Skip to content
Menu
The Mahamaya
  • Home
  • Articles
  • Tribes In India
  • Buddhist Caves
  • Book Reviews
  • Memories
  • All Posts
  • Hon. Swami Prasad Mourya
  • Gallery
  • About
  • hi हिन्दी
    en Englishhi हिन्दी
The Mahamaya
Aristotle and plato political science

राजनीति विज्ञान : महत्वपूर्ण तथ्य (भाग-१)

Posted on जनवरी 12, 2022जुलाई 16, 2022
Advertisement


– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, बुंदेलखंड कालेज झांसी (उत्तर-प्रदेश), फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, झाँसी, उत्तर- प्रदेश, भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail. Com, website: themahamaya. Com

1- फ्रांसिस बेकन (1561–1626) एक ब्रिटिश दार्शनिक था, जिसका मानना था कि विज्ञान की उन्नति से ही समाज की उन्नति हो सकती है। अपनी योजना को कार्यरूप देने के लिए बेकन ने ‘‘विज्ञान की प्रबुद्ध तानाशाही’’ की संस्तुति की है।

2- जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे (1844-1900) ने तर्क दिया कि राज्य स्वयं शक्ति का प्रतिरूप है। वह किन्हीं ऐसे नियमों से नहीं बंधा है जो उसकी शक्ति के विस्तार को रोक सके। उसने मानव प्रगति के लिए युद्ध को आवश्यक ही नहीं बल्कि अभीष्ट माना है।

3- फ्रांसीसी दार्शनिक ज्यां- जाक रूसो (1712-1778) ने अलगाव का मुख्य कारण कृत्रिम सभ्यता के विकास को माना है।रूसो की मौत के 11 वर्ष बाद फ्रांस में रक्त रंजित क्रांति हुई है।

4- जर्मन दार्शनिक जी. डब्ल्यू. एफ. हीगल (1770-1831) ने अलगाववादी संकल्पना को चेतना के विकास की उत्तरोत्तर अवस्था माना। जबकि कार्ल मार्क्स ने (1818–1883) ने इसे आधुनिक औद्योगिक समाज की विशेषता के रूप में चित्रित किया है। मार्क्स की ‘‘इकोनॉमिक एंड फिलॉस्फिक मैनुस्क्रिप्ट्स ऑफ- 1844’’ का प्रधान विषय अलगाव या परायापन है।

5- हंगरी के मार्क्स वादी विचारक जार्ज ल्यूकॉच (1885-1971) ने 20 वीं शताब्दी के पहले और दूसरे दशकों में पूंजीवादी समाज में अलगाव और जड वस्तुकरण पर लेखमाला लिखी। जिसमें उन्होंने अलगाव के सिद्धांत को विचारधारा की मार्क्स वादी धारणा के साथ जोड़कर विकसित किया।

6- आधुनिक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक विचारक एरिक फ्रॉम (1900–1980) ने अलगाव की मार्मिक व्याख्या किया है। उसने लिखा है कि पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्य की सृजनात्मक गतिविधि और दूसरों के साथ स्वस्थ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने से रोकती है।

7- नव मार्क्स वादी विचारक हर्बर्ट मार्क्यूजे (1898–1979) ने अपनी पुस्तक ‘‘वन डॉयमेंशनल मैन- स्टडीज इन द आइडियोलॉजी ऑफ एडवांस इंडस्ट्रियल सोसायटी’’ (1968) में अलगाव का प्रभावशाली विश्लेषण किया है। उसने लिखा है कि ‘मनुष्य सोने के पिंजरे में बंद पंछी की तरह उसके आकर्षक में इतना डूब चुका है कि वह मुक्त आकाश में उड़ान भरने के आनन्द को भूल गया है।

8- अराजकता का सामान्य अर्थ है- राज्य या राज्य शक्ति का अभाव। अराजकतावादी मानते हैं कि राज्य मनुष्य के शोषण और उत्पीड़न का स्रोत है।

9- ब्रिटिश दार्शनिक विलियम गाडविन (1756–1836) को प्रबुद्ध अराजकतावादी माना जाता है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘ एंक्वायरी कंसर्निंग पोलिटिकल जस्टिस ’’ (1793) के अंतर्गत लिखा कि नृसंशतंत्रीय सरकार और संपत्ति का विषमता मूलक स्वामित्व ऐसी व्यवस्था को जन्म देते हैं जिसमें एक मनुष्य दूसरे का शोषण करने लगते हैं।

10- फ्रांसीसी दार्शनिक पियरे जोसेफ प्रूंधो (1805–1865) को अराजकतावाद का जनक माना जाता है। उसने अपनी चर्चित कृति ‘‘ ह्वाट इज प्रापर्टी’’ (1840) के अंतर्गत लिखा है कि ‘ सम्पत्ति चोरी है’।

Advertisement

11- मार्क्स के समकालीन रूसी क्रान्तिकारी मिखाइल बाकुनिन (1814–1876) को साम्यवादी अराजकतावादी माना जाता है। उसने 1869 के दौरान प्रथम अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के अवसर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए हिंसात्मक संघर्ष और आतंकवाद को उचित ठहराया था।

12- दूसरे रूसी क्रान्तिकारी पीटर क्रोपाटकिन (1852–1921) ने अपनी विख्यात कृति ‘‘ म्यूचुअल एड’’ के अंतर्गत सामाजिक डार्विनवाद का खंडन किया तथा मनुष्य की सहज प्रवृत्ति को मान्यता दिया।

13- फ्रांसीसी दार्शनिक जार्ज सॉरल (1847–1922) ने अपनी पुस्तक ‘‘ रिफ्लेक्शन ऑन वॉयलेंस’’ (1908) के अंतर्गत कामगारों को पूंजीपतियों के विरूद्ध आम हड़ताल के लिए प्रेरित किया।उसके इस दृष्टिकोण को ‘ अराजकतावादी श्रमाधिपत्यवाद’ की संज्ञा दी जाती है।

14- रूसी कथाकार एवं सामाजिक सिद्धांत कार निकोलाएविच लियो तॉल्स्तॉय (1828–1910) को नैतिक अराजकतावादी कहा जाता है। उन्होंने मानव जीवन के नैतिक पक्ष को महत्व देते हुए उसकी समस्त संस्थाओं का खंडन किया। उन्होंने कहा कि ‘‘ ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे अन्दर है’’।

15- भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (1869–1948) ने सत्य और अहिंसा को सामाजिक जीवन का मार्गदर्शक सिद्धांत मानते हुए यह तर्क दिया कि राज्य संस्था बल प्रयोग पर आधारित है। अतः वह हिंसा के साथ जुड़ी हुई है। आदर्श समाज में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होगा। अतः राज्य निरर्थक होगा।

16- मरे बुचकिन ने अपनी चर्चित कृति ‘‘ पोस्ट स्केयर्सिटी एनार्किज्म’’ (1974) में तर्क दिया कि समकालीन समाज में अभाव का दौर बीत चुका है।अब मनुष्य को छोटे- छोटे आत्मनिर्भर समुदायों का गठन करना चाहिए।

17- जी.ए. आल्मंड और जी. वी. पावेल ने अपनी पुस्तक ‘‘ कम्परेटिव पॉलिटिक्स- ए डेवलेपमेंटल एप्रोच’’ (1966) के अंतर्गत व्यवहारवादी उपागम को परिभाषित किया। जिसमें राजनीतिक भूमिकाओं के पात्रों पर अत्यधिक ध्यान केन्द्रित किया गया।

18- तार्किक प्रत्यक्षवाद का सिद्धांत वियना विश्वविद्यालय के मोरिट्ज श्लिक (1882-1936) के नेतृत्व में १९२० के दशक में ‘वियना सर्किल’ के रूप में विकसित हुआ। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में यह लुड्विख विट्जेंसटाइन (1889–1951) के नेतृत्व में तथा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में यह एक. जे. एयर (1910–1989) के नेतृत्व में आगे बढ़ा।उनका मानना है कि जिन प्रश्नों का वैज्ञानिक उत्तर नहीं दिया जा सकता वे निरर्थक हैं।

Related -  को-किंगडम ऑफ वंडर - कम्बोडिया

19- चार्ल्स ई. मरियम (1874–1935) की कृति ‘‘ न्यू आस्पेक्ट्स ऑफ पॉलिटिक्स’’ 1925 में प्रकाशित हुई। शिकागो स्कूल ने राजनीति की परिभाषा शक्ति के अध्ययन के रूप में दी है। हेरल्ड लॉसवेल ने 1936 में राजनीति के अध्ययन को ‘‘ किस- किसको, क्या- क्या, कब और कैसे मिलता है? इस पर आधारित किया।

20- व्यवहारवादी उपागम के मुख्य उन्नायक राबर्ट एडवर्डस. डॉल, डेविड ईस्टन, हाइंज युलो हैं। यह सभी अमेरिकी हैं।उत्तर व्यवहारवादी क्रांति की घोषणा सितम्बर 1979 में अमेरिकन पोलिटिकल साइंस एसोसिएशन के 65 वें अधिवेशन में डेविड ईस्टन ने किया। उत्तर- व्यवहारवाद, व्यवहारवाद में सुधार है, क्रांति या प्रतिक्रांति नहीं।

Advertisement


21- पूंजीवाद वह आर्थिक और राजनीतिक प्रणाली है जो मुख्यत: औद्योगिक क्रांति के बाद विकसित हुई।इसके तीन मुख्य तत्व स्वीकार किए जाते हैं।निजी सम्पत्ति, मुक्त एवं प्रतिस्पर्धात्मक बाजार और श्रम विभाजन।एडम स्मिथ, जरमी बेंथम तथा हर्बर्ट स्पेंसर चिर सम्मत् पूंजीवाद के मुख्य प्रवर्तक हैं।

22- एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘‘ वैल्थ ऑफ नेशंस’’ (1776) के अंतर्गत अहस्तक्षेप और व्यक्तिवाद का प्रबल समर्थन किया। उसने उपयोगिता की संकल्पना को परिभाषित करते हुए लिखा, ‘‘ पूर्ण अधिकार, पूर्ण प्रभुसत्ता और पूर्ण न्याय जैसी संकल्पनाएं मानव जीवन के यथार्थ से मेल नहीं खातीं।मानव जीवन के मामले में केवल एक ही पूर्ण मानदंड लागू होता है- पूर्ण कार्य साधकता। अतः सार्वजनिक नीति को एक ही कसौटी पर कसना चाहिए- अधिकतम् लोगों का अधिकतम हित’’।

23- अंग्रेज दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर ने डार्विन के सिद्धांत ‘ जीवन संघर्ष में योग्यतम् की विजय’ को प्राणी जगत में लागू करने का प्रयास किया। उसने राज्य को एक ‘सीमित दायित्व कम्पनी’ की भांति माना तथा उसके ‘न्यूनतम शासन ’ सिद्धांत को मान्यता दिया।

24- जर्मन समाज वैज्ञानिक रैल्फ डेरनडार्फ ने समकालीन समाज में पूंजीवाद के बदलते चरित्र को रेखांकित करने के लिए इसे ‘उत्तर पूंजीवादी समाज’ की संज्ञा दी। जर्मन दार्शनिक मैक्सवेबर (1840–1920) का विचार था कि लोकतंत्र केवल पूंजीवाद के अंतर्गत ही पनप सकता है।

25- अमेरिकी अर्थशास्त्र वेत्ता जोसेफ शुम्पीटर (1883–1950) ने अपनी विख्यात कृति ‘‘ कैपिटलइज्म, सोशलिज्म एंड डेमोक्रेसी’’ (1942) के अंतर्गत यह स्वीकार किया कि पूंजीवाद कालांतर में समाप्त हो जाएगा और उसकी जगह समाजवाद स्थापित हो जाएगा। परन्तु यह स्थिति पूंजीवाद की कमजोरियों का नतीजा नहीं होगी, बल्कि उसकी उपलब्धियों का परिणाम होगी।

26- अलेक्सी द ताकवील ने लिखा है कि ‘‘ केन्द्रीय करण और समाजवाद एक ही मिट्टी से पैदा होते हैं। एक जंगली बूटी है, दूसरा बगीचे का पौधा।’’

27- अंग्रेज लेखक जेम्स् हैरिंगटन (1611–1677) ने आज से 300 वर्ष पूर्व कहा था, कि‘ भविष्य की व्यवस्था में कानून का साम्राज्य होगा, मनुष्यों का नहीं’।

28- टी.एच. मार्शल (1893–1981) की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘ सिटिजनशिप एंड सोशल क्लास’ (1950) नागरिकता पर विस्तृत प्रकाश डालती है।

29- विलियम बैवरिज (1874–1963) की प्रसिद्ध ‘ बैवरिज रिपोर्ट’ (1942) के अनुसार राज्य का ध्येय पांच महाबुराइयों का अंत करना है- अभाव, रोग, अज्ञान, दरिद्रता और बेकारी।

30- नागरिकता के उदारवादी सिद्धांत का मुख्य प्रवक्ता टी.एच. मार्शल है।

Advertisement


31- नागरिकता का स्वेच्छातंत्रवादी विचार, बाजार सिद्धांत के प्रतिरूप को नागरिक जीवन का उपयुक्त आधार मानता है। इस सिद्धांत का मुख्य प्रवक्ता रॉबर्ट नॉजिक (1938–2002) है। नॉजिक ने अपनी पुस्तक ‘अनार्की, स्टेट एंड यूटोपिया’ (1974) में इसका विवरण दिया है। उसके अनुसार राज्य को एक विशाल उद्यम मानना चाहिए। नागरिक उसके ग्राहक अथवा सेवार्थी हैं।

32- नागरिकता का समुदाय वादी सिद्धांत मानता है कि नागरिकता का मुख्य लक्षण नागरिक सहभागिता है। इस सिद्धांत के प्रवर्तकों में हन्ना आरेंट (1906- 1975), माइकेल वॉल्जर और बेंजामिन बार्बर प्रमुख हैं।

33- नागरिकता के मार्क्सवादी सिद्धांत की मान्यता है कि नागरिकता की बुनियाद वर्ग संघर्ष है। अर्थात् एक वर्ग दूसरे वर्ग का दमन करके जो अधिकार प्राप्त करता है वह नागरिकता है। इस सिद्धांत का मुख्य व्याख्याकार एंथोनी गिडेन्स है। एंथोनी ने अपनी दो प्रमुख कृतियों- ‘ए कम्परेटिव क्रटीक ऑफ हिस्टोरिकल मैटरलिज्म’ (1981) तथा ‘प्रोफाइल्स एंड क्रिटीक ऑफ सोशल थियरी’ (1982) के अंतर्गत अपने विचार प्रस्तुत किए। गिडेन्स की अन्य पुस्तक ‘ द नेशन्स स्टेट एंड वायलेंस’ (1985) भी है।

34- नागरिकता के बहुलवादी सिद्धांत का निरूपण बी.एस. टर्नर की चर्चित ‘‘ सिटिजनशिप एंड कैपिटलइज्म- द डिबेट ओवर रिफॉरमिज्म्’’ (1986) के अंतर्गत मिलता है। डेविड हैल्ड ने ‘ पोलिटिकल थियरी एंड मार्डन स्टेट’ (1989) के अंतर्गत इसका विवरण दिया है।

35- सामाजिक विज्ञानों में उपाश्रित वर्ग की संकल्पना इतालवी मार्क्स वादी एंटोनियो ग्राम्शी (1891–1937) के विश्लेषण में देखने को मिलती है।ग्राम्शी के अनुसार ‘‘ किसी भी समाज के शासक वर्ग जिन वर्गों पर अपने प्रभुत्व अथवा प्राधान्य (हेजिमोनी) का प्रयोग करते हैं, उन्हें उपाश्रित वर्ग कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, समाज के शासित वर्गों को जिन्हें शक्ति के प्रयोग का कोई अवसर नहीं मिलता, उन्हें उपाश्रित वर्ग मान सकते हैं।

Related -  राजनीति विज्ञान/ समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 26)

36- प्राधान्य या हेजिमोनी वह स्थिति है जिसमें शासक वर्ग अपने हितों से जुड़े मूल्यों और मान्यताओं को शिक्षा, संस्कार या प्रचार के माध्यम से सम्पूर्ण समाज के लिए उपयुक्त या आदर्श मूल्यों और मान्यताओं के रूप में स्थापित कर देता है ताकि उसका शासन लोगों की सहमति पर आधारित प्रतीत हो।

37- इतालवी मार्क्स वादी एंटोनियो ग्राम्शी ने मार्क्सवादी विश्लेषण में एक नया आयाम जोडा। उसने पूंजीवादी समाज की अधिरचना में दो स्तरों की पहचान किया। पहला, नागरिक समाज, जो आधार के निकट है। इसमें परिवार, पाठशाला और धार्मिक संस्थाएं आती हैं। यह वैधता परक संरचनाएं हैं। दूसरा, राजनीतिक समाज, जिसमें राज्य की बल प्रयोग मूलक संस्थाएं आती हैं। यह दोनों संरचनाएं मिलकर पूंजीवादी संस्कृति में प्रभुत्व की संरचनाओं का निर्माण करती हैं।

38- स्काटिश समाज दार्शनिक एडम फर्गुसन (1723–1816) ने ‘‘एस्से ऑन हिस्ट्री ऑफ सिविल सोसायटी’’ (1767) में नागरिक समाज की परिभाषा ‘ व्यक्तिवाद पर आधारित बाजार समाज’ के रूप में दी है।

39- फ़्रांसीसी दार्शनिक अलेक्सी द ताकवील ने अपनी विख्यात कृति ‘‘ डेमोक्रेसी इन अमेरिका’’ (1835) में व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए व्यक्ति और राज्य के बीच ‘ मध्य वर्ती स्वैच्छिक साहचर्यों’ की आवश्यकता पर बल दिया है।

40- डेविड हेल्ड ने अपनी पुस्तक ‘ मॉड्ल्स ऑफ डेमोक्रेसी’ (1987) में नागरिक समाज में स्वैच्छिक साहचर्यों की भूमिका को रेखांकित किया। इधर जीन एल. कोहेन और एंड्रयू एरेटो ने अपनी पुस्तक ‘ सिविल सोसायटी एंड पोलिटिकल थियरी’ (1992) के अंतर्गत नागरिक समाज की पहचान सार्वजनिक गतिविधि के ऐसे क्षेत्र के रूप में की है जो राज्य और बाजार समाज दोनों से भिन्न है।

Advertisement


41- अमेरिकी समाज वैज्ञानिक रॉबर्ट पुटनैम ने लैरी डायमंड और मार्क एफ. प्लैटर की सम्पादित पुस्तक ‘ द ग्लोबल रिसर्जेंस ऑफ डेमोक्रेसी’ (1998) के अंतर्गत अपने एक लेख में यह तर्क दिया कि नागरिक समाज से जुड़े साहचर्य सामाजिक पूंजी का सृजन करते हैं।

42– ब्रिटिश लेखक पॉल हस्ट ने अपनी विख्यात कृति ‘‘ एसोसिएिव डेमोक्रेसी- न्यू फॉर्म्स ऑफ इकोनॉमिक् एंड सोशल गवर्नेंस’’ (1994) के अंतर्गत कहा कि स्वैच्छिक साहचर्य लोकतंत्र के आधार स्तम्भों की भूमिका निभा सकते हैं।

43- ‘‘ द एटीन्थ ब्रूमेयर ऑफ लुई बोनापार्ट’’ (1852) के अंतर्गत मार्क्स ने पूर्ण विकसित वर्ग की नकारात्मक परिभाषा दी है।जबकि ‘ द पावर्टी ऑफ फिलॉस्फी’ (1847) में मार्क्स ने कामगार वर्ग की उत्पत्ति की सकारात्मक परिभाषा किया है।

44- हंगेरियाई मार्क्सवादी जार्ज ल्यूकॉच (1885–1971) ने अपनी पुस्तक ‘‘ हिस्ट्री एंड क्लास कांसेसनेस’’ (१९२३) के अंतर्गत वर्ग चेतना की नई व्याख्या देने का प्रयत्न किया जो मार्क्सवादी चिंतन के अंतर्गत विवाद का विषय बन गई।

45- एंटोनियो ग्राम्शी ने रूस की बोल्शेविक क्रांति (1917) को ‘‘आर्थिक परिस्थितियों पर संकल्प शक्ति की विजय’’ के रूप में सराहा।

46- मार्क्सवादी चिंतन में राज्य की उपकरणात्मक संकल्पना का मुख्य आधार मार्क्स और एंगेल्स के कम्यूनिस्ट मैनीफेस्टो (1848) के इस कथन में निहित है कि ‘‘ आधुनिक राज्य की कार्यकारिणी सम्पूर्ण बुर्जुवा वर्ग के मिले- जुले मामलों का प्रबंध करने वाली समिति’’ मात्र है। अमेरिकी मार्क्सवादी पाल स्वीजी (1910–2004) ने प्रस्तुत तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहा ‘‘ द थियरी ऑफ कैपिटलिस्ट डेवलपमेंट- प्रिंसिपल्स ऑफ मार्क्सियन पोलिटिकल इकोनॉमी’’ (1942) के अंतर्गत यह मान्यता प्रस्तुत किया कि ‘ राज्य शासक वर्गों के हाथों का उपकरण है।’

47- दूसरे अमेरिकी मार्क्सवादी रैल्फ मिलिबैंड (1924–1994) ने अपनी विख्यात कृति ‘ द स्टेट इन कैपिटलिस्ट सोसायटी- एन एनालिसिस ऑफ द वेस्टर्न सिस्टम ऑफ पावर’ के अंतर्गत लिखा कि पूंजीवादी समाज का शासक वर्ग राज्य का प्रयोग समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के उपकरण के रूप में करता है।

48- युगोस्लाविया के मार्क्सवादी विचारक मिलोवान जिलास (1911–1995) ने अपनी विख्यात कृति ‘‘ द न्यू क्लास’’ (1957) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि सोवियत संघ जैसे समाजवादी देशों में समाजवादी दलों के उच्चाधिकारी इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि उन्होंने एक नए शासक वर्ग का रूप धारण कर लिया है।

49- अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन (1889-1974) ने पहली बार शीत युद्ध शब्द का प्रयोग किया, जो आज प्रचलित है।

50- ग्योर्गे फ्रेडिख लिस्ट (1789-1846) आर्थिक राष्ट्रवाद के प्रमुख प्रवक्ता हैं।दक्षिणी जर्मनी के रूलिंग जन में जन्मे लिस्ट ने अपनी रचना ‘‘ द नेशनल सिस्टम ऑफ पोलिटिकल इकोनॉमी’’ में दावा किया कि राष्ट्रों के बीच सत्ता और सम्पत्ति के लिए सहयोग के बजाय होड़ के पहलू अधिक प्रमुख हैं।

नोट : उपर्युक्त सभी तथ्य ओ. पी. गाबा की पुस्तक ‘ राजनीति विज्ञान विश्वकोश’ से साभार लिए गए हैं ।

5/5 (2)

Love the Post!

Share this Post

1 thought on “राजनीति विज्ञान : महत्वपूर्ण तथ्य (भाग-१)”

  1. अनाम कहते हैं:
    फ़रवरी 6, 2022 को 12:14 अपराह्न पर

    thank you sir

    प्रतिक्रिया

प्रातिक्रिया दे जवाब रद्द करें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

Seach this Site:

Search Google

About This Blog

This blog is dedicated to People of Deprived Section of the Indian Society, motto is to introduce them to the world through this blog.

Posts

  • मार्च 2023 (1)
  • फ़रवरी 2023 (2)
  • जनवरी 2023 (1)
  • दिसम्बर 2022 (1)
  • नवम्बर 2022 (3)
  • अक्टूबर 2022 (3)
  • सितम्बर 2022 (2)
  • अगस्त 2022 (2)
  • जुलाई 2022 (2)
  • जून 2022 (3)
  • मई 2022 (3)
  • अप्रैल 2022 (2)
  • मार्च 2022 (3)
  • फ़रवरी 2022 (5)
  • जनवरी 2022 (6)
  • दिसम्बर 2021 (3)
  • नवम्बर 2021 (2)
  • अक्टूबर 2021 (5)
  • सितम्बर 2021 (2)
  • अगस्त 2021 (4)
  • जुलाई 2021 (5)
  • जून 2021 (4)
  • मई 2021 (7)
  • फ़रवरी 2021 (5)
  • जनवरी 2021 (2)
  • दिसम्बर 2020 (10)
  • नवम्बर 2020 (8)
  • सितम्बर 2020 (2)
  • अगस्त 2020 (7)
  • जुलाई 2020 (12)
  • जून 2020 (13)
  • मई 2020 (17)
  • अप्रैल 2020 (24)
  • मार्च 2020 (14)
  • फ़रवरी 2020 (7)
  • जनवरी 2020 (14)
  • दिसम्बर 2019 (13)
  • अक्टूबर 2019 (1)
  • सितम्बर 2019 (1)

Latest Comments

  • Dr. Raj Bahadur Mourya पर पुस्तक समीक्षा- ‘‘मौर्य, शाक्य, सैनी, कुशवाहा एवं तथागत बुद्ध’’, लेखक- आर.एल. मौर्य
  • अनाम पर पुस्तक समीक्षा- ‘‘मौर्य, शाक्य, सैनी, कुशवाहा एवं तथागत बुद्ध’’, लेखक- आर.एल. मौर्य
  • Dr. Raj Bahadur Mourya पर राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 39)
  • Somya Khare पर राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 39)
  • Govind dhariya पर धरकार समाज के बीच……

Contact Us

Privacy Policy

Terms & Conditions

Disclaimer

Sitemap

Categories

  • Articles (79)
  • Book Review (59)
  • Buddhist Caves (19)
  • Hon. Swami Prasad Mourya (22)
  • Memories (12)
  • travel (1)
  • Tribes In India (40)

Loved by People

“

015640
Total Users : 15640
Powered By WPS Visitor Counter
“

©2023 The Mahamaya | WordPress Theme by Superbthemes.com
hi हिन्दी
en Englishhi हिन्दी