– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, झाँसी, उत्तर- प्रदेश, भारत lई मेल : drrajbahadurmourya @ gmail. Com, website : themahamaya. Com
(भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, आतंकवाद, भारतीय किसान आन्दोलन, नक्सलवादी आन्दोलन, दर्शन, भगवानदास, अनुकूल चन्द्र मुखर्जी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, जिद्दू कृष्ण मूर्ति, धीरेंद्र मोहन दत्त, टी. आर. वी. मूर्ति, टी. एम. पी. महादेवन, आर. के. त्रिपाठी, चन्द्रधर शर्मा, गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, के. सच्चिदानन्द मूर्ति, दया कृष्ण, यशदेव शल्य, धर्मेन्द्र गोयल, डाक्टर विनायक सेन, भारत में मतदान व्यवहार)
1- काशी के एक सम्पन्न वैश्य कुल में जन्में, आधुनिक हिंदी के संस्थापक और हिंदी साहित्य के मुख्य प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1886) का स्थान भारतीय सांस्कृतिक नवजागरण के अग्रदूतों में बहुत ऊँचा है ।वे बनारस के जाने माने रईस बाबू गोपाल चन्द्र के बेटे थे, जो गिरधर उप नाम से कविता करते थे । आधुनिक साहित्य, विशेष कर हिंदी गद्य को, नए मार्ग पर चलाने वालों में उनका नाम शीर्ष पर है ।रामविलास शर्मा ने भारतेन्दु युग को हिंदी के नवजागरण का पर्याय करार दिया है ।उन्हें हिंदी, अंग्रेज़ी, बांग्ला, मराठी, उर्दू, मैथली पर महारत हासिल थी ।वह केवल 36 साल तक जिए ।
2- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने बांग्ला से विद्यासुन्दर नाटक का अनुवाद किया ।1868 में उन्होंने कवि वचन सुधा नामक पत्रिका निकाली, जिसका नाम आठ अंकों के बाद हरिश्चन्द्र चंद्रिका हो गया ।भारतेन्दु ने स्त्री- शिक्षा को ध्यान में रखकर बाला बोधिनी पत्रिका निकाली ।उन्होंने चंद्रावली, नीलदेवी तथा भारत- दुर्दशा नाम से नाटक लिखे ।चन्द्रावली में प्रेम का आदर्श है ।नीलदेवी में पंजाब के हिन्दू राजा पर मुसलमानों की चढ़ाई का वृतांत है जबकि भारत- दुर्दशा में भारत की दीन दशा और अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के लूट -तंत्र का खुलासा है ।उन्होंने कश्मीर कुसुम और बादशाह दारा लिखकर इतिहास रचना की चेतना की तरफ़ हमारा ध्यान खींचा ।
3- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का कहना था कि “यह दौलत मेरे कितने ही पुरखों को निगल गई है, आज मैं इसे खाऊँगा”।बहुत कम उम्र का जीवन जीकर भी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिंदी साहित्य को मालामाल कर दिया ।भारतेन्दु युग हिंदी गद्य के बहुमुखी विकास का युग था ।हिन्दी नाटकों का आरम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से ही स्वीकार किया जाता है ।इसके पहले सन् 1610 में प्राणचन्द चौहान कृत रामायण महानाटक, 1667 में लक्षिराम कृत करूण भरण, सन् 1700 में, महाराज विश्वनाथ कृत आनन्द रघुनन्दन, सन् 1820 में, उदय कृत हनुमान नाटक का उल्लेख अवश्य मिलता है लेकिन यह नाटक से ज़्यादा पद्यात्मक प्रबन्ध हैं ।सन् 1857 में अमानत की इन्द्र सभा तथा इसी वर्ष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता गोपाल चन्द्र गिरधर दास कृत नहुष भी बहुत प्रसिद्ध रहा ।
4- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने मौलिक तथा अनूदित मिलाकर सत्रह नाटकों की रचना की ।रत्नावली, पाखंड विखंडन, कर्पूर मंजरी और मुद्राराक्षस के अनुवाद के साथ शेक्सपीयर के नाटक मर्चेंट ऑफ वेनिस का दुर्लभ बन्धु के नाम से अनुवाद किया ।सन् 1873 में वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, 1875 में सत्य हरिश्चन्द्र, 1876 में श्री चंद्रावली, 1876 में ही विषस्य विषौषधम्, 1880 में भारत दुर्दशा, 1881 में नील देवी, 1881 में ही अंधेर नगरी, 1883 में सती प्रताप और 1885 में प्रेम जोगिनी जैसे नाटक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लिखा ।उन्होंने सर्वाधिक पौराणिक नाटक लिखे ।
5- इसी दौरान सन् 1886 में श्री निवास दास कृत संयोगिता स्वयंवर, 1895 में राधाचरण गोस्वामी कृत अमर सिंह राठौर, 1898 में राधा कृष्ण दास कृत महाराणा प्रताप जैसे नाटकों की रचना हुई ।सन् 1890 में श्री निवास दास कृत रणधीर प्रेममोहिनी, 1891 में मयंक मंजरी आदि प्रेम प्रधान नाटक रचे गए ।समकालीन विषयों पर बालकृष्ण भट्ट कृत नई रोशनी का विष (1884), खड्गबहादुर मल्ल कृत भारत आहत (1885), अम्बिकादास व्यास कृत भारत सौभाग्य (1887), राधाकृष्ण दास कृत दु:खिनी बाला (1880), काशीनाथ खत्री कृत विधवा विवाह और देवकीनन्दन खत्री त्रिपाठी कृत भारत हरण (1899), जैसे नाटकों का नाम उल्लेखनीय है ।
6- सन् 1888 में मर्चेंट ऑफ वेनिस का अनुवाद आर्या द्वारा वेनिस का व्यापारी शीर्षक से, 1885 में कॉमेडी ऑफ एरर्स का अनुवाद भ्रमतालक शीर्षक से मुंशी इमदाद अली ने और भूलभुलैया शीर्षक से लाला सीताराम ने, 1886 में एज यू लाइक इट का अनुवाद मनभावन शीर्षक से पुरोहित गोपीनाथ, रोमियो जूलिएट- प्रेमलीला – पुरोहित गोपीनाथ ने, 1897 में मैक्बेथ का अनुवाद साहसेंद्र साहस शीर्षक से मथुरा प्रसाद उपाध्याय ने किया ।1862 में राजा लक्ष्मण सिंह ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् का काव्यात्मक अनुवाद किया ।
7- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने बांग्ला से विद्या सुन्दर और संस्कृत से विशाखादत्त का अनुवाद किया । 1871 में देवदत्त तिवारी ने उत्तर रामचरित, 1897 में लाला सीताराम ने मालती माधव, महावीर चरित और 1886 में विश्वनाथ दुबे ने मालती माधव का अनुवाद किया ।लाला सीताराम ने शूद्रक के मृच्छकटिकम् तथा कालिदास के मालविकाग्निमित्र का अनुवाद किया ।बालकृष्ण भट्ट ने माइकेल मधुसूदन दत्त के नाटक पद्मावती और सर्मिष्ठा का अनुवाद बांग्ला से किया ।अंग्रेज़ी ढंग का पहला मौलिक उपन्यास श्री निवास दास का परीक्षा गुरु 1882 में आया ।1877 में श्रृद्धाराम फुल्लौरी ने भाग्यवती नाम से एक उपन्यास लिखा ।
8- इसी समय सन् 1886 में बालकृष्ण भट्ट ने नूतन ब्रम्हचारी, 1892 में एक अजान सौ सुजान, 1890 में राधाकृष्ण दास ने निस्सहाय हिंदू, लज्जाराम शर्मा ने धूर्त रसिकलाल, किशोरीलाल गोस्वामी ने 1890 में सौभाग्य श्री जैसे उल्लेखनीय उपन्यास लिखे । 1882 में देवकीनन्दन खत्री ने तिलिस्मी ऐयारी पर आधारित उपन्यास चन्द्रकान्ता, 1896 में चन्द्र कांता संतति, 1893 में नरेन्द्र मोहिनी, 1895 में वीरेंद्र वीर तथा 1899 में कुसुम कुमारी जैसे नामी गिरामी उपन्यास आए ।रूमानी उपन्यासों में ठाकुर जगमोहन सिंह का 1888 में प्रकाशित उपन्यास श्यामा स्वप्न उल्लेखनीय है ।
9- भारतेन्दु युग में ही जहां स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1882 में बूंदी का राजवंश, 1893 में देवी प्रसाद ने आमेर के राजे तथा 1896 में मारवाड़ के प्राचीन लेख और महाराज सिंह ने इतिहास बुंदेलखंड आदि ग्रंथ लिखे वहीं शिवप्रसाद सितारे हिंद ने 1870 में भूगोल हस्तामलक, लक्ष्मीधर मिश्र ने 1886 में प्राकृतिक भूगोल चंद्रिका, भगवान दास वर्मा ने 1887 में पश्चिमोत्तर तथा अवध का भूगोल जैसी पुस्तकों की रचना की ।विचार के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रचार दयानंद सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश और गोपालदास कृत वल्लभाख्यान (1873) का हुआ । सन् 1826 में कलकत्ता से उदंत मार्तण्ड, बंग दूत और 1845 में बनारस अख़बार निकला ।
10- एक संगठित, व्यवस्थित, हिंसक कार्य जो सामूहिक हत्या को अंजाम दे- आतंकवाद कहलाता है ।इक्कीसवीं सदी में न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले के बाद से आतंकवाद एक ऐसे अपराध की श्रेणी में आ गया है जिसके बारे में माना जाता है कि राज्य के साधारण क़ानून इसकी रोकथाम में विफल रहे हैं ।इसी के बाद से इसकी रोकथाम के लिए विशेष तरह के क़ानून और उपायों की खोज होने लगी ।इसी विमर्श में जो क़ानून निकल कर आए उन्हें आतंक विरोधी क़ानून माना गया ।भारत में अभी तक केन्द्रीय स्तर पर तीन आतंक विरोधी क़ानून बनाए गए हैं ।वर्ष 2007 में प्रकाशित उज्ज्वल कुमार सिंह की पुस्तक स्टेट, डेमॉक्रेसी ऐंड एंटी टेरर लॉ इन इंडिया इस पर विस्तृत प्रकाश डालती है ।
11- भारत में इस तरह के क़ानूनों की बुनियाद औपनिवेशिक काल में क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट (1908) में देखी जा सकती है ।इस एक्ट ने पहली बार ग़ैरक़ानूनी संगठन या अनलॉफुल एसोसिएशन की परिभाषा रखी थी ।ग़ैरक़ानूनी संगठन ऐसा संगठन माना गया जो व्यक्ति को हिंसा या धमकी से जुड़ी गतिविधियों के लिए बढ़ावा दे या मदद करे ।स्वतंत्र भारत में असाधारण शक्तियों वाला क़ानून पहली बार 1967 में बनाया गया था ।यह क़ानून था- अनलॉफुल एक्टीविटीज प्रिवेंशन एक्ट ।इस क़ानून ने केन्द्रीय सरकार को संगठन की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर पाबंदी लगाने का अधिकार दिया ।
12-वर्ष 1985 में दिल्ली में हुए लगातार बम विस्फोटों के कारण संसद में असाधारण शक्तियों के क़ानून टाडा को मंज़ूरी दी ।इसके तहत निवारक नज़रबंदी की अवधि को बढ़ाकर एक वर्ष कर दिया गया ।टाडा में स्वीकृति या इकबाले- जुर्म का प्रावधान था । 1993 में गृह मंत्रालय के ऑंकडों के हिसाब से 52,268 व्यक्ति टाडा के तहत गिरफ़्तार किए गए और 1994 के ऑकडों के अनुसार 67,000 लोगों को हिरासत में लिया गया ।टाडा के आकलन के लिए केंद्र सरकार द्वारा बनाई गई समीक्षा समिति ने माना कि केवल 5,000 केसों में ही आरोप सही साबित हुए ।वर्ष 1994 में करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य केस में सर्वोच्च न्यायालय ने टाडा की संवैधानिक वैधता को सही ठहराया ।
13- 13 दिसम्बर, 2001 को हुए भारतीय संसद पर हमले के बाद आतंकवाद से निपटने के लिए पोटा के रूप में असाधारण क़ानून बनाया गया । इस क़ानून के तहत आतंकवादी संगठन की सदस्यता तथा उसकी किसी भी तरह की मदद करना अपराध माना गया । इस क़ानून के तहत ही लिबरेशन ऑफ तमिल टाइगर्स ईलम, स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट इन इंडिया, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) तथा माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर पर प्रतिबंध लगाया गया । उत्तर प्रदेश में कुंडा के विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ़ राजा भैया के ऊपर भी पोटा लगाया गया था ।गोधरा दंगो के सिलसिले में 59 लोगों पर पोटा लगाया गया था ।
14- भारत में सन् 1857 के सिपाही विद्रोह में किसानों ने बड़े पैमाने पर भागीदारी की थी । 1855-56 के बीच बिहार, बंगाल और उड़ीसा में संथालों ने हथियार उठाए ।सन् 1836 और 1896 में मालाबार के इलाक़े में मोपला किसानों ने बग़ावत की । 1860 में बिहार और बंगाल के नील किसानों ने विद्रोह किया । 1873 में सिरसागंज, बंगाल के पबना के किसानों ने तथा 1875 में पुणे में मराठा किसानों ने संघर्ष किया । उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशक में आदिवासी किसानों के मुंडा और संथाल विद्रोह हुए ।बड़े- बड़े आन्दोलनों के अलावा अध्येताओं ने ऐसे अपेक्षाकृत छोटे 77 किसान आंदोलनों की सूची बनाई है ।
15- बीसवीं सदी के पहले तीन दशकों में चम्पारन, बारदोली और खेड़ा किसानों के आंदोलन हुए ।कम्युनिस्टों के नेतृत्व में 1946 में बंगाल का जुझारू तेभागा आन्दोलन हुआ ।1946 से 1948 के बीच लाल झंडे के नीचे की तेलंगाना के किसानों ने हथियार बंद संघर्ष किया । 1946 में ट्रावणकोर में पुन्नपरा- वायलार किसान आंदोलन और पुणे- थाणे का वरली आदिवासी किसान विद्रोह भी हुआ ।
16- भारतीय किसान आंदोलन को समझने के कई मॉडल प्रचलित हैं ।पहला मॉडल एरिक वॉल्फ का है ।दूसरा मॉडल कैथलीन गफ का है । तीसरा मॉडल डी.एन. धनगरे का है ।चौथा मॉडल मार्क्सवादियों का है और पाँचवाँ तथा बहुचर्चित मॉडल रणजीत गुहा ने पेश किया है ।इसे सबाल्टर्न मॉडल के नाम से भी जाना जाता है । रणजीत गुहा ने वर्ष 1988 में प्रकाशित अपनी चर्चित पुस्तक एलीमेंटरी आस्पेक्ट्स ऑफ पीजेंट इंसरजेंसी इन कोलोनियल इंडिया में मुख्य तौर पर उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दौर में हुए संथाल और मुंडा विद्रोहों की चर्चा की है । उन्होंने इस इतिहास लेखन को प्रोज ऑफ काउन्टर- इंसरजेंसी की संज्ञा दी है ।
17- नक्सलवादी आन्दोलन की शुरुआत 1967 में उत्तर बंगाल की तराई में स्थित नक्सलबाडी इलाक़े के आदिवासी किसानों द्वारा स्थानीय ज़मींदारों और सरकार के खिलाफ किए गए सशस्त्र विद्रोह से हुई ।यह दौर 1972 तक चला । इस दौरान इसका नेतृत्व मुख्य रूप से चारु मजूमदार के हाथों में था ।23 मई को नक्सबाडी विद्रोह हुआ ।28 जून को रेडियो पेकिंग ने इस आन्दोलन को भारत में बसंत का वज्रनाद करार दिया ।1972 में चारु मजूमदार की पुलिस हिरासत में मृत्यु हो गई । वर्ष 1989 में प्रकाशित अभय कुमार दुबे की पुस्तक “क्रांति का आत्म- संघर्ष : नक्सलवादी आन्दोलन के बदलते चेहरे का अध्ययन” बहुचर्चित पुस्तक है ।
18- वर्ष 1916 में आमलनेर, महाराष्ट्र में श्री मंत प्रताप सेठ के सौजन्य से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फिलॉसफी की स्थापना हुई । 1917 में इंडियन फिलॉसॉफिकल एसोसिएशन का पहला अधिवेशन कोल्हापुर में हुआ तथा इंडियन फिलॉसॉफिकल रिव्यू नामक पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारम्भ किया गया । 1925 में इंडियन फिलॉसॉफिकल कांग्रेस की स्थापना हुई ।इसके पूर्व अलबर्ट स्वीट्जर (1875-1965) ने वर्ष 1936 में प्रकाशित अपनी पुस्तक इंडियन थॉट एंड इट्स डिवेलपमेंट में कहा था कि भारतीय दर्शन पलायन वादी है जिसका पुरज़ोर जबाब सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने वर्ष 1939 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ईस्टर्न रिलीजन एंड वेस्टर्न थॉट में दिया है ।
19- भारत में दर्शन के क्षेत्र में स्वतंत्रता से पूर्व के विचारक श्री अरविन्द (1872-1950) प्रत्ययवादी दार्शनिक थे ।कृष्ण चन्द्र भट्टाचार्य (1876-1949) तत्त्वमीमांसक थे, उन्होंने “कंसेप्ट ऑफ फिलॉसफी” ‘सब्जेक्ट एज फ़्रीडम’ और ‘द कंसेप्ट ऑफ एब्सोल्यूट ऐंड इट्स आल्टरनेटिव फ़ार्म्स’ जैसे निबंधों की रचना की ।भारत के पुनर्जागरण के परिप्रेक्ष्य में भट्टाचार्य का स्वराज इन आइडियाज़ नामक व्याख्यान भी महत्वपूर्ण है जिसे उन्होंने 1929 में हुगली कॉलेज, कलकत्ता के विद्यार्थियों के बीच दिया था ।1954 में इसका प्रकाशन विश्व भारती जर्नल में हुआ । यह व्याख्यान अपने आप में वैचारिक स्वराज का दार्शनिक घोषणा पत्र जैसा है ।
20-भट्टाचार्य के अनुसार सांस्कृतिक पराभव केवल तब होता है जब व्यक्ति के अपने परम्परागत विचारों और भावनाओं को, बिना तुलनात्मक मूल्यांकन के ही, एक विदेशी संस्कृति के विचार और भावनाएँ उखाड़ फेंकते हैं और वह विदेशी संस्कृति व्यक्ति को एक भूत या प्रेत की तरह अपने वश में कर लेती है ।इस प्रकार की पराधीनता आत्मा की दासता है । जब व्यक्ति अपने आप को उससे मुक्त कर लेता है तो उसे लगता है जैसे उसकी आँखें खुल गईं । उसे एक नए जन्म की अनुभूति होती है ।इसे ही मैं विचारों का स्वराज कहता हूँ ।
21- स्वराज की भारतीय अवधारणा के सन्दर्भ में भारत रत्न से विभूषित भगवानदास (1869-1958) की वर्ष 1939 में प्रकाशित रचना द एसेंशियल यूनिटी ऑफ ऑल रिलीजंस प्रतिष्ठित कृति है । इसी क्रम में आर.डी.रानाडे (1886-1957) की वर्ष 1927 में प्रकाशित अपनी पुस्तक अ कन्स्ट्रक्टिव सर्वे ऑफ उपनिषदिक फिलॉसफी बहुमान्य कृति है । उनके जीवन काल की अंतिम कृति 1959 में प्रकाशित भगवद्गीता एज ए फिलॉसफी ऑफ गॉड रियलाइजेशन थी ।मरणोपरान्त उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति वेदान्त : द कल्टीमेशन ऑफ थॉट थी जिसका प्रकाशन 1970 में हुआ ।
22- श्री अनुकूल चन्द्र मुखर्जी (1888-1968) को इलाहाबाद का प्लेटो कहा जाता है ।द नेचर ऑफ सेल्फ (1938) एवं सेल्फ, थॉट एंड रियलिटी (1957) उनकी गम्भीर दार्शनिक कृतियाँ हैं जिनमें उन्होंने अद्वैत वेदांत में परम चैतन्य के स्वरूप को ब्रिटिश नव हीगेलवादी अभिगम में उद्घाटित किया है ।इसी परम्परा में रास बिहारी दास (1897-1976) भी आते हैं । उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं द इसेंशियल ऑफ अद्वैतिज्म (1931), द फिलॉसफी ऑफ व्हाइटहेड (1937) एवं इंट्रोडक्शन टू शंकर (1968) ।
23- सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1888-1975) की प्रतिष्ठा पूर्व और पश्चिम के प्रवक्ता के रूप में थी। उन्होंने मानव जीवन के सभी पक्षों की व्याख्या नव- वेदान्तवादी दृष्टि से की है । ऐन आइडियलिस्टिक व्यू ऑफ लाइफ़ में उन्होंने सफलतापूर्वक प्रतिपादित किया कि बुद्धि सत्य को उसकी सम्पूर्णता में नहीं जान सकती । अन्त: प्रज्ञा ही मानवीय चेतना का वह आयाम है जहाँ सत्य का अपनी सम्पूर्णता में साक्षात्कार होता है । अपनी दूसरी रचना द हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ़ में राधाकृष्णन ने लिखा कि भारत की सांस्कृतिक- धार्मिक चेतना बहुदेववादी होते हुए भी अद्वैत वाद की विरोधी नहीं है ।
24- बीसवीं सदी के दार्शनिकों में जिद्दू कृष्ण मूर्ति (1895-1986) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।क्रियात्मक मानव स्वतंत्रता के भाष्यकार कृष्ण मूर्ति अकादमिक फिलॉसफर न होकर आत्मचेता बुद्ध पुरुष थे । उनके व्याख्यानों का अठारह भागों में संग्रह अपने आप में एक वांगमय है ।लेकिन कमेंटरीज ऑन लिविंग, फ़्रीडम फ्रॉम नोन, फ़र्स्ट एंड लास्ट लिबरेशन और यू आर द वर्ल्ड में उनके मौलिक विचार व्यवस्थित रूप में प्राप्त होते हैं ।
25- धीरेन्द्र मोहन दत्त (1898-1974) की रचनाएँ सिक्स वेज ऑफ नोइंग (1932), द फिलॉसफी ऑफ महात्मा गाँधी (1953) और चीफ़ करेंट्स ऑफ कंटेम्पेरेरी (1950) आज भी पठन- पाठन में उपयोगी हैं ।सुरेन्द्र नाथ दास गुप्ता (1885-1952) द्वारा पाँच खंडों में प्रकाशित अ हिस्ट्री ऑफ इंडियन फिलॉसफी (1922) महत्वपूर्ण रचना है ।
26- अरविन्द ने अपने लाइफ़ डिवाइन (1949) में एक समग्र और मर्त अद्वैत को उपस्थापित किया है जिसमें जड़ और चेतना का एकान्वयन घटित होता है ।अनन्त के तर्क को आधार में रखते हुए उन्होंने प्रतिपादित किया कि अतिमानस की विकासावस्था में सगुण और निर्गुण की एकता स्वयं अनुभूति के धरातल से प्रमाणित होती है तर्कसम्मत अद्वैत वेदान्त के प्रबल समर्थक जी. आर. मलकानी (1892-1977) ने बेबाक़ कहा कि अरविंद मायावाद का खंडन नहीं करते । फिलॉसफी ऑफ सेल्फ (1939) और मेटाफिजिक्स ऑफ अद्वैत (1961) उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं ।
27- अखिल भारतीय दर्शन परिषद की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका यशदेव शल्य की रही ।मुखपत्र के रूप में दार्शनिक त्रैमासिक पत्रिका का परिषद की स्थापना के साथ ही 1954 से प्रारम्भ किया गया । परिषद का प्रथम वार्षिक अधिवेशन 1956 में इलाहाबाद में हुआ ।हिन्दी माध्यम से आज़ादी के बाद भारत में दार्शनिक अध्यवसाय को प्रतिनिधित्व देते हुए परिषद ने दो दर्जन से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन किया । जिसमें के. सच्चिदानन्द मूर्ति द्वारा समकालीन भारतीय दर्शन (1962) विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
28- दार्शनिक टी. आर. वी. मूर्ति (1902-1986) को परम्परा और आधुनिकता का सेतुबंध कहा जा सकता है ।वर्ष 1955 में प्रकाशित उनकी कृति द सेंट्रल फिलॉसफी ऑफ बुद्धिजम के माध्यम से दार्शनिक विचारों के विश्व इतिहास में नागार्जुन को प्रतिष्ठा मिली ।जे. आर. मलकानी और रासबिहारी दास के द्वारा वर्ष 1933 में प्रकाशित की गई पुस्तक अज्ञान में वेदान्त सम्मत अविद्या की अवधारणा को उद्घाटित किया गया । दर्शन के क्षेत्र में हुमायूँ कबीर (1906-1969) को भी सम्मान के साथ याद किया जाता है ।
29- पारम्परिक भारतीय दार्शनिक चिंतन की आधुनिकोन्मुखी व्याख्या करने वालों में अग्रणी पी. टी. राजू को उनकी रचना आइडियलिस्टिक थॉट ऑफ इंडिया (1953), थॉट एंड रियलिटी (1957), आइडियलिज्म ऐंड मॉडर्न चैलेंजेज (1961) तथा इंट्रोडक्शन टू कम्पेरेटिव फिलॉसफी (1962) के लिए विद्व जगत में सम्मान हासिल है । इसी प्रकार कालिदास भट्टाचार्य (1911-1964) भी पारंगत दर्शनशास्त्री थे ।जिन्होंने मनुष्य की स्वतंत्रता और उसकी धार्मिक- वैज्ञानिक चेतना के सम्बन्ध में मौलिक विचार प्रस्तुत किए हैं । उनकी रचनाओं में प्रीसपोजीशन ऑफ साइंस एंड अदर एसेज (1974), द कंसेप्ट ऑफ मैन (1982)प्रमुख हैं ।
30- टी. एम. पी. महादेवन (1911-1983) वेदान्त दर्शन में पारंगत थे ।उन्होंने मद्रास स्कूल ऑफ वेदान्त स्टडीज़ की स्थापना की । फिलॉसफी ऑफ अद्वैत (1957), आउटलाइन्स ऑफ हिन्दुइज्म (1956) और टाइम एंड टाइमलेस उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं ।आज़ादी के बाद भारत में नन्द किशोर देवराज (1917-1999) सर्जनात्मक मानववाद के प्रतिष्ठापक माने जाते हैं । इसी प्रकार भुवनेश्वर के गणेश्वर मिश्र (1917-1985) अपने समय के जाने- माने अध्येता थे ।उनकी रचना स्टडीज़ इन अद्वैत वेदांत (1976) एक प्रसिद्ध कृति है ।
31- दर्शन के क्षेत्र में प्रतिष्ठित आर. के. त्रिपाठी (1918-1981) का झुकाव वेदान्त दर्शन और उसमें भी शंकर दर्शन की ओर अधिक था । प्रॉब्लम्स ऑफ फिलॉसफी ऐंड रिलीजन (1971) तथा स्पिनोजा इन द लाइट ऑफ वेदान्त (1958) उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं ।सुरेंद्र सदाशिव बारलिंगे(1919-1997) हिन्दी, अंग्रेज़ी और मराठी के प्रसिद्ध विद्वान थे । अ मॉडर्न इंट्रोडक्शन टू लॉजिक (1955) और अ मॉडर्न इंट्रोडक्शन टू फिलॉसफी (1998) उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं ।
32- चन्द्रधर शर्मा (1920-2004) भारतीय परम्परा के अद्वैतवादी दर्शनों के सिद्धस्थ व्याख्याकार थे । उनकी अंग्रेज़ी रचना अ क्रिटिकल सर्वे ऑफ फिलॉसफी (1952), डायलेक्टिक ऑफ बुद्धिज्म ऐंड वेदान्त तथा द अद्वैतिक ट्रेडिशन ऑफ फिलॉसफी (1996) नामक ग्रन्थ उनके अद्वैतवादी अध्ययन के प्रांजल पक्ष को प्रस्तुत करते हैं । नागपुर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध नारायण शास्त्री द्रविड़ (1923-2010) का भारतीय तर्कशास्त्र और प्रमाणशास्त्र की समस्याओं की विशिष्टता को पाश्चात्य ज्ञानमीमांसा और तर्कशास्त्र के समक्ष उपास्थापित करने वालों में कोई सानी नहीं है ।
33- गोविंद चन्द्र पाण्डेय (1923-2011) के संस्कृति दर्शन पर हीगल के इतिहास दर्शन, बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद और श्री अरविन्द के मानवचक्र सिद्धांत का स्पष्ट प्रभाव है । फ़ाउन्डेशन ऑफ कल्चर ऐंड सिविलाइजेशन, द मीनिंग ऐंड प्रोसेस ऑफ कल्चर, कांशसनेस ऑफ वैल्यू कल्चर, मूल्य मीमांसा, भारतीय परम्परा के मूल स्वर तथा शंकराचार्य : विचार और संदर्भ उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं । इसके अतिरिक्त भक्ति दर्शन विमर्श तथा सौन्दर्य दर्शन विमर्श भी उनकी उल्लेखनीय रचनाएँ हैं ।
34- के. सच्चिदानंद मूर्ति (1924-2011) को दार्शनिक समुदाय में द्वितीय राधाकृष्णन माना जाता है । मूर्ति ने वेदान्त की मूल भावना सर्व खलु इदं ब्रम्ह की धार्मिक चेतना का दार्शनिकीकरण लोक जीवन के यथार्थ धरातल पर किया है ।उन्होंने शांति के दर्शन पर महत्वपूर्ण कार्य किया है । रेवलेशन ऐंड रीजन इन अद्वैत वेदांत (1959), द रेल्स ऑफ बिटवीन (1993), स्टडीज़ इन द प्राब्लम्स ऑफ पीस (1960) .उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं ।
35- दया कृष्ण (1924-2007) का भी भारतीय दर्शन परम्परा में महत्वपूर्ण योगदान है । उन्होंने भारतीय दार्शनिक परम्पराओं को प्रापर वर्क ऑफ रीजन की दृष्टि से देखकर उसकी नवीनतम संस्करण का प्रयास किया ।1955 में प्रकाशित उनकी कृति द नेचर ऑफ फिलॉसफी और द आर्ट ऑफ कॉन्सेप्चुअल से उनके दार्शनिक गोत्र का पता चलता है । प्रोलेगोमेना टू एनी फ्यूचर हिस्टीरियोग्राफी ऑफ कल्चर ऐंड सिविलाइजेशन में दया कृष्ण एक सभ्यता विज्ञानी के रूप में सामने आते हैं ।
36- यशदेव शल्य को चिरद्वैतवाद का संस्थापक माना जाता है ।इसी प्रकार मुकुंद लाठ भी स्वयं एक स्वतंत्र विचारक हैं । इलाहाबाद में संगम लाल पाण्डेय (1929-2002) ने अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से पाश्चात्य ज्ञान मीमांसा की समीक्षा कर डेथ एपिस्टेमॉलॉजी की पुनर्रचना फिलॉसफी ऑफ प्रयाग स्कूल के रूप में की है । इसी प्रकार रामचंद्र गांधी (1937-2007) की कृतियों में आई एम दाऊ, जो रमण महर्षि पर केन्द्रित है, महत्वपूर्ण है ।
37– धर्मेंद्र गोयल का आधुनिकोन्मुख चिंतन भी प्रसिद्ध है ।फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री (1967), फिलॉसफी ऑफ सोशल चेंज (1989), भाषा दर्शन (1991) उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं ।अखिल भारतीय दर्शन परिषद द्वारा प्रकाशित पुस्तक स्वतंत्रता मूल्य और परम्परा (2012) आज़ाद भारत की समसामयिक चिंताओं पर महत्वपूर्ण दार्शनिक विमर्श प्रस्तुत करती हैं । इसी काल में जे. सी. नायक शंकर, नागार्जुन और कालिदास की कृतियों में अंतर्विष्ट दार्शनिक दृष्टियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने वाले प्रतिबद्ध अध्येता रहे हैं ।
38- महाराष्ट्र में 1866 में भंग कर दी गई परमहंस सभा के बिखर गए सदस्यों में से कुछ एक ने 1866 में बम्बई पधारे केशवचन्द्र सेन के व्याख्यानों से प्रेरित होकर जिस संगठन की स्थापना किया उसे ही हम प्रार्थना समाज के नाम से जानते हैं । महाराष्ट्र के सुधारक संतों में तुकाराम का नाम भी सम्मान के साथ लिया जाता है । गुजरात में उन्नीसवीं सदी के प्रखर सुधारक और साहित्यकार गोवर्धन राम त्रिपाठी ने 1874 में क्लासिकल पोएट्स ऑफ गुजरात ऐंड देयर इन्फ्लुएंस ऑन सोसाइटी ऐंड मॉरल नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा ।
39- एम के एस एस यानी मज़दूर किसान संघर्ष समिति का गठन अरूणा राय और उनके सहयोगियों ने किया था ।इसी ने सरकारी भ्रष्टाचार से लड़ने के साधन के रूप में सूचना के अधिकार की माँग रखी थी ।नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट का नेतृत्व मेधा पाटकर कर रही हैं ।इला बहन भट्ट की संस्था सेवा भी एक अहम आन्दोलन है ।जिसका रूप एन जी ओ का न होकर स्वरोज़गारी स्त्रियों के लिए काम करने वाली ट्रेड यूनियन जैसा है । मधु पूर्णिमा किश्वर के नेतृत्व में चलने वाला मानुषी आन्दोलन ग़रीबों, ख़ास तौर पर रिक्शा चलाने वालों और रेहडी- पट्टी वालों के आर्थिक अधिकारों के लिए संघर्ष किया है ।
40- डॉक्टर विनायक सेन ने अपनी गिरफ़्तारी के समय कहा था, “ अगर यह मुझ जैसे लोगों को गिरफ़्तार करेंगे तो मानवाधिकार पर काम करने वालों की कोई सुनवाई नहीं रह जाएगी ।यहाँ की शिकायतें वास्तविक हैं ।इस प्रांत में एक अकाल आया हुआ है । यहाँ का शरीर द्रव्यमान 18.5 से कम है ।देश का 40 फ़ीसदी हिस्सा कुपोषण के साथ जी रहा है ।अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों में से यह संख्या 50-60 फ़ीसदी पहुँच जाती है ।हमें और अधिक समावेशी विकास के लिए प्रयास करना चाहिए।”
41- वर्तमान समय में पूरी तरह समाप्त किए जा चुके योजना आयोग का गठन 15 मार्च, 1950 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपनी अध्यक्षता में किया था ।यह आज़ाद भारत में नियोजन की प्रक्रिया की बाक़ायदा शुरुआत थी ।अमेरिकी फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन की भारतीय शाखा का नेतृत्व करने वाले अल्बर्ट एंसमिंगर की पहली पंचवर्षीय योजना पर छाप थी ।इसमें कृषि क्षेत्र और सामुदायिक विकास पर बहुत ज़ोर दिया गया था ।बाँधों और सिंचाई पर जम कर निवेश करने का प्रावधान था ।इसी दौर में भाखडा और हीराकुण्ड बाँधों का निर्माण शुरू हुआ ।
42- पहली पंचवर्षीय योजना (1951-1956) में ही देश भर में पाँच भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आई आई टी) की शुरुआत हुई ।विश्वविद्यालय अनुदान आयोग गठित किया गया ।शिशु मृत्यु दर घटाने की मुहिम चलाई गई ।इस योजना ने अपने घोषित लक्ष्य 2.1 प्रतिशत से अधिक 3.6 प्रतिशत की दर हासिल की । दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-1961) में पूरा ज़ोर भारी उद्योगों, खास कर सरकारी क्षेत्र में खड़ा किये जाने वाले अधिरचनात्मक उद्योगों पर था ।इसी योजना में देश भर में विकास खंडों का गठन कर उन्हें पंचायती राज व्यवस्था से जोड़ कर विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा दिया गया ।यह केन्द्रीकृत माध्यम से किए गए लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की मिसाल थी ।
43- दूसरी पंचवर्षीय योजना के पीछे सांख्यिकीविद् प्रशान्त चन्द्र महलनोबीस की मुख्य भूमिका थी जिसके कारण इसे महलनोबीस मॉडल की संज्ञा दी जाती है । 1966-1969 तक योजना अवकाश था । चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-1974) में चौदह बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कोयला- बीमा- बीमार उद्योगों के सरकारीकरण, हरित क्रांति के कारण खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता और 1971 के बांग्लादेश युद्ध की अवधि थी । पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-1979) में रोज़गार बढ़ाने और ग़रीबी कम करने पर ज़ोर था । छठवीं पंचवर्षीय योजना (1979-1985) की रूपरेखा गैर कांग्रेसी सरकार ने बनाई थी जिस पर अमल 1980 में प्रारम्भ हुआ ।
44- भारत में वर्ष 1959 में ही फ़ायरस्टोन, डनलप, बाटा, हिंदुस्तान लीवर जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ मज़बूत स्थिति में थीं । 1966 में भारत में कार्यरत सबसे बड़ी 112 कम्पनियों में से 62 का स्वामित्व या नियंत्रण विदेशी हाथों में था ।1981 से 1985 के बीच सुज़ुकी, दुपोंत, मित्सिबुसी, गुडइयर और सीको जैसे नए बहुराष्ट्रीय निगमों ने भारत में प्रवेश किया ।वेस्टिंग हाउस, जरोस्क, युनाइटेड टेक्नोलॉजी और हनीवेल जैसे निगम भारतीय कम्पनियों से समझौते करके यहाँ के बाज़ार में आ गए । 1991 में विदेशी मुद्रा क़र्ज़ लेने के लिए भारत को शर्तों के अनुसार 34 उद्योगों के दरवाज़े 51 फ़ीसदी विदेशी स्वामित्व के लिए खोलने पड़े ।
45- भारतीय संविधान के सत्रहवें हिस्से में दर्ज अनुच्छेद 341 से 351 तक भाषा के बारे में है ।अनुच्छेद 343 के अनुसार भारतीय संघ की आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी होगी । अनुच्छेद 345 और 346 राज्यों को यह अधिकार देता है कि वे राजभाषा अधिनियम पारित करके किसी भी भाषा या एक से अधिक भाषाओं को किसी ख़ास काम के लिए या सभी सरकारी कामों के लिये इस्तेमाल कर सकते हैं । इस क़ानून के तहत केवल वही भाषा ही अपनाई जा सकती है जिसे राज्य में कम से कम 15 फ़ीसदी लोग बोलते हों । अनुच्छेद 346 यह भी कहता है कि दो या दो से अधिक राज्य तय कर सकते हैं कि उनके बीच होने वाला सम्पर्क- संवाद हिंदी में होगा ।
46- संविधान की आठवीं अनुसूची में संस्कृत, सिंधी, पंजाबी, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली, मलयालम, मराठी, गुजराती, असमिया, उर्दू, उड़िया, कन्नड़, तेलगू, बंगाली, तमिल, हिंदी, नेपाली, काश्मीरी, डोगरी, मैथिली और संथाली शामिल हैं । मणिपुरी, नेपाली और कोंकणी 1992 में और डोगरी, मैथिली और संथाली 2004 में जोड़ी गई हैं ।अंग्रेज़ी को इसमें शामिल नहीं किया गया है ।अनुच्छेद 350 (A) किसी भी भाषायी अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों को उनकी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा का अधिकार देता है ।
47- भाषा नियोजन शब्द का पहली बार प्रयोग 1953 में उरील वाइनरीख ने किया था । 1959 में नार्वे की भाषा समस्या का विश्लेषण करते हुए इस पद का उल्लेखनीय इस्तेमाल किया गया । 1966 से यह प्रतिमान विकासशील देशों की भाषा समस्या के लिए प्रयुक्त होने लगा ।
48- भारत में चुनावी सर्वेक्षण की शुरुआत 1950 के दशक में हो गई थी ।डॉ. एरिक डिकोस्टा ने अमेरिकी संस्था अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन की तर्ज़ पर 1950 के दशक के प्रारम्भ में ही इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन की स्थापना की थी ।उन्हें भारत में चुनाव का अध्ययन करने वालों में अगुआ होने का श्रेय दिया जाता है तथा भारत में जनमत सर्वेक्षण का पिता कहा जाता है ।
49- भारत में मतदान व्यवहार को मापने की परम्परा को आगे बढ़ाने का श्रेय इल्डसवेल्ड और बसीरूद्दीन अहमद को जाता है । इन दोनों विद्वानों ने 1967 और 1971 में सम्पन्न आम चुनावों का अखिल भारतीय स्तर पर सर्वेक्षण किया ।संस्थात्मक स्तर पर पूरे भारत के सैम्पल सर्वे पर आधारित आम चुनावों के अकादमिक अध्ययन की शुरुआत विकासशील समाज अध्ययन पीठ, दिल्ली द्वारा 1960 के दशक में की गई । इसका अध्ययन राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन के नाम से लोकप्रिय है ।समाजशास्त्री एम.एन. श्री निवास और ए.एम. शाह ने 1960 के दशक के अंत में मतदान व्यवहार का सहभागी अध्ययन किया था ।
50- बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में मार्केट रिसर्च एजेंसियाँ जैसे ए. सी. नील्सन और ओ.आर. जी. मार्ग के अतिरिक्त नए संगठन जैसे सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़, डिवलेपमेंट एंड रिसर्च सर्विसेज़, सी. वोटर आदि भी जनमत सर्वेक्षणों और एक्ज़िट पोल के इस उद्योग में भारतीय मतदाताओं के मतदान व्यवहार की व्याख्या करने के लिए शामिल होने लगे ।प्रिंट मीडिया के बीच इंडिया टुडे ने पहला जनमत सर्वेक्षण 1989 में प्रकाशित किया ।पॉल ब्रास उन पहले व्यक्तियों में से थे जिन्होंने 1977 और 1980 के उत्तर- प्रदेश के चुनाव के अध्ययन के लिए केस स्टडी पद्धति का प्रयोग किया था ।सुब्रत मिश्रा ने भी 1980 के लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में ओड़िशा के एक गाँव में केस स्टडी की थी ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित, पुस्तक “ समाज विज्ञान विश्वकोष – खंड 4, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7, दूसरा संस्करण : 2016” से साभार लिए गए हैं ।