(हेलन सिचू, त्रिपुरा, ज्ञानमीमांसा, ओड़िसा, छायावाद, जॉन स्टुअर्ट मिल, जूडिथ बटलर, क्विकर थियरी, जोसेफ शुमपीटर, सार्क, दलित -पसमांदा मुसलमान, सार्क , दादाभाई नौरोजी, दामोदर धर्मानंद कोसम्बी, देवी प्रसाद शेट्टी, मैकियावेली, पार्थ चटर्जी, फ़्लैशबैक, यूरोपीय पुनर्जागरण, यूरोपियन यूनियन, ज्ञानोदय, यूटोपिया हेटरटोपिया, राबर्ट नॉजिक, डॉ. राममनोहर लोहिया पर केन्द्रित)
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश) email : drrajbahadurmourya@gmail.com, website : themahamaya.com
1- हेलन सिचू (1931-) अल्जीरिया में पैदा हुई फ़्रांस की नारीवादी लेखिका और साहित्यकार हैं । वह स्त्री लेखन के सम्बन्ध में एक विशिष्ट विमर्श इक्रित्यूर फ़ेमिनीन की स्थापना के लिए जानी जाती हैं । इस पद का मतलब लेखन का स्त्री रूप तो है ही साथ ही साथ किसी पाठ को पढ़ने की स्त्री परक विधि भी शामिल है । उनका कहना है कि लेखक स्त्री हो या पुरुष, अगर वह अन्य का अपने भीतर समावेशन कर सकता है, तो वह स्त्री लेखन जैसा ही कुछ कर रहा है । इसके लिए सिचू के पास ज्यॉं जेने की मिसाल है जिनकी रचनाएँ उनके लिए स्त्री लेखन की ही मिसाल हैं । उनके तीन विख्यात निबंध हैं, स्टोरीज़, द लाइफ़ ऑफ मेडुसा और कमिंग टु राइटिंग ।
2- हेलन सिचू की मुख्य स्थापना यह है कि शिश्नकेंद्रीयता के आधार पर रची गई भाषा, सम्पत्ति और अधिकार- स्थापन की भाषा है । पुरुष की लिबिडनल- इकॉनॉमी का बीज शब्द है सम्पत्ति और स्त्री की लिबिडनल- इकॉनॉमी का बीज शब्द है- उपहार । सिचू का दावा है कि भाषा के एक ऐसे संसार में जिसका मक़सद केवल पौरुष के बारे में बोलना- बताना हो, वहाँ स्त्री ख़ुद के बारे में कुछ भी जान पाने में असमर्थ हो जाती है । इसलिए सिचू की सिफ़ारिश है कि स्त्री को मानवीय जीवन की उस अवस्था में अपने लिए भाषा तलाशना चाहिए जिसमें बालिका शिशु या बालक शिशु अपनी माँ के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा रहता है । इस अवस्था में होने वाला दैहिक संवेदन पिता के क़ानून से स्वतंत्र होता है ।
3- त्रिपुरा, भारत के उत्तर- पूर्व में स्थित ऐसा राज्य है जहाँ पर आदिवासी संस्कृति और मनमोहक लोक कला है । शुरू में इसे कीतर देश के रूप में जाना जाता था । भारत के साथ एकीकरण होने से पहले त्रिपुरा एक देशी रियासत थी । मध्य युग में त्रिपुरा के राजाओं ने माणिक्य की उपाधि धारण की थी । सितम्बर, 1947 में इसका विलय भारत में हुआ । भारत सरकार ने इसे 1949 में असम राज्य का अंग बना दिया । नवम्बर, 1956 में त्रिपुरा एक केन्द्र शासित प्रदेश बन गया । शुरू में इसकी अपनी विधानसभा नहीं थी लेकिन 1963 से इसे विधानसभा और सरकार मिली । 21 नवम्बर, 1972 को त्रिपुरा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया । त्रिपुरा की विधायिका एक सदनीय है जिसमें कुल 60 सदस्य हैं ।यहाँ से लोकसभा के लिए दो और राज्य सभा के लिए एक सदस्य चुना जाता है ।
4- त्रिपुरा की उत्तर, दक्षिण और पश्चिम की सीमाएँ बांग्लादेश से मिलती हैं । इसके पूर्व में असम और मिज़ोरम है । अगरतला यहाँ की राजधानी है । इस राज्य का क्षेत्रफल 10,491.69 वर्ग किलोमीटर है । वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 36 लाख, 71 हज़ार , 032 है । यहाँ की साक्षरता दर 87.75 प्रतिशत है । बंगाली और कोकबोरेक यहाँ की राजकीय भाषाएँ हैं । त्रिपुरा में कुल 19 प्रमुख जनजातियाँ हैं जिनमें त्रिपुरी, रेंगज और चकमा प्रमुख हैं । इनमें त्रिपुरी जनजाति के लोगों की संख्या सबसे अधिक है । 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ बंगाली तक़रीबन 70 प्रतिशत हैं जबकि जनजातियाँ क़रीब 30 प्रतिशत हैं । 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की 85.6 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू, 8 प्रतिशत मुस्लिम हैं । त्रिपुरा का 50 प्रतिशत भू भाग जंगल है ।
5- ज्ञानमीमांसा या एपिस्टोमोलॉजी यूनानी भाषा के शब्द इपिस्टीम से इपिस्टेमोलॉजी बनाया गया है । सत्रहवीं और अठारहवीं सदी को ज्ञानमीमांसा का युग माना जाता है । रेने देकार्त ने ज्ञान की समुचित और सुनिश्चित आधार की खोज के लिए संदेह की एक पद्धति का इस्तेमाल करके ज्ञान के उन रूपों तक पहुँचने की कोशिश की जिन्हें संदेह से परे माना जा सकता था । इस ज़रिये वे कोजिटो अरगो सम यानी मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ जैसे सूत्रीकरण पर पहुँचे और इयत्ता या सेल्फ़ की अवधारणा सामने आई । देकार्त के बाद जॉन लॉक के इंद्रयानुभववादी विमर्श और आधुनिक विज्ञान के उभार ने ज्ञानमीमांसा को दर्शन शास्त्र में केन्द्रस्थ कर दिया । ज्ञानमीमांसा, ज्ञान को सच्ची और यथोचित आस्था के रूप में परिभाषित करती है ।
6- ज्ञानमीमांसा के अनुसार कुछ जानने के लिए ज़रूरी है कि उस पर यक़ीन किया जाए और वह यक़ीन अपने आप में सच्चा हो । यक़ीन सच्चा तभी हो सकता है जब वह मनमाना न होकर किन्हीं कसौटियों पर खरा उतरता हो । इमैनुअल कांट ने अपनी रचना क्रिटीक ऑफ प्योर रीजन में ज्ञान की रचना में अनुभव को भी महत्वपूर्ण माना और बुद्धिजीवियों के इस दावे का समर्थन किया कि ज्ञान का एक अनुभव- पूर्व रूप भी होता है और जिसके बिना ज्ञान सम्भव ही नहीं है । फ्रेड्रिख नीत्शे का कहना था कि ज्ञान को उसके सत्ता सम्बन्धों से काटकर समझा ही नहीं जा सकता । जिसे हम ज्ञान कहते हैं वह विभिन्न हितों और चालक शक्तियों की मिली जुली अभिव्यक्ति होता है ।
7- आर्थिक जनसांख्यिकी, जनसंख्या की प्रवृत्ति और आर्थिक अवस्था पर पड़ने वाले उसके प्रभाव के अध्ययन को कहा जाता है । अठारहवीं सदी के आर्थिक चिंतक थॉमस रॉबर्ट माल्थस को इस विज्ञान का प्रणेता माना जाता है ।जिन्होंने इंग्लैंड की बढ़ती हुई आबादी से पैदा हुए सरोकारों की रोशनी में अपने सिद्धांतों का सूत्रीकरण किया था । माल्थस ने कहा कि भोजन और यौनक्रिया की कामना हमेशा अतृप्त रहती है । इसे यदि रोका न गया तो असंयमित सम्भोग के कारण मानवीय आबादी ज्यामितीय क्रम (दो दूनी चार) से आगे बढ़ेगी, लेकिन जीवन यापन के साधनों की वृद्धि अंकगणितीय रफ़्तार (एक,दो,तीन) से हो पायेगी । 1789 में प्रकाशित अपनी रचना एसे ऑन पॉपुलेशन में माल्थस ने इसका विवरण दिया है ।
8- ओडीसा भारत के पूर्वी तटीय क्षेत्र में स्थित है । इतिहास में यह राज्य कलिंग के नाम से जाना जाता रहा है । आधुनिक ओड़िसा की स्थापना एक अप्रैल, 1936 को की गई थी इसलिए यह दिन हर साल उत्कल दिवस के रूप में मनाया जाता है । ओड़िसा की राजधानी भुवनेश्वर है । इसका कुल क्षेत्रफल 1 लाख, 55 हज़ार, 820 है ।वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार यहाँ की कुल जनसंख्या 4 करोड़, 19 लाख, 47 हज़ार, 358 है । ओड़िसा का विधानमंडल एकसदनीय है । यहाँ की विधानसभा में कुल 147 सदस्य हैं । उड़ीसा से राज्य सभा के लिए 10 और लोकसभा के लिए 21 सदस्य चुने जाते हैं ।
9- आधुनिक हिन्दी साहित्य में दो महायुद्धों के बीच का समय छायावाद का युग कहा जाता है । यह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और सांस्कृतिक नवजागरण की गोद में जन्मी मानव मुक्ति की कविता है जिसमें देश भक्ति और राष्ट्रीयता की भावना का स्थायी निवास है । एक व्याख्या यह भी है कि छायावाद उस राष्ट्रीय- सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति है जो पुरानी रूढ़ियों को अस्वीकार करती है और मानव मुक्ति के सपने देखती है । इस अर्थगत व्यापकता के कारण छायावाद को परिभाषा यह दी गई कि राजनीति के क्षेत्र में जो गांधीवाद है, कविता के क्षेत्र में वही छायावाद है । इस अर्थ में छायावाद को गांधीवाद का पर्याय मानना चाहिए । जयशंकर प्रसाद ने छायावाद की व्याख्या मोती के भीतर छाया की तरलता के रूप में किया ।
10- छायावाद की प्रतिनिधि रचना कामायनी और राम की शक्ति पूजा है ।मूल संदेश यह है कि शक्ति के नियोजन से पराधीनता से मुक्ति मिल सकती है । मानवता को विजयनी देखने का यही उपाय है । हिन्दी आलोचना में छायावाद शब्द का प्रयोग 1920 के आस-पास हुआ । मध्यप्रदेश के जबलपुर से निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका श्री शारदा के 1920 के जुलाई, सितम्बर, नवम्बर और दिसम्बर के अंकों में प्रकाशित मुकुट धर पाण्डेय द्वारा लिखित हिन्दी में छायावाद के स्वरूप- विधायक लेख माना जा सकता है । रामकृष्ण शुक्ल के अनुसार छायावाद प्रकृति में मानव जीवन का प्रतिबिम्ब देखता है जबकि रहस्यवाद सम्पूर्ण सृष्टि में ईश्वर का । ईश्वर अव्यक्त है, छाया व्यक्त ।
11- जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873) दिनांक 20 मई, 1806 को लंदन में पैदा हुए, उन्नीसवीं सदी के विचारक और अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्र में भी उल्लेखनीय योगदान किया है । मिल ने उपयोगिता वाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया ।वह ऑन लिबर्टी (1859) और द सब्जेक्शन ऑफ वुमन (1869) के रचयिता हैं । वर्ष 1848 में प्रकाशित उनकी पुस्तक प्रिंसिपल ऑफ पॉलिटिकल इकॉनॉमी क़रीब आधी सदी तक इंग्लैंड में आर्थिक चिंतन और अध्यापन पर छायी रही । उनके पिता जेम्स मिल विख्यात विद्वान और इतिहासकार थे । 1834-1840 के बीच स्टुअर्ट मिल ने ब्रिटेन में बुद्धिजीवियों की प्रमुख पत्रिका वेस्टमिंस्टर रिव्यू का सम्पादन किया ।
12- जॉन स्टुअर्ट मिल ने पहली बार अवसर- लागत के विचार का सूत्रीकरण किया । इसके मुताबिक़ कोई भी कदम उठाने का फ़ैसला करते समय व्यक्ति कुछ और करने का मौक़ा खो देता है जिसकी वित्तीय और गैर वित्तीय क़ीमत होती है । अपनी रचना ऑन लिबर्टी में मिल ने कहा कि राज्य और समाज को व्यक्ति की स्वतंत्रता पर उतना ही नियंत्रण लगाना चाहिए जिससे एक व्यक्ति दूसरे को हानि न पहुँचा सके । उन्होंने तर्क दिया कि किसी व्यक्ति के मत का समाज या राज्य के सामूहिक निर्णय के आधार पर दमन नहीं किया जा सकता है । मिल ने स्वतंत्रता के तीन आयाम बताया है : विचार और बहस की स्वतंत्रता, वैयक्तिकता का सिद्धांत और व्यक्ति की क्रियाओं पर राज्य और समाज के नियंत्रण की सीमा ।
12-A- जॉन स्टुअर्ट मिल को अंतिम उपयोगितावादी और प्रथम व्यक्तिवादी माना जाता है । वह जेम्स मिल का पुत्र था । विद्वान चिंतक मुरे ने लिखा है कि, “अपने पिता का प्रभाव उस पर इतना अधिक है कि ऐसा मालूम होता है कि मानो वह कभी पैदा ही न हुआ हो ।” मिल ने अपनी रचना ऑन लिबर्टी को अपनी प्रिय पत्नी श्रीमती हेरयट टेलर को समर्पित करते हुए लिखा है कि, “मेरे लेखों में जो सर्वोत्तम है, उसकी वह प्रेरक है तथा आंशिक रूप से लेखिका भी । जो कि मेरी मित्र और पत्नी है जिसकी सत्य और सदाशयता की उत्कृष्ट भावना मेरी सबसे प्रबल प्रेरणा रही है और जिसकी प्रशंसा सबसे बड़ा पुरस्कार ।” ब्रिटिश प्रधानमंत्री ग्लेडस्टन ने मिल के संसदीय जीवन और योगदान के बारे में कहा था कि, “जब जॉन मिल बोलते थे तो मुझे सदैव ऐसा प्रतीत होता था कि मैं एक संत की वाणी सुन रहा हूँ ।”
12-B- जॉन स्टुअर्ट मिल ने उपयोगितावाद के बारे में लिखा है कि, “इस बात को मानना उपयोगितावादी सिद्धांत के अनुरूप ही है कि कुछ प्रकार के सुख अन्य प्रकार के सुखों से अधिक वांछनीय और महत्वपूर्ण हैं, इसलिए जहॉं हम अन्य वस्तुओं के मूल्यांकन में गुण और मात्रा दोनों का ध्यान रखते हैं, वहाँ सुख के मूल्यांकन को केवल मात्रा पर आधारित करना एक अजीब बात होगी ।” एक अन्य स्थान पर मिल ने लिखा है कि, “एक संतुष्ट शूकर की अपेक्षा असंतुष्ट होना श्रेयकर है । एक संतुष्ट मूर्ख की अपेक्षा असंतुष्ट सुकरात होना श्रेष्ठ है और यदि मूर्ख और शूकर दूसरा मत रखते हैं, तो इसलिए कि वे अपने पक्ष को जानते हैं जबकि दूसरा पक्ष (मानव और सुकरात) दोनों पक्षों को (दोनों प्रकार के सुखों को) जानता है ।”
13- जूडिथ बटलर (1956-) नारीवादी समाजशास्त्री और दार्शनिक हैं ।उनके विमर्श ने स्त्री अस्मिता और स्त्रीपन से जुड़े आग्रहों की विसंरचनात्मक गवेषणा करके जेन्डर और सेक्शुअलिटी- अध्ययनों को गहराई से प्रभावित किया है । बटलर को क्वियर नारीवाद की व्याख्याकार के रूप में जाना जाता है । फूको और देरिदा की स्थापनाओं का इस्तेमाल करते हुए बटलर ने 1990 में प्रकाशित अपनी रचना जेंडर ट्रबुल : फेमिनिजम ऐंड सवर्जन ऑफ आइडेंटिटी में दावा किया कि जेंडर अस्मिताओं को अलग-अलग क़ायम रखने की कोशिश का मतलब है अनिवार्य इतरलैंगिकता को बढ़ावा देना । 1993 में प्रकाशित अपनी रचना बॉडीज दैट मैटर : ऑन द डिस्कर्सिव लिमिट्स ऑफ सेक्स में बटलर ड्रैग क्वीन की मिसाल दिया ।
14- जूडिथ बटलर ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में लिखा है कि स्त्रीपन की आचरण संहिता किसी भी देह पर चस्पाँ की जा सकती है चाहे वह पुरुष हो या स्त्री । बटलर कहती हैं कि अस्मिता की राजनीति के लिए प्रतिबद्धता नारीवाद के लिए नुक़सानदायक है । अस्मिता के आधार पर पूरी तरह से लोकतांत्रिक और सहभागी राजनीति की रचना नहीं हो सकती । जेंडर ट्रबुल से बटलर का मतलब है स्त्री की अस्मिता का पाश्टिस के तरीक़े से प्रदर्शन, न कि पैरोडी की भाँति । पैरोडी तो उसकी भौंडी नकल होती है जिसे मूल समझा गया है । जबकि पाश्टिस में एक तरह की फ़ितनागरी अंतर्निहित है ।बटलर का सुझाव है कि दैहिक सेक्स, जेंडर और सेक्शुअलिटी के आयामों को मिलाकर हम एक ऐसा मिश्रण तैयार कर सकते हैं जो क्वियर यानी अनोखा और बिगाडू होगा ।
15- क्वियर थियरी : बटलर का विमर्श क्वियर थियरी से जुड़ा हुआ है । एक विचार के तौर पर क्वियर का उभार समलैंगिक सेक्शुलिटियों की राजनीति और एक हद तक नारीवादी राजनीति के कुछ पहलुओं के मिश्रण से हुआ है । क्वियर थियरी के अनुसार हाशियाकृत सेक्शुअलिटीज को अल्पसंख्यक राजनीति की तरह सूत्रबद्ध करने से बचा जाता है । यह थियरी केन्द्र और परिधि के द्विभाजन के पक्ष में नहीं है । क्वियर थियरी भिन्नता के नाम पर बने तरह-तरह के केन्द्रों के खिलाफ बग़ावत का संदेश देती है । वह उन भिन्नताओं के पक्ष में है जो आपस में गुँथी हुई है, अस्तित्व बहुल और अर्थ बहुल है और ठोस न होकर सरंध्र है । यह किसी भी धारणा को समाज की केन्द्रीय या बुनियादी मानने के लिए तैयार नहीं है ।
16- जोसेफ़ शुमपीटर (1883-1950) का जन्म ट्रीश, मोराविया, जो आजकल चेक गणराज्य का हिस्सा है, में हुआ था । वह पूँजीवाद के उत्थान और पतन के दीर्घकालीन कारणों की पहचान करने वाले पहले अर्थशास्त्री थे । शुमपीटर की अंतर्दृष्टियों में उपभोक्ता, उत्पादन और उद्यमी के सम्बन्धों का विश्लेषण बहुत महत्वपूर्ण है । शुमपीटर का निष्कर्ष था कि पूंजीवाद अपनी नाकामियों के कारण नहीं बल्कि कामयाबियों के कारण विफल होने के लिए अभिशप्त है । 1918 में वह राजनीति में कूदे और अगले साल आस्ट्रिया के वित्त मंत्री बने । 1925 में शुमपीटर बॉन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर बने । सात साल बाद वह अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर बने और फिर आजीवन वहीं रहे अमेरिकी इकॉनॉमिक एसोसिएशन के वे पहले गैर अमेरिकी अध्यक्ष थे ।
17- जोसेफ़ शुमपीटर ने तीन व्यापार चक्रों की पहचान की जो किसी अर्थव्यवस्था में एक साथ घटित होते हैं । सबसे पहले तीन से चार साल के लिए एक अल्पावधि उतार- चढ़ाव आता है । शुमपीटर ने इस व्यापार चक्र का नामकरण किटचिन चक्र के रूप में किया क्योंकि सबसे पहले इसकी शिनाख्त अर्थशास्त्री जोसेफ किटचिन ने की थी । दूसरा व्यापार चक्र आठ से ग्यारह साल का होता है । शुमपीटर ने इसे जुगलर चक्र की संज्ञा दी क्योंकि सबसे पहले इसकी शिनाख्त क्लीमेंट जुगलर ने की थी । तीसरा व्यापार चक्र 45-60 साल का होता है । शुमपीटर ने इसे कोंद्रातीफ लहरों की संज्ञा दी क्योंकि सबसे पहले रूसी अर्थशास्त्री निकोलाई कोंद्रातीफ ने इन चक्रों को पहचाना था ।
18- दलित- पसमंदा मुसलमान मुसलिम राजनीति में उभरने वाली एक नई प्रवृत्ति है । मुसलमानों में मौजूद जाति प्रथा और अंदरूनी विरोधाभासों को आधार बनाकर आंतरिक लोकतंत्र की माँग करने वाला यह विमर्श मुसलमानों की पिछड़ी जातियों को हिन्दू और सिक्ख पिछड़ों और दलितों की तर्ज़ पर ही संविधानसम्मत सुविधाएँ दिए जाने का पक्षधर है । 1990 में एजाज़ अली ने, जो स्वयं अंसारी समुदाय से थे, इस शब्द का प्रयोग किया । अली का आन्दोलन काफ़ी तेज़ी से लोकप्रिय हुआ और शीघ्र ही दलित- पिछड़े मुस्लिम का सवाल उठाने वाले कई संगठन सामने आए । अली ने स्वयं 1992 में ऑल इंडिया मुस्लिम बैकवर्ड मोर्चा की स्थापना किया । अली का मत है कि सैयदवाद से ग्रस्त मुसलिम समाज को सुधार की ज़रूरत है ।1998 में अली अनवर की पुस्तक मसावत की जंग ने विमर्श को पसमंदा नामक नई अवधारणा से नवाज़ा ।
19- साउथ एशियन एसोसिएशन फ़ॉर रीजनल को- ऑपरेशन या दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) गठित करने का प्रस्ताव सबसे पहले 1980 में बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति जिया-उर- रहमान द्वारा रखा गया था । 1981 में दक्षिण एशियाई देशों के विदेश सचिवों की कई दौर की बैठक हुई । फिर 1983 में नई दिल्ली में इस क्षेत्र के सभी सातों देशों के विदेश मंत्री मिले तत्पश्चात् दिसम्बर, 1985 में औपचारिक रूप से सार्क की स्थापना की गई । शुरुआत में कुल सात देश इसके सदस्य थे : भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान और मालदीव । इसका पहला शिखर सम्मेलन बांग्लादेश की राजधानी ढाका में हुआ जिसमें इसके सभी सदस्य देशों के शासनाध्यक्षों ने भाग लिया था ।
20- वर्ष 2007 में सार्क मे अफ़ग़ानिस्तान को सदस्यता दी गई । इसके अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका और दक्षिण कोरिया, चीन आदि देशों को सार्क में पर्यवेक्षक का दर्जा दिया गया । यूरोपियन यूनियन जैसे संगठन भी इसके सम्मेलनों में बतौर पर्यवेक्षक भागीदारी करते हैं । सार्क का सचिवालय नेपाल की राजधानी काठमांडू में स्थित है । सदस्य देशों के द्वारा रोटेशन या क्रम के हिसाब से इसके सेक्रेटरी जनरल का चुनाव किया जाता है । सार्क ने 1997 से सार्क युवा पुरस्कार और 2004 से सार्क पुरस्कार की भी शुरुआत की है । 2010 में सार्क देशों ने दिल्ली में एक साउथ एशियन यूनिवर्सिटी की भी स्थापना की है, जिसके पाठ्यक्रम और शिक्षण में सभी सार्क देशों से जुड़े पहलुओं पर ध्यान देने की बात कही गई है ।
21- सार्क के चार्टर के अनुसार इस संगठन का उद्देश्य दक्षिण एशिया के लोगों का कल्याण करना और उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना है । क्षेत्र के लोगों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का लक्ष्य रेखांकित करने के साथ ही इसमें परस्पर सहयोग बढ़ाने, दूसरे विकासशील देशों से सम्बन्ध मज़बूत करने और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सामान्य हित वाले मुद्दों पर एकजुट आवाज़ में बोलने पर भी ज़ोर दिया गया है । इसमें यह सिद्धांत अपनाया गया है कि सदस्य राष्ट्र- राज्य एक दूसरे की प्रभुसत्ता, क्षेत्रीय अखंडता, राजनीतिक समानता और स्वतंत्रता का आदर करेंगे । सदस्य देशों के कुछ महत्वपूर्ण फ़ैसलों में खाद्य सुरक्षा रिज़र्व की स्थापना, आतंकवाद का दमन, नशे की तस्करी पर रोक, सार्क चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स की स्थापना आदि हैं ।
22- सार्क देशों ने क्षेत्रीय व्यापार में एक- दूसरे को वरीयता और दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र की स्थापना का निर्णय लिया है । इसकी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि साफ्टा अर्थात् साउथ एशियन प्री ट्रेड एग्रीमेंट अथवा दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार समझौता है । जनवरी 2004 को सार्क के बारहवें सम्मेलन में साफ्टा पर हस्ताक्षर किए गए । जनवरी, 2006 को यह समझौता क्रियाशील हुआ और व्यापार उदारीकरण की शुरुआत जुलाई, 2006 से हुई । इस समझौते के अनुसार सार्क देशों को आपसी व्यापार को बढ़ाने के लिए वस्तुओं के टैक्स में बीस प्रतिशत की छूट दी गई । बहुत सी मुश्किलों और सीमाओं के बावजूद सार्क ने कई मामलों में अच्छी प्रगति की है । इसने एक ऐसा मंच उपलब्ध कराया है, जिसके द्वारा दक्षिण एशियाई देश आपस में संवाद कर सकते हैं ।
23- दादा भाई नौरोजी (1825-1917) की प्रतिभा तथा उनके असंदिग्ध देश प्रेम के कारण उन्हें भारत में ग्रांड ओल्डमैन ऑफ इंडिया की उपाधि से विभूषित किया गया है । बम्बई के एक पारसी पुरोहित परिवार में जन्में दादाभाई नौरोजी भारतीय राष्ट्रवाद के सर्वप्रथम सिद्धांतकार थे । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दादाभाई ने ड्रेन थियरी का प्रतिपादन करके दिखाया कि किस तरह ब्रिटिश उपनिवेशवाद तरह-तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था को निचोड़ कर इस देश को कंगाल बनाए दे रहा है । दादाभाई अर्थ तंत्र को अलग-अलग समझने के बजाय सत्ता, राजनीति और नैतिकता की मिली- जुली रोशनी में देखने के हामी थे । दादाभाई ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभायी और तीन बार उसके अध्यक्ष चुने गए ।
23-A- दादा भाई नौरोजी बम्बई के एल्फिन्स्टन कॉलेज में गणित के प्राध्यापक नियुक्त होने वाले पहले भारतीय थे । 1853 में बम्बई एसोसिएशन के संस्थापकों में से दादा भाई नौरेजी भी एक थे । उनकी प्रेरणा से 1867 में लंदन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना हुई । दादा भाई नौरोजी अंग्रेज़ी शासन तथा सभ्यता के महान प्रशंसक रहे । वर्ष 1906 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन को अध्यक्षीय पद से सम्बोधित करते हुए दादा भाई नौरोज़ी ने भारतीयों को स्वराज्य शब्द का मंत्र पहली बार कांग्रेस के मंच से प्रदान किया । 1904 में एमस्टर्डम में होने वाले अंतरराष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस के अधिवेशन में भी वह सम्मिलित हुए ।
23-B- दादा भाई नौरोज़ी के अनुसार इंग्लैंड ने भारत के साथ सम्बन्धों के कारण 33 करोड़ प्रतिवर्ष की दर से लाभ प्राप्त किया है । भारत अपने भूमिपुत्रों को सेवा से वंचित रखकर 12 हज़ार उच्च तथा मध्य पद एवं 60 हज़ार निम्न पद विदेशियों को दे रहा है । कुल मिलाकर 100 करोड़ रुपया भारत को ब्रिटिश शासन को भेंट करना पड़ रहा है । भारत के राजस्व का एक चौथाई भाग पूर्णतः विदेश चला जाता है और वह इंग्लैंड के आय का स्रोत बनता है ।
24- दादाभाई नौरोजी ने 1886 में इंग्लैंड में संसद का चुनाव लड़ा । 1902 में लिबरल पार्टी की ओर से उन्हें सेंट्रल फिसबरी के प्रतिनिधि के रूप में हाउस ऑफ कामंस का सदस्य बनने का मौक़ा मिला । 1883 में दादाभाई ने वॉयस ऑफ इंडिया अख़बार निकाला । लंदन विश्वविद्यालय में गुजराती के प्रोफ़ेसर के रूप में उन्होंने ध्यान प्रकाश नामक गुजराती पत्रिका का संपादन भी किया । कुछ साथियों की मदद से दादाभाई ने रास्त गोफ्तार गुजराती साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू करके दो साल तक उसका सम्पादन किया । उनकी वर्ष 1901 में प्रकाशित पुस्तक पॉवर्टी ऐंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया को एक क्लासिक रचना का दर्जा प्राप्त है ।
25- दामोदर धर्मानंद कोसम्बी (1907-1966) मूलतः गणितज्ञ थे जो प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन की मार्क्सवादी धारा के पितामह के रूप में विख्यात हैं । गोवा के एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्में दामोदर धर्मानंद कोसम्बी ने भारतीय इतिहास के अध्ययन में जिस नई परम्परा का सूत्रपात किया, वह मार्क्सवादी इतिहास दर्शन और विशेषकर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से अनुप्राणित थी । उनकी शुरुआती शिक्षा- दीक्षा पुणे में हुई जहाँ पर उनके पिता आचार्य दामोदर कोसम्बी एक बौद्ध विद्वान के रूप में प्रसिद्ध थे और फ़र्ग्युसन कॉलेज में पाली पढ़ाते थे । ग्यारह साल की उम्र में अपने पिता के साथ वह हारवर्ड चले गए जहां पर उन्होंने पहले कैम्ब्रिज ग्रामर ऑफ स्कूल तथा बाद में कैम्ब्रिज लैटिन स्कूल में पढ़ाई की ।
26- दामोदर धर्मानंद कोसम्बी ने 1929-31 तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, 1931-1933 तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तथा वर्ष 1933-1945 तक फ़र्ग्युसन कॉलेज में अध्यापन कार्य किया । 1945 में होमी जहांगीर भाभा के निमंत्रण पर उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फ़ण्डामेण्टल रिसर्च में गणित विषय में प्रोफ़ेसर के पद पर कार्य किया । उनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं : ऐन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री (1956), एक्जेस्परेटिंग एस्सेज : एक्सरसाइज़ इन डायलेक्टिकल मेथड(1957), मिथ ऐंड रियलिटी : स्टडीज़ इन द फ़ार्मेशन ऑफ इंडियन कल्चर (1962), द कल्चर ऐंड सिविलाइजेशन ऑफ एंसिएंट इंडिया इन हिस्टोरिकल आउटलाइन (1965) के अलावा उनके निबंधों के संकलन कम्बाइंड मेथड्स इन इंडोलॉजी ऐंड अदर राइटिंग्ज में स्पष्टतः देखा जा सकता है ।
27- देवी प्रसाद शेट्टी (1953-) समकालीन दौर के विख्यात ह्रदय रोग विशेषज्ञ हैं । बेंगलुरु स्थित नारायण ह्रदयालय के चेयरमैन डॉ. शेट्टी अपने विभिन्न अस्पतालों के द्वारा भारत में ह्रदय शल्य चिकित्सा को जन- जन तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं ।अपने इन प्रयासों के कारण हीडा देवी शेट्टी को ह्रदय चिकित्सा का हेनरी फ़ोर्ड, ह्रदय शल्य चिकित्सा का वाल मार्ट, ह्रदय चिकित्सा का राबिनहुड जैसे अलंकारों से नवाज़ा गया है । 1990 में कोलकाता में एक ह्रदय शल्य चिकित्सक के रूप में काम करते हुए डॉक्टर शेट्टी की एक मरीज़ मदर टेरेसा भी थीं । डॉ. शेट्टी ने मदद टेरेसा से जो कुछ भी सीखा वह आज भी उनके कमरे में लिखा है : प्रार्थना करने वाले होंठों से सेवा करने वाले हाथ ज़्यादा पावन हैं ।
28- कर्नाटक राज्य के किन्निगोली नामक एक छोटे से शहर में जन्में देवी प्रसाद शेट्टी ने 1982 में मंगलूर मेडिकल कॉलेज से एम एस की उपाधि प्राप्त की और 1983-1989 तक लंदन में काम किया । भारत लौटकर डॉ. शेट्टी ने कलकत्ता के बिरला ह्रदय संस्थान और फिर बेंगलूरू के मणिपाल हार्ट फ़ाउंडेशन में काम किया । 2001 में उन्होंने बंगलूरू में अपना संस्थान नारायण ह्रदयालय स्थापित किया । वे भारत के पहले शल्य चिकित्सक हैं जिन्होंने नौ दिन के नवजात के ह्रदय की शल्य चिकित्सा की । इस तरह से भारत में कृत्रिम ह्रदय का उपयोग करने वाले भी वह पहले चिकित्सक हैं । स्वास्थ्य सेवाओं में अधिकतम रोगी- न्यूनतम लागत का शेट्टी का मॉडल नारायण ह्रदयालय ने अपनाया है । उन्होंने कर्नाटक सरकार से मिलकर यशस्विनी बीमा योजना बनाई है जिसमें पॉंच रूपया प्रति माह पर लाखों लोगों को पूरे उपचार की गारंटी दी जाती है ।
29- निकोलो द बर्नार्डो मैकियावेली (1469-1527) यूरोपीय पुनर्जागरण काल के इतालवी दार्शनिक और राजनयिक के साथ ही आधुनिक राजनीति विज्ञान के प्रमुख संस्थापकों में से एक हैं । उन्होंने द प्रिंस (1513) और डिस्कोर्सिज (1516) जैसी बहुचर्चित पुस्तकें रचीं जिन्होंने राजनीतिक सत्ता, गणराज्य और युद्ध सम्बन्धी विषयों पर चिंतन को निर्णायक दिशा दी । इटली के नगर फ़्लोरेंस में सक्रिय रहे मैकियाविली को भी लियोनार्डो द विंसी की तरह रिनेसॉं मैन की संज्ञा दी जाती है । मैकियावेली ने ईसाइयत को दब्बूपन और परवशता का प्रतीक मानकर ख़ारिज किया । मैकियावेली के शब्दों में एहसानफरामोशी, झूठ बोलना, ख़ुदगर्ज़ी, छल, जोखिम से कतराना और मुनाफ़े की भूख मनुष्य के व्यवहार के अनिवार्य लक्षण हैं ।
30- मैकियावेली की निगाह में दुनिया दो तरह के लोगों में बँटी हुई है : वे जो प्रभुत्व जमाना चाहते हैं और वे जो किसी के प्रभुत्व के तले नहीं रहना चाहते । सीज़र बोर्जिया की राजनीति को आदर्श मानने वाले मैकियावेली का कहना था कि उनके प्रिंस का मुख्य उद्देश्य अपनी सत्ता सुरक्षित रखना होगा । प्रिंस को शक्ति और छल कपट का अक़्लमंदी से इस्तेमाल करना पड़ेगा । प्रजा के जज़्बात प्रेम, घृणा, डर और अवज्ञा से खेलने की कला में माहिर होना होगा । बेहतर होगा कि प्रजा में राजा के प्रति प्रेम और डर का मिला जुला भाव पैदा हो ताकि उसकी अवज्ञा और घृणा से बचा जा सके । राजनीति को एक तरह का ख़ामोश युद्ध मानने वाले मैकियावेली की यह धारणा रिनेसॉं युग की उन हस्तियों के विचारों से उलट थी जो मानते थे कि प्रिंस को कला कौशल का पारखी, सुसंस्कृत और मानवीय होना चाहिए ।
31- मैकियावेली के अनुसार राज्यों के बीच युद्ध केवल टाला जा सकता है, उसकी सम्भावनाएँ ख़त्म नहीं की जा सकती हैं । जो प्रिंस यह नहीं मानता उसकी बर्बादी लाज़मी है । शत्रु को हमला करके घायल करने के बजाय नष्ट करना ही उचित है, वरना बदले की भावना शत्रु को फिर से खड़ा कर देगी । मैकियावेली नि:संकोच मानते हैं कि सदाचार और भाग्य का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं होता है । राजनीति के निरंतर बदलते दायरे में क़िस्मत कभी भी दगा दे सकती है, इसलिए नए प्रिंस को नैतिकता प्रदत्त निर्धारित तौर- तरीक़ों में फँस कर परिस्थितियों के मुताबिक़ अपने आचरण को बदलते रहना चाहिए । उसके भीतर शेर के साथ- साथ लोमड़ी, मनुष्य के साथ- साथ पशु और क्षमा के साथ साथ निर्दयता के गुण भी होने चाहिए ।
32- मैकियावेली का देहान्त 1527 में हुआ । किसी को नहीं पता कि उनकी कब्र कहॉं पर बनायी गयी है । पर, फ़्लोरेंस के सांता ग्रोस चर्च में बने उनके स्मारक पर लैटिन भाषा में लिखा है : टैंटो नोमिनी नुल्लुम पार इलोजियम यानी इतनी महान हस्ती के लिए कोई भी सराहना अपर्याप्त है । एस. पीटर डोनाल्डसन की 1989 में प्रकाशित पुस्तक मैकियावेली ऐंड मिस्ट्री ऑफ स्टेट तथा क्लॉद लेवी- स्त्रॉस की 1978 में प्रकाशित पुस्तक थॉट्स ऑन मैकियावेली उनके जीवन पर आधारित महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं ।
33- पार्थ चटर्जी (1945-) भारत के उन चुनिंदा विद्वानों में हैं जिन्होंने पिछले तीन दशकों में अपने विमर्श के ज़रिए समाज विज्ञान की यूरोपीय परम्पराओं को चुनौती दी है । इतिहास, समाज- सिद्धांत, संस्कृति- अध्ययन, भाषा, राजनीति शास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से सम्बन्धित उनकी अब तक 21 पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है ।उन्हें बांग्ला का स्थापित नाटककार माना जाता है । पार्थ चटर्जी ने न्यूयार्क की रोशेस्टर युनिवर्सिटी से राजनीति शास्त्र में एम ए किया और फिर वहीं से पी. एच. डी. की उपाधि हासिल किया । उनकी पहली पुस्तक आर्म्स, अलायंस ऐंड स्टेबिलिटी : द डिवेलपमेंट ऑफ द स्ट्रक्चर ऑफ इंटरनेशनल पॉलिटिक्स (1975) अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन पर आधारित थी ।वर्ष 1978 में उनकी दूसरी पुस्तक स्टेट ऑफ पॉलिटिक्स प्रकाशित हुई । समकालीन दौर में वह कोलम्बिया विश्वविद्यालय न्यूयार्क में प्रोफ़ेसर हैं ।
34- फ़्लैशबैक (पूर्व-दृश्य) कथांकन की वह तकनीक है जिसे सिनेमा ने उपन्यास कला के शिल्प से ग्रहण किया है । किसी पात्र की स्मृति का सहारा लेकर फ़िल्मकार दर्शकों को गुज़रे हुए वक़्त के कुछ क्षण दिखाता है जिससे फ़िल्म की नाटकीयता और घटनात्मक गतिशीलता में बढ़ोतरी होती है । फ़्लैशबैक विषयवस्तु के कथांकन की प्रामाणिकता को और पुष्ट करने की भूमिका निभाता है । हर फ़्लैशबैक किसी न किसी किरदार के दृष्टिकोण को पुष्ट करता है । फ़्लैशबैक का सृजनात्मक इस्तेमाल करके राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक आग्रहों को विखंडित भी किया गया है । हॉलीवुड में इसका उदाहरण ओर्सन वेल्स की विख्यात फ़िल्म सिटीज़न कैन मानी जाती है । वर्ष 2010 की लोकप्रिय फ़िल्म वंस अपोन ए टाइम इन बोंबे पूरी तरह से फ़्लैशबैक में है ।
35- फ़्लैशबैक की तकनीक को हिन्दी फ़िल्मों में भी प्रयोग किया गया है । 1925 में बनी हिमांशु राय की लाइट ऑफ एशिया में यह तकनीक अपनायी गयी थी । इसके बाद 1936 में अछूत कन्या की कहानी तो फ़्लैशबैक में ही कही गई है । ए. आर. कारदार ने दास्तान में, राजकपूर ने आग, अवारा और मेरा नाम जोकर में, विमल रॉय ने मधुमती में, महबूब खान ने मदर इंडिया में, गुरुदत्त ने काग़ज़ के फूल और साहिब, बीबी और गुलाम में, सुनील दत्त ने यादें और राज खोसला ने मेरा साया में, रमेश सिप्पी ने शोले में फ़्लैशबैक के अविस्मरणीय प्रयोग किये । सत्तर के दशक में पूरी तरह से फ़्लैशबैक पर आधारित श्याम बेनेगल की फ़िल्म भूमिका आयी । राकेश ओमप्रकाश मेहरा की कृति रंग दे बसंती एक तरह से रिवर्स फ़्लैशबैक है ।
36- रिनेसॉं या पुनर्जागरण फ़्रेंच भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है पुनरुज्जीवन या पुनः जन्म लेना ।चौदहवीं से सोलहवीं सदी के बीच घटी इस सांस्कृतिक और वैचारिक परिघटना को मध्य युग और आधुनिक युग के बीच सेतु की संज्ञा दी जाती है । इटली में शुरू होने के बाद इसका प्रसार यूरोप के विभिन्न भागों में हुआ । पुनर्जागरण के दौरान प्राचीन यूनानी और लैटिन स्रोतों के आधार पर साहित्य, कला, दर्शन, राजनीति, विज्ञान और धर्म के क्षेत्र में नए विचारों, पद्धतियों और कृतियों का सृजन हुआ जिनके आधार पर आधुनिकता की आत्मचेतना निर्मित हुई । पुनर्जागरण ने ल्यूनार्डो द विंसी और माइकिल एंजिलो, बाउनारोती और राफाएल जैसे बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार पैदा किए जिनसे रिनेसॉं मैन जैसी अवधारणाओं का जन्म हुआ ।
37- रिनेसॉं ने कलाकार को सुपरिभाषित आत्मचेतना से लैस किया। 1550 में गियोर्गियो वासारी ने द लाइव्ज ऑफ द आर्टिस्ट लिख कर पूरे युग को तीन भागों में बाँटकर देखने की उपयोगी तजवीज़ की । उन्होंने पहली बार हिस्टीरियोग्राफी जैसी अभिव्यक्ति का इस्तेमाल करते हुए रोमन साम्राज्य के पतन के बाद हुए कला के ह्रास यानी गोथिक कला की बर्बरता से मुक्ति का दावा किया । मैकियावेली और टामस मूर जैसे राजनीतिक दार्शनिकों ने राजनीतिक जीवन को आरोपित नैतिकताओं से मुक्त करके तर्कसंगत ढंग से समझने का मार्ग प्रशस्त किया । पिको डेला मिंडारोला ने 1886 में ओरेशन ऑन डिगनिटी ऑफ मैन लिखकर नवजागरण का घोषणा पत्र ही तैयार कर डाला । इसी समय मैतियो पाल्मीरी ने ऑन सिविक लाइफ़ की रचना की ।
38- रिनेसॉं ने विज्ञान के क्षेत्र में तथ्यात्मक प्रमाण पर बल देते हुए अरस्तू द्वारा प्रतिपादित अंतिम कारण के सिद्धांत की जगह यंत्रशास्रीय दर्शन की स्थापना किया जिसके शुरुआती प्रणेता कोपरनिकस और गैलीलियो थे । नवजागरण का यह अध्याय विज्ञान के दायरे में हुई देकार्तवादी क्रांति का आधार बना । धर्म के दायरे में रिनेसॉं ने अनूठी क्रांति की । इरास्मस के साथ मिलकर मार्टिन लूथर ने न्यू टेस्टामेंट का मानवतावादी पाठालोचन तैयार किया । अक्टूबर, 1517 में लूथर ने 95 थिसिज का प्रकाशन करके पश्चिमी यूरोप के कैथोलिक वर्चस्व को तोड़ डाला और रिफॉर्मेशन के युग की शुरुआत की । हंगरी, जर्मनी और पोलैंड तेज़ी से इसके प्रभाव में आए । बैले जैसी नृत्य शैली इसी प्रक्रिया की देन है ।
39- यूरोप के 27 देशों की सदस्यता वाला आर्थिक और राजनीतिक संगठन यूरोपियन यूनियन भूमण्डलीकरण के युग में राष्ट्रेतर और अंतरशासकीय संरचना का सफल और प्रभावी उदाहरण है । 1993 में मास्ट्रिच संधि की पुष्टि के बाद यूरोपीय समुदाय के आधार पर यूरोपीय संघ का गठन बेल्जियम, जर्मनी, फ़्रांस, इटली, लक्जेमबर्ग और नीदरलैंड्स ने मिलकर किया था ।कालान्तर में ऑस्ट्रिया, बल्गारिया, साइप्रेस, चेक गणराज्य, डेनमार्क, एस्टोनिया, फ़िनलैंड, यूनान, हंगरी, आयरलैंड, लातविया, लिथुआनिया, माल्टा, पोलैंड, पुर्तगाल, रोमानिया, स्लोवाक गणराज्य, स्लोवेनिया, स्पेन, स्वीडन और युनाइटेड किंगडम भ यूरोपियन यूनियन के सदस्य बने ।
40- ज्ञानोदय मनुष्य को उस नादानी से मुक्त करता है जो उसने स्वयं अपने ऊपर लाद रखी है । नादानी के कारण ही व्यक्ति अपनी समझ को दूसरे के मार्ग निर्देशन के बिना इस्तेमाल करने में अक्षम रहता है । इमैनुअल कांट ने कहा कि ऐसी नादानी क़ाबिलियत के अभाव का द्योतक नहीं होती और जानने की जुर्रत के ज़रिए इसे ज्ञानोदय में बदला जा सकता है । कहा जाता है कि न्यूटन की रचना प्रिंसिपिया मैथमेटिका के प्रकाशन से ज्ञानोदय की शुरुआत होती है और फ़्रांसीसी क्रांति तक यह युग चलता है । एक दावा यह भी है कि 1637 में प्रकाशित देकार्त की रचना डिस्कोर्स ऑन द मैथड से ज्ञानोदय की शुरुआत समझी जानी चाहिए जो नेपोलियनिक युद्धों (1804-15) के प्रारंभ तक चला ।
41- फ़्रांस में हुई क्रांति ने ज्ञानोदय के चिंतकों को राजनीतिक परिवर्तन का नया मॉडल प्रदान किया जिसके आधार पर नई सदी की शुरुआत में उदारतावादी चिंतकों को वैचारिक नवाचार करने की कई गुंजाइशें मिलीं । 1748-1754 तक मोंतेस्क्यू की रचना इस्परीत द लोई, दिदेरो और द अलेम्बर्त की रचना इनसाक्लोपीदी, वाल्तेयर की रचना ल सीस्ले द लुई फोर्टींथ, बुफों की रचना हिस्तोइर नेचुरेले और रूसो की रचना डिस्कोर्स प्रकाशित हो चुके थे । यही था विचारों का वह सिलसिला जिसने उस इतिहास के उस विशिष्ट युग में 1789 की फ़्रांसीसी क्रांति को जन्म दिया । स्कॉटलैंड के दार्शनिक ह्यूम ने कई साल फ़्रांस में बिताने के बाद ट्रीटाइज ऑफ ह्यूमन नेचर की रचना की । उनके दोस्त और ग्लासगो विश्वविद्यालय में नैतिक दर्शन के प्रोफ़ेसर ऐडम स्मिथ ने भी थियरी ऑफ मॉरल सेंटीमेंट्स की रचना करने के बाद 1764 में फ़्रांस की यात्रा की ।
42- ऐडम स्मिथ की युग प्रवर्तक रचना वेल्थ ऑफ नेशंस पर उनके फ़्रांसीसी सम्पर्कों का प्रभाव पड़ा । जैफर्सन ने विलियम और मैरी कॉलेज में अपने स्कॉटिश अध्यापक से उदारतावाद की दीक्षा प्राप्त की और उसी के ज़रिए इस विचार की मुख्य धाराएँ अमेरिका पहुँची । महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जैफर्सन द्वारा लिखित अमेरिकी आज़ादी का घोषणा पत्र, फ़्रैंकलिन के सभापतित्व में तैयार किया गया अमेरिकी संविधान और मेडिसिन की रचना समझे जाने वाले बिल ऑफ राइट्स के आधार में फ़्रांसीसी नवजागरण की उपलब्धियाँ थीं । इसलिए कहा जाता है कि फ़्रांस ने जैफर्सन को ज्ञानोदय दिया और फिर बाद में उन्हीं के ज़रिए उसका आयात किया । 1789 के फ़्रांसीसी घोषणा पत्र पर अमेरिकी प्रभाव साफ़ देखा जा सकता है ।
43- यूटोपिया यूनानी भाषा से आया हुआ है । यूनानी भाषा में एक शब्द है इयू टोपोस और दूसरा है आउ टोपोस । पहले का अर्थ है बेहतर जगह और दूसरे का मतलब है जो जगह ही नहीं है । समाज वैज्ञानिक विमर्श में यूटोपिया अलग-अलग दृष्टिकोण के हिसाब से इन दोनों परस्पर विपरीत तात्पर्यों को व्यक्त करता है । बेहतर जगह के रूप में यूटोपिया का विचार भविष्य में कहीं स्थित समाज के उस रूप की नुमाइंदगी करता है जो आदर्श, सम्पूर्ण और त्रुटिहीन है, जिसमें आज की दुनिया में मनुष्य को सताने वाले संघर्ष और अन्याय नहीं है । एक ना कुछ जगह के रूप में यूटोपिया एक असम्भव क़िस्म की कल्पना और एक छलावा है जिसे धरती पर उतारने की कोशिश वक़्त की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं हो सकती ।
44- यूटोपिया के विचार का चलन अंग्रेज़ी में 1516 में प्रकाशित थॉमस मूर की रचना ऑफ द बेस्ट स्टेट ऑफ अ रिपब्लिक ऐंड ऑफ द न्यू आइलैंड यूटोपिया से हुआ । इसमें मोर ने अटलांटिक महासागर के एक काल्पनिक द्वीप में क़ायम आदर्श सामाजिक- आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का वर्णन किया है । मोर ने इसके लिए प्लेटो रचित रिपब्लिक में मौजूद आदर्श समाज व्यवस्था को अपना आधार बनाया । 1624 में फ़्रांसिस बेकन ने न्यू अटलांटिस की रचना की और फिर 1656 में जेम्स हैरिंगटन ने कॉमनवेल्थ ऑफ ओशियाना का लेखन किया । 1890 में विलियम मॉरिस ने न्यूज़ फ्रॉम नोव्हेयर का प्रकाशन किया । रूसो की रचना सोशल कांट्रेक्ट की रैडिकल भाव- भूमि, फ़्रांसीसी क्रांति के द्वारा आमूलचूल और थोक में हो सकने वाले सामाजिक परिवर्तन की दावेदारी, थॉमस पाइन की रचना द राइट्स ऑफ मैन ने और रॉबर्ट ओवेन की कृति ए न्यू व्यू ऑफ सोसाइटी किसी न किसी रूप में यूटोपियाई ख़यालों के रंग में रंगी रही है ।
45- यूटोपिया की अवधारणा कम से कम चार तत्वों से मिलकर बनती है । सबसे पहले वह मौजूदा व्यवस्था की निर्मम आलोचना करती है । दूसरे, यूटोपियाई विचार की मान्यता है कि इंसान निरंतर आत्मविकास की सम्भावनाओं से परिपूर्ण है । तीसरा, यूटोपियाई विचार मनुष्य की सम्पूर्ण मुक्ति का आश्वासन देता है । यूटोपिया का चौथा पहलू यह है कि वह लाज़मी तौर पर मानवीय प्रयास और सामूहिकता की रैडिकल अभिव्यक्ति के बिना परवान नहीं चढ़ता है । अनुदारवादी चिंतक यूटोपियाई चिंतन की आलोचना करते हुए कहते हैं कि इस बुद्धिवादी हेकड़ी के नुक़सानदेह नतीजे निकलने अनिवार्य हैं । कार्ल पॉपर और ईसैया बर्लिन जैसे उदारतावादियों ने भी यूटोपियनिज्म को ख़तरनाक, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाला और अंततः हिंसा का जनक करार दिया है ।
46- टॉम मोयलैन ने 1986 में प्रकाशित अपनी रचना में यूटोपियाओं की दो श्रेणियाँ बनाई हैं : पहली श्रेणी में वह यूटोपिया आते हैं जो अपने वक़्त की प्रधान विचारधारा को पुष्ट करने की भूमिका निभाते हैं और दूसरी श्रेणी उनकी है जिनके तहत प्रतिपक्ष की अभिव्यक्तियों के लिए एक स्वाभाविक दायरा उपलब्ध हो सकता है । यूटोपियाई विमर्श से सम्बन्धित दो धारणाएँ और निकली हैं : डिस्टोपिया और हेटरटोपिया । डिस्टोपिया को नकारात्मक यूटोपिया भी कहा जाता है । यह बीसवीं सदी में विकसित सर्वसत्तावादी परिघटना की प्रभावशाली आलोचना करती है । इसके विख्यात उदाहरणों में एल्डस हक्सले की रचना ब्रेव न्यू वर्ल्ड, एंथनी बर्गेस की रचना अ क्लॉकवर्क,ओरेंज और जार्ज ऑरवेल की रचना नाइंटीन एट्टी- फोर शामिल है ।
47- हेटरटोपिया की धारणा में हक़ीक़त की तल्खियों से यूटोपियाई पलायन और निराकार यथार्थ की सम्भावनाओं के यथार्थ में अनुवाद का संयोग दिखाई देता है । सैमुअल आर डिलानी का उपन्यास ट्रबुल ऑन ट्रिटन : एन एम्बीगुअस हेटरोटोपिया यूटोपिया की धारणा पर कई परिप्रेक्ष्यों के तहत विचार करने का मौक़ा देता है । समकालीन दौर में नारीवादी यूटोपिया की अवधारणा भी प्रकाश में आयी है । उत्तर आधुनिक सिद्धांतकार डोना हरावे सचेत रूप से अपने लेखन को यूटोपियाई परम्परा के भीतर पेश करती हैं । इसके विमर्श का केन्द्रीय बिन्दु है, जेंडर एक सामाजिक गढंत है या एक कुदरती मजबूरी । चिंतक मेरी जेंटल और डोरिस लेसिंग ने भी इस पर पर्याप्त ध्यान दिया है । एलिज़ाबेथ मान बोरगेस की रचना माई ओन यूटोपिया में जेंडर को लिंग से न जोड़कर आयु से जोड़ा गया है ।
48- रॉबर्ट नॉजिक (1938-2002) अमेरिकी राजनीतिक दार्शनिक हैं जिन्हें स्वतंत्रतावादी तर्क को मज़बूत दार्शनिक आधारों के साथ पेश करने और समतावादियों के तर्कों को चुनौती देने के लिए जाना जाता है । उन्होंने 1974 में प्रकाशित अपनी पुस्तक एनार्की, स्टेट ऐंड यूटोपिया में स्वतंत्रतावाद का अपना संस्करण पेश किया । नॉजिक ने कहा कि व्यक्ति अपनी प्रतिभा और क्षमताओं के असीम स्वामी हैं । रॉबर्ट नॉजिक का जन्म अमेरिका के ब्रुकलिन शहर में एक यहूदी परिवार में हुआ । कोलम्बिया विश्वविद्यालय से स्नातक बनने के बाद उन्होंने प्रिंसटन विश्वविद्यालय से पी.एच डी की । नॉजिक का सम्पत्ति सम्बन्धी सिद्धांत ऐतिहासिक हक़दारी के सिद्धांत के रूप में जाना जाता है । वह हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, अमेरिका में दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर थे ।
49- रॉबर्ट नॉजिक द्वारा प्रतिपादित हक़दारी सिद्धान्त के मूल घटक हैं : वस्तुओं के न्यायपूर्ण अधिग्रहण का सिद्धांत, वस्तुओं के न्याय पूर्ण अधिग्रहण का सिद्धांत, परिशोधन का सिद्धांत । यदि कोई व्यक्ति उपरोक्त प्रक्रिया का पालन नहीं करता है तो वह किसी वस्तु का वैध रूप से हक़दार नहीं हो सकता है । वह स्पष्ट रूप से मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति इन प्रक्रियाओं द्वारा अपनी सम्पत्ति हासिल करता है तो वह अपने विवेक के मुताबिक़ इन वस्तुओं का स्वामित्व अपने पास रख सकता है या इसे किसी दूसरे व्यक्ति को हस्तांतरित कर सकता है । नॉजिक तर्क देते हैं कि जब तक कॉमन या जन सामान्य के क्षेत्र में दूसरों के लिए पर्याप्त और उतना ही अच्छा छोड़ा जाता रहेगा, तब तक स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं होगा ।
50- डॉ. राममनोहर लोहिया (1910-1967) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाजवादी नेता, राजनीतिक सिद्धांतकार, प्रगतिशील और वामोन्मुख भारतीयता के विचारक और हिन्दी के प्रबल समर्थक थे । लोहिया का नाम भारतीय राजनीति में गैर- कांग्रेस वाद के रणनीतिकार और मार्क्सवादी प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त समाजवाद का देशज संस्करण तैयार करने वाले चिंतक के तौर पर दर्ज है । पिछड़ी जातियों को चुनावी मंच पर एक शक्ति के रूप में पेश करके लोहिया ने उनके राजनीतिकरण का रास्ता खोला और भारतीय राजनीति का चेहरा हमेशा के लिए बदल दिया । गांधीवादियों के तत्कालीन रवैये के मुक़ाबले खुद को कुजात गांधीवादी घोषित करके लोहिया ने एक नया रास्ता बनाया । सामाजिक- राजनीतिक नवनिर्माण के लिए लोहिया ने सप्त क्रांतियों का सूत्रीकरण किया जिसमें स्त्री मुक्ति को प्रमुख स्थान दिया गया है ।
51- डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, 1910 को तमसा नदी के किनारे स्थित क़स्बा अकबरपुर, ज़िला फ़ैज़ाबाद (अब अयोध्या) उत्तर-प्रदेश में हुआ था । उनके पिता का नाम हीरालाल और माता का नाम चन्दा था । जब लोहिया जी ढाई साल के थे तभी उनकी माँ का देहान्त हो गया था । 1925 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा बम्बई के मारवाड़ी कॉलेज से प्रथम श्रेणी में पास किया । 1927 में इंटर की परीक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण किया । 1929 में कलकत्ता के विद्यासागर महाविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा पास किया । वर्ष 1931 में लोहिया ने बर्लिन के हुम्बर्ट विश्वविद्यालय से नमक और सत्याग्रह नामक शोध प्रबन्ध पर पी-एच. डी. की डिग्री प्राप्त किया ।
52- वर्ष 1934 में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का निर्माण हुआ था, तब ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ नामक साप्ताहिक मुखपत्र के डॉ. लोहिया सम्पादक बने । वर्ष 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय डॉ. लोहिया ने स्वतंत्रता संग्राम को चार सूत्रीय एजेंडा दिया : युद्ध भारती का विरोध, देशी रियासतों में आन्दोलन, ब्रिटिश मॉल जहाज़ों से उतारने तथा चढ़ाने वाले श्रमिकों का संगठन और युद्ध कर तथा युद्ध क़र्ज़ को मंजूर न करना और अदा न करना । इसी प्रकार भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान भी लोहिया ने चार तत्वों की एक नयी योजना प्रस्तुत किया : एक देश की पूँजी जो दूसरे देश में लगी है उसे ज़ब्त करना, सभी लोगों को विश्व की किसी भी जगह बसने का अधिकार, संसद के सभी राष्ट्रों को राजनीतिक आज़ादी और विश्व नागरिकता की स्थापना ।
53- डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1955 से 1962 तक अंग्रेज़ी हटाओ, दाम बाँधो, जाति तोड़ो, हिमालय बचाओ जैसे आन्दोलनों का संचालन किया । वर्ष 1963 में उत्तर- प्रदेश के अमरोहा निर्वाचन क्षेत्र से उप चुनाव में विजयी होकर लोहिया प्रथम बार लोकसभा पहुँचे । 1967 के आम चुनाव में लोहिया ने कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ का नारा बुलंद किया । पारिवारिक बंधनों से मुक्त डॉ. लोहिया जीवन पर्यन्त अविवाहित, फक्कड़ और घुमक्कड़ रहे । पीड़ित- उपेक्षित वर्गों के हिमायती, अविचल, उत्साह, धैर्य, निष्ठा, तपस्या एवं त्यागी व्यक्तित्व के धनी इस लौह पुरुष का दिल्ली में 12 अक्तूबर, 1967 को देहान्त हो गया । उनका समस्त दर्शन जनतांत्रिक मानववाद की अभिव्यक्ति है ।
54- डॉ. राममनोहर लोहिया का लेखन भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है : समाजवाद के आर्थिक आधार (1952), पाकिस्तान में पलटनी शासन (1963), इतिहास चक्र (1966), सात क्रांतियाँ (1966), सरकारी, मठी और कुजात गॉंधीवादी (1969), गिल्टी मैन ऑफ इंडिया पार्टीशन (1970) उनकी बहुत लोकप्रिय रचनाएँ हैं । लोहिया ने भारतीय जीवन में जाति को बहुत महत्वपूर्ण माना है । वह कहते थे कि, ‘जाति एक अपरिवर्तनीय संरचना है जो विचार और कर्म में दोगलापन प्रदर्शित करती है’। डॉ. लोहिया ने कहा था कि, “आर्थिक गैरबराबरी और जाति- पॉंति जुड़वा राक्षस हैं और अगर एक से लड़ना है, तो दूसरे से भी लड़ना आवश्यक है ।” डॉ. लोहिया कमजोर एवं पिछड़े वर्गों को साठ प्रतिशत आरक्षण देने की बात की ।
55- डॉ. राममनोहर लोहिया ने स्पष्ट रूप से कहा कि, “सबसे पहले ग़रीबी और अमीरी के फ़र्क़ से अन्याय निकलते हैं, उनको लें । यह जड़ वाला अन्याय है ।” अंग्रेज़ी भाषा के स्थान पर डॉ. लोहिया लोक भाषा का प्रयोग चाहते थे । उनका कहना था, “ जो आदमी हिंदुस्तान की जाति प्रथा को अपने दिमाग़ में नहीं रखेगा, जो कि एक वस्तु- स्थिति है, एक ख़ास बात है और हरेक चीज के लिए वह नींव है, वह कभी भी पूंजीवाद- समाजवाद के चक्कर को समझ ही नहीं पायेगा ।” उन्होंने घेरा डालो आन्दोलन, अन्न बाँटो आन्दोलन, रोटी दो या जेल दो जैसे अनेक जन आन्दोलनों का संचालन किया । लोहिया का कहना था कि, “जो लोग यह कहते हैं कि राजनीति को भोजन से अलग रखो, वे या तो अज्ञानी हैं या बेईमान । राजनीति का पहला काम लोगों का पेट भरना है । जिस राजनीति में लोगों का पेट नहीं भरता, वह राजनीति भ्रष्ट, पापी और नीच है ।”
56- डॉ. राममनोहर लोहिया ने चौखम्भा राज्य की परिकल्पना की है । उन्होंने ग्राम, मंडल, प्रान्त और केन्द्र इन चार समान प्रतिभा और सम्मान वाले खम्भों में शक्ति के विकेन्द्रीकरण का सुझाव दिया । वाणी, स्वतंत्रता और कर्म नियंत्रण का सिद्धांत भी लोहिया के राजनीति चिंतन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है । उन्होंने कहा कि, “बोली की तो लम्बी बांह होनी चाहिए, खूब स्वतंत्र हो, जो भी बोलो, लेकिन जब कर्म करो तो बंधी हुई, संगठित, अनुशासित मुट्ठी होनी चाहिए ।” गिरे हुए को उठाना, प्यासे को पानी देना, भूखे को रोटी, गृह हीन को निवास स्थान देना ही सच्चा धर्म है , ऐसा लोहिया जी कहते थे । उन्होंने धर्म को दीर्घकालिक राजनीति और राजनीति को अल्पकालिक धर्म कहा है ।
57- डॉ. राममनोहर लोहिया ने अपनी पुस्तक, “सप्त क्रांतियाँ” में समाज में बदलाव के लिए सात क्रांतियों की बात कही : नर और नारी की समानता के लिए, चमड़ी- रंग पर रची असमानताओं के विरूद्ध, जन्मजात तथा जाति- प्रथा के खिलाफ, परदेशी ग़ुलामी के खिलाफ, विश्व लोक कल्याण के लिए, निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ, निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ तथा सत्याग्रह के लिए ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, (1-50) अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खण्ड 6, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2016, ISBN : 978-81-267-2849-7, पेज नंबर -2196 से 2266 से साभार लिए गए हैं ।
2- तथ्य क्रमांक 51-57 डॉ. पुरुषोत्तम नागर की पुस्तक, आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन, प्रकाशन : राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, राजस्थान, छठां संस्करण, 1999, ISBN : 81-7137-288-0 , पेज नंबर 709-732 से साभार लिए गए हैं ।
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