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राजनीति विज्ञान : महत्वपूर्ण तथ्य ( भाग- 7)

Posted on फ़रवरी 1, 2022अगस्त 19, 2022
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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, बुंदेलखंड कालेज झांसी (उत्तर- प्रदेश)। फोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी- डॉ. संकेत सौरभ, झांसी (उत्तर- प्रदेश) भारत। email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com

1- प्रक्रियात्मक न्याय, बाजार अर्थव्यवस्था के नियमों को मानव व्यवहार का प्रमाण मानता है। इसके प्रवर्तकों में हर्बर्ट स्पेंसर (1820-1903), एफ. ए. हेयक (1899-1992), मिल्टन फ्रीडमैन (1912-2006) और रॉबर्ट नॉजिक (1938-2002) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा जॉन रॉल्स (1921-2002) ने प्रक्रियात्मक न्याय को सामाजिक न्याय के सिद्धांत के साथ मिलाकर न्याय का विस्तृत सिद्धांत स्थापित करने का प्रयत्न किया है।

2- हर्बर्ट स्पेंसर ने कहा था कि ‘ सरकार को विकलांग लोगों की भी कोई सहायता नहीं करनी चाहिए बल्कि जो जीवन संघर्ष में अयोग्य हो उसे मर खप जाने देना चाहिए।’ एफ. ए. हेयक ने यह मान्यता प्रस्तुत की, कि सरकार को समाज कल्याण के उद्देश्य से बाजार अर्थव्यवस्था के नियंत्रण का विचार छोड़ देना चाहिए।मिल्टन फ्रीडमैन ने लिखा है कि, प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद ही मुक्त विनिमय अर्थव्यवस्था को सहारा देता है। अतः सरकार को केवल वही मामले अपने हाथ में लेने चाहिए जिन्हें बाजार अर्थव्यवस्था नहीं सम्भाल सकती।

3- रॉबर्ट नॉजिक ने सम्पत्ति के अधिकार को सर्वप्रमुख अधिकार मानते हुए यह तर्क दिया कि राज्य का प्रमुख कार्य सम्पत्ति की रक्षा करना है। कराधान भी वहीं तक उचित है जहां तक वह न्यूनतम राज्य का खर्च उठाने के लिए आवश्यक हो। इससे अधिक कर लगाना एक तरह की बेगार है।

4- वर्ष 1976 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति ‘ सोशल जस्टिस’ में डेविड मिलर ने सामाजिक न्याय की समस्या के समाधान के तीन मानदंडों का विवरण दिया है।पहला नियम, स्वीकृत अधिकारों का संरक्षण है। यह श्रेणी तंत्रीय व्यवस्था को जन्म देता है।इसका प्रमुख प्रवर्तक डेविड ह्यूम (1711-1776) है। दूसरा नियम, योग्यता के अनुरूप वितरण है। यह प्रतिस्पर्धात्मक बाजार की व्यवस्था का पोषक है।इसका प्रमुख प्रवर्तक हर्बर्ट स्पेंसर है।

5- डेविड मिलर के अनुसार तीसरा नियम, आवश्यकता के अनुरूप वितरण का है जो समैक्यवादी समुदाय को बढ़ावा देता है।इसका प्रमुख प्रवर्तक पीटर क्रोपाटकिन (1842-1921) है। सिसरो के अनुसार ‘‘ न्याय समस्त सद्गुणों का मुकुट मणि है।’’

6- समकालीन अमेरिकी दार्शनिक जॉन रॉल्स (1921-2002) ने अपनी विख्यात कृति ‘ ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ (1971) में लिखा कि न्याय की समस्या ‘ प्राथमिक वस्तुओं के वितरण की समस्या’ है। यह प्राथमिक वस्तुएं हैं : अधिकार और स्वतंत्रताएं, शक्तियां और अवसर, आय और सम्पदा तथा आत्मसम्मान के साधन। यद्यपि रॉल्स ने अपने न्याय के सिद्धांत को शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय की संज्ञा दी है, परन्तु रॉल्स की न्याय प्रणाली का केन्द्र बिंदु व्यक्ति की गरिमा है।

7- जॉन रॉल्स के अनुसार ‘‘ सुखी लोगों के सुख को कितना ही क्यों न बढ़ा दिया जाए, उससे दुःखी लोगों के दुःख का हिसाब बराबर नहीं किया जा सकता।’’ रॉल्स ने अपनी तर्क प्रणाली में मूल स्थिति और अज्ञान के पर्दे जैसी शब्दावली का प्रयोग किया है। यद्यपि यह दोनों ही काल्पनिक स्थितियां हैं।रॉल्स के अनुसार, न्याय के तीन नियम होंगे- पहला, समान स्वतंत्रता का सिद्धांत। दूसरा, भेदभाव मूलक सिद्धांत और तीसरा, अवसर की उचित समानता का सिद्धांत।

8- रॉल्स के समान स्वतंत्रता सिद्धांत में, राजनीतिक सहभागिता का समान अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, कानून के समक्ष समानता इत्यादि सम्मिलित हैं।रॉल्स का कहना है कि, सामाजिक जीवन को व्यक्तिगत लेनदेन का जोड़ नहीं माना जा सकता। यह परस्पर सहयोग का क्षेत्र है। इसमें अधिक प्रतिभाशाली लोग कम प्रतिभाशाली लोगों के साथ मिलकर ही अपनी प्रतिभा और अवसरों का लाभ उठा सकते हैं।

9- रॉल्स के अनुसार, सबसे भाग्यशाली और सबसे भाग्यहीन लोगों के बीच श्रृंखला सम्बन्ध होता है।कोई भी जंजीर अपनी सबसे कमजोर कड़ी से ज्यादा मजबूत नहीं होती। अतः समाज रूपी श्रृंखला को सुदृढ़ करने के लिए इसकी सबसे कमजोर कड़ी को मजबूत करना जरूरी होगा। पंडित जवाहरलाल नेहरु ने भी कहा है कि, ‘‘ अभाव, निर्धनता और विषमता की छाया में कोई लोकतंत्र बहुत दिनों तक टिका नहीं रह सकता।’’

10- अमेरिकी दार्शनिक रॉबर्ट नॉजिक (1938-2002) ने अपनी चर्चित कृति ‘ एनार्की, स्टेट एंड यूटोपिया’ (1974) के अंतर्गत न्याय के ऐतिहासिक और साध्यमूलक सिद्धांत में अंतर किया है। स्वयं नॉजिक ने न्याय के ऐतिहासिक सिद्धांत को अपने तर्क का आरंभिक बिंदु स्वीकार किया है।उनके अनुसार यदि सम्पत्ति अतीत के उचित अधिग्रहण या हस्तांतरण से प्राप्त हुई है तो वह उचित है।यदि छल कपट का प्रयोग किया गया है तो उसका परिष्कार उचित होगा।

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11- रॉबर्ट नॉजिक के न्याय सिद्धांत को न्याय का अधिकारिता सिद्धांत कहा जाता है। नॉजिक ने तर्क दिया है कि समाज में उत्पादन के स्तर पर जो विषमताएं पायी जाती हैं उन्हें वितरण के स्तर पर बदलने का प्रयास विनाशकारी होगा। अतः राज्य के समस्त कल्याणकारी कार्यक्रम सर्वथा अवैध हैं। नॉजिक का अधिकारिता सिद्धांत मोटे तौर पर तीन मान्यताओं पर आधारित है- पहला, न्याय पूर्ण हस्तांतरण का सिद्धांत, दूसरा- मूलतः न्याय पूर्वक अभिग्रहण का सिद्धांत और तीसरा अन्याय के परिष्कार का सिद्धांत।

12- रॉबर्ट नॉजिक के अनुसार सम्पत्ति के उचित अभिग्रहण और स्वैच्छिक विनिमय पर प्रतिबंध लगाने का एक ही आधार युक्तिसंगत होगा, वह यह कि लोगों की इन गतिविधियों के कारण दूसरों की स्थिति पहले से ख़राब न हो जाए।संक्षेप में नॉजिक का निष्कर्ष होगा, हरेक से उतना जितना वह देना चाहे, हरेक को उतना जितना उसे कोई देना चाहे।

13- एफ. ए. हेयक (1899-1992) भी प्रक्रियात्मक न्याय का प्रबल समर्थक है। उसने अपनी चर्चित पुस्तक ‘ लॉ लेजिस्लेशन एंड लिबर्टी : द मिराज ऑफ सोशल जस्टिस (खंड दो) (1976) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि ‘ सामाजिक न्याय का विचार ही निरर्थक है।’ उसने कहा कि न्याय वस्तुत: मनुष्य के आचरण की विशेषता है।कोई समाज न्यायपूर्ण या अन्यायपूर्ण नहीं हो सकता।

14- न्याय का समुदाय वादी दृष्टिकोण सामाजिक वस्तुओं के ऐसे वितरण का समर्थन करता है जिसमें समुदाय के प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता पर बल दिया जाता है। समुदाय का हित उसकी ऐतिहासिक और सामाजिक पहचान में व्यक्त होता है। समुदाय वाद सामाजिक संस्थाओं को सामाजिक मूल्यों के अनुरूप ढालने और चलने और समाज के साथ व्यक्ति के सम्बन्धों को सुदृढ़ करने के लिए उपयुक्त परिवर्तन की मांग करता है।

15- अमेरिकी राजनीतिक विश्लेषक माइकल वॉल्जर (1935 -) समुदाय वादी दृष्टिकोण के प्रमुख प्रतिनिधि हैं। वर्ष 1983 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति ‘ स्फीयर्स ऑफ जस्टिस’ के अंतर्गत उन्होंने लिखा कि ‘‘ न्याय का कोई भी सार्वभौम नियम नहीं हो सकता बल्कि उसे विभिन्न समुदायों में प्रचलित मूल्यों और मान्यताओं के संदर्भ में देखना चाहिए। इस दृष्टि से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के लिए भिन्न भिन्न नियम बनाने होंगे।’’

16- माइकल वॉल्जर ने सरल समानता और जटिल समानता में अंतर किया है। उनके अनुसार समकालीन समाज में जटिल समानता के सिद्धांत को अपनाना चाहिए। क्योंकि भिन्न भिन्न सामाजिक वस्तुओं सामाजिक जीवन के भिन्न भिन्न क्षेत्रों में वितरण के लिए बनी हुई हैं। न्याय का उद्देश्य इस वितरण के तर्क संगत आधार का पता लगाना है। वॉल्जर ने न्यायपूर्ण व्यवस्था का जो चित्र खींचा है वह विकेन्द्रीकृत लोकतंत्रीय समाजवाद का प्रतिरूप होगा।

17- सामान्य अर्थ में नियम दो तरह के होते हैं- वर्णनात्मक नियम और निर्देशात्मक नियम। वर्णनात्मक नियम भौतिक जगत और उसके कार्यकलाप पर अनिवार्य रूप से लागू होते हैं।हम उनका पता लगा सकते हैं परंतु न तो हम उनसे बच सकते हैं और न ही उन्हें बदल सकते हैं। जबकि निर्देशात्मक नियम मनुष्य के लिए बनाए जाते हैं। राज्य अपने सदस्यों के लिए जो निर्देशात्मक नियम बनाता है, उन्हें हम विधि या कानून कहते हैं।

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18- वुडरो विल्सन (1856-1924) के अनुसार ‘‘ कानून प्रचलित विचार और व्यवहार का वह अंश है जिसे एक समान नियमों के रूप में स्पष्ट और औपचारिक मान्यता दी गई हो और इन नियमों को शासन की सत्ता और शक्ति का समर्थन प्राप्त हो।’’ ह्यूगो ग्रोश्यस (1583-1645) को अंतर्राष्ट्रीय कानून का जनक माना जाता है।

19- जे. डब्ल्यू. साल्मंड (1862-1924) ने कानून को परिभाषित करते हुए लिखा कि, ‘‘ कानून उन नियमों का समुच्चय है जिन्हें राज्य मान्यता देता है और न्याय के प्रवर्तन के दौरान लागू करता है।’’ रास्को पाउण्ड (1870-1964) के विचार से, ‘‘ कानून उन सिद्धांतों का समुच्चय है जिन्हें सार्वजनिक और नियमित न्यायाधिकरण मान्यता देते हैं और न्याय के प्रवर्तन के दौरान लागू करते हैं।’’

20- टॉमस हॉब्स (1588-1679) ने 17 वीं शताब्दी में सबसे पहले यह कहा कि, ‘‘ कानून साधारणतया कोई परामर्श नहीं बल्कि आदेश होता है।’’ आगे चलकर दो शताब्दियों बाद अंग्रेज़ दार्शनिक जॉन ऑस्टिन (1790-1859) ने कहा कि, ‘‘ कानून प्रभुसत्ता- सम्पन्न शक्ति का आदेश होता है जिसके साथ अनुशास्तियां आवश्यक हैं।’’

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21- संक्षेप में कानून की प्रामाणिकता तीन बातों पर निर्भर करती है, 1- वह समाज में प्रचलित मूल्यों के अनुरूप होना चाहिए।2- नागरिकों की सहमति पर आधारित हो। 3- वह तर्कसंगत हो। यह बात और भी महत्वपूर्ण है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून का पालन प्रामाणिकता के आधार पर किया जाता है, बल प्रयोग के आधार पर नहीं। प्रामाणिकता का अर्थ है- नागरिक उस कानून को उचित, कल्याणकारी या सुविधाजनक मानकर उसका पालन करने को तत्पर हों।

22- प्रचलित कानून या अधिनियम की प्रामाणिकता का आधार एक उच्चतर कानून है जिसे प्राकृतिक कानून की संज्ञा दी जाती है। प्राकृतिक कानून की संकल्पना के आरम्भिक संकेत प्राचीन यूनान के सोफिस्टों, स्टोइक दार्शनिकों, प्लेटो और अरस्तू के चिंतन में मिलते हैं।रोमन न्यायशास्त्र में प्राकृतिक कानून को दीवानी कानून का मानदंड माना जाता है। मध्य युग में संत टॉमस एक्विनास (1225-1274) ने भी प्राकृतिक कानून की वकालत की।

23- ब्रिटिश न्याय वेत्ता जॉन आस्टिन को क़ानून के विश्लेषणात्मक न्यायशास्त्र का मुख्य प्रवर्तक माना जाता है। जिसके अनुसार, प्रत्यक्ष या सकारात्मक कानून ही यथार्थ कानून है।प्रत्यक्ष कानून उन नियमों का समुच्चय है जो किसी प्रभुसत्ता धारी की इच्छा को व्यक्त करते हों, जिनका पालन उसके अधिकार क्षेत्र में आने वाले लोगों के लिए अनिवार्य हो और कानून का उलंघन करने वालों को प्रभावशाली ढंग से दंड दिया जा सकता हो।

24- हैन्स कैल्सन (1881-1971) ने अपनी विख्यात् कृति ‘ जनरल थ्योरी ऑफ लॉ एंड स्टेट’ (1961) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि कानून की विधि सम्मतता के दो युक्तिसंगत आधार हैं, पहला- कानून विधिवत प्रख्यापित होना चाहिए तथा दूसरा, यह बुनियादी मानक के अनुरूप होना चाहिए। जबकि एच. ए. एल. हार्ट (1907-1992) ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘ कांसेप्ट ऑफ लॉ’ (1961) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि‘‘ किसी नियम की विधिसम्मतता का आधार सामाजिक जीवन में ढूंढना चाहिए।’

25- अमेरिकी दार्शनिक और विधिवेत्ता रोनाल्ड डवोर्किन (1931- 2013) ने अपनी पुस्तक ‘ टेकिंग राइट्स सीरियसली (1977) और लॉज एम्पायर (1986) में हार्ट की संकल्पना को अस्वीकार करते हुए लिखा कि‘‘ किसी सिद्धांत तत्व की प्रामाणिकता का आधार राजनीति सिद्धांत के क्षेत्र में ढूंढना होगा।’ जब न्यायाधीश भिन्न भिन्न सिद्धांत तत्वों के संदर्भ में कोई सांविधानिक मानदंड और मान्यताएं निर्धारित करते हैं, तो वे राजनीति सिद्धांत की मान्यताओं की तरह आलोचना का विषय होते हैं।

26– कानून के ऐतिहासिक न्यायशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अनुसार कानूनी विचारों और संस्थाओं का सार तत्व उनके ऐतिहासिक स्रोतों में ढूंढना चाहिए। इस दृष्टिकोण के मुख्य उन्नायक फ्रेडरिक कार्ल सेवाइनी (1789-1861) और सर हेनरी मेन (1822-1888) हैं। सेवाइनी के अनुसार ‘‘ कानून किसी जन समुदाय के चेतना की अभिव्यक्ति है। इसमें किसी जाति एवं संस्कृति की विशेषताओं की झलक मिलती है। अतः लोगों के रीति- रिवाज ही कानून का बुनियादी रूप हैं।’’

27- सर हेनरी मेन ने अपनी चर्चित कृति ‘ एंशिएंट लॉ : इट्स कनैक्शन विद द एर्ली हिस्ट्री ऑफ सोसायटी एंड इट्स रिलेशन टू मॉरल आइडियल्स’ (1861) के अंतर्गत लिखा कि कानूनी विचारों का विकास विश्वजनीन चेतना की अभिव्यक्ति है, किसी विशेष जन समुदाय की चेतना की अभिव्यक्ति नहीं। भिन्न भिन्न समाजों में कानूनी संस्थाओं के विकास का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए मेन ने कहा कि प्रगतिशील समाज स्थिर स्थिति से अनुबंध की ओर अग्रसर होते हैं।

28- कानून के समाजशास्त्रीय न्यायशास्त्र की प्रस्थापना है कि कानून न केवल राज्य का पूर्ववर्ती है बल्कि उससे उच्चतर भी है। राज्य तो केवल उन नियमों को कानूनी मान्यता प्रदान करने का उपकरण मात्र है जो सामाजिक हितों की देखरेख के लिए समाज में पहले से प्रचलित होते हैं।लुडविख गूंप्लोविच(1839-1939), लियों द्यूगी(1859-1928), ह्यूगो क्रैब(1857-1936), रॉस्को पाउंड (1870-1964) और हेरल्ड लास्की(1893-1950) इस सिद्धांत के मुख्य उन्नायक हैं।

29- अमेरिकी कानून विशेषज्ञ, नाथन रास्को पाउण्ड(1870-1964) के अनुसार जैसे- सामाजिक चेतना में परिवर्तन हो, उसके अनुसार कानून की व्याख्या भी बदल देनी चाहिए या स्वयं कानून को बदल देना चाहिए। पाउंड के विचार से कानून का उपयुक्त कार्य सामाजिक इंजीनियरिंग है।यह सामाजिक प्रगति के लिए आवश्यक है। इसके अनुसार विधिशास्त्र के अंतर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि ‘‘ मानव और उसके व्यवहारों पर विधि का क्या प्रभाव पड़ता है तथा मानव का व्यवहार विधि को किस प्रकार प्रभावित करता है।’’

30- टी. ई. हालैंड (1835-1926) ने अपनी चर्चित कृति ‘ एलीमेंट्स ऑफ जूरिस्प्रूडेंस’ (1924) के अंतर्गत कानून के 6 स्रोतों का उल्लेख किया है : रीति- रिवाज, धर्म, वैज्ञानिक टीकाएं, न्याय निर्णय, साम्या और विधि निर्माण।

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31- उदारवाद, एक ऐसा सिद्धांत है जो व्यक्ति को यथासंभव अधिकतम स्वतंत्रता प्रदान करके सामाजिक प्रगति को बढ़ावा देना चाहता है। उदारवाद की मान्यता है कि, मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है। व्यक्ति के स्वार्थ और सामान्य हित की सिद्धि में कोई बुनियादी टकराव नहीं है। व्यक्ति के कुछ प्राकृतिक अधिकार हैं जिनका उलंघन नहीं किया जा सकता। नागरिक समाज एक कृत्रिम उपकरण है।

32– उदारवाद के अनुसार, व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई भी प्रतिबंध केवल इस आधार पर लगाया जा सकता है कि वह दूसरों को वैसी ही स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए आवश्यक होगा। उदारवाद अनुबंध की स्वतंत्रता में विश्वास करता है। उदारवाद की मान्यता है कि सार्वजनिक नीति विभिन्न व्यक्तियों और समूहों की स्वतंत्र सौदेबाजी का परिणाम होना चाहिए। यहां बाजार समाज को व्यवस्था का उचित प्रतिरूप माना जाता है।

33– अठारहवीं शताब्दी के दौरान पश्चिमी जगत में एक बौद्धिक क्रांति आई जिसने अपने युग के विचारों और दृष्टिकोण में बहुत गहरा परिवर्तन ला दिया।इसे ज्ञानोदय के नाम से जाना जाता है। फ्रांस में वाल्तेयर, रूसो, दिदरो और मांतेस्क्यू ने, ग्रेट ब्रिटेन में लॉक, ह्यूम और एडम स्मिथ ने, जर्मनी में गेटे, लैसिंग और कांट ने, इटली में वीको और बैकेरिया ने तथा अमेरिका में जैफर्सन, फ्रैंकलिन और टामस पेन ने इस विचार को बढ़ावा दिया।

34– राजनीति के प्रति ज्ञानोदय से प्रेरित दृष्टिकोण का सार यह था कि सम्पूर्ण सामाजिक बुराई का मुख्य कारण पूर्वाग्रह, असहिष्णुता, अंधविश्वास और रूढि- परायणता है। इमैनुअल कांट के शब्दों में, ‘‘ज्ञानोदय मनुष्य को उस दशा से मुक्ति दिलाता है जिसमें वह अपने आप को बहुत छोटा समझने लगा है… इसलिए नहीं कि उसमें ज्ञान की कमी है बल्कि इसलिए कि उसमें अपने ही बलबूते पर इस ज्ञान का प्रयोग करने के लिए संकल्प और साहस की कमी है।’’

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35– हेरल्ड लॉस्की ने वर्ष 1935 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ द स्टेट इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस’ में लिखा ‘‘ऐतिहासिक तथ्य यह है कि उदारवादी परम्परा एक बौद्धिक क्रांति थी और इसका प्रमुख ध्येय नए औद्योगिक क्षेत्र में संपत्ति के स्वामियों के हितों की रक्षा करना था।’’ चिरसम्मत उदारवाद प्रहरी राज्य का समर्थन करता है।

36– सी. बी. मैक्फर्सन ने अपनी पुस्तक ‘ द पॉलिटिकल थ्योरी ऑफ पोजैस्सिव इंडिविजुअलिज्म’ (1962) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ लॉक वास्तव में अंग्रेजी उदारवाद का मूल स्रोत था।’’ मार्टिन सेलिगर ने भी अपनी पुस्तक ‘ द लिबरल पॉलिटिक्स ऑफ जॉन लॉक’ (1968) में लिखा कि ‘‘ जॉन लॉक ऐसा पहला राजनीतिक दार्शनिक था जिसने आधुनिक उदारवाद को चिंतन की एक विस्तृत और प्रभावशाली पद्धति के रूप में प्रस्तुत किया।’’

37– जॉन लॉक ने अपनी पुस्तक ‘टू ट्रीटिजेस ऑफ सिविल गवर्नमेंट’ (1689) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ सरकारी सत्ता का स्वरूप एक न्यास या धरोहर के तुल्य है। सरकार ऐसा संगठन है जिसे कोई समुदाय अपनी पसंद से चुनता है और निरंतर उसकी निगरानी भी करता है।’’ दूसरे शब्दों में, समुदाय ऐसा गृहस्वामी है जो घर की रखवाली के लिए पहरेदार रखता है, फिर वह स्वयं जाग- जागकर यह देखता है कि कहीं वह पहरेदार सो तो नहीं गया है।

38– ब्रिटिश दार्शनिक एडम स्मिथ (1723-1790) को अर्थशास्त्र का जनक माना जाता है। उसने अपनी चर्चित कृति ‘ वैल्थ ऑफ नेशंस’ (1776) के अंतर्गत अहस्तक्षेप की नीति और व्यक्तिवाद का प्रबल समर्थन किया। आर्थिक मानव की संकल्पना प्रस्तुत करते हुए एडम स्मिथ ने उद्योग और व्यापार की स्वतंत्रता को प्राकृतिक स्वतंत्रता का नाम दिया और राष्ट्रीय संवृद्धि के लिए इस अनिवार्य माना। उसने कहा कि सरकार को, विदेशी आक्रमण से राष्ट्र की रक्षा, न्याय का प्रवर्तन तथा सार्वजनिक निर्माण के कार्यों तक अपने को सीमित रखना चाहिए।

39– अंग्रेज दार्शनिक हर्बर्ट स्पेंसर (1820-1903) ने बड़ी दृढ़ता पूर्वक न्यूनतम शासन का समर्थन किया। उसने राज्य की उत्पत्ति तो अनुबंध से मानी, जैसे कि किसी सीमित दायित्व कम्पनी की होती है, परन्तु उसने समाज की संकल्पना एक जीवित प्राणी के रूप में किया जिसमें विकास की प्रवृत्ति पायी जाती है। स्पेंसर का कहना है कि ‘‘ समाज रूपी जीव के जो अंग सुचारू रूप से कार्य न करें, उनके नष्ट हो जाने में ही समाज का कल्याण है।’’

40– आधुनिक उदारवाद के अंतर्गत व्यक्ति के कल्याण और उसकी स्वतंत्रता को आवश्यक शर्त माना जाता है। इस धारा के प्रमुख प्रतिनिधि जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873) टी. एच. ग्रीन (1836-1882) एल. टी. हॉबहाउस (1864-1929) एच. जे. लास्की(1893-1950) और आर. एम. मैकाइवर (1882-1970) हैं।

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41– एल. टी. हॉबहाउस ने अपनी चर्चित कृति ‘ एलीमेंट्स ऑफ सोशल जस्टिस’ (1922) के अंतर्गत लिखा कि, ‘‘ स्वतंत्रता की आधारशिला सामाजिक बंधन की आध्यात्मिक प्रकृति और सर्वहित का युक्ति युक्त स्वरूप है।’’ उसने कांट, मिल और ग्रीन के इस मत को स्वीकार किया कि आत्म सिद्धि, इच्छा के स्वतंत्र प्रयोग पर निर्भर है क्योंकि वह सद्-इच्छा पर निर्भर है।

42– अमेरिकी लेखक रॉबर्ट एम. मैकाइवर (1882-1970) ने अपनी पुस्तक ‘ मॉडर्न स्टेट’ (1926) और ‘ द वैब ऑफ गवर्नमेंट’ (1965) के अंतर्गत सेवाधर्मी राज्य का समर्थन करते हुए तर्क दिया कि राज्य, समाज तथा उसके भिन्न भिन्न समूहों का हित साधन करके ही उनसे निष्ठा की मांग कर सकता है।मैकाइवर ने कहा कि ‘‘ जब तक आधुनिक राज्य की लोकतंत्रीय व्यवस्था को अटूट रहने दिया जाता है तब तक पूंजीवाद की बुराइयों से डरने की जरूरत नहीं है।’’

43- स्वेच्छातंत्रवाद, राजनीति का वह सिद्धांत है जो व्यक्ति की अधिकतम स्वतंत्रता को सार्वजनिक नीति का प्रामाणिक आधार मानता है। स्वतंत्रता और समानता के परस्पर विरोधी दावे उपस्थित होने पर यह स्वतंत्रता को प्राथमिकता देता है।स्वेच्छातंत्रवाद के उन्नायकों में आइजिया बर्लिन (1909-1997), एफ. ए. हेयक (1899-1992), मिल्टन फ्रीडमैन (1992-2006) और रॉबर्ट नॉजिक (1938-2002) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

44- आइजिया बर्लिन ने तर्क दिया कि राज्य केवल व्यक्ति की नकारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा कर सकता है। नकारात्मक स्वतंत्रता, ऐसी व्यवस्था की मांग करती है जिसमें किसी व्यक्ति को अपने ध्येय की पूर्ति के दौरान अन्य व्यक्तियों की ओर से किसी बाधा का सामना न करना पड़े।अपनी आकांक्षाएं पूरी कर पाने की क्षमता या अक्षमता व्यक्ति का अपना मामला है, राज्य का इससे कोई सरोकार नहीं है।

45– एफ. ए. हेयक ने तर्क दिया कि स्वतंत्रता की सही संकल्पना के लिए इसके मूल अर्थ- अर्थात् प्रतिबंध के अभाव को सुरक्षित रखना ही उपयुक्त है। मिल्टन फ्रीडमैन ने अपनी पुस्तक ‘ कैपिटलिज्म एंड फ्रीडम’ (1962) में लिखा कि ‘‘ राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति के साथ रहने वाले लोग उसे किसी बात के लिए विवश न कर सकें।’’

46– फ्रीडमैन का तर्क है कि स्वतंत्रता व्यक्तियों के स्वैच्छिक सहयोग और विनिमय की गतिविधियों में सार्थक होती है।केवल पूंजीवादी व्यवस्था ही व्यक्तियों की स्वैच्छिक गतिविधियों में तालमेल स्थापित करके राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए उपयुक्त अवसर और वातावरण प्रदान करती है। रॉबर्ट नॉजिक का भी कहना है कि राज्य को अपने नागरिकों की संपत्ति के पुनर्वितरणमूलक हस्तांतरण का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि वे मूलतः उसके सेवार्थी थे।

47- अर्नेस्ट बार्कर ने वर्ष 1951 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल एंड पॉलिटिकल थ्योरी’ के अंतर्गत स्वतंत्रता के नैतिक आधार पर बल दिया है। बार्कर के अनुसार, नागरिक स्वतंत्रता में तीन बातें आती हैं- दैहिक स्वतंत्रता, बौद्धिक स्वतंत्रता और व्यवहारिक स्वतंत्रता। उसने अपनी चर्चा का आरम्भ जर्मन दार्शनिक इमैनुअल कांट (1724-1804) की इस स्वयं सिद्धि से किया है कि ‘‘ विवेकशील प्रकृति अपने आप में साध्य है।’’ अतः स्वतंत्रता का सबसे विस्तृत अर्थ यह होगा कि मनुष्य अपने भीतर या बाहर से किसी भी तरह की विवशता से ग्रस्त न हो।

48- जहां एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा पैदा कर सकती हो, वहां उस पर प्रतिबंध लगाना जरूरी हो जाता है। ऐसा कोई प्रतिबंध कानून के द्वारा ही लगाया जा सकता है।डी. डी रफील ने अपनी महत्वपूर्ण कृति ‘ प्रॉब्लम्स ऑफ पॉलिटिकल फिलॉस्फी’ (1776) के अंतर्गत इसकी पैरवी की है।

49– क्रिश्चियन बे (1921-1990) ने हेयक की चर्चित कृति ‘ स्वतंत्रता का संविधान’ में प्रस्तुत किए गए रूढ़िवादी समाज दर्शन को ‘ स्थायी विशेषाधिकार का संविधान’ बताया है।बे ने आरोप लगाया है कि हेयक ‘ विशेष वर्ग हित का विशेष अधिवक्ता’ है। वह निर्बल की आवश्यकताओं की तुलना में बलशाली की मांगों को स्वभाव से वरीयता देता है और उसने ‘ चिंतन की बंद प्रणाली’ की नींव रखी है।

50- आधुनिक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक विचारक एरिक फ्रॉम (1900-1980) ने अपनी पुस्तक ‘ एस्केप फ्रॉम फ्रीडम’(1941) में लिखा है कि ‘‘ पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्य की सृजनात्मक गतिविधि में बाधा डालती है और उसे दूसरों के साथ स्वस्थ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने से रोकती है। इंसान को अपने आप से विमुख करके उसकी आत्म छवि को धूमिल कर देती है।यही परिस्थितियां मनुष्य के अलगाव को जन्म देती हैं।’’

– नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, ओम् प्रकाश गाबा की पुस्तक ‘राजनीति विज्ञान विश्वकोष, ISBN 81-214-0683-8, प्रकाशन- नेशनल पब्लिशिंग हाउस, २/३५, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली, से साभार लिए गए हैं।

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