Skip to content
Menu
The Mahamaya
  • Home
  • Articles
  • Tribes In India
  • Buddhist Caves
  • Book Reviews
  • Memories
  • All Posts
  • Hon. Swami Prasad Mourya
  • Gallery
  • About
  • hi हिन्दी
    en Englishhi हिन्दी
The Mahamaya

पुस्तक समीक्षा – दलित समाज के हक़ इंसाफ और संघर्ष का दस्तावेज़ हैं, ‘मोहनदास नैमिशराय’ की आत्मकथा “अपने अपने पिंजरे” -भाग – 3

Posted on मार्च 30, 2020जुलाई 12, 2020
Advertisement

भारत में दलित साहित्य के पुरोधा, (अब तक 50 से अधिक पुस्तकों के लेखक) पत्रकार, कथाकार, कवि, उपन्यासकार, फिल्मकार और इतिहासकार (दलित आंदोलन का इतिहास) मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा “अपने -अपने पिंजरे”-भाग- 3, देश के दलित समाज के हक़, इंसाफ और संघर्ष का दस्तावेज़ है। 302 पृष्ठों की यह पुस्तक पेज दर पेज दलित समाज के दर्द और वेदना को व्यक्त करती है। वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उक्त पुस्तक का टाइटिल है “रंग कितने संग मेरे“। पुस्तक का पहला संस्करण हिन्दी में वर्ष 2019 में आया है जिसका विक्रम मूल्य रू 395 है। पुस्तक के कवर पेज पर लेखक की पाश्व फोटो चिंतन की गंभीर मुद्रा में है। पुस्तक उन सभी साथियों को समर्पित है जो हक़ और इंसाफ़ दिलाने के लिए जल रहे हैं,मर रहे हैं,पिघल रहे हैं, बावजूद इन सबके संघर्ष कर रहे हैं। मोहनदास नैमिशराय ने पुस्तक की भूमिका “मैं और मेरे शब्द” में ही लिखा है ” आत्मकथा लिखना अपनी ही भावनाओं को उद्वेलित करना है। अपने ही जख्मों को कुरेदने जैसा है। जीवन के खुरदरे यथार्थ से रूबरू होना है। ऐसे खुरदरे यथार्थ से, जिसे हममें से अधिकांश याद नहीं करना चाहते। इसलिए कि हमारे अतीत में बेचैनी और अभावों का हिसाब -किताब होता है।”आगे उन्होंने लिखा है कि “संघर्ष ठहरता नहीं बल्कि गतिमान रहता है उसकी गति और बढ़ती है। यातनाओं को कागज़ पर उतारते हुए गर्म सलाखों की तरह सुर्ख होना पड़ता है।बरस- दर-बरस अपने सुख चैन को आक्रोश की ज्वाला में झोंकना पड़ता है। तब जाकर कोई दलित आत्मवृत्त या आत्मकथा लिख सकता है।यह सब जोखिम उठाने के लिए कमर कसनी पड़ती है। फिर भी निर्माण करना उसका धर्म रहा है, उसकी प्रवृत्ति रही है। निर्माण से जननी का अटूट रिश्ता रहा है। हजार तरह की तकलीफ़ सहन करने के बाद भी वह अपना धर्म निभाती है, सृजन करती है। समाज को कुछ देती है। दलित लेखक भी कुछ नया सृजन करना चाहता है। सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य में वह स्वस्थ समाज बनाना चाहता है।”

अपनी आत्मकथा को प्रारम्भ करने हुए मोहन दास नैमिशराय ने लिखा है ” संघर्ष ने हमेशा मुझे भट्टी में झोंका है, जहां मैं बेतहाशा जला हूं पर मरा नहीं हूं।मर जाता तो जीवन की स्लेट पर संघर्ष की इबारत कहां लिख पाता ? कैसा जीवट जीवन रहा मेरा ? बार- बार दुत्कारे जाने पर भी मैं फिर से संघर्ष पथ पर लौट आता हूं। कितना बेशर्म रहा मैं जो बार बार मरने या घर छोड़ने की बात कहकर, दोहरा कर भी न आत्महत्या कर सका और न ही कहीं नया आशियाना ढूंढ सका। हजार तरह की दुर्घटना झेलता हूं। हजार तरह का अपमान झेलने के बाद फिर वही संघर्ष, फिर वही आन्दोलन।” “मैं जीवन के संघर्षों से भागना नहीं चाहता था,झूठ से नाता नहीं रखना चाहता था।मेरा जीवन सिर्फ मेरा नहीं था, वह तो उस समाज के जुझारू और स्वाभिमानी योद्धाओं का था, जिन्हें छल कपट से हाशिए पर डाल दिया गया था। मैं राजनीति से इतिहास तक की यात्रा करने वाला ऐसा पथिक था,जिसके भीतर और बाहर उत्पीड़न के खिलाफ आह्वान था। क्रांतिकारियों ने मेरे भीतर सामाजिक न्याय का दीपक प्रज्वलित किया था। दीपक में तेल नहीं,लहू था।बाती उनकी थी जो दशक दर दशक खत्म ही नहीं होती थी। आह्वान उनका था, संघर्ष मेरा था। दर्शन उनका था, जीवन मेरा था। आदर्श उनके थे, चुनौती मेरी थी। ऊर्जा उनकी थी, सिद्धान्त मेरे थे।”

Related -  पुस्तक समीक्षा- विश्व इतिहास की झलक (भाग-१३)

पुस्तक के पेज़ नंबर 17 पर लेखक ने इस बात का खुलासा किया है कि ” 70 के दशक में मेरा बेटा मनीष दवा के अभाव में चल बसा।” पत्नी के उलाहना देने पर वह कहते हैं कि “न जाने कितनों ने अपने कितने प्रिय खो दिए। उन्हें भी तो दुःख हुआ होगा। उन्हें भी तो उनके जाने पर ग़म हुआ होगा। उन्हें भी तो जुदा होने की पीड़ा सालती होगी।” पुस्तक में दलितों पर होने वाले अन्याय और अत्याचारों का भी जिक्र है। 11 नवम्बर, 1979 के प्रो.कांवडे लांग मार्च, जो दीक्षाभूमि नागपुर से 470 किलोमीटर पैदल चलकर औरंगाबाद पहुंचे थे तथा 27 मई 1977 को बिहार के “बेलछी नरसंहार” का विस्तृत वर्णन है जिसमें 11 दलितों की नृशंस तरीके से हत्या कर दी गई थी।इसी प्रकार उत्तर- प्रदेश के जिला मैनपुरी के एक गांव में दिनांक 18 नवम्बर, 1981 की सायं 24 जाटवों की सामूहिक निर्मम हत्याओं का भी जिक्र है। पुस्तक में दलित लेखकों तथा एक्टिविस्टों से समय – समय पर विभिन्न मुद्दों पर हुए पत्राचारों का विस्तृत वर्णन है। देश में दलित समाज के मुद्दों को उठाने वाली पत्र – पत्रिकाओं की जानकारी भी मिलती है। मोहनदास नैमिशराय ने बड़ी बेबाकी के साथ अपने वैयक्तिक और राजनीतिक सम्बन्धों का भी खुलासा किया है। उन्होंने पेज नंबर 47 पर मजाकिया लहजे में लिखा है कि “घर और घरवाली दोनों को एक साथ ठीक ठाक रखना बहुत ही मशक्कत का काम है।इन दोनों को कब क्या जरूरत पड़ जाए, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है।”

“नवंबर 1984 में सिखों पर खूब कहर बरपा।सिख विधवाएं चीख -चीखकर कह रहीं थी कि कातिलों को सजा दो, लेकिन धर्मांध लोग बेफिक्र थे। देश में एक वर्ग सदियों से ही बलात्कार और अत्याचार का शिकार रहा है।वह वर्ग है अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति। हिंदू संस्कृति का एक अविभाज्य अंग। फिर भी उसकी हालत जानवरों से भी बदतर है। पिछले 50 वर्षों से प्रयोग किए जा रहे अपमान जनक शब्द ने दलितों को ऊंचा उठाने के बजाय उन्हें और पीछे धकेल दिया है।” उन्होंने बेबाकी से लिखा है कि “जो देश के 75 प्रतिशत शूद्रों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला हो,जो भारतीय नारी का अपमान करने वाला हो,जो मानव जाति में ऊंच – नीच, भेदभाव की भावना पैदा करने वाला हो, वह कभी भी धार्मिक ग्रंथ नहीं हो सकता है। देश में ऐसा कौन सा पल नहीं गुजरता,जब दलितों पर अत्याचार नहीं होता।हर रात के बाद सवेरा होता है। पर हर एक दिन नया सवेरा अनगिनत दलितों के जीवन की सांझ बनकर गुमनामी के अंधेरे में डूब जाता है। दर्दनाक चीखें उठती हैं। परिवारों में मातम छा जाता है।ऐसी ही कुछ घटनाओं का व्योरा सरकारी फाइलों में दर्ज हो जाता है,बस।”

दलित राजनीति पर पेज नंबर 101 पर उन्होंने लिखा है कि”कैबिनेट स्तर का जनता का सेवक न संसद में बैठ कर कुछ कर पाता है और न ही संसद के बाहर।वह सिर्फ रो सकता है। दलितों के नेताओं की यही स्थिति है। दलित राजनीति का इसे विरोधाभास भी कर सकते हैं।” नैमिशराय जी ने समाजवादी चिंतक मधुलिमये जी की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि सभी सवर्ण दलितों के दुश्मन नहीं होते। उनमें कुछ अच्छे भी होते हैं। पैसे की महत्ता के बारे में उन्होंने लिखा है कि” पैसे से रौनक हो जाती है। हलचल होती है।फिजां बदल जाती है। हमारे बीच तनाव के पल गायब होते हैं। उनकी जगह खुशी का हम इज़हार करते हैं। पैसा न हो तो जीवन वही बेरौनक।”अपने बिहार दौरे पर उन्होंने लिखा है कि “भारत को देखना हो तो बिहार को पहले देखा जाए। बिहार में अभी भी अतीत जीवंत है। संस्कृति जीवित है। वहां गया और बुद्ध गया के बीच एक रेखा है,लक्ष्मण रेखा नहीं, सामाजिक परिवर्तन की रेखा। यही रेखा गया और बुद्ध गया को दो हिस्सों में बांटती है। एक हिस्सा परम्परा वादियों का तो दूसरा परिवर्तन वादियों का। दोनों के अपने अपने दर्शन हैं, जीने और मरने की परिस्थितियां हैं। पर दोनों के पास विराट संस्कृति है, इतिहास है, मिथक है, आचरण है। उनकी अपनी अपनी जमीन है।”

Related -  पुस्तक समीक्षा- विश्व इतिहास की झलक (भाग-८)

“अपनी पहचान तो दलितों के पास भी होती है, लेकिन टुकड़ों में। उनके पास न अच्छा घर होता है और न पूर्ण अस्मिता। हां,अस्मिता का भाव ज़रूर होता है जो उन्हें परेशान और बेचैन करता है। थोड़ी बहुत अस्मिता होती भी है तो लहुलुहान। दलित खुद भी घायल होते और उनकी अस्मिता भी। संघर्ष ही उनका जीवन होता है और जीवन ही संघर्ष। इस विराट दुनिया की विराट ही कथा है। जितना कुछ कहोगे या लिखोगे, उतना ही वह और खुलती जाएगी। मेरी तरह कितने ऐसे पिता होंगे, जिनके सिद्धान्त उनके संघर्ष में आड़े आते रहे। पहले पत्नी को शरीर और मन दोनों से संतुष्ट करो। फिर बच्चे, उनकी महत्वाकांक्षाएं कैसे भी पूरी करो, क्योंकि बच्चे पैदा किए तो बच्चों की हर जायज़ और नाजायज इच्छाओं की पूर्ति करना मां बाप का कर्तव्य बन जाता है।यह बात बच्चा जवान होते- होते पिता को सिखाना शुरू कर देता है। घर -घर में यही संस्कृति तेजी से उभर रही है। विचार की जगह विवाद ने ले ली है।”

अपनी आत्मकथा में भावनाओं को पिरोते हुए नैमिशराय ने लिखा है “सदियों पूर्व इस देश में सभ्यता का सूरज उगा था जिसने विश्व के अनेक देशों के मानव जीवन को एक नया विचार दर्शन दिया। सभ्यता और संस्कृति के आदान-प्रदान की यह प्रक्रिया अभी तक भी चली आ रही है जो अपने ही देश में लुक छिप गया है। आदमी कंक्रीट के जंगलों में भटका है जो पूर्ण रूप से महाजनी सभ्यता की देन है।सुख की तलाश में अनेक आयामों की खोज और उससे विपरीत भाव।देखा गया है कि आदमी अपने चारों तरफ धन दौलत के अम्बार तो लगा लेता है पर वह सब भोगने के लिए उसके पास एक पल भी नहीं होता।क्या जीवन का उद्देश्य केवल सुख सुविधाओं के बीच एय्याशी भर है या इससे अलग कुछ और भी… पैसा बहुत कुछ है, लेकिन सब कुछ नहीं।ईमान, पारिवारिक दायित्व, पारस्परिक स्नेह जब पैसे के लिए लुटा दिए जाते हैं तो अंत में एकांगी और निरीह जीवन रह जाता है।”

उपरोक्त पूरी पुस्तक में मोहन दास नैमिशराय जी ने व्यक्तिगतता के साथ सामूहिकता को शिद्दत के साथ लिपिबद्ध किया है।वह लोग जो सामाजिक न्याय और समतामूलक समाज के निर्माण हेतु प्रतिबद्ध हैं, उन्हें इस पुस्तक से मार्ग दर्शन मिलेगा, उनकी समझ दारी में इजाफा होगा। वस्तुत: दलित साहित्य का आधार, दलित आत्मकथाएं ही हैं जिनमें उनकी पीड़ा, वेदना,कशिश, और दर्द की अभिव्यक्ति हुई है।

डॉ. राजबहादुर मौर्य, झांसी


Next Post- परम्पराओं की दुनिया में जीते- “आपातानी जनजाति” के लोग…

Previous Post- “जयंतिया” आदिवासी समुदाय…
5/5 (3)

Love the Post!

Share this Post

4 thoughts on “पुस्तक समीक्षा – दलित समाज के हक़ इंसाफ और संघर्ष का दस्तावेज़ हैं, ‘मोहनदास नैमिशराय’ की आत्मकथा “अपने अपने पिंजरे” -भाग – 3”

  1. कपिल शर्मा (शोधार्थी राजनीति विज्ञान) कहते हैं:
    अप्रैल 2, 2020 को 8:33 पूर्वाह्न पर

    Thanks

    प्रतिक्रिया
  2. Narendra Valmiki कहते हैं:
    मार्च 31, 2020 को 11:20 पूर्वाह्न पर

    बहुत ही मार्मिक और प्रेरणा दायक आत्मकथा हैं। उम्दा समीक्षा के लिए आपको हार्दिक बधाई सर। — नरेन्द्र वाल्मीकि

    प्रतिक्रिया
    1. user कहते हैं:
      मार्च 31, 2020 को 11:32 पूर्वाह्न पर

      धन्यवाद आपको भाई जी

      प्रतिक्रिया
  3. अनाम कहते हैं:
    मार्च 31, 2020 को 8:34 पूर्वाह्न पर

    पुस्तक का बृतान्त देख लग रहा है कि पुस्तक दलितो पर हुऐ अत्याचार को वर्णित करती है राजनिती मे दलित नेता स्वयं को पूरा बना लेते है जैसा आज देखने को मिल रहा है इसका उदाहरण राम बिलास पासवान व राम दास अठावले है कमोबेश पिछडे वर्ग के नेताओ का भी यही हाल है

    प्रतिक्रिया

प्रातिक्रिया दे जवाब रद्द करें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

Seach this Site:

Search Google

About This Blog

This blog is dedicated to People of Deprived Section of the Indian Society, motto is to introduce them to the world through this blog.

Posts

  • मार्च 2023 (2)
  • फ़रवरी 2023 (2)
  • जनवरी 2023 (1)
  • दिसम्बर 2022 (1)
  • नवम्बर 2022 (3)
  • अक्टूबर 2022 (3)
  • सितम्बर 2022 (2)
  • अगस्त 2022 (2)
  • जुलाई 2022 (2)
  • जून 2022 (3)
  • मई 2022 (3)
  • अप्रैल 2022 (2)
  • मार्च 2022 (3)
  • फ़रवरी 2022 (5)
  • जनवरी 2022 (6)
  • दिसम्बर 2021 (3)
  • नवम्बर 2021 (2)
  • अक्टूबर 2021 (5)
  • सितम्बर 2021 (2)
  • अगस्त 2021 (4)
  • जुलाई 2021 (5)
  • जून 2021 (4)
  • मई 2021 (7)
  • फ़रवरी 2021 (5)
  • जनवरी 2021 (2)
  • दिसम्बर 2020 (10)
  • नवम्बर 2020 (8)
  • सितम्बर 2020 (2)
  • अगस्त 2020 (7)
  • जुलाई 2020 (12)
  • जून 2020 (13)
  • मई 2020 (17)
  • अप्रैल 2020 (24)
  • मार्च 2020 (14)
  • फ़रवरी 2020 (7)
  • जनवरी 2020 (14)
  • दिसम्बर 2019 (13)
  • अक्टूबर 2019 (1)
  • सितम्बर 2019 (1)

Latest Comments

  • Dr. Raj Bahadur Mourya पर राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 40)
  • Somya Khare पर राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 40)
  • Dr. Raj Bahadur Mourya पर राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 39)
  • Kapil Sharma पर राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 39)
  • Dr. Raj Bahadur Mourya पर पुस्तक समीक्षा- ‘‘मौर्य, शाक्य, सैनी, कुशवाहा एवं तथागत बुद्ध’’, लेखक- आर.एल. मौर्य

Contact Us

Privacy Policy

Terms & Conditions

Disclaimer

Sitemap

Categories

  • Articles (80)
  • Book Review (59)
  • Buddhist Caves (19)
  • Hon. Swami Prasad Mourya (22)
  • Memories (12)
  • travel (1)
  • Tribes In India (40)

Loved by People

“

015700
Total Users : 15700
Powered By WPS Visitor Counter
“

©2023 The Mahamaya | WordPress Theme by Superbthemes.com
hi हिन्दी
en Englishhi हिन्दी