– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com , website : themahamaya. Com
(क्लॉद हेनरी सिमों, सौन्दर्यशास्त्र, जोसफ़ विस्सियारोविच, आर्काइव, स्मृति की राजनीति, स्मृति अध्ययन, स्मृति साहित्य,स्वच्छंदतावाद, स्वजातिवाद, स्वतंत्रता, वाम और दक्षिणपंथी स्वतंत्रतावादी, स्वामी अछूतानंद हरिहर, सत्ता, सत्ता की नारीवादी अवधारणा, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, राष्ट्रवादी दृष्टि से इतिहास लेखन)
1- पेरिस के एक सामन्ती परिवार में जन्में, फ़्रांसीसी समाजवाद के संस्थापक क्लॉद हेनरी द कॉम्त द सै- सिमों (1760-1825) की सबसे महत्वपूर्ण कृति नोवू क्रिश्चियनिजम थी । सै- सिमों के चिंतन ने कार्ल मार्क्स, आग्युस्त काम्त तथा एमील दुर्खाइम के चिंतन को प्रभावित किया । सै- सिमों नया समाज बनाना चाहते थे । फ़्रांसीसी क्रांति के विनाशकारी उदारतावाद के मुक़ाबले उन्होंने समाज के नये और सकारात्मक पुनर्संगठन पर ज़ोर दिया । उनकी मान्यता थी कि हर मनुष्य समाज में अपने मौजूदा स्थान से ऊँची हैसियत प्राप्त करना चाहता है, भले ही वह कितना ही मामूली क़िस्म का क्यों न हो इस प्रवृत्ति के कारण उसके अंदर आत्मकेन्द्रीयता आ जाती है जिसे लगातार शिक्षा और आचरण के ज़रिए दूर करना होगा ।
2- सौन्दर्य शास्त्र दर्शन की एक शाखा है जिसके तहत कला, साहित्य और सुन्दरता से सम्बन्धित प्रश्नों का विवेचन किया जाता है । सौन्दर्यशास्त्र के अंग्रेज़ी शब्द एस्थेटिक्स की व्युत्पत्ति यूनानी भाषा के शब्द एस्तेतिको से हुई है । प्राचीन यूनानी दर्शन में प्लेटो की रचना हिप्पियाज मेजर में सौन्दर्य की अवधारणा पर चर्चा मिलती है । नाटक की दुखान्त शैली पर अरस्तू द्वारा अपनी रचना पोइटिक्स में किए गए विचार ने कला आलोचना को लम्बे अरसे तक प्रभावित किया है । भारत के नाट्यशास्त्र, अभिनव गुप्त के रस सिद्धांत और चीनी विद्वान चेंग यिन- युवान की रचना ली- ताई- मिंग- हुआ ची द्वारा प्रस्तुत अनूठे और विस्तृत विमर्शों का लोहा पश्चिमी जगत में भी माना जाता है ।
3- अलेक्सांदेर गोत्तलीब बॉमगारतेन ने 1750 में एस्थेटिका लिख कर सौन्दर्यशास्त्र पर एक बहस का सूत्रपात किया । इसके सात साल बाद डेविड ह्यूम द्वारा ऑफ द स्टैंडर्ड ऑफ टेस्ट लिखकर सौन्दर्यशास्त्र के उभरते हुए विमर्श को प्रश्नांकित किया गया । लेकिन आधुनिक यूरोपीय सौन्दर्यशास्त्रीय विमर्श की वास्तविक शुरुआत इमैनुअल कांट की 1790 में प्रकाशित रचना क्रिटीक ऑफ जजमेंट से हुई । उन्होंने कला और सौंदर्य की विवेचना के लिए कुछ अनिवार्य द्विभाजनों को स्थापित कर दिया । इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय है : इंद्रियबोध और तर्क- बुद्धि, सारवस्तु और रूप, अभिव्यक्ति और अभिव्यक्त, आनन्द और उपसंहार, स्वतंत्रता और आवश्यकता आदि । उन्नीसवीं सदी को सौन्दर्यशास्त्र की शताब्दी कहा जाता है ।
4- हीगल ने अपनी रचना लेक्चर्स ऑन एस्थेटिक्स में शॉपेनहॉर ने द वर्ल्ड एज विल ऐंड रिप्रजेंटेशन में और नीत्शे ने बर्थ ऑफ ट्रैजेडी में पश्चिमी सौन्दर्यशास्त्र के विभिन्न पहलुओं की बारीक व्याख्याएँ कीं और उसके नए आयामों को प्रकाशित किया । उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दौर में अंग्रेज़ी भाषा सौन्दर्यशास्त्र में रूपवाद का उभार हुआ । विक्टोरियायी ब्रिटेन ने कला के लिए कला का नारा दिया जिसके प्रवक्ताओं में ऑस्कर वाइल्ड का नाम उल्लेखनीय है । साठ के दशक में अमेरिकी कलाकार बारनेट न्यूमैन ने ऐलान कर दिया कि सौन्दर्यशास्त्र का उपयोग कला के लिए वही है जो पक्षीशास्त्र का पक्षियों के लिए है । अर्थात् सौन्दर्यशास्त्र से अनभिज्ञ कलाकार ही अच्छा है ।
5- महान रूसी साहित्यकार लियो तॉलस्तॉय की रचना व्हाट इज आर्ट ? और अमेरिकी परिणामवाद के प्रमुख प्रवक्ता जॉन डिवी की कृति आर्ट एज एक्सपीरिएंस में सुनाई दी । तॉलस्तॉय का तर्क था कि जो कला मनुष्यों के बीच नैतिक अनुभूतियों का संम्प्रेषण नहीं कर सकती, वह रूपवादी कसौटियों के हिसाब से कितनी भी महान क्यों न हो, उसकी सराहना नहीं की जा सकती । डिवी ने भी सम्प्रेषण की भूमिका के सवाल पर रूपवाद से लोहा लेते हुए कला के सौन्दर्यशास्त्र के नाम पर उसके दायरे के बाहर मौजूद अनुभव की संरचनाओं से काट कर रखने का विरोध किया । वर्ष 1936 में मार्टिन हाइडैगर ने द ओरिजिन ऑफ द वर्क ऑफ आर्ट जैसा निबंध लिखा जिसे कला के दर्शन की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक माना जाता है ।
6- हाइडैगर के मुताबिक़ कला तो एक नए जगत के द्वार खोलती है, कला के रूप में सत्य अपने आप में घटता ही नहीं हमारे अपने अनुभव के दायरे में वस्तुओं के अस्तित्व का उद्घाटन भी करता है । इस तरह सौन्दर्यशास्त्र के माध्यम से हाइडैगर ने आधुनिकता की आलोचना करते हुए वस्तुओं की पारम्परिक अस्तित्व मीमांसा और प्रौद्योगिकीय व्याख्या को आड़े हाथों लिया । एडोर्नो ने अपनी रचना एस्थेटिक थियरी में लिखा है कि कला में विचारधारा का प्रतिवाद करने की क्षमता है ।उनके मुताबिक़ कला अपने समाज की उपज ज़रूर होती है, पर उसकी रचना प्रक्रिया में सामाजिक नियतत्ववाद से स्वायत्त क्षण भी निहित होता है । इसलिए वह कलाकार और उसके दर्शक या पाठक को तत्कालीन प्रभुत्व शाली संस्कृति द्वारा थमाए गए तौर तरीक़ों से इतर भी सोचने का मौक़ा भी देती है ।
7- मैन ऑफ स्टील के नाम से पुकारे जाने वाले जोसफ़ विस्सियारोविच जुगाश्विली का जन्म जार्जिया में 21 दिसम्बर, 1879 को एक ग़रीब मोची के घर में हुआ था । आम बोलचाल की भाषा में इन्हें स्तालिन के नाम से जाना जाता है । 1899 में वे पेशेवर क्रांतिकारी होकर मार्क्सवादी आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करने लगे । 1904 से उन्होंने ख़ुद को लेनिन और बोल्शेविकों के साथ जोड़ लिया और 1912 में बोल्शेविक केन्द्रीय समिति के सदस्य बने । 1902 से 1917 के बीच स्तालिन अनगिनत बार गिरफ़्तार हुए । 1913 में उन्हें पकड़कर साइबेरिया के सुदूर उत्तरी इलाक़ों में भेज दिया गया जहाँ से उनकी रिहाई 1917 की फ़रवरी क्रान्ति के बाद ही हो पायी । स्टालिन का देहान्त 5 मार्च, 1953 को हुआ ।
8- वर्ष 1906 में ही प्रिंस क्रोपाटकिन के विचारों की आलोचना करने वाली उनकी रचना अनार्किजम ऑर सोशलिज्म का प्रकाशन हो चुका था । स्तालिन मुख्य रूप से विश्व क्रान्ति के बिना ही एक देश में समाजवाद की स्थापना के सिद्धांत के लिए जाने जाते हैं । इस अवधारणा का प्रतिपादन स्तालिन ने अपनी रचना फ़ाउंडेशंस ऑफ लेनिनिज्म के दूसरे संस्करण में किया था जिसका प्रकाशन 1924 में हुआ । 1934-1941 की अवधि सम्पूर्ण स्तालिन वाद की थी । इस दौर में स्तालिन की व्यक्ति पूजा को बढ़ावा दिया गया । इसी अवधि में नोमेनक्लेतुरा की परिघटना उभरी । यह एक लैटिन शब्द था जिसका मतलब था नामों की सूची। मिलोवान जिलास ने स्तालिनवाद की आलोचना करते हुए कहा नोमेनक्लेतुरा को नए वर्ग की संज्ञा दिया ।
9- वर्ष 1936 के बाद पार्टी- पर्जिंग की जगह जनता के ग़द्दारों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया जाने लगा । यह संघर्ष निकोलाई येझोव के नेतृत्व में कार्यरत आंतरिक मामलों के मंत्रालय (एन के वी डी) की देख-रेख में चलने वाली सीक्रेट पुलिस के हवाले कर दिया गया । 1945-1952 के बीच का दौर विकसित स्तालिनवाद माना जाता है । इसी दौर में सोवियत संघ को महाशक्ति का दर्जा दिया गया । इसी दौर में मार्क्सवाद को विज्ञान घोषित करके सभी तरह के विज्ञानों को उसमें समाहित मान लिया गया । स्तालिन की मृत्यु के बाद निकिता ख्रुश्चेव स्तालिन के उत्तराधिकारी बने । दिमित्री वोल्कोगोनोव की वर्ष 1991 में प्रकाशित पुस्तक स्तालिन : ट्राइम्फ ऐंड ट्रेजेडी एक महत्वपूर्ण कृति है ।
10- माइक फेदरस्टोन ने इक्कीसवीं सदी में नए मीडिया द्वारा रचे जाने वाले अभिलेखागार की विराट कल्पना सूचना सामग्री के एक समूचे नगर के रूप में की जिसमें संस्कृति के विशाल कोषागार की समस्त सम्पदा जमा होगी । इसमें रखे हुए हर दस्तावेज के उपलब्ध होने की सम्भावना रहेगी तथा यहाँ पर मौजूद प्रत्येक रिकार्डिंग कभी भी सुनी जा सकेगी । ऐसे आरकाइव या आरकाइवों को अर्जुन अप्पादुरै ने व्यक्ति के निजी अस्तित्व के ऐसे कृत्रिम अंगों की संज्ञा दी है जो उसकी स्मृति विषयक क्षमता का विस्तार कर देते हैं । आर्काइव नाना प्रकार के स्रोतों और तरह- तरह की आवाज़ों से बनते हैं । मिशेल फूको ने अभिलेखागार और इतिहास के सम्बन्ध पर मुख्यतः राजनीतिक दृष्टिकोण से विचार किया है ।
11- स्मृति की राजनीति के तहत बनाया गया अतीत और वर्तमान के बीच का रिश्ता व्यक्तियों, समूहों, संस्कृतियों और पूरे के पूरे समाजों के भविष्य को प्रभावित करता है । स्पेनी विद्वान पलोमा अगुइलर ने याद रखने और भूलने के बीच अपने देश में चले गृह युद्ध का विशद अध्ययन पेश किया है । वर्ष 2002 में प्रकाशित उनकी रचना मेमोरी ऐंड एमनीजिया : द रोल ऑफ सिविल वार इन द ट्रांज़िशन टू डेमॉक्रैसी के बाद राजनीति शास्त्र में स्मृति अध्ययन एक विषय के रूप में स्थापित हो गया । स्मृतियाँ तथ्यों, मिथकों और व्याख्याओं के ख़ास विन्यास का परिणाम होती हैं जिनके पीछे स्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य होते हैं ।
12- स्मृतियों के आधार पर विपक्षियों को चुनौती दी जाती है । राष्ट्रीय स्मृति के आधार पर इतिहास का पुनर्लेखन करने की अपील की जाती है । सामाजिक संघर्षों, राष्ट्रों के बीच युद्धों, गृह- युद्धों और निरंकुश हुकूमतों द्वारा किए गए अधिकारों के दमन की दारूण स्मृतियों की निजी और सामूहिक मानस पर गहरी छाप पड़ती है । एक तरफ़ राजनीति की संस्थागत अभिव्यक्तियाँ होती हैं और दूसरी तरफ़ तरह-तरह के प्रतिवेदनों, गवाहियों, बिम्बों, मीडिया, जनमत और राजनीतिक विमर्शों की कारीगरी से बनने वाली स्मृति की राजनीति होती है । स्मृतियों के आगार के तौर पर पूरी दुनिया में जगह- जगह संग्रहालयों की स्थापना हुई है ताकि आने वाली पीढ़ियों को स्मृतियों और उनकी राजनीति का तैयारशुदा माल मिलता रहे ।
13- स्मृति अध्ययन की समाजशास्त्रीय परम्परा के जनक फ़्रांसीसी विद्वान मॉरिस हालबॉश माने जाते हैं । 1925 में रचा उनका ग्रन्थ ऑन कलेक्टिव मेमोरी ज्ञान की राजनीति के लिए बेहद अहम साबित हुआ । हॉलबाश का निष्कर्ष था कि समूहों और सामूहिकताओं के सन्दर्भ में व्यक्ति की निजी स्मृति पर सामाजिक अन्योन्यक्रियाओं का बुनियादी असर पड़ता है । हाल में ही फ़्रांसीसी विद्वान इतिहासकार पियर नोरा ने स्मृति और इतिहास के बीच सूत्र की पुनर्व्याख्या करने के लिए कई शोधकर्ताओं की मदद से सात खंडों का एक महाग्रन्थ रचा है जिसमें स्मृति के मुक़ामों जैसे ऐतिहासिक स्मारक, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय संग्रहालय इत्यादि की फिर से जॉंच करके फ़्रांसीसी राष्ट्र का भावनात्मक इतिहास उकेरने की चेष्टा की गई है ।
14- अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में कार्यरत ब्रिटिश सिद्धांत कार जेनी एडकिंस के अनुसार युद्धों, जन- संहारों, अकालों और आतंकवाद की युक्ति का इस्तेमाल करके सरकारें और संगठन लोगों की स्मृतियों को एक ख़ास मोड़ देने की कोशिश करते हैं । इसी प्रकार से दक्षिण अफ़्रीका में बने ट्रुथ ऐंड रिकंसिलेशन कमीशन का भी ज़िक्र किया गया है । अफ़्रीका में गोरे नस्लवादी शासन द्वारा किए गए अत्याचारों, भेदभाव, सांस्कृतिक संहार और विभिन्न अन्यायों की स्मृति को याद रखने या न रखने पर बहस चल रही है । अतीत में हुई नाइंसाफ़ियों के प्रतिकार के लिए क्या किया जाना चाहिए ? ऐतिहासिक न्याय की अवधारणा अतीत परक है, जबकि राजनीतिक न्याय का विचार भविष्य परक है । राजनीतिक न्याय का मतलब है अतीत के अप्रिय सत्य को याद रखा जाए, लेकिन भविष्य को मेल- मिलाप के दृष्टिकोण से संवारा जाए ।
15- स्मृति साहित्य धर्मशास्त्र के उन ग्रन्थों को कहते हैं जिनमें प्रज्ञा के लिए उचित आचार- व्यवहार की व्यवस्था और समाज के संचालन के लिए नीति और सदाचार से सम्बन्धित बातों का निर्देश हो । ज्ञानियों ने वेदों का चिंतन करते हुए जिन ग्रन्थों की रचना की, उन्हें स्मृति कहा जाता है । श्रुति और स्मृति का नाम एक साथ ही आता है । श्रुति का अर्थ वैदिक संहिताओं से लिया जाता है और स्मृति का सम्बन्ध धर्मशास्त्र से है ।अंग्रेज विद्वान विलियम जोन्स (1746-1794) के अनुसार मनु- स्मृति का रचना काल 1250 ईसा पूर्व है । कार्ल फ़्रेडेरिक वॉन श्लेगल (1772-1829) इसे एक हज़ार ईसा पूर्व की रचना मानते हैं । मोनियर विलियम्स (1819-1899) इसका रचना काल 500 ईसा पूर्व मानते हैं । वेबर मनु- स्मृति को महाभारत के बाद की रचना मानते हैं ।
16- स्वच्छंतावाद सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में वह चिंतन है जो कुछ मानवीय प्रवृत्तियों का पूरी तरह से निषेध और कुछ को बेहद प्राथमिकता देता है । यह विचार निर्गुण के ऊपर सगुण, अमूर्त के ऊपर मूर्त, सीमित के ऊपर असीमित, समरूपता के ऊपर विविधता, संस्कृति के ऊपर प्रकृति, यांत्रिक के ऊपर आंगिक, भौतिक और स्पष्ट के ऊपर आध्यात्मिक और रहस्यमय, वस्तुनिष्ठता के ऊपर आत्मनिष्ठता, बंधन के ऊपर स्वतंत्रता, औसत के ऊपर विलक्षण, दुनियादार किस्म की नेकी के ऊपर उन्मुक्त सृजनशील प्रतिभा और समग्र मानवता के ऊपर विशिष्ट समुदाय या राष्ट्र को तरजीह देता है । फ़्रांसीसी क्रांति का युग प्रवर्तक नारा आज़ादी, बराबरी और भाईचारा लम्बे समय तक स्वच्छंदतावादियों का प्रेरणा- स्रोत बना रहा है ।
17- स्वच्छंदतावादी क्रान्ति के बौद्धिक नायक ज्यॉं- जॉक रूसो को इस चिंतन की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है । रूसो ने अपने युग की सभ्यतामूलक उपलब्धियों पर आरोप लगाया कि उनकी वजह से मानवता भ्रष्ट हो रही है । उनका विचार था कि अगर नेकी की दुनिया में लौटना है और भ्रष्टाचार से मुक्त जीवन की खोज करनी है तो प्रकृत- अवस्था की शरण में जाना होगा । 1976 में प्रकाशित रूसो की दीर्घ औपन्यासिक कृति ज्यूली ऑर द न्यू हेलोइस और अपने ही जीवन का अन्वेषण करने वाली उनकी आत्मकथा कन्फ़ेशंस इस महान विचारक के स्वच्छन्दता वादी नज़रिए का उदाहरण है ।
18- स्वच्छंदतावाद के साहित्यिक आन्दोलन को अंग्रेज़ी भाषा में विकसित करने का श्रेय ब्लैक, वडर्सवर्थ, कोलरिज, बायरन, शैली और कीट्स का नाम प्रमुख है । जर्मन दार्शनिकों में आर्थर शॉपेनहॉर को स्वच्छंदतावाद की श्रेणी में रखा जाता है । शॉपेनहॉर का लेखन जगत के प्रति निरुत्साह और हताशा से भरा हुआ है, पर उन्हें अभिलाषाओं के संसार में राहत मिलती है । शॉपेनहॉर का लेखन रिचर्ड वागनर की संगीत रचनाओं के लिए प्रेरक साबित हुआ । भारत में स्वच्छंदतावाद की पहली साहित्यिक अनुगूँज बांग्ला में सुनाई पड़ी । आधुनिक हिन्दी साहित्य में स्वच्छन्दता वाद की पहली सुसंगत अभिव्यक्ति छायावाद के रूप में मानी जाती है ।
19- स्वच्छंतावादियों ने क्लासिकल द्वारा रोमन और यूनानी मिथकों पर ज़ोर को नकारते हुए मध्ययुगीन और पागान संस्कृतियों को अपनाया । इसका नतीजा गोथिक स्थापत्य के पुनरुद्धार में निकला । इसने यूरोपीय लोक- संस्कृति और कला के महत्व को स्वीकारा । फ़िनलैंड के महाकाव्यात्मक ग्रन्थ कालेवाला का सृजन इसी रुझान की देन है । इस चिंतन ने न केवल रोमानी प्रेम पर आधारित बल्कि साहित्य और कला के मन के अंधेरे में छिपे भयों और दुखों की अनुभूति को भी स्पर्श करना शुरू कर दिया । स्वच्छंदता वाद ने यूरोपीय ज्ञानोदय द्वारा आरोपित बुद्धिवाद के खिलाफ भी विद्रोह किया ।
20- स्वच्छंदतावाद के विकास में फ्रेड्रिख और ऑगस्त विल्हेम वॉन श्लेगल (1767-1845) की भूमिका उल्लेखनीय है । ऑगस्त श्लेगल ने रोमानी विडम्बना की थिसिज का प्रतिपादन करते हुए कविता की विरोधाभासी प्रकृति को रेखांकित किया । इसका मतलब यह था कि किसी वस्तुनिष्ठ या सुनिश्चित तात्पर्य की उपलब्धि न कराना कविता का स्वभाव है । स्वच्छंदता वादियों ने शेक्सपियर की सराहना इसलिए की कि उनमें अपने नाटकों के पात्रों के प्रति एक विडम्बनात्मक विरक्ति है । हिन्दी साहित्य में रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ग्रन्थ हिन्दी साहित्य के इतिहास में मिलता है जहां उन्होंने श्री धर पाठक को स्वच्छंदता वाद का प्रवर्तक करार दिया ।
21- स्वजातिवाद एक हानिकारक वैचारिक प्रवृत्ति है । इसके प्रभाव में कोई समूह अपनी जातीय और सांस्कृतिक श्रेष्ठता में इस कदर यक़ीन करने लगता है कि उसे दूसरे सभी समूह, उनकी संस्कृतियाँ और जीवन- शैलियाँ हेय लगने लगती हैं । इससे धीरे-धीरे अन्य संस्कृतियों, सभ्यताओं और समुदायों के प्रति द्वेष, घृणा, संदेह, उदासीनता और अरुचि जैसे मनोभाव पैदा होने लगते हैं । अपने से भिन्न भाषाओं, विचारों, धर्मों, नैतिकताओं और दृष्टिकोणों को समझना मुश्किल हो जाता है । बौद्धिक दायरे में स्वजातिवाद ने एक ख़ास तरह की विश्लेषण पद्धति को जन्म दिया है ।आधुनिक मानवशास्त्र के संस्थापक फ्रेंज बोआस ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है ।
22- एलिज़ाबेथ स्पेलमैन ने अपनी रचना इनइसेंशियल वुमन : प्रॉब्लम्स ऑफ एक्सक्यूजन इन फ़ेमिनिस्ट थॉट में दिखाया है कि किस तरह नारीवादी विधि- सिद्धांत के कुछ पहलू एक तरह के फ़ेमिनिस्ट स्वजातिवाद से पीड़ित हैं । नारीवादी सिद्धांतकार जूडिथ बटलर ने अपनी रचना प्रिकेरियस लाइफ़ में अपनी इयत्ता बनाए रखने के संदर्भ में अन्य को मान्यता देने से जुड़ी समस्याओं की चर्चा की है । बटलर का विश्लेषण बताता है कि अन्य को मान्यता देने की शर्त यही है कि उसे ऐसा माना जाए जो मेरे जैसा नहीं है ।अर्थात् अन्य की शिनाख्त हमेशा एक विभेद की रोशनी में हो पाती है । एक अन्य नारीवादी सिद्धांत कार जैकलीन रोज के मुताबिक़ शिनाख्त की प्रक्रिया, अस्मिता निर्धारित करने में खप जाती है और उस प्रक्रिया का मक़सद ही बदल जाता है ।
23- स्वतंत्रता या स्वाधीनता अथवा आज़ादी या मुक्ति का विचार तीन आयामों से मिलकर बना है । पहला है चयन करना, दूसरा है उस पर अमल करना तथा आने वाली बाधाओं का अभाव और तीसरा है उन परिस्थितियों की मौजूदगी जो चयन करने के लिए प्रेरित करती हो । स्वतंत्रता की एक कारगर परिभाषा एक तितरफा सम्बन्ध के रूप में भी दी जाती है (क) स्वतंत्र है (ख) से ताकि ((ग) कर सके या बन सके । प्रकृत अवस्था की अपनी कल्पना के तहत थॉमस हॉब्स क्रिया की स्वतंत्रता में आने वाली उन बाधाओं की अनुपस्थिति को स्वतंत्रता करार देते हैं जो कर्ता की प्रकृति और सहजात गुणों मे निहित नहीं हैं । हॉब्स डर और आवश्यकता को भी ऐसे कारकों के रूप में पेश करते हैं जिनकी वजह से व्यक्ति स्वतंत्रता की तरफ़ बढ़ता है ।
24- एक अविभाज्य और सार्वभौम अधिकार के रूप में लॉक के अनुसार स्वतंत्रता नागरिक और राजनीतिक समाज से पहले आती है । नागर समाज जिस अनुबंध के तहत बनता है, उसका मक़सद स्वतंत्रता समेत सभी प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करना है । राजनीतिक समाज स्वतंत्रता को विनियमित तो कर सकता है, पर सीमित नहीं । लॉक जिस स्वाधीन व्यक्ति की कल्पना करते हैं वह बुद्धिसंगत व्यवहार के मुताबिक़ स्वतंत्रता का दावा उन परिस्थितियों में करेगा जिन्हें बदला जा सकता है । अर्थात् वह स्वाधीन व्यक्ति किसी पक्षी की तरह हवा में उड़ने की स्वतंत्रता का दावा करने के बजाय अल्पसंख्यक होने के बावजूद अपनी बात कहने और उसके सुने जाने का दावा पसंद करेगा ।
25- रूसो के चिंतन में स्वतंत्रता एक सामूहिक उद्यम है जिसके तहत पूरे समूह के वृहत्तर हित के लिए स्वार्थी आग्रहों से मुक्त होना ज़रूरी है । रूसो के अनुसार अन्यायपूर्ण और पदानुक्रम से निकलने वाली सामाजिक विषमताओं के उन्मूलन के बिना स्वतंत्रता असम्भव है । इसलिए रूसो स्वतंत्रता को प्राकृतिक अधिकार नहीं मानते । वह तो नागरिक और राजनीतिक समाज बनने के बाद अ- स्वतंत्रता से मुक्ति के रूप में मिलती है । स्वाधीन लोग अनुपालन करते हैं, दासता नहीं । उनके नेता होते हैं, मालिक नहीं । वे क़ानून पर चलते हैं, उन क़ानूनों पर जिनके कारण उन्हें मनुष्यों का आज्ञापालन नहीं करना पड़ता और क़ानून जन- इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है ।
26- उपयोगितावाद के पैरोकार जेरेमी बेंथम ने स्वतंत्रता को सुख प्राप्त करने और दुःख से बचने के साथ जोड़ कर देखा है । बेंथम के शिष्य जॉन स्टुअर्ट मिल के चिंतन में स्वतंत्रता और अधिक परिष्कृत होकर उभरती है । मिल ने अपनी पुस्तक ऑन लिबर्टी में लिखा है कि किसी व्यक्ति के मत का समाज या राज्य के सामूहिक निर्णय के आधार पर दमन नहीं किया जा सकता है । उन्होंने स्वतंत्रता के तीन आयाम बताया है : विचार और बहस की स्वतंत्रता, वैयक्तिकता का सिद्धांत और व्यक्ति की क्रियाओं पर प्राधिकार की सीमा । कार्ल मार्क्स ने अ- स्वतंत्रता की मिसाल के ज़रिए स्वतंत्रता के विचार को प्रस्तुत किया । यह उनके पारएपन के सिद्धांत में निहित है । मार्क्स ने परायेपन की शिनाख्त चार स्तरों पर की है : अपने श्रम के उत्पाद से, उत्पादक गतिविधि से, स्वयं की मानवीय प्रकृति से तथा दूसरे मनुष्यों से परायापन ।
27- समकालीन दार्शनिक ईसैया बर्लिन ने 1996 में प्रकाशित अपनी पुस्तक फ़ोर ऐसेज ऑन लिबर्टी में स्वतंत्रता के विचार को नकारात्मक और सकारात्मक स्वतंत्रताओं में बाँटकर देखा है । नकारात्मक स्वतंत्रता यानी किसी भी हस्तक्षेप या बाधा से स्वतंत्रता । यह क्रिया करने के अवसर पर निर्भर है, न कि क्रिया पर ।अवसर की अनुपलब्धि स्वतंत्रता में बाधक बन जाती है । सकारात्मक स्वतंत्रता वह है जिसके तहत व्यक्ति की उच्चतर इयत्ता उसकी निचली इयत्ता पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेती है जिसके ज़रिये वह अपना स्वामी बनकर आत्मसिद्धि कर सकता है । यह अवसर पर निर्भर नहीं होती बल्कि अवसरों को उपलब्ध करने के लिए कदम भी उठाती है ।
28- स्वतंत्रतावादी व्यक्ति के आत्म- स्वामित्व या सेल्फ़ ऑनरशिप के विचार पर बल देते हैं । आत्म- स्वामित्व का विचार कांट द्वारा लोगों को अपने- आप में साध्य मानने के सूत्र का ही एक रूप है । इसका अर्थ यह है कि हर व्यक्ति ख़ुद अपना मालिक है । इसलिए उसकी ज़िंदगी में किसी को भी ऐसा दखल देने की ज़रूरत नहीं है जिससे उसके आत्म- स्वामित्व का उल्लंघन होता हो । इस आधार पर भी स्वतंत्रता वाद दो धाराओं में बंट जाता है : पहला, दक्षिणपंथी स्वतंत्रता वाद और दूसरा वामपंथी स्वतंत्रता वाद । दक्षिणपंथी स्वतंत्रता वादी न्यूनतम राज्य की अवधारणा का समर्थक है । उसका मानना है कि व्यक्ति को असीम सम्पत्ति का अधिकार है ।
29- दक्षिणपंथी स्वतंत्रता वादी मानते हैं कि यदि राज्य व्यक्ति पर किसी भी तरह का कर लगाता है तो वह आत्म- स्वामित्व के उसूल का उल्लंघन होगा ।लॉक के विचारों में इसके सूत्र ढूँढे जा सकते हैं ।बीसवीं सदी में हॉयक और फ्रीडमैन ने भी इस विचार का समर्थन किया है । अमेरिकी अर्थशास्त्री मरे एन. रोथबर्ड ने भी इसका बौद्धिक समर्थन किया है । रोथबर्ड ने अ- हस्तक्षेपकारी राज्य के सिद्धांत को मानवाधिकारों के असीमवादी संस्करण से जोड़कर राज्य को ख़ारिज कर दिया । समकालीन विद्वानों में रॉबर्ट नॉजिक इसके सबसे बड़े समर्थक हैं । 1974 में रॉबर्ट नॉजिक की कृति एनार्की, स्टेट ऐंड यूटोपिया के प्रकाशन के बाद इस आन्दोलन पर काफ़ी ध्यान दिया गया ।
30- वाम स्वतंत्रता वादी अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के विचारकों, जैसे थामस पेन, हेनरी जॉर्ज और पीटर वालरस के विचारों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं । आजकल हीलेल स्टीनर और पीटर वेलेण्टाइन जैसे विचारकों ने इसका समर्थन किया है । वाम स्वतंत्रता वाद भी आत्म- स्वामित्व पर ज़ोर देता है । वह मानता है कि सम्पत्तिहीन लोगों को आत्म स्वामित्व का अधिकार देने के लिए या तो संसाधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए या फिर सभी लोगों तक इसकी पहुँच सुनिश्चित करनी चाहिए । इसके अलावा गैथियर जैसे विद्वानों ने पारस्परिक लाभ के आधार पर स्वतंत्रता वाद की तरफ़दारी की है ।
Informatice
Thank you