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खोये हुए बुद्ध की खोज -पुस्तक समीक्षा

Posted on जनवरी 27, 2020जुलाई 12, 2020
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पुस्तक का नाम – “खोये हुए बुद्ध की खोज“

पुस्तक खोये हुए बुद्ध की खोज अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भाषा वैज्ञानिक, सासाराम, बिहार के निवासी तथा दो दर्जन से अधिक शोधपरक पुस्तकों के रचनाकार, समकालीन दौर की विद्वान हस्ती, डाक्टर राजेंद्र प्रसाद सिंह की बहुमूल्य कृति है। यद्यपि उन्होंने भूमिका के प्रथम वाक्य में ही लिखा है कि यह कोई स्वतंत्र तथा मुकम्मल पुस्तक नहीं है,बल्कि फेसबुक पर लिखी गई टिप्पणियों का संग्रह है, जिन्हें विस्तार दिया जा सकता है। बावजूद इसके प्रस्तुत पुस्तक प्राचीन भारत के इतिहास को नये तरीके से समझने की दृष्टि प्रदान करती है। कुल 223 बिंदुओं में कही गई बातें 150 पेजों में समाहित हैं। पुस्तक कौटिल्य बुक्स, 309 हरिसदन,20, अंसारी रोड दरियागंज,नयी दिल्ली से प्रकाशित है। पुस्तक का विक्रय मूल्य रू 195 है। इसका पहला संस्करण 2019 में प्रकाशित हुआ है।

उपरोक्त पुस्तक भारत में बौद्ध संस्कृति के अतीत तथा विरासत को खोजती है। पहले बिंदु में ही डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने लिखा है कि गौतम बुद्ध ने ही ध्यान को विश्वव्यापी बनाया। कालांतर में यही दुनिया के विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से जाना गया। बुद्ध को भी दुनिया की भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना गया। उन्होंने लिखा है कि अशोक के धम्म का सही अंग्रेजी अनुवाद रिलीजन नहीं बल्कि ग्रीक भाषा का शब्द यूसेबेइया है। रिलीजन में जहां ईश्वर में विश्वास जरूरी होता है वहीं यूसेबेइया में ईश्वर या देवी देवताओं में विश्वास करना आवश्यक नहीं है। उनके अनुसार नालंदा बौद्ध विहार की खुदाई में अशोक कालीन ईंट मिली हैं। फिर इसे गुप्त काल का कैसे माना जाए? फारसी में प्रयुक्त शब्द बुत, बुद्ध का ही पर्याय है। पांचवीं सदी में आचार्य बोधिधम्म चीन गये, उन्होंने ही वहां मार्शल आर्ट्स का आविष्कार किया। राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से सोने और चांदी की स्याही से लिखा हुआ बौद्ध साहित्य लाये थे। दक्षिण भारत का सातवाहन वंश भी बौद्ध था। इसके प्रमाण हैं। उनके सभी अभिलेख अशोक की भांति प्राकृत भाषा में हैं। गुजरात स्थित वडनगर का बौद्ध मठ,जो दूसरी से सातवीं शताब्दी का है, वह मूलतः महिला बौद्ध भिक्षु का आवास है। देऊर कोठार,जो मध्य प्रदेश के रीवां जिले में स्थित है, एक बौद्ध स्थल है।

पुस्तक में विभिन्न साक्ष्यों के साथ इस बात को स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि मोहन जोदड़ो की खुदाई में मिली सभ्यता भी बौद्ध सभ्यता है। गौतमबुद्ध से पहले भी बुद्ध हो चुके हैं। उन्हें पहचानने तथा इस परम्परा को निरंतरता से जोड़ने की जरूरत है। लेखक ने नागवंश पर भी प्रामाणिक तथ्य प्रस्तुत किए हैं। प्राकृत में स्तम्भ को ही लाट कहा जाता है। उससे ही लटिया शब्द बना है। शिवलिंगों में बनी बुद्ध की मूर्तियों को ही मनौती स्तूप कहा जाता था। सिंधु सभ्यता के नगरों, हड़प्पा, मोहन जोदड़ो, धोली वारा तथा राखीगढ़ी में झुंड के झुंड स्तूप मिले हैं। अकेले राखीगढ़ी में सात स्तूप मिले हैं। बिहार में स्थित नालंदा के जगदीश पुर गांव में रुक्मिणी नामक स्थान भी बौद्ध स्थल है।

हरियाणा के यमुनानगर जिले की शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में आदि बद्री क्षेत्र है। यहीं से सरस्वती नदी की उत्पत्ति मानी जाती है। यहां हुई खुदाई में बौद्ध सभ्यता के विराट सबूत मिले हैं। पुस्तक में इस बात का भी जिक्र है कि बुद्ध ने वेदों का विरोध नहीं किया बल्कि वेद ही बुद्ध के विरोध में लिखे गए। अशोक के लेखों में कहीं भी वेद शब्द नहीं आया। अशोक का एक शिलालेख बिहार के कैमूर जिले के चांद प्रखण्ड में बसहा गांव के पास मिला है।इस क्षेत्र को “मठ मोरिया”अर्थात् मोरिय राजा का विश्राम स्थल कहा जाता है।इस अभिलेख में जिक्र है कि सम्राट अशोक ने जनता की तकलीफों को जानने के लिए 256 रातें राजमहल से बाहर गुजारीं थी, जिसमें से एक रात वह यहां भी रुके थे। यह जानकारी भी मिलती है कि अशोक के अभिलेखों में हर जगह देवा लिखा है,देव नहीं। जिसका अर्थ होता है-बुद्ध/ अर्हत। पुस्तक के पृष्ठ नं 55 पर जिक्र है कि अशोक के कलकत्ता बैराठ शिलालेख पर सात किताबों का नाम लिखा है।यह सातों किताबें बौद्ध साहित्य की हैं। पुस्तक में एक रोचक प्रसंग है कि तक्षशिला के यवन राजा अगाथोक्लिस ने ईसा पूर्व 190-180 में बासुदेव कृष्ण के सिक्के चलाए। इसी में उनके हाथ में धम्म चक्र है, जिसमें 8 आरे हैं,इसे सुदर्शन (सु+दर्शन) कहा गया। यह बुद्ध का धम्म चक्र है।पूरा वाकाटक राजघराना बौद्ध था। उनका राज चिन्ह धम्म चक्र था।नरेश रुद्रषेण और नरेश पृथ्वी षेण प्रसिद्ध वाकाटक राजा थे। इन्हीं राजाओं के द्वारा अजंता में अनेक बौद्ध गुफाएं बनवाईं गई थीं। इन्हीं में प्रवरषेण के पुत्र गौतमी पुत्र की शादी नाग शासक भवनाग की बेटी से हुई थी जिनके पुत्र रुद्रषेण थे।उनका राज चिन्ह ताड़ था।भूमरा की इमारत मूल रूप से नागों की थी।

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सम्राट अशोक के दरबार का सबसे बड़ा लेखक चपड था। अशोक के जटिंग रामेश्वर तथा ब्रम्हगिरी शिलालेखों को लिखने का श्रेय उसी को है। पाली साहित्य तथा भरहुत लेखों में गौतम बुद्ध के अलावा पांच अन्य बुद्धों का उल्लेख है। चूंकि गौतम बुद्ध की मां का नाम लुंमिनी (देवी) था। यही नाम बाद में चलकर रूम्मिन (देई)हो गया। जहां अशोक का रूम्मिनदेई स्तम्भ लेख है। पुस्तक में यह भी वर्णित है कि बौद्ध सभ्यता के विकास में वणिकों का बड़ा योगदान है।वणिक तथा वैश्य दोनों अलग-अलग हैं। अनाथपिंडक,पटाचारा,यश,उपगुप्त आदि वणिक थे। जबकि वैश्य सम्भवतः आर्य सभ्यता से जुड़े थे। सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर मौर्य काल तक स्तूपों की श्रृंखला है। बुद्ध स्वयं बौद्ध सभ्यता में जन्में थे और उनकी बुराइयों का परिमार्जन भी किया था। सांची स्तूप पर अंकित सप्तबुद्ब के रेखांकन से इसकी पुष्टि होती है। दीर्घ निकाय के महापदान सुत में सप्तबुद्ध का विस्तृत वर्णन है। सम्भवतः सप्तर्षि की अवधारणा बौद्ध परंपरा के सप्तबुद्ध की देन है।एलौरा की गुफा संख्या 12 में सप्तबुद्ध के प्रामाणिक चित्र हैं।

लेखक ने लिखा है कि सिंधु घाटी की सभ्यता में 6 तीलियों वाले धम्म चक्र का इस्तेमाल लिपि में किया गया है। गौतम बुद्ध ने 8 तीलियों वाले धम्म चक्र का इस्तेमाल शिक्षा में किया। सम्राट अशोक ने 24 तीलियों वाले धम्म चक्र का इस्तेमाल शासन में किया। 32 तीलियों वाला अशोक चक्र मुख्य है। इसी लिए वह शीर्ष पर है और सिंह उसे कंधों पर उठाए हुए हैं। भारत का राष्ट्रीय चिह्न 24 तीलियों वाला उपचक्र है। यह सिंहों की गोलवेदी पर नीचे बने हैं।इनकी संख्या 4 है।स्तूपों का इतिहास,लेखन कला का इतिहास, मूर्ति कला का इतिहास सभी कुछ सिंधु घाटी सभ्यता से निरंतर मौर्य काल तक और आगे तक भी जाता है। यह सब कड़ियां बौद्ध सभ्यता की कड़ियां हैं।सर जान मार्शल मानते थे कि सिंधु घाटी सभ्यता बौद्ध सभ्यता थी। पुस्तक में सिंधु सभ्यता के आर्यों के आक्रमण से नष्ट होने के तर्क पर भी प्रश्नचिंह लगाया गया है। सिकंदर के आक्रमण तथा उसके द्वारा 9 राष्ट्रों एवं 500 नगरों पर कब्जा कर लिये जाने का जिक्र है। यदि यह नगर नष्ट हो गये होते तो यह 500 नगर सिंधु क्षेत्र में कहां से आए।जब छठीं सदी में ह्वेनसांग भारत आया तब सिंधु क्षेत्र उजाड़ था। मतलब कि सिकंदर के आक्रमण से लेकर ह्वेनसांग के आगमन के बीच सिंध साम्राज्य के नगर धीरे धीरे नष्ट हुए। जिसे पशुपति कहा जाता है वह पूर्व के बुद्ध हैं। मेगस्थनीज ने भारत के दार्शनिकों, देवताओं तथा भगवानों में सिर्फ बुद्ध (बौत)का नाम लिखा है और किसी का नहीं। यह चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था। इसकी पुस्तक “इंडिका”है। संस्कृत हड़प्पा काल में नहीं है, नन्द युग में नहीं है, मौर्य काल में नहीं है। इसी बीच गौतम बुद्ध पैदा हुए तो वे संस्कृत ग्रंथों में वर्णित सभ्यता का विरोध कैसे कर रहे थे? जैसे सिक्खों में गुरु परम्परा थी,उसी प्रकार बौद्धों में भी थी।

कलाएं मरती नहीं हैं, वह युगों-युगों तक जिंदा रहती हैं और अपने डी एन ए को ढोती हैं।स्तूप, पीपल पूजा, लिपि में धम्म चक्र आदि अनेकों प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर अब तक निरंतरता के साथ मौजूद हैं। मौर्य काल और सिंधु काल दोनों बौद्ध सभ्यता में भीगा हुआ काल है। जिसका साम्राज्य दुनिया के 52 लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ था। जिसका शासन दुनिया की 33 फीसदी आबादी पर था। इसकी जनसंख्या तकरीबन 5 करोड़ थी। यह मौर्य साम्राज्य था जो 136 साल चला। यह ईसा पूर्व 250 का दौर था। पुस्तक में ईरानी सभ्यता, संस्कृत सभ्यता तथा बौद्ध सभ्यता का सूत्र रूप में तुलनात्मक अध्ययन भी है। विशेषज्ञ बताते हैं कि मौर्य काल की ईंटें लाल होती थीं, शुंग काल की ईंटें पीली होती थीं, कुषाण काल की ईंटें कुछ लालिमा लिए राख जैसी होती थीं और गुप्त काल की ईंटें बुझी सी लाल होती थीं। वैदिक सभ्यता की ईंटों का अब तक पता नहीं चल पाया है।

पुस्तक के पृष्ठ नं 108 पर जिक्र है कि झारखंड के भदुली से प्राप्त मनौती स्तूप ही भद्रकाली है जबकि छठ की वेदी को मनौती स्तूप से मिलाने पर यह साफ होता है कि छठ पर्व बौद्ध पर्व है। यह विदित है कि ब्राम्ही लिपि बाएं से दाएं तथा खरोष्ठी लिपि दाएं से बाएं लिखी जाती है। परंतु सेनुआरिन सभ्यता की लिपि ऊपर से नीचे की ओर लिखी जाती थी।ब्लेड सेनुआरिन सभ्यता की ही ईजाद है। इसमें गाय,बैल,भैंस,बकरा, सुअर आदि पालने का रिवाज था। ज़मीन के नीचे दफन यह भारत की विराट आदिम सभ्यता हो सकती है।ॠगवेद में वर्णित स्तूप में बुद्ध के वास का वर्णन है। इससे बुद्ध की प्राचीनता सिद्ध होती है।ॠगवेद में स्तूप का वर्णन दो बार आया है। पुस्तक में रोचक रूप से पूछा गया है कि यह बैसाख नन्दन कौन है? उत्तर दिया गया है कि वही बुद्ध,जिनका जन्म, ज्ञान तथा परि निर्वाण बैसाख में हुआ था। इसी प्रकार “शंख “शब्द संघ का प्रतीक रूपांतरण है। बौद्ध संस्कृति ने चक्र का इस्तेमाल शांति के लिए किया और युद्ध संस्कृति ने चक्र का इस्तेमाल युद्ध के लिए किया। बुद्ध को विष्णु का अवतार इसलिए बताया गया कि विष्णु को बुद्ध से प्राचीन साबित किया जा सके। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में खुदाई टीलों और स्तूपों को देखकर की गई और खुदाई में सिंधु घाटी सभ्यता मिली। इसलिए सिंधु घाटी की सभ्यता बौद्ध सभ्यता है।श्रमण परम्परा का प्रतीक मठ है, मंदिर नहीं।सम्राट अशोक के सिंह चतुर्मुख ने बौद्ध कला को प्रभावित किया और बुद्ध की चार मुख वाली मूर्तियों को जन्म दिया। सम्राट अशोक ने मोर की हत्या पर रोक लगाकर कुल धर्म का पालन किया तथा हिरन की हत्या पर रोक लगाकर उसने राज धर्म का पालन किया। हिरन सिंधु घाटी का टोटेम था। सिंधु घाटी से प्राप्त 1755 सीलों में से 1155 यानी 66 प्रतिशत सीलों पर यही एक सिंगा हिरन की आकृति है।

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पुस्तक में जिक्र है कि बुद्ध का कपिलवस्तु ठीक वैसा ही बसा था, जैसे हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के नगर बसे हुए थे। एक भाग रिहायशी था जबकि दूसरा धार्मिक। कपिलवस्तु का रिहायशी क्षेत्र गनवरिया था और धार्मिक क्षेत्र पिपरहवा। दोनों को मिला कर कपिलवस्तु था। बुद्ध का घर गनवरिया के रिहायशी क्षेत्र में था। मोहनजोदड़ो में भी रिहायशी और धार्मिक क्षेत्र अलग-अलग थे। लेखक ने प्रश्नवाचक शब्दों में पूछा है कि क्या सोने की लंका पाटिल पुत्र ही था? उन्होंने आगे लिखा है कि मेगस्थनीज ने लिखा है कि मौर्यों के शाही महल के स्तम्भों पर सोने की बेलें चढ़ी थीं और चांदी के पक्षियों को उन पर सजाया गया था। सोने चांदी से शाही महल सुसज्जित था। मौर्यों के शाही महल के जलाए जाने के प्रमाण हैं। अशोक वाटिका के उजाडे जाने की पुष्टि होती है। जब कोई भाषा किसी दूसरी भाषा के सम्पर्क में आती है तो उनके बीच शब्दों का आदान-प्रदान होता है। मध्य काल में फारसी आयी तो हिंदी में फारसी के शब्द आ गये। आधुनिक काल में अंग्रेजी आयी तो अंग्रेजी के शब्द हिन्दी में आ गए।मगर अशोक कालीन प्राकृत में एक शब्द संस्कृत का नहीं आया। गुप्त काल में भी जो लिपि मिली है, वह ब्राम्ही लिपि की विकसित शैली है। गुप्त नाम की लिपि का कोई सबूत नहीं मिलता है। बौद्ध साहित्य का अनुवाद तो संस्कृत में हुआ है परंतु संस्कृत साहित्य का अनुवाद पाली में नहीं हुआ। दक्षिण भारत में पांचवीं सदी तक प्राकृत ही चलन में रही।

पुस्तक के पृष्ठ नं 142 तथा 143 पर जिक्र है कि पुराणों में जिस मिथक शेषनाग का वर्णन किया गया है उनकी राजधानी विदिशा (मध्य प्रदेश) में थी। उन्होंने कुल मिलाकर 20 सालों तक शासन किया।उनका शासनकाल 110 से 90 ईसा पूर्व माना जाता है। राजा शेषनाग के सिक्के ब्रिटिश म्युजिअम में सुरक्षित हैं। मुंशी देवी प्रसाद की पुस्तक में इस वंश का जिक्र है। भारत का कोई भी प्रसिद्ध मंदिर खुदाई में धरती के नीचे नहीं मिला जबकि देश में कोई भी प्रसिद्ध बौद्ध विहार बगैर खुदाई धरती के ऊपर नहीं मिला। कर्नाटक में यदि अशोक के अभिलेखों के बाद किसी राजवंश का अभिलेख मिलता है तो वह चुटु वंश है जिनके शीशे के बने सिक्कों पर बौद्ध धर्म के चिन्ह, जैसे स्तूप, त्रिरत्न आदि मिलते हैं। पुस्तक का समापन इस कथन से हुआ है कि जो धर्म प्रचार देवता गण विमान से उड़-उड कर नहीं पाये, वहीं बुद्ध ने अपना धम्म प्रचार पैदल ही घूम-घूम कर,कर दिया।

यदि उपरोक्त वर्णित तथ्यों का छाया चित्रों के प्रमाण के साथ अध्ययन व अवलोकन करना चाहते हैं तो पुस्तक “खोये हुए बुद्ध की खोज“उपयोगी है। सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर वर्तमान सभ्यता की पुरातात्विक, भाषाई तथा लोक परम्पराओं की पड़ताल करती उक्त पुस्तक शोध के विभिन्न आयाम खोलती है।

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, झांसी, दिनांक- 27 जनवरी 2020 ई.



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2 thoughts on “खोये हुए बुद्ध की खोज -पुस्तक समीक्षा”

  1. आर यल मौर्य कहते हैं:
    जनवरी 31, 2020 को 11:17 पूर्वाह्न पर

    पुस्तक की समीक्षा बहूत ही परमाणित है समीक्षा से लगता है कि पुस्तक यथार्थ के बहूत करीब है

    प्रतिक्रिया
  2. देवेन्द्र कुशवाहा झांसी कहते हैं:
    जनवरी 31, 2020 को 11:16 पूर्वाह्न पर

    लेखन ही समाज में बो बदलाव लाएगा जो हम सदियों से नहीं ला पाए।
    “खोए हुए बुद्ध की खोज” पुस्तक पर आपकी समीक्षा अतुलनीय व प्रमाणिक है।

    प्रतिक्रिया

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