राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 36)
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश) भारत । mail id- drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya. Com
(फेडरलिज्म, संचार, संत ऑगस्टीन, संत थॉमस एक्विना, संयुक्त राष्ट्र संघ, संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद, योहान गालटुंग, जेम्स गिलिगन, पैक्स ब्रिटानिका, संशोधनवाद, संस्कृति, संस्कृतीकरण,फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल)
1- सत्रहवीं सदी में ब्रिटेन और न्यू इंग्लैंड के ईसाई धर्म शास्त्रियों ने ईश्वर और मनुष्य के बीच पवित्र और स्थाई क़िस्म की संघात्मकता कल्पित करते समय लैटिन भाषा के शब्द फोइड्स (कोवेनांट या प्रतिज्ञापत्र) की मदद से फ़ेडरल शब्द गढ़ा था । अपने व्यापकतम अर्थों में फेडरलिज्म का मतलब है लोगों और संस्थाओं को परस्पर सहमति से किसी ख़ास मक़सद के लिए आपस में इस प्रकार जोड़ना कि उनकी निजी अस्मिताओं का किसी भी तरह से क्षय न हो । एक राजनीतिक प्रणाली के रूप में फेडरलिज्म की लोकप्रियता 1787 में संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान पारित होने के बाद बढ़ती चली गयी । डेनियल जे. एलाजार संघवाद के अमेरिकी विद्वान हैं ।
2- संचार का सीधा सा मतलब होता है दो या दो से अधिक कर्ताओं के बीच सूचनाओं और संवादों का आदान-प्रदान । यह मनुष्यों और मनुष्यों के बीच, मानवों और गैर मानवों के बीच, संगठनों और संस्थाओं के बीच सम्पर्क और संवाद की शर्त है । आधुनिक युग में संचार सम्बन्धी प्रौद्योगिक चिंतन की शुरुआत 1948 में प्रकाशित क्लॉन शैनन की गणितीय रचना द मैथमेटिकल थियरी ऑफ कम्युनिकेशन से मानी जाती है । संरचनागत मानव शास्त्र के फ़्रांसीसी विद्वान क्लॉद लेवी- स्त्रास ने संचार की अवधारणा को संस्कृति के दो अन्य बुनियादी पहलुओं से जोड़ा है । वह कहते हैं कि संस्कृतियों में विवाह, स्त्री और धन की परिघटना पर गौर करके संकेतों और सूचकों की ऐसी अभिव्यक्ति पहचानी जा सकती है जिनके आधार पर मानवीय मस्तिष्क की कुछ सार्वभौमिक संरचनाओं का पता लगाया जा सकता है ।
3- संत ऑगस्तीन (345-430) का जन्म उत्तरी अफ़्रीका के उस इलाक़े में हुआ था जिसे आज अल्जीरिया कहा जाता है । धर्म शास्त्री और राजनीतिक दर्शन के महारथी संत ऑगस्तीन ऑफ हिप्पो को राज्य की संस्था और ईसाइयत के बीच सम्बन्धों को दार्शनिक और संस्थागत ढाँचा प्रदान करने का श्रेय दिया जाता है । उनकी महान रचना सिटी ऑफ गॉड (ईश्वर का नगर) सन् 400 ईसवी में प्रकाशित हुई थी जिसमें मनुष्य की नियति, संकल्प और राज्य के प्रति उनके कर्तव्य की व्याख्या करने वाले सूत्र पेश किए गए हैं । ऑगस्तीन का यह चिंतन मध्य युग में क़रीब 800 साल तक ईसाई समाजों के राजनीतिक जीवन को गहराई से प्रभावित करता रहा ।
3-A- संत ऑगस्टीन पाँचवीं शताब्दी के ईसाई पादरी लेखकों में सबसे महान था । उनकी माता मोनिका ईसाई थीं । 370 ईसवी में उसने कॉर्थेज के विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया । बाद में वह यहीं पर अलंकार शास्त्र का प्राध्यापक बना । यहीं पर उसकी मुलाक़ात सन्त अम्ब्रोज से हुई और उसने 33 साल की उम्र में ईसाई धर्म अपना लिया । सेबाइन ने संत ऑगस्टीन के बारे में लिखा है कि, “उसका दर्शन बहुत ही कम मात्रा में व्यवस्थित था, किन्तु उसके मन ने प्राचीन युगों की लगभग समस्त विद्या को अपने में ग्रहण कर लिया था और एक बड़ी मात्रा में यह उसके माध्यम से मध्य युग तक संप्रेषित की गई । उसकी कृतियाँ विचारों की खान थीं जिसकी बाद के कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट लेखकों ने खुदाई की है ।”
3-B- संत ऑगस्टीन की रचना सिटी ऑफ गॉड में कुल 22 अध्याय हैं । इसके प्रथम 10 अध्यायों में यह प्रयास किया गया है कि ईसाइयत को रोम के पतन की ज़िम्मेदारी से मुक्त किया जाए । दूसरे भाग के 11 अध्यायों में नितांत रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है । प्रसिद्ध विचारक डनिंग ने सिटी ऑफ गॉड की रचना के चार उद्देश्य बताए हैं : ईसाई धर्म पर लगाए जाने वाले आरोपों का खंडन करना, ईसाई धर्म को ग्रहण करने के बाद रोमन साम्राज्य के पतन का कारण बताना, नास्तिकता को कुचलकर ईसाई धर्म की रक्षा करना और ईसाई धर्म को शक्तिशाली बनाना और उसका आधिपत्य स्थापित करना ।
3-C- संत ऑगस्टीन के ईश्वरीय राज्य और शैतान के राज्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए हारमॉन ने लिखा है कि, “ईश्वरीय राज्य और सांसारिक राज्य स्वर्ग और संसार नहीं है । वे चर्च और राज्य भी नहीं हैं । वे वास्तव में अच्छी और बुरी शक्तियाँ हैं, जो अति प्राचीन समय से मनुष्यों की आत्माओं पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए संघर्ष करती चली आ रही हैं । वे ईश्वर और शैतान के राज्य हैं । मनुष्य को ईश्वरीय राज्य में मुक्ति और अनन्त जीवन प्राप्त करने में मदद करने के लिए ईश्वर द्वारा साधन प्रदान किए गए हैं । यह साधन हैं : चर्च और राज्य ।” अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि ऑगस्टीन के चिंतन में शैतान का राज्य पहले स्थापित हुआ है और ईश्वर का राज्य उसके पश्चात् ।
3-D- संत ऑगस्टीन के चिंतन में राज्य ईश्वरीय उत्पत्ति है और राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए राज्य की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य है । ऑगस्टीन ने शांति तथा व्यवस्था की स्थापना को राज्य का प्रमुख कार्य माना है । सी. एच. दुरनर ने लिखा है कि, “संत ऑगस्टीन का ईश्वरीय राज्य का सिद्धांत बीजरूप में मध्य युगीन पोपतंत्र का सिद्धांत था जिसमें रोम के नाम का उल्लेख नहीं था ।” प्रोफ़ेसर बार्कर ने लिखा है कि, “एक प्रकार से ईश्वरीय राज्य का सिद्धांत राज्य का विरोधी है और इसके अस्तित्व का उच्छेदक भी…। ईश्वरीय राज्य का अन्ततोगत्वा परिणाम राज्य के पूर्ण विनाश के रूप में है । यह चर्च को सिंहासनारूढ करना है ।”
4- संत ऑगस्तीन ने सिसरो का अध्ययन करके राजनीतिक सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त किया । प्लोटिनस को पढ़कर अफ़लातून के दर्शन की जानकारी हासिल की । 384 ईस्वी में वह मिलान के एक विश्वविद्यालय में अलंकार शास्त्र के प्राध्यापक बने । उनकी आत्मकथा कन्फ़ेशंस है ।उनके मुताबिक़ ईश्वर के प्रति निष्ठा रखने वाला प्रदेश सिटी ऑफ गॉड कहलाया और मनुष्य के आत्म- मोह से निष्ठा रखने वाला प्रदेश सिटी ऑफ मैन बना । ऑगस्तीन का कहना था कि ईश्वर ने मनुष्य को बनाते समय उसे पशुओं के ऊपर तो अधिकार दिया, पर साथी मनुष्यों के ऊपर नहीं । वह कुछ को मुक्त करता है, यह उसकी दया है । वह बहुतों को सजा देता है, यह उसका इंसाफ़ है ।
4-A- संत ऑगस्टीन के चिंतन की प्रासंगिकता के बारे में फिगिस ने लिखा है कि, “इसे समझे बिना कोई भी व्यक्ति मध्य युग को नहीं समझ सकता है ।” विद्वान चिंतक मैक्सी ने लिखा है कि, “मध्य युगीन यूरोप की राजनीतिक विचारधारा पर किसी अन्य व्यक्ति ने इतना प्रभाव नहीं डाला जितना चौथी शताब्दी के अफ़्रीका के इस विद्वान ने डाला है ।” आर. जी. गेटिल ने लिखा है कि, “उसने प्लेटो के आदर्श राज्य के दर्शन को, सिसरो के विश्व राज्य के विचार को और ईसाइयत के धर्मप्रेरित राज्य के सिद्धांत को समन्वित कर अपने ईश्वरीय राज्य की स्थापना की ।”
5- इटली के एक्विना के पास रोकासेका किले में रहने वाले एक धनी और कुलीन परिवार में जन्में संत थॉमस एक्विना (1224-1274) को यूरोप में राजनीतिक सिद्धांत शास्त्र की बुनियाद डालने का श्रेय दिया जाता है । उन्हीं के प्रयासों से यूरोपीय विश्वविद्यालयों में अरस्तू के दर्शन का अध्ययन करने की शुरुआत हुई । उनकी रचना सम्मा थियोलॉजिया (1266-1273) को मध्य युग के कैथोलिक धर्म शास्त्र और यूनानी दर्शन के महानतम संश्लेषण के रूप में देखा जाता है । इस ग्रंथ में एक्विना ने चिरंतन, दैवी, प्राकृतिक और मानवीय क़ानूनों पर विचार किया है । एक्विना अरस्तू की इस अवधारणा से पूरी तरह से सहमत थे कि एक बुद्धिसंगत, मानवीय और व्यवस्थित संसार सम्भव है ।
5-A- संत थॉमस एक्वीनास को मध्य युग का महानतम समन्वयवादी विचारक माना जाता है । डनिंग के अनुसार थॉमस एक्विना महानतम स्कॉलिस्टिक था । फ़ॉस्टर ने लिखा है कि, “एक्विना ने अपने दर्शन में आरम्भ से अंत तक यह सिद्धांत अंगीकार किया है कि अरस्तूवाद सत्य है, परन्तु पूर्ण सत्य नहीं है । यह सत्य है, जहां तक कि उसे विश्वास की सहायता के बिना मानव विवेक से खोजा जा सकता है, परन्तु विश्वास से परवर्ती प्रकटन ने उसको रद्द नहीं किया, जो कुछ विवेक ने खोज लिया, उसने तो केवल उसे पूर्ण किया है । इस प्रकार यह दर्शन के प्रत्येक विभाग में यूनानी आधार पर एक ईसाई भवन खड़ा करता है ।”
5-B- संत थॉमस एक्विना की प्रमुख कृतियाँ हैं : सुम्मा थियोलॉजिका अर्थात् धर्म शास्त्र का संक्षेप, अरस्तू की राजनीति पर व्याख्या, राजाओं का शासन और सुम्मा कण्ट्रा जेण्टाइल्स । विल दुरां ने लिखा है कि, “इतिहास में बहुत थोडे विद्वान हुए हैं, जिन्होंने एक साथ विचार के इतने विशाल क्षेत्र को इतने क्रमबद्ध रूप में और स्पष्टता के साथ प्रकाशित किया हो ।” सन् 1256 ईसवी में पेरिस विश्वविद्यालय ने उसे सम्मानपूर्वक धर्म के आचार्य की उपाधि प्रदान की । एक्विना कहता था कि, “विश्व में ईश्वर के अतिरिक्त और कोई दूसरी शक्ति नहीं है ।” राज्यों के वर्गीकरण में उसने अरस्तू का ही अनुकरण किया है । उसके अनुसार राजतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन है, क्योंकि यह ईश्वरीय शासन के सर्वाधिक अनुरूप है ।
5-C- संत थॉमस एक्विना ने राज्य और चर्च के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “राज्य रूपी जहाज़ पर राजा बढ़ई की भाँति है जिसका कार्य आवश्यक मरम्मत द्वारा जहाज़ को ठीक हालत में रखना है, परन्तु चर्च का कार्य जहाज़ के चालक जैसा है जो उसे निश्चित स्थान की ओर ले जाता है । जिस प्रकार बढ़ई जहाज़ के चालक के अनुशासन में रहता है उसी प्रकार राज्य और उसके शासक को चर्च के नियंत्रण में रहना चाहिए ।” दास प्रथा के बारे में उसका कहना था कि यह पापियों को दंड देने की ईश्वरीय व्यवस्था है । क़ानून की परिभाषा करते हुए एक्विना ने लिखा है कि, “क़ानून विवेक से प्रेरित और लोक कल्याण हेतु उस व्यक्ति द्वारा जारी किया गया आदेश है, जिस व्यक्ति पर समुदाय की व्यवस्था का भार होता है ।”
6- ग्यारहवीं सदी से पहले अरस्तू के राजनीतिक चिंतन से यूरोप परिचित नहीं था । उनकी रचना पॉलिटिक्स का लैटिन में अनुवाद भी बहुत देर से हुआ । रोमन कैथोलिक चर्च अरस्तू के विचारों को संदेह की दृष्टि से देखता था । इसके दो कारण थे : पहली बात तो यह थी कि अरस्तू अपने निजी जीवन में पागान धार्मिकता की ओर झुके हुए थे और दूसरी बात यह है कि इस्लामिक अरब अध्येताओं इब्न सीमा और इब्न रश्द को अरस्तू को अरस्तू का विशेषज्ञ माना जाता था । चर्च इस बात से चौंकता था कि कहीं अरस्तू के विचारों में इस्लाम को प्रोत्साहित करने वाले तत्व तो नहीं हैं । इसलिए 1277 में पेरिस के बिशप टेम्पियर ने अरस्तू के कई सिद्धांतों की आलोचना की ।
7- संयुक्त राष्ट्र संघ एक ऐसा अंतर- सरकारी संगठन है जो विश्व स्तर पर शांति और सुरक्षा क़ायम करने राष्ट्रों के आत्म- निर्णय के अधिकार की रक्षा करने, विभिन्न देशों के बीच सामाजिक व आर्थिक सहयोग सुनिश्चित करने और मानवाधिकारों की हिफ़ाज़त करने के लिए काम करता है । इसकी स्थापना प्रथम विश्व युद्ध के बाद बने लीग ऑफ नेशंस की विफलताओं से सबक सीखकर 1945 में उस समय की गई जब द्वितीय विश्वयुद्ध अपने आख़िरी दौर में था । अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, चीन और अन्य 47 देश इसके संस्थापक सदस्य थे । संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय न्यूयार्क में है ।
8- द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के दो साल बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अमेरिका के राष्ट्रपति एफ. डी. रूज़वेल्ट स एक मुलाक़ात की जिसके परिणामस्वरूप एक दस्तावेज जारी किया गया जिसे अटलांटिक चार्टर कहा जाता है । इसमें दोनों देशों ने अपने युद्ध सम्बन्धी उद्देश्यों का खुलासा किया था । इसके अनुसार ब्रिटेन और अमेरिका न केवल जर्मनी की पराजय चाहते थे बल्कि दोनों देशों के बीच शांति, सुरक्षा, सहयोग और स्वतंत्रता के हक़ में एक व्यापक और स्थायी अंतर्राष्ट्रीय बन्दोबस्त करने के भी इच्छुक थे
9- जनवरी, 1942 में 26 देशों ने उपरोक्त मानकों के आधार पर तैयार की गई संयुक्त राष्ट्र उद्घोषणा पर दस्तख़त किए । 1944 में सोवियत संघ, अमेरिका, चीन और ब्रिटेन के प्रतिनिधियों ने डम्बरडन ओक (अमेरिका) में बैठक करके एक नए अंतर्राष्ट्रीय संगठन के लिए ठोस प्रस्ताव तैयार किया । 1945 में सैन फ़्रांसिस्को में हुई संयुक्त राष्ट्र कॉंफ़्रेंस में 51 देशों ने इस संगठन के चार्टर पर बहस करके उसे पारित कर दिया । संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य छह घटक हैं : महासभा, सुरक्षा परिषद, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय, और ट्रस्टीशिप कौंसिल । महासभा की साल में एक बैठक होती है जिसमें सभी 195 सदस्य देश भाग लेते हैं ।
10- महासभा अपना कामकाज छह कमेटियों के माध्यम से सम्पन्न करती है । महासभा की दुनिया की राजनीति में कोई भूमिका नहीं है । वह अपनी पसंद के मुद्दों पर बहस करती है, दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करती है, अन्य संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं के लिए सदस्य चुनती है और अपने बजट को स्वीकार करती है । उसका रुतबा नैतिक क़िस्म का है और उसकी राय भूमंडलीय मत का पर्याय समझी जाती है । संयुक्त राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है सुरक्षा परिषद ।इसके पॉंच अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ़्रांस स्थायी सदस्य देश हैं और दस अस्थायी सदस्य अफ़्रीका, एशिया, पूर्वी यूरोप और ओशियाना क्षेत्र से दो साल के लिए चुने जाते हैं ।