प्लेटो हमें बतलाता है कि सुकरात ने प्रोटोगोरस के साथ शास्त्रार्थ किया था । जब यूनान में पैलपोनिसीयन युद्ध समाप्ति की ओर था तो सुकरात को पॉंच सौ की परिषद का सदस्य चुना गया था ।
- 41- कालान्तर में सुकरात आलोचना का पात्र बन गया और उस पर अभियोग चलाया गया । सुकरात पर लगाए जाने वाले दो आरोप अस्पष्ट थे : एक, वह राजकीय देवताओं की उपासना का विरोधी था और दो, वह युवा लोगों को भ्रष्ट कर रहा था । इन आरोपों की अस्पष्टता ने ही सुकरात के जजों को उसे मुक्त करने के लिए कहा । जब वोट ली गई तो प्रस्ताव के पक्ष में 280 और विरोध में 220 मत पड़े । जब कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया तो सुकरात को यह अधिकार दिया गया कि वह अपने मृत्युदंड का कोई दूसरा विकल्प सुझाए । उसने मीना फाइन देने का प्रस्ताव किया । यद्यपि बहुतों को आशा थी कि वह देश निकाला माँगेगा । परन्तु सुकरात ने निष्कासन का विकल्प नहीं चुना । अपने लिए कोई सज़ा सुनाना अपनी ही मान्यताओं के प्रति अनादर होता है । सुकरात जुर्माने के लिए तैयार हो गया ।
- 42- चूँकि सुकरात ने निष्कासन का जो सरल रास्ता था उसे अस्वीकार कर दिया इसलिए कोर्ट ने भी अपना एटीचूड सख़्त कर लिया । जिन सदस्यों ने उसे दोषी पाया था उससे अधिक सदस्यों ने उसके मृत्युदंड के पक्ष में मतदान किया । बैलेट बतलाता है कि 360 सदस्यों की यह राय थी कि सुकरात को मृत्युदंड भुगतना चाहिए जबकि केवल 140 सदस्य इस प्रस्ताव के विरोध में थे । सुकरात का दिया हुआ द्वन्द्वत्मकता का सिद्धांत, टिलियोलाजिकल नोशन और फार्मस का सिद्धांत अधिक चर्चित है ।
- 43- द्वन्दात्मकता का सिद्धांत : सुकरात एनक्सागोरस से प्रभावित था । एनक्सागोरस ने वायु, जल और अग्नि को मूल कारण न मानते हुए यह प्रस्थापना दी थी कि मनुष्य का मस्तिष्क ही सबका डिस्पोजर है । इससे सुकरात ने यह निष्कर्ष निकाला कि मानव मस्तिष्क सभी चीजों को सर्वश्रेष्ठ निष्पादन की ओर ले जाता है । इस पर सुकरात ने एक नई पद्धति की खोज की । इस पद्धति में वह मस्तिष्क को व्याख्या का आधार बना कर प्रयोग करना चाहता है । वस्तुओं को अपने आप में देखने के बदले वह वास्तविकता को समझने के लिए उन सिद्धांतों को परीक्षित करना चाहता है जिन्हें हम बाद में विकसित करते हैं ।
- 44- सुकरात के अनुसार सत्य तक पहुँचने के लिए संवाद, बहस तथा द्वन्द्व आवश्यक है न कि केवल परीक्षण । प्रस्थापना को तर्क का आरम्भ माना जाना चाहिए, फिर उसे चुनौती दी जानी चाहिए और ऐसी स्थिति में वह एक वृहत्तर अवधारणा के संदर्भ में परीक्षित हो सकेगी । कोई भी अवधारणा सही है या नहीं इसे इस तथ्य से अलग रखना होगा कि यदि हमने यह अवधारणा स्वीकार कर ली तो क्या परिणाम सामने आने जा रहे हैं । इस प्रकार पहली बार सुकरात वैज्ञानिक सिद्धांत निर्माण के कुछ नियम निर्धारित कर रहा है ।
- 45- सुकरात की एक अन्य विशेषता किसी भी विषय की टीलियोलॉजिकल व्याख्या प्रस्तुत करना है । एनक्सागोरस के मस्तिष्क सिद्धांत की व्यावहारिकता से निराश होने का सुकरात का एक कारण यह था कि मस्तिष्क को सब कुछ कारण मानने के बाद भी वह यह नहीं सिद्ध कर पाया कि यह सब कैसे होता है । बल्कि इसके विपरीत एनक्सागोरस घटनाओं को उनकी पूर्व की स्थितियों के संदर्भ में ही समझाता रहा । यदि एनक्सागोरस की प्रस्थापना के अनुसार मस्तिष्क को वास्तविक कारण मान लिया जाए तो सुकरात की मान्यता है कि टिलियोलॉजिकल व्याख्या (सोद्देश्य विश्लेषण) ही इससे मेल खा सकती है चूँकि वह पर्पज तथा गोल पर बल देती है ।
- 46- सुकरात की मान्यता है कि संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सर्वश्रेष्ठ है, परन्तु जैसे- जैसे हम इसे जानना चाहते हैं वैसे- वैसे ही वह अत्यंत अपर्याप्त और सतही ढंग से डाक्ट्रिन ऑफ फार्म्स के रूप में अभिव्यक्त होता रहता है । वह यह प्रयास करता है कि वस्तुओं में लक्षण किस प्रकार आते- जाते रहते हैं इसे पहचानना आवश्यक है । सुकरात कहता है कि सभी वस्तुएं अपने शाश्वत आकार में अलग-अलग सीमाओं में सहभागिता करती रहती हैं । वस्तुएँ नष्ट हो जाती हैं पर उनकी फार्म्स जिसमें वे सहभागी हैं चलती रहती हैं । कोई वस्तु इसलिए सुन्दर होती है क्योंकि वह फ़ार्म्स ऑफ ब्यूटी में सहभागी है । एक पालिस भी उसी सीमा तक न्यायपूर्ण है जितना वह डाइक की फ़ार्म में भाग लेती है चूँकि डायट तो शाश्वत है ।
- 47- सुकरात का कहना है कि कोई भी विचारक और न ही वह स्वयं, यह जानता है कि डायक या रायचनेस की फ़ार्म का वास्तविक ज्ञान क्या है । पर उसे ऐसा लगता है कि द्वन्द्वात्मक प्रणाली तथा टीलियोलॉजिकल एप्रोच से इसे ढूँढने के अवसर अधिक हैं । सुकरात की मान्यता है कि नैतिक और राजनैतिक अर्थों में अच्छाई या गुडनेस ज्ञान है । अज्ञान का दूसरा नाम बुराई या इविल है । एक नगर राज्य की व्यवस्था तभी सम्भव है जब ज्ञानी पुरुष उस पर अपना नियंत्रण स्थापित करें । अच्छाई या गुड की शिक्षा कैसे दी जाए ? सुकरात का उत्तर है कि एक शिक्षक को अपने शिष्य के अंदर सवाल पूछने की आदत जगानी होगी जिससे वह गुडनेस की फ़ार्म का स्मरण कर सके । एक शिक्षक अपने विद्यार्थी को वह सब याद करने के लिए उद्वेलित करे जो उसकी आत्मा भूल चुकी है ।
- 48- सुकरात अपने जोर्जिया नामक डॉयलॉग्स में कहता है कि, “शायद मैं अकेला या क़रीब- क़रीब एकमात्र जीवित एथेंसवासी हूँ जो राजनीति की सच्ची कला को व्यवहार में लाना चाहता हूँ । मैं अपने समय का अकेला और एकमात्र राजनीतिज्ञ हूँ ।” उसी का कथन है कि, “ यदि कुछ इच्छाओं की पूर्ति हमें अधिक अच्छा बनाती हो और दूसरी इच्छाओं की पूर्ति अधिक बुरा और हम केवल पहली प्रकार की इच्छाओं को ही पूरा कर सकते हों और दोनों प्रकार की इच्छाओं में अन्तर करने की कला भी जानते हों, तो क्या तुम मुझे बतला सकते हो कि किस वक्तव्य से किसे कैसे मित्र माना जाए ।”
- 49- सुकरात के राजनीतिक चिंतन का विवेचन करते समय उसके दायित्व सिद्धांत के महत्व को भी प्रकाश में लाना चाहिए । वह इस विषय पर पहला दार्शनिक विवेचन है । वह एक जनतांत्रिक नगर राज्य की एथेंस प्रचलित अवधारणा को स्वीकार करने को तैयार नहीं है । वह यह भी नहीं मानता कि वह उस राज्य के क़ानूनों की अवहेलना कर सकता है जो एक अन्यायपूर्ण ढंग से उसे सजा के लिए दोषी पाते हैं । जब उसके सामने जेल से भागने का प्रस्ताव रखा गया तो वह ऐसा करने से इंकार करता है । वह कहता है कि जेल से भागना बुराई के बदले में बुराई करना जैसा होगा और हम बुराई करते समय कभी भी इसलिए सही नहीं हो सकते कि हमारे साथ भी तो बुरा हुआ है । बुरे साधनों का प्रयोग करना, मनुष्य में जो कुछ अच्छा है उसे विनष्ट करना है और उसके मनुष्यत्व को नकारना है ।
- 50- सुकरात का यह दायित्व सिद्धांत असन्तोषजनक भले लगता हो किन्तु ऐतिहासिक परिवेश में यह एक राजनीतिक व्यक्ति की ऐसी विजय लगती है जिसने परिवार और कुनबों की हित परस्ती करने वालों को करारी शिकस्त दी है । सुकरात के चिंतन में पोलिस के हित स्पष्ट रूप से प्राथमिकता पा रहे हैं । अन्ततः यह कहा जा सकता है कि चौथी शताब्दी के आरम्भ में यूनान की बौद्धिक ज़िंदगी में नैतिक और राजनैतिक चिंतन केन्द्रीय थे । वे सभी मूल प्रश्न जो बाद में प्लेटो और अरस्तू पूछने जा रहे हैं, पाँचवीं शताब्दी में बहस की सारी सीमाएं लाँघ चुके थे । राजनीति के एक सच्ची दार्शनिक विवेचना की नींव सुकरात का यही चिंतन है ।
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