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Facts of political science hindi

राजनीति विज्ञान/ समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग-२१)

Posted on जून 11, 2022जून 12, 2022
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(विशेष सन्दर्भ : फ़्रांसिस बेकन, फ्रेड्रिख नीत्शे, फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल, फ्रेड्रिख वॉन हायक, बंकिम चन्द्र, बांग्लादेश मुक्ति संग्राम तथा अन्य काफ़ी कुछ)

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश), फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, झाँसी (उत्तर प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com, mobile number :09839170919

१- फ़लसिफ़ा और कलाम इस्लाम की परम्पराएँ हैं ।इस्लामी दायरे में दर्शन के अध्ययन की शुरुआत यूनानी दर्शन के अधिकतर अरबी और कुछ- कुछ फ़ारसी अनुवादों से हुई ।आठवीं सदी के शुरू और अंदलूसिया से भारत तक पहुँची इस परम्परा को फ़लसिफा का नाम दिया गया है ।इस्लाम के दर्शन की दूसरी प्रमुख परम्परा कलाम की है ।इसकी शुरुआत भी आठवीं सदी में हुई ।अगर फ़लसिफ़ा का मक़सद इस्लामिक विश्वासों को यूनानी दर्शन द्वारा प्रदत्त कसौटियों पर कसकर देखना था, तो कलाम का उद्देश्य तर्क शास्त्र के ज़रिए इस्लामिक प्रक्रियाओं की परख करते हुए उन्हें न्यायोचित ठहराना था ।

२- इस्लामिक दर्शन की उपरोक्त दोनों परम्पराओं में कई समानताएँ थीं ।इन दोनों का विकास भी 813 से 833 के बीच हुकूमत करने वाले अबासिद ख़लीफ़ा अल- मामुन के संरक्षण में हुआ ।ख़लीफ़ा ने बग़दाद में एक अकादमी स्थापित की जिसे बाइत- अल- हिकमा (हाउस ऑफ विजडम) के नाम से जाना जाता है ।यह अपनी वैचारिक सहिष्णुता और वैज्ञानिक खोजों को प्राथमिकता देने के लिए जानी जाती थी ।कलाम की स्थापना का श्रेय वसील इब्न अता (700 -748) को दिया जाता है ।

३– कलाम के दो विचार पंथ विकसित हुए ।इनमें से एक असारी स्कूल कहा जाता है और दूसरा मुताजिलाह स्कूल जिसे सरकारी संरक्षण मिला ।दोनों दार्शनिक परम्पराओं, कलाम और फलसिफा का ज़ोर इस बात पर था कि मनुष्य को ईश्वर का अर्थ ग्रहण करने के लिए महज़ आस्था और विश्वास पर भरोसा न करके अपनी बुद्धि और प्रज्ञा का इस्तेमाल करना चाहिए ।दोनों मानकर चलती हैं कि मनुष्य के अधिकारों पर ईश्वर के अधिकार को श्रेष्ठता दी जानी चाहिए ।दोनों ही दर्शन एक सदाचार पूर्ण नागरिक जीवन के समर्थक हैं ।अरस्तू ने जिसे फ़र्स्ट मूवर या अनमूव्ड मूवर कहा था, उसे अरबी के अनुवाद में अल्लाह कहा गया ।

४- फ़ासीवाद राष्ट्रवाद का प्रजातीय संस्करण है ।वर्ग -संघर्ष विरोधी समाजवाद और प्रभुवर्गीय सर्वसत्तावाद के गठजोड़ की पैरोकारी करने वाला यह विचार लोकतंत्र को मूर्खतापूर्ण, भ्रष्ट और मंदगति से चलने वाली व्यवस्था मानता है ।मार्क्सवाद और उदारतावाद उसकी निगाह में युद्ध और फूट के एजेंट हैं ।बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में फासीवादी राज्य ने नस्ली शुद्धता उपलब्ध करने के लिए जाति संहार की परियोजना चलाई और सैन्यवाद का झंडा बुलंद किया ।फासीवादी परियोजना मुख्यतः उसकी दो राजनीतिक अभिव्यक्तियों के लिए जानी जाती है : इटली में मुसोलिनी का फासीवादी आन्दोलन और जर्मनी में हिटलर का नाज़ीवाद ।

५- फासिज्म इतालवी भाषा के शब्द फैसियो की देन है जिसका मतलब होता है लकड़ी का गट्टा और कुल्हाड़ी ।यह राष्ट्र की एकताकारी शक्ति और राजकीय शक्ति का प्रतीक मानी जाती थी ।मुसोलिनी ने मार्च 1919 में फैसियों नाम से एक क्लब की स्थापना की जिसका मक़सद वर्ग- संघर्ष आधारित समाजवाद का विरोध और राष्ट्रीय समाजवाद के लिए काम करना था ।इस क्लब के सदस्य फ़ासिस्ट कहलाए और उनका विचार फासिज्म ।यह काली शर्ट पहनते थे ।वर्ष 1923 तक इनकी सदस्य संख्या 23 लाख तक पहुँच गई थी ।1932 में मुसोलिनी ने अपने एक भाषण में बीसवीं सदी को फासीवाद की सदी बताया था ।

६- जॉर्ज सोरेल को राजनीतिक चिंतन में हिंसा के प्रश्न पर व्यवस्थित दार्शनिक विचार करने वाले चिंतक के रूप में जाना जाता है ।उनकी मान्यता थी कि जनता को सक्रिय और गोलबन्द करने के लिए किसी तर्कसंगत कार्यक्रम की नहीं बल्कि मिथकों और छवियों की ज़रूरत होती है ।सोरेल के अनुयायियों ने मार्क्सवाद को पूरी तरह से छोड़ कर मज़दूरों की जगह राष्ट्रवाद की तेजी से उदित हो रही ज़बर्दस्त ताक़त का आसरा लिया ।उन्होंने वर्ग- संघर्ष की जगह राष्ट्रीय, नैतिक और मनोवैज्ञानिक क्रांति का सूत्रीकरण किया ।

७- फ़िल्म और सेक्शुअलिटी के परिप्रेक्ष्य में नारीवादी दृष्टिकोण को स्पष्टता देते हुए 1973 में क्लेयर जांस्टन ने व्यावसायिक फ़िल्मों में स्त्री की बनावट को खोलने का पहला बौद्धिक प्रयास किया ।उन्होंने पता लगाया कि उसके बिम्ब को कैसे फ्रेम किया जाता है, उसे कैसी पोशाक पहनायी है, उस पर किस कोण से प्रकाश फेंका गया है, कथांकन में वह किस जगह स्थित है, पुरुष चरित्र किस तरह स्त्री को अपनी काम्य- वस्तु बनाकर मातृरत्यात्मकता या ओडिपल ट्रैजेक्टरी की तरफ़ जाता है, कैमरा- वर्क और लाइटिंग से किस तरह स्पष्ट होता है कि पुरुष चरित्र की स्वैरकल्पनाएं स्त्री को अपना केन्द्र बना रही हैं ।

८- विद्वान चिंतक लौरा मलवी ने 1975 में मातृमनोग्रंथि के प्रभाव की भिन्न व्याख्या की ।उन्होंने कहा कि दर्शक की मैस्क्युलिन स्थिति उसे नारी देह के यौनीकरण और वस्तुकरण की तरफ़ ले जाती है ।कैमरा स्त्री की दैहिक सुन्दरता की तरफ़ ध्यान खींचता है ।वह उसकी प्रस्तुति इस क़दर सम्पूर्णता के साथ करता है कि पुरुष दर्शक को उसमें शिश्न की अनुपस्थिति न सताती है और न ही उससे बधियाकरण या कैस्ट्रेशन का भय निकलता है ।ऐसा करने के लिए कैमरा नारी देह को शिश्न की तरह तना हुआ दिखाता है ।मलवी ने दावा किया कि पुरुष की दृश्य- रत्यात्मक निगाह अथवा वॉयरिस्टिक गेज उसके अवचेतन द्वारा बधियाकरण के भय की अनुक्रिया है ।

९- वर्ष 1991 के टोरंटो फ़िल्मोत्सव में अस्सी के दशक से बनने वाली वे फ़िल्में दिखाई गई जो गे अर्थात् समलैंगिक पुरुषों और उनकी जीवन स्थितियों पर रोशनी डालती थीं ।अमेरिका में गस वॉं सेंत ने माई ओन इडाहो और इविन काऊगर्ल्स गेट द ब्लूज जैसी चर्चित फ़िल्में बनायीं।गे फ़िल्मों का सफ़र आज ब्रोक बैक माउंटेन जैसी मुख्य धारा की फ़िल्मों तक आ चुका है ।

१०- हिन्दी फ़िल्मों में सेक्शुअलिटी के प्रसंगों की कई गहन समीक्षाएँ सामने आईं । गोविन्द निहलानी की अर्धसत्य में चित्रित ओमपुरी की द्वंद्वग्रस्त मर्दानगी को अमिताभ बच्चन द्वारा निरूपित प्रबल और अपराजेय पौरुष को श्रेयस्कर बतलाया गया ।श्याम बेनेगल की मण्डी को देखकर यह प्रश्न पैदा हुआ कि क्या चकलाघर की यौनदासता में भी स्त्रियाँ मजा ले सकती हैं ? इसी प्रकार रवि वासुदेवन, मणिरत्नम् तथा बासु भट्टाचार्य ने भी इसी प्रकार की फ़िल्मों का निर्माण किया ।अनिवासी फ़िल्मकार दीपा मेहता द्वारा निर्मित फायर भारतीय नारीवादियों और सेक्शुअलिटी के विमर्शकारों ने विचारोत्तेजक बहस की है ।

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११- सेंसरशिप वह प्रक्रिया होती है जिसके द्वारा किसी प्रदर्शन को प्रतिबंधित किया जाता है ।आम तौर पर सेंसरशिप चार श्रेणियों को ध्यान में रखकर लागू की जाती है : राजनीतिक, धार्मिक, पोर्नोग्राफ़िक और हिंसक ।सेंसरशिप के नियम देश और काल के हिसाब से अलग-अलग हैं ।इनकी कसौटियों का निर्धारण करने में विचारधारा, प्राधिकार और सत्ता की भूमिका प्रमुख होती है ।अमेरिका और जर्मनी में फ़िल्मों को सेंसर करना संविधान के खिलाफ माना जाता है ।हॉलीवुड की फ़िल्मों पर मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स ऐंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ऑफ अमेरिका नामक संस्था नज़र रखती है ।यह 1922 में फ़िल्म व्यवसाय द्वारा स्थापित की गई थी ।इसे हेज कोड के नाम से जाना जाता है ।

१२- फ़िल्म सिद्धांत के विकास का श्रेय बीसवीं सदी के दूसरे दशक में फ़्रांस के फ़िल्मकारों और विमर्शकारों को दिया जाता है ।1908-10 के बीच फ़्रांस में फ़िल्म निर्माण का पहला चरण प्रारम्भ हुआ ।1911 में रिकोतो कैनुडो ने अपने घोषणापत्र दि बर्थ ऑफ सिक्स्थ आर्ट से दो तरह की बहसें खोलीं ।बहस की पहली धारा के केन्द्र में सिनेमाई यथार्थवाद था जिसका प्रवर्तन जर्मन मनोविद ह्यूगो मुंस्टरबर्ग ने किया ।तीस के दशक में मूक सिनेमा से सवाक सिनेमा का प्रारम्भ हुआ ।फ़िल्म सिद्धांत के दूसरे दौर पर चालीस के दशक में द्वितीय विश्वयुद्ध का गहरा प्रभाव पड़ा ।

१३- फ़िल्म सिद्धांत के पचास के दशक में आत्युर- सिद्धांत उभरा ।फिर साठ के दशक में संरचनावाद ने अपना बोलबाला क़ायम किया ।इसके बाद सिनेमा को एक भाषा के रूप में देखने का आग्रह बलवती हुआ फ्रेंच का शब्द आत्युर अंग्रेज़ी के ऑथर का समानार्थक था ।यह सिद्धांत आग्रह करता था कि फ़िल्मकार को उसी तरह फ़िल्म का ऑथर समझा जाना चाहिए जिस तरह लेखक को उसकी कृति का समझा जाता है ।फ़िल्म सिद्धांत का तीसरा दौर एक बार फिर विविधता और बहुलता की तरफ़ लौटने का था ।

१४- साहित्यिक पुस्तकों के फिल्मांतरण का इतिहास भी पुराना है ।उन्नीसवीं सदी के आख़िरी वर्षों में ल्युमीरे बंधुओं ने बाइबिल का फिल्मांतरण करके अपनी तेरह दृश्यों वाली फ़िल्म बनाई ।हिन्दी में फिल्मांतरण के कुछ बेहद सृजनशील उदाहरण श्याम बेनेगल की जुनून, सत्यजीत राय की शतरंज के खिलाड़ी, विशाल भारद्वाज की मक़बूल और ओंकारा तथा राजकुमार हीरानी की थ्री ईडियट हैं ।फ़िल्म जुनून रस्किन बांड की कहानी फ़्लाइट ऑफ पिजंस तथा फ़िल्म थ्री ईडियट चेतन भगत के एक उपन्यास का फिल्मांतरण है ।

१५- फ़्रांसिस बेकन (1561-1626) को आधुनिक विचारों के इतिहास में, सत्रहवीं सदी में मानवीय मेधा और वैज्ञानिक चिंतन का अनुकरणीय आदर्श माना जाता है ।अठारहवीं शताब्दी में उन्हें ज्ञानोदय का अग्रदूत बताया गया लेकिन उन्नीसवीं सदी में उन्हें सत्ताकामी, कपटी और सच्चे विज्ञान का शत्रु घोषित कर दिया गया ।बेकन का चिंतन मुख्यतः प्राकृतिक विज्ञान के दर्शन और उसकी सामाजिक प्रासंगिकता को सम्बोधित है ।बेकन यह तजवीज़ करते हैं कि ज्ञान की पद्धति ऐसी होनी चाहिए जो अन्वेषी को नए अनुभवों और उद्घाटनों की ओर ले जाने में सक्षम हो ।

१६- फ़्रांसिस बेकन अपनी चिंतन प्रणाली की मधुमक्खी से तुलना करते हुए इस बात पर ज़ोर देते हैं कि दार्शनिक ज्ञान का तरीक़ा ऐसा होना चाहिए जो प्रकृति के प्रदत्त तत्वों या उसकी सम्पदा को रचनात्मक और उपयोगी रूप में संयोजित कर सके ।जबकि मध्यकालीन चिंतकों के लिए बेकन मकड़ी का दृष्टांत उद्धृत करते हुए कहते हैं कि जिस तरह मकड़ी अपने जाले का निर्माण बाहरी पदार्थों के बजाय अपनी अंतडियों की सामग्री से करती है ठीक उसी तरह मध्यकालीन चिंतकों के विचार आत्मपरक और पूर्व निर्धारित होते हैं ।

१७- फ़्रांसिस बेकन ने ज्ञान सृजन की इन पद्धतियों पर अपनी रचना इंस्टोरैशियो मैग्ना के कई खण्डों में विस्तार से किया है ।एडवांसमेंट ऑफ लर्निंग तथा न्यू ऑर्गेनॉन इसी रचना के भाग हैं ।अपने समय की बौद्धिक जकड़नों और जडसूत्रवाद से मुठभेड़ करते हुए बेकन अरस्तू की तर्क मूलक रचना ऑर्गेनॉन को भी न्यू ऑर्गेनॉन की नयी शब्दावली में विन्यस्त कर देते हैं ।वैज्ञानिक प्रयोगों के मानवीय फलितार्थों पर केंद्रित उनकी रचना न्यू अटलांटिस को एक तरह का वैज्ञानिक यूटोपिया कहा जा सकता है ।थॉमस स्प्रैट ने बेकन की वैचारिक क्षमताओं और दृष्टि की तुलना ईश्वर से की है ।

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१८- फ़्रांसिस बेकन को मैकाले ने प्रगति का पुरोधा करार दिया लेकिन साथ ही उन्हें ऐसा निंदनीय व्यक्ति भी बताया जो निजी स्वार्थों, शाही तमग़ों और रंगरूतबे के लिए अपने मित्रों के साथ भी छल कर सकता है ।इसी तरह होर्खोइमर और एडोर्नो बेकन को पूँजीवादी राज्य का ऐसा सिपहसलार बताते हैं जिसने बुद्धि- विवेक की मशीनी समझ से प्रेरित होकर मनुष्य के खिलाफ खड़ी दमन और उत्पीडन की व्यवस्था को वैधता दिलाने का जुर्म किया है ।जोनाथन स्विफ़्ट की रचना गुलिवर्स ट्रैवल में बेकन की वैज्ञानिक प्रयोगशीलता का मर्मांतक उपहास किया गया ।

१९- फ्रेड्रिख एंगेल्स (1820-1895) कार्ल मार्क्स के मित्र, राजनीतिक संगठक,जर्मन दार्शनिक थे ।उनकी रचनाओं ने उन्नीसवीं सदी के आख़िरी और बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में मार्क्सवाद को एक विश्व- दृष्टिकोण के रूप में लोकप्रिय करने में प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया ।मार्क्स के साथ मिलकर एंगेल्स ने द होली फेमिली और कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो जैसी कालजयी रचनाएँ लिखी ।उनकी एक और रचना सोशलिज्म : यूटोपियन ऑर साइंटिफिक प्रसिद्ध है ।एंगेल्स ने इतिहास और विज्ञान के विकास के बीच द्वंद्वात्मक रिश्ते पर गहराई से विचार किया जिसका परिणाम द डायलेक्टिस ऑफ नेचर जैसी कृति में निकला ।सन् 1845 में उनकी रचना कंडीशन ऑफ द वर्किंग क्लास ब्रिटेन में प्रकाशित हुई जबकि द पेजेंट वार इन जर्मनी भी इसी दौरान प्रकाशित हुई ।

२०- फ्रेड्रिख नीत्शे (1844-1900) एक जर्मन दार्शनिक, संगीतज्ञ और धर्म- संस्कृति के अध्येता थे ।उनका कृतित्व स्थापित नैतिक मान्यताओं के प्रतिरोध, सभ्यता संस्कृति के उत्कर्ष सम्बन्धी चिंतन तथा आदर्शों को झुठलाती सत्ताकांक्षा के आदिम आवेगों की पड़ताल का एक विराट बीहड़ है ।बीसवीं सदी के सांस्कृतिक अध्ययन, साहित्य दर्शन, कला, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र तथा क्रांति- शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां नीत्शे का सन्दर्भ ज़रूरी मालूम न पड़ता हो ।नीत्शे की पहली पुस्तक द बर्थ ऑफ ट्रेजेडी : आउट ऑफ द स्पिरिट ऑफ म्यूज़िक 1872 में प्रकाशित हुई थी ।

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२१- फ्रेड्रिख नीत्शे की महत्वपूर्ण पुस्तक अनफैशनेलब आब्जर्वेशंस स्थापित मान्यताओं को प्रश्नांकित करती है ।उनकी यह कृति अपने दौर के सांस्कृतिक व्यक्तित्वों और मसलों की तह में जाकर संस्कृति की आत्ममुग्ध व्याख्या पर हमला बोलती है ।नीत्शे के मुताबिक़ जीवन के सिद्धांत ज्ञान के मुक़ाबले ज़्यादा अहम और उच्चतर होते हैं ।नीत्शे का ज़ोर इस बात पर था कि ज्ञान की खोज का मक़सद जीवन को बेहतर बनाना होना चाहिए ।नीत्शे के समकालीन इतिहासकार डेविड स्त्रॉस ने अपनी पुस्तक द ओल्ड ऐंड न्यू फेथ : ए कन्फैशन में आस्था के नए रूप को वैज्ञानिक और सार्वभौमिक बनाने की वकालत की ।

२२- फ्रेड्रिख नीत्शे की अन्य रचनाओं में 1878 में प्रकाशित ह्यूमन ,ऑल- टू- ह्यूमन तथा डेब्रैक : रिफ्लेक्शन ऑन मॉरल प्रेजुडिसिज प्रमुख हैं ।गे साइंस सूत्र कथन शैली की एक अन्य चर्चित रचना है जिसमें नीत्शे का अस्तित्ववादी चिंतन एक नयी उड़ान भरता है ।नीत्शे ने ईश्वर की मृत्यु जैसी उक्ति और शाश्वत वापसी/ रिकरेंस जैसे सिद्धांतों का प्रतिपादन इसी पुस्तक में किया है ।नीत्शे का निरीश्वरवाद असल में एक आह्वान है जो व्यक्ति को पारलौकिकता और पलायन से विमुख कर स्वतंत्रता और मौजूदा दुनिया की ओर प्रणत करने पर ज़ोर देता है ।शाश्वत वापसी का मत भी इसी बात की तस्दीक़ करता है कि मौजूदा दुनिया के अलावा ऐसी कोई दुनिया नहीं है जहां व्यक्ति पलायन कर सके ।

२३- फ्रेड्रिख नीत्शे के समूचे कृतित्व में दस स्पोक जरथ्रुस्त्र, अ बुक फ़ॉर ऑल ऐंड नन सबसे प्रसिद्ध रचना मानी जाती है ।जरथ्रुस्त्र को नीत्शे ने एक एकाकी,अंतर्मुखी, ध्यानस्थ, रिषि तुल्य व्यक्तित्व के रूप में दर्शाया है ।मनुष्यता की इस उच्चतर अवस्था को नीत्शे सुपरह्यूमन कहते हैं ।लौकिक संसार में बार बार ऐसा व्यक्ति लौटना चाहता है जो मनोवैज्ञानिक और शारीरिक रूप से दुरुस्त होने के साथ जीवन को उसकी सम्पूर्णता में चाहता हो ।लिहाज़ा सुपरह्यूमन वही हो सकता है जो हर परिस्थिति में टकराने का जीवट रखता हो

२४- नीत्शे ने शास्त्रोक्त मान्यताओं और अवधारणाओं पर जीवन की ठोस परिस्थितियों के कोण से विचार किया है ।उनकी यह प्रवृत्ति उनकी रचना बियांड गुड ऐंड ईविल, प्रील्यूड टू अ फिलॉसफी ऑफ द फ्यूचर में सबसे मुखर रूप से प्रकट होती है ।जहां वे अच्छाई और बुराई की शाश्वत मान्यताओं से परे जाकर शोषण, वर्चस्व, निर्बल के प्रति अन्याय, ध्वंस और दूसरों पर आधिपत्य ज़माने जैसी प्रवृत्तियों में निहित नैतिकता को सार्वभौमिक रूप से आपत्तिजनक व्यवहार मानने से इंकार करते हैं ।नीत्शे ने एक आरोही क़िस्म की नैतिकता प्रस्तावित की है जिसका मतलब यह है कि निम्नवर्ग तथा कुलीन वर्ग के लिए नैतिकता के मापदंड अलग-अलग होंगे ।

२५- नीत्शे ने अपनी रचना ऑन जीनियालॉजी ऑफ मॉरल्स में भी नैतिकता पर विचार किया है ।जिसका सार यह है कि व्यवहार का औचित्य व्यक्ति की स्थिति के हिसाब से तय किया जाना चाहिए ।यानी औचित्य का निर्धारण इस आधार पर किया जाना चाहिए कि सम्बन्धित व्यक्ति कमजोर, बीमार और पतनशील है या कि मज़बूत, ताकतवर और जीवन की ऊर्जा से भरा हुआ है ।ईसाइयत की नैतिक वर्जनाओं पर नीत्शे ने अपनी रचना द एंटी क्राइस्ट, कर्स ऑन क्रिश्चियनिटी में भी प्रहार किया है ।

२६- वस्तुतः, नीत्शे एक प्रतिमाभंजक और प्रतिष्ठान विरोधी दार्शनिक हैं ।वे सामाजिक जीवन, इतिहास, धर्म और शास्त्रों की स्थापित मान्यताओं को स्वीकार नहीं करते ।अंग्रेज़ी भाषी देशों में नीत्शे को एक लम्बे समय तक नाज़ीवाद का समर्थक माना जाता रहा है ।पाँचवें और छठवें दशक में वाल्टर कॉफमैन और आर्थर दांतो जैसे विद्वानों ने नीत्शे से जुड़े ऐतिहासिक संदर्भों को दुरुस्त करते हुए उन्हें अंग्रेज़ी दुनिया में नए शिरे से प्रतिष्ठा दिलायी ।

२७- फ्रेड्रिख वॉन हायक (1899-1992) मुक्त लाभों की पैरोकारी करने वाले ऑस्ट्रियाई मूल के अर्थशास्त्री हैं ।उनकी मान्यता थी कि सरकार द्वारा किया गया आमदनी का कोई भी वितरण अमीरों और ग़रीब दोनों को नुक़सान पहुँचाने वाला होता है ।बाज़ार को नियंत्रित करने की कोशिश का नतीजा व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित करने, आर्थिक दक्षता को घटाने और जीवन स्तर में कटौती करने में निकलता है ।बाज़ार के परिणामों को न्याय- अन्याय की कसौटी पर कसना उचित नहीं है ।वर्ष 1944 में प्रकाशित हायक की पुस्तक रोड टु सर्फडम ने उन्हें पूरी दुनिया में मशहूर कर दिया ।

२८- फ्रेड्रिख वॉन हायक बेरोज़गारी की वजह को बाज़ार में ग़लत क़िस्म की चीजों की माँग के कारण मानते थे ।वे सरकारी धन खर्च करके किए जाने वाले निर्माण कार्यों, समर्थन मूल्य निर्धारित करने और उपभोक्ता माँग को प्रोत्साहित करने वाले उपायों के आलोचक थे ।उनका मानना था कि मुद्रास्फीति से निबटने के लिए मनी सप्लाई में कटौती की जानी चाहिए ।हायक ने बड़ी निजी फ़र्मों और बड़े बैंकों को अपनी मुद्रा छापने का अधिकार देने का सुझाव दिया ।वर्ष 1974 में गुन्नार मिर्डाल के साथ हायक को भी नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।

२९- फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल, जर्मनी के फ़्रैंकफ़र्ट शहर में स्थापित वह संस्था थी जिसे फ़्रैंकफ़र्ट इंस्टीट्यूट फ़ॉर सोशल रिसर्च के नाम से जाना जाता था ।इस संस्था से जुड़े प्रमुख विद्वानों में मैक्स होर्खाइमर, थियोडोर एडोर्नो, एरिक फ्रॉम, हर्बर्ट मार्क्यूज और वाल्टर बेंजामिन के नाम प्रमुख हैं ।कालान्तर में युर्गेन हैबरमास और ग्योर्गी लूकॉच के लेखन ने भी फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल को प्रभावित किया ।फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल अपने सदस्यों के मार्क्सवाद से भिन्न तरह के जुड़ाव के लिए जाना जाता है ।यहाँ एक ख़ास तरह के हेगेलियन मार्क्सवाद की परिकल्पना की गई जो बीसवीं सदी के पूंजीवाद की व्याख्या के अधिक अनुकूल थी ।

३०- फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल को वर्ष 1933 में हिटलर के राजनीतिक उत्थान ने जर्मनी के बाहर आश्रय ढूँढने के लिए विवश कर दिया ।स्कूल का केन्द्र पहले जिनेवा में स्थापित किया गया और फिर 1935 में न्यूयार्क ले ज़ाया गया ।कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से जुड़ने के बाद स्कूल का जर्नल स्टडीज़ इन फिलॉसफी ऐंड सोशल साइंस के नाम से अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने लगा ।वर्ष 1953 में पुनः स्कूल को फ़्रैंकफ़र्ट में स्थापित कर दिया गया ।होर्खाइमर और एडोर्नो ने अमेरिका प्रवास में संयुक्त रूप से डायलेक्टिक्स ऑफ ऐनलाइटनमेंट नामक कृति की रचना की ।

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३१- फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल द्वारा संस्कृति के क्षेत्र में किए गए अध्ययनों से एक समृद्ध तथा विविधतापूर्ण बौद्धिक विरासत की स्थापना हुई ।लियो लावेंथल ने साहित्य के समाजशास्त्र के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया कि किस प्रकार समाज की आर्थिक तथा वर्गगत संरचनाएँ साहित्य में व्यक्त होती हैं ।संगीत साहित्य और लोकप्रिय साहित्य के क्षेत्र में एडोर्नो ने कला के मार्क्सवादी समाजशास्त्र को परम्परानिष्ठ सौन्दर्यशास्त्र से जोड़कर देखने का प्रयास किया ।उन्होंने कला को एक ऐसी अंतिम बची हुई शक्ति के रूप में देखा जो पूंजीवाद की आलोचना कर सकती है और राजनीतिक अंतर्दृष्टि का स्रोत होती है ।

३२- फ़ुरसत की अवधारणा पर 1920 के दशक से चिंतन- मनन शुरू हो गया था और 1925 में थोर्स्टाइन वेबलन की पुस्तक द थियरी ऑफ द लेजर क्लास प्रकाशित हो चुकी थी ।परन्तु एक अकादमिक विषय के तौर पर उसके अध्ययन का सूत्रपात बीसवीं सदी के छठें और सातवें दशक में हुआ ।दुमाजेदियर जैसे शुरुआती चिंतक ने फ़ुरसत को कामकाज और परिवार की ज़िम्मेदारियों से अलहदा एक ऐसी गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जो व्यक्ति को आराम करने, ज्ञान बढ़ाने तथा सामाजिक कार्यों में भागीदारी करने का अवसर प्रदान करती है ।दुमाजेदियर ने अपने विश्लेषण में सुख और चयन की स्वतंत्रता को फ़ुरसत का अंतर्निहित तत्व माना ।

३३- बदरीनाथ शुक्ल (1898-1988) काशी की विद्वान परम्परा में शुमार किए जाते हैं ।शुक्ल ने न्याय दर्शन के तहत देहात्मवाद की स्थापना किया ।देहात्मवाद एक ऐसा समाज दर्शन प्रस्तुत करता है जिसमें मनुष्य के लिए बोध सक्रिय रूप से कार्य करते हुए संदेश देता है कि उसे अपने पूर्वकृत कर्म के दबाव में दूसरों द्वारा किए जाने वाले शोषण- उत्पीडन को सहने और अपनी वर्तमान दलितावस्था को कर्मफल मानकर निष्क्रिय बने रहने से इनकार कर देना चाहिए ।देहात्मवादी दर्शन द्वारा व्यक्ति अपने हालात बदलने में स्वतंत्र रूप से प्रवृत्त हो सकता है जिससे न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है ।

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३४- मोटे तौर पर यह माना जाता है कि बंगाल के नवजागरण की शुरुआत राममोहन राय से हुई और रवींद्र नाथ ठाकुर के साथ उसका समापन हो गया ।राममोहन राय के बारे में एक दृष्टांत है जिसे उनकी शख़्सियत के रूपक की तरह पढ़ा जा सकता है । कहा जाता है कि उनके दो घर थे । खान-पान, वेशभूषा और रहन-सहन के लिहाज़ से एक में किसी विक्टोरियन जंटिलमैन की भाँति रहते थे और दूसरे में पारम्परिक बंगाली ब्राह्मण की तरह ।दरअसल उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी पूर्व और पश्चिम का संश्लेषण ।

३५- राममोहन राय की सन् 1820 में प्रकाशित रचना परसेप्ट्स ऑफ जीसस में ईसा के नैतिक संदेश को ईसाई तत्वज्ञान और चमत्कार कथाओं से अलग करके पेश किया गया था ।इसी के साथ उन्होंने ब्राह्मनी कल मैगज़ीन का प्रकाशन किया ।20 अगस्त, 1828 को उन्होंने ब्रम्ह सभा का गठन किया ।उन्हें बांग्ला गद्य का निर्माता भी कहा जाता है ।सती प्रथा के खिलाफ जनमत बनाने और अंग्रेज़ों को उस पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए मनाने का श्रेय राममोहन राय के प्रयासों को ही दिया जाता है ।

३६- बंगाल के नवजागरण में दीनबंधु मित्र के नाटक नील दर्पण ने बंगाल के मानस को झकझोरने का काम किया ।माइकेल मधुसूदन दत्त ने उसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित किया जिसके ख़िलाफ़ अदालत ने एक हज़ार रूपये के जुर्माने की सज़ा सुनाई ।माइकेल ने 1860 में मेघनाद- बध की रचना करके नयी बंगाली कविता की सम्भावनाओं का उद्घोष किया ।1865 में बंकिम चन्द्र चटर्जी का सूर्य उनके पहले ऐतिहासिक उपन्यास दुर्गेशनंदिनी के साथ बंगाली सांस्कृतिक क्षितिज पर उगा ।1873 में विषवृक्ष के ज़रिए उन्होंने सामाजिक उपन्यासों की परम्परा का सूत्रपात किया ।1882 में उन्होंने आनन्दमठ लिखकर देशभक्ति के पुनरूत्थान की अलख जगाई ।

३७- बंगाल की धरती पर ही इतिहासकार राजेन्द्र लाल मित्र, समाज सुधारक केशवचन्द्र सेन तथा स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने अपना उद्घोष किया ।परमहंस के युवा शिष्य स्वामी विवेकानंद ने 1893 में वर्ल्ड रिलीजस कांफ्रेंस में दिए गए अपने भाषण से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की और अपनी ख़ास शैली के आदर्शवादी राष्ट्रवाद का सूत्रीकरण किया ।चार साल तक पश्चिम का दौरा करके लौटे तो 1897 में उनका राष्ट्रीय नायक की तरह स्वागत किया गया ।राजनारायण बोस, नवगोपाल मित्र, ज्योतिरिंद्रनाथ ठाकुर और भूदेव मुखर्जी ने भी बंगाली नवजागरण को धार दिया ।

३८- बंगाल के नवजागरण में 1870 के बाद की अवधि राजनीतिक आंदोलनों की अवधि थी जिसमें सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का नेतृत्व उभरा ।उन्हें बंगाल के बेताज के बादशाह के तौर पर जाना गया ।सुरेन्द्रनाथ के जुझारूपन के कारण अंग्रेज़ उनका नाम बिगाड़कर सरेंडर नॉट बनर्जी भी कहते थे ।1876 में बनर्जी ने इंडियन एसोसिएशन की स्थापना किया जिसके 1883 के राष्ट्रीय सम्मेलन में सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संगठन बनाने का विचार पैदा हुआ ।इसका परिणाम 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ऐतिहासिक स्थापना के रूप में निकला ।

३९- बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय (1838-1894) को राष्ट्रवाद के प्रमुख निर्माता, बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कवि, पत्रकार और चिंतक माना जाता है ।उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन को प्रेरित करने वाले राष्ट्रगीत बंदे मातरम् की रचना करने वाले बंकिम ने तेरह उपन्यासों और कई गंभीर और आलोचनात्मक कृतियों का लेखन किया ।उनका जन्म उत्तरी चौबीस परगना के कंतालपारा में एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था ।वह आजीवन एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी भी रहे ।1894 में उन्हें कम्पेनियन, आर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर के सम्मान से नवाजा गया ।

४०- बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की पहली बड़ी रचना 1866 में प्रकाशित कपाल कुंडला थी।1856 में उनका उपन्यास दुर्गेश नंदिनी प्रकाशित हुआ जो बांग्ला में लिखा गया पहला उपन्यास था ।1869 में उनका उपन्यास मृणालिनी प्रकाशित हुआ ।1872 में उन्होंने एक मासिक साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन का प्रकाशन शुरू किया ।1873 में बंकिम चंद्र का उपन्यास विषवृक्ष बंग दर्शन में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ ।1877 में बंकिम के दो उपन्यास चन्द्रशेखर और रजनी का प्रकाशन हुआ ।रजनी एक अंधी लड़की का आत्मकथात्मक उपन्यास था ।

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४१- बंकिम चन्द्र का 1878 में उपन्यास कृष्ण कांतेर विल का प्रकाशन हुआ ।इसमें बंकिम ने समकालीन भारत की जीवनशैली और भ्रष्टाचार की जीवंत तस्वीर पेश की ।1881 में बंकिम का एक अन्य ऐतिहासिक उपन्यास राजसिम्हा का प्रकाशन हुआ ।1882 में उनका सबसे प्रसिद्ध राजनीतिक उपन्यास आनन्दमठ का प्रकाशन हुआ ।मोटे तौर पर यह उपन्यास अठारहवीं सदी में हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था ।इसी उपन्यास में उनका प्रसिद्ध बंदे मातरम् गीत शामिल था । बाद में रवींद्र नाथ ठाकुर ने इसका संगीत तैयार किया ।आज़ादी के संघर्ष के दौरान बंदे मातरम् गीत और नारा बहुत प्रसिद्ध हुआ ।स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसे राष्ट्र- गीत के रूप में स्वीकार किया गया ।

४२- उपरोक्त उपन्यासों के अलावा बंकिम के उपन्यासों में 1844 में प्रकाशित देवी चौधरानी और 1966 में प्रकाशित सीताराम उपन्यास हैं ।एक निबन्ध में बंकिम चन्द्र ने कहा था कि, “भारत तब तक एक राष्ट्र के रूप में विकसित नहीं हो सकता जब तक हाशिम शेखों और राम कैबर्तों की स्थितियों में समान और साथ- साथ सुधार नहीं होता।”

४३- बांग्ला देश मुक्ति- संघर्ष(1971) द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुई दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है ।इसके गर्भ से एक नए राष्ट्र- राज्य का उदय हुआ ।इस मुक्ति संघर्ष ने रेखांकित किया कि यदि किसी राष्ट्र- राज्य के बहुसंख्यक वहाँ के अल्पसंख्यकों के साथ सम्मान और बराबरी का बरताव नहीं करते, तो यह उस राष्ट्र- राज्य के अस्तित्व के लिए घातक हो सकता है ।बांग्लादेश मुक्ति संग्राम ने इस बात का सबूत भी दिया कि जिस दो राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर भारत का बँटवारा करके पाकिस्तान का निर्माण किया गया था, वह बेबुनियाद था ।

४४- बांग्लादेश के निर्माण का तात्कालिक कारण पाकिस्तान की सरकार के द्वारा पूर्वी पाकिस्तान में सेना द्वारा किया गया नागरिक अधिकारों का दमन था ।10 अप्रैल, 1971 को पूर्वी पाकिस्तान के प्रमुख राजनीतिक दल अवामी लीग के नेताओं ने बांग्लादेश की आज़ादी की घोषणा कर दी ।17 अप्रैल को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ बांग्लादेश की सरकार गठित की गई ।यह सरकार बांग्लादेश के खुशटिया ज़िले के मेहरपुर में बैद्यनाथ टाला में गठित की गई ।शेख मुजीब को इस गणतंत्र का राष्ट्रपति, सैयद नज़रुल इस्लाम को उपराष्ट्रपति और ताजुद्दीन अहमद को प्रधानमंत्री बनाया गया ।

४५- बांग्लादेश के घटनाक्रम की प्रतिक्रिया में पाकिस्तान ने अपनी पश्चिमी सीमा की ओर 3 दिसम्बर, 1971 को भारत पर हमला कर दिया ।भारतीय सेना ने 16 दिसम्बर, 1971 को मित्र वाहिनी के साथ ढाका पर क़ब्ज़ा कर लिया ।यही वह दिन था जब पाकिस्तान ईस्टर्न कमांड के जनरल नियाजी ने 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों के साथ ईस्टर्न कमांड के भारतीय सेनापति लेफ़्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया ।इस तरह बांग्लादेश 16 दिसम्बर, 1971 को आज़ाद हुआ ।

४६- बीसवीं सदी के छठें दशक के अंत में अमेरिकी राजनीति में ब्लैक पैंथर्स का उभार हुआ ।इसके पीछे नागरिक अधिकार आंदोलन, ब्लैक पावर आन्दोलन और तीसरी दुनिया की मुक्ति के लिए चलाए जाने वाले संघर्षों की भूमिका थी ।ब्लैक पैंथर पार्टी का गठन अक्तूबर, 1966 में ऑकलैण्ड, कैलिफ़ोर्निया में हुआ ।अपने दस सूत्रीय कार्यक्रमों के ज़रिए पैंथरों के नेता ह्यू न्यूटन ने काले समुदाय के लोगों के लिए पूर्ण रोज़गार की माँग की ।उन्होंने कहा कि काले लोगों को रोटी, ज़मीन, शांति और न्याय की गारंटी दी जानी चाहिए ।अपने राजनीतिक मतभेद और नेतृत्व के संकट जैसे कारकों के चलते 1980 के दशक की शुरुआत में यह संगठन ख़त्म हो गया ।

४७- बर्तोल्त ब्रेख़्त (1898-1956) प्रसिद्ध जर्मन कवि, नाट्यकार, निर्देशक, मार्क्सवादी संस्कृतिकर्मी और सिद्धांतकार थे ।उन्हें महाकाव्यात्मक रंगमंच अर्थात् एपिक थियेटर की नींव रखने और अभिनय की एक नई शैली विकसित करने के लिए जाना जाता है जिसे ए- इफैक्ट अर्थात् अलगाव का सिद्धांत कहा गया ।उन्होंने 1949 में बर्लिनर ऐनसेम्बिल थियेटर की स्थापना की तथा शेक्सपियर, मोलियर और अन्य महान नाटककारों की रचनाओं के रूपांतरण किए ।ब्रेख़्त के विख्यात नाटकों गुड वुमन ऑफ सेजुऑन, मदर करेज, थ्री पैनी ओपेरा, पुंटिला ऐंड हिज मैन मैटी, गैलीलियो इत्यादि का भारतीय रंगमंच पर विविध भाषाओं और बोलियों में मंचन हुआ ।

४८- एपिक थियेटर में दर्शकों के आगे की आभासी चौथी दीवार गिर जाती है और वह सही मायनों में खेल देखता है, जिसमें स्थितियाँ उनकी पूरी पृष्ठभूमि में उपस्थित होती हैं ।विरोधी छवियाँ और संगत छवियाँ एक साथ मौजूद रहती हैं ।इसमें कथावस्तु की जगह आख्यान केन्द्र में होता है और मोंटाज छवियों से युक्त इस आख्यान का विकास रैखिक न होकर वक्र होता है ।इस रंगमंच के लिए अभिनेता की शैली भी अलग होती है जिसे ब्रेख़्त ने ए- इफैक्ट करार दिया है ।अपराध, हत्या, वेश्यावृत्ति, बलात्कार, हिंसा इत्यादि विषय उनके नाटकों में हैं ।

४९- दलित राजनीतिक समुदाय के उदय को रेखांकित करती बहुजन समाज पार्टी ने भारतीय राजनीति को बहुजन, सर्वजन और मनुवाद जैसी नई अवधारणाएँ दी हैं ।बहुजन शब्द महात्मा फुले द्वारा अपनाई गई सांस्कृतिक राजनीति की देन है ।फुले से पहले बहुजन अवधारणा बुद्ध की उक्ति बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय में मिलती है ।आज की राजनीति के लिए इसका व्यवहारिक मतलब है दलित मतदाताओं, पिछड़े वर्ग के गरीब मतदाताओं और धर्म परिवर्तन करने वाले मुसलमान मतदाताओं का गठजोड़ ।

५०- सर्वजन का व्यावहारिक अर्थ है दलित राजनीतिक हितों की प्रधानता में ऊँची जातियों से चुनावी गठजोड़ करना और उसके फलस्वरूप मिली सत्ता में उन्हें भी हिस्सेदारी देना ।मनुवाद एक ऐसा प्रत्यय है जिससे बसपा ने ब्राह्मणवाद को प्रतिस्थापित किया है ।ब्राह्मणवाद की जगह मनुवाद का प्रयोग करने से सबसे बड़ा फ़र्क़ यह पड़ता है कि किसी जाति विशेष का विरोध करने के आग्रह से छुटकारा मिल जाता है ।कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में बसपा के गठन के दौरान कहा था कि उत्तर प्रदेश गंगा और यमुना के बीच का आर्यावर्त राज्य है, यह चमारवर्त में परिवर्तित हो जाएगा ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक “समाज विज्ञान विश्वकोष” खण्ड 3, दूसरा संस्करण : 2016, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, से साभार लिए गए हैं ।

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1 thought on “राजनीति विज्ञान/ समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग-२१)”

  1. देवेन्द्र कुमार मौर्य कहते हैं:
    जून 13, 2022 को 5:08 अपराह्न पर

    सारगर्भित समीक्षा, आपका ऐसा अनवरत श्रम हमारे लिए प्रेरणादायक है।

    प्रतिक्रिया

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