लमगान और नगरहार
कपिशा देश से 600 ली पूरब चलकर तथा घाटियों एवं पहाड़ियों को पार कर ह्वेनसांग उत्तरी भारत में पहुंचा। यहां उसका सबसे पहला पड़ाव “लैनयो”(लमगान) देश था। आज कल यह काबुल नदी के किनारे है। उस समय यहां लगभग 10 संघाराम थे जिसमें थोड़े से अनुयाई थे। अधिकांश लोग महायान सम्प्रदाय के मानने वाले लोग थे। (पेज नं 63)
इस स्थान से दक्षिण- पूर्व 100 ली जाने पर एक पहाड़ और एक बड़ी नदी पार करके वह “नाक इलोहो” (नगरहार) देश में आया। इसकी पहचान जलालाबाद की प्राचीन राजधानी के रूप में किया गया है। उस समय यहां संघाराम तो थे परन्तु उनमें संन्यासी कम थे। स्तूप भग्न और उजड़ी हुई अवस्था में थे। नगर के पूर्व 3 ली की दूरी पर 300 फ़ीट ऊंचा अशोक राजा का बनवाया हुआ एक स्तूप है। इसकी बनावट बड़ी अद्भुत है और पत्थरों पर उत्तम कारीगरी की गई है। इस स्थान के पश्चिम में एक संघाराम कुछ पुजारियों सहित है। इसके दक्षिण में एक छोटा सा स्तूप है। यह सम्राट अशोक का बनवाया हुआ है।नगर के भीतर एक बड़े स्तूप की टूटी -फूटी नींव है। कहा जाता है कि यह स्तूप जिसमें महात्मा बुद्ध का दांत था, बहुत सुन्दर और ऊंचा था। परंतु अब दांत नहीं है। केवल प्राचीन नींव टूटी-फूटी अवस्था में है। इसके निकट ही एक स्तूप 30 फ़ीट ऊंचा है।
हिद्दा
इसी स्तूप के पास में एक गुफा है जिसके पश्चिमोत्तर कोने पर एक स्तूप उस स्थान पर है जहां बुद्ध देव तप करते हुए उठते बैठते थे। इसके अलावा एक स्तूप और है जिसमें तथागत भगवान् के बाल और नाखून की कतरन रखी हुई है। इसके निकट एक स्तूप और है जहां तथागत ने सत्य धर्म का प्रवचन किया था। (पेज नं 66) नगर के दक्षिण- पूर्व 30 ली पर हिलो (हिद्दा) नामक कस्बा है। यहां एक दोमंजिला बुर्ज है। इसकी दूसरी मंजिल में मूल्यवान सप्त धातुओं से निर्मित एक स्तूप है। इसमें तथागत के शिर की हड्डी, एक फिट,दो इंच गोल रखी हुई है। जिसका रंग कुछ सफेदी लिए हुए पीला है और बालों के कूप सुस्पष्ट दिखाई देते हैं। यह स्तूप के मध्य में एक कीमती डिब्बे में बंद रखी हुई है। यहीं सप्त धातुओं का बना एक और छोटा स्तूप है जिसमें तथागत भगवान् का “उष्णीय” रखा हुआ है। यह एक बहू मूल्य डिब्बे में सुरक्षित और बंद है।
एक और भी छोटा स्तूप सप्त धातुओं का बना हुआ है जिसमें तथागत भगवान् का आम्रफल के बराबर बड़ा और चमकदार नखपुट रखा हुआ है। यह भी एक बहुमूल्य डिब्बे में बंद है। यहीं पर भगवान बुद्ध का एक वस्त्र “संघाती” तथा एक लाठी कीमती संदूक में बंद है। इन सभी की लोग पूजा अर्चना करते हैं।(पेज नं 67) दोमंजिला बुर्ज के दक्षिण-पश्चिम में एक स्तूप है। यद्यपि यह बहुत ऊंचा और बड़ा नहीं है परन्तु अद्भुत वस्तुओं में एक है। यदि मनुष्य इसको केवल एक उंगली से छू दे तो यह नीचे तक हिल और कांप उठता है और घंटे-घंटी मधुर स्वर में बजने लगते हैं।(पेज नं 68)
गांधार
वहां से चलकर ह्वेनसांग कयीनटोलो अर्थात् गंधार आया। आजकल यह भी काबुल नदी के किनारे है। यहां उसे 100 संघाराम मिले जो सबके सब उजड़ी और बिगड़ी हुई दशा में थे। राजधानी के भीतर पूर्वोत्तर दिशा में एक पुराना खण्ड़हर है। पहले इस स्थान पर बहुत सुन्दर बुर्ज था जिसके भीतर बुद्ध देव का भिक्षापात्र था। निर्वाण के पश्चात् बुद्ध देव का भिक्षापात्र इस देश में आया और कई सौ वर्षों तक उसका पूजन होता रहा। नगर के बाहर दक्षिण- पूर्व दिशा में 8-9 ली की दूरी पर एक पीपल का वृक्ष है जिसकी ऊंचाई 100 फ़ीट है।विगत चार बुद्ध इस वृक्ष के नीचे बैठ चुके हैं। शाक्य तथागत ने इस वृक्ष के नीचे दक्षिण मुख बैठ कर इस प्रकार आनंद से संभाषण किया था,- “मेरे संसार त्याग करने के 400 वर्ष बाद कनिष्क नामक राजा इस स्थान का स्वामी होगा। वह इस स्थान के निकट ही दक्षिण की ओर एक स्तूप बनवायेगा जिसमें मेरे शरीर का अंश होगा।” पीपल वृक्ष के दक्षिण एक स्तूप कनिष्क राजा का बनवाया हुआ है।(पेज नं 69)
नगर के दक्षिण- पश्चिम 10 ली पर एक स्तूप है। इस स्थान पर तथागत भगवान् लोगों को शिक्षा देने के लिए, मध्य भारत से वायु गमन करते हुए उतरे थे। लोगों ने कालांतर में इसी स्थान पर स्तूप बनवा दिया। पूर्व दिशा में थोड़ी दूर पर एक स्तूप है। इस स्थान पर बोधिसत्व दीपांकुर से मिला था। नगर से दक्षिण- पश्चिम की ओर लगभग 20 ली जाकर एक छोटे पहाड़ी टीले पर एक संघाराम है जिसमें एक ऊंचा कमरा और एक दुमंजिला बुर्ज है। इसी के बीच में 200 फ़ीट ऊंचा अशोक राजा का बनवाया हुआ स्तूप है।(पेज नं 64,65)
कनिष्क वाले बड़े स्तूप के पूर्व की ओर और सीढ़ियों के दक्षिण में दो और स्तूप बने हुए हैं- एक तीन फीट ऊंचा और दूसरा पांच फ़ीट। यहां भगवान बुद्ध की दो मूर्तियां भी हैं, एक 4 फ़ीट ऊंची और दूसरी 6 फ़ीट ऊंची। बुद्ध देव जिस प्रकार पद्मासन होकर बोधिवृक्ष के नीचे बैठे थे उसी भाव को यह मूर्ति प्रदर्शित करती है। (पेज नं 70) बड़े स्तूप की सीढ़ियों के दक्षिण में महात्मा बुद्ध का एक रंगीन चित्र लगभग 16 फ़ीट ऊंचा बना हुआ है। बड़े स्तूप के ही दक्षिण-पश्चिम लगभग 100 पग की दूरी पर भगवान बुद्ध की एक श्वैत पत्थर की मूर्ति कोई 18 फ़ीट ऊंची है। यह मूर्ति उत्तराभिमुख खड़ी है।(पेज नं 71) इसके साथ ही बड़े स्तूप के दाहिने-बांए सैकड़ों छोटे-छोटे स्तूप पास-पास बने हुए हैं जिनमें उच्च कोटि की कारीगरी की गई है। इसी स्तूप के पश्चिम में एक प्राचीन संघाराम है जिसको राजा कनिष्क ने बनवाया था।(पेज नं 72)
पेशावर
वहां से चलकर ह्वेनसांग पुष्कलावती नगरी में आया। आज कल इसकी पहचान पेशावर से 18 मील उत्तर में स्वात नदी के किनारे उस स्थान से की जाती है जहां पर इस नदी का संगम काबुल नदी से हुआ है। यहां नगर के पूर्व एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। यह वही स्थान है जहां पर भूतपूर्व चारों बौद्धों ने धर्मोपदेश किया था। नगर के उत्तर 5 ली की दूरी पर एक प्राचीन संघाराम है जिसके कमरे टूटे फ़ूटे हैं। साधु बहुत थोड़े हैं और सब हीनयान सम्प्रदाय के अनुयाई हैं। संघाराम के निकट एक स्तूप है जिसको अशोक राजा ने बनवाया था। यह लकड़ी और पत्थरों पर उत्तम नक्काशी और कारीगरी करके बनाया गया है। इसी स्थान के निकट पूर्व दिशा में 2 स्तूप पत्थर के, प्रत्येक 100 ,100 फ़ीट ऊंचे बने हैं। इन स्तूपों के पश्चिमोत्तर थोड़ी दूर पर एक स्तूप और है।(पेज नं 76) इस स्थान से 50 ली जाने पर एक और स्तूप मिलता है।(पेज नं 77).
ह्वेनसांग ने लिखा है कि इस स्थान से पूर्व-दक्षिण की ओर लगभग 200 ली जाने पर वह पोलुप नगर में आया। इस नगर के उत्तर में एक स्तूप था। (पेज नं 78) पोलुप नगर के पूर्वी द्वार के बाहर एक संघाराम है जिसमें लगभग 50 साधु निवास करते हैं। यहां पर एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। इसी नगर के पूर्वोत्तर लगभग 20 ली की दूरी पर “दंतलोक” पहाड़ की चोटी पर एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। पास ही में एक स्तूप और है। यहां से 100 ली पश्चिमोत्तर एक पहाड़ के दक्षिण में एक संघाराम है जिसमें थोड़े से महायानी सम्प्रदायी साधु निवास करते हैं। इसके पास ही एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है।
लाहौर
यात्रा के अगले क्रम में ह्वेनसांग पालोटुलो नगर में आया। यह वही स्थान है जहां पर व्याकरण शास्त्र के रचयिता महर्षि पाणिनि का जन्म हुआ था। इस स्थान की पहचान कनिंघम ने लाहौर गांव (अब शहर) से की है जो ओहिंद से उत्तर-पश्चिम है।(पेज नं 80) इस नगर में एक स्तूप है। यह वह स्थान है जहां पर एक अर्हत ने पाणिनि के एक शिष्य को अपने धर्म का अनुयाई बनाया था। यह भगवान बुद्ध के परि निर्वाण के 500 वर्ष बाद की बात है।
-डॉ. राजबहादुर मौर्य, फोटो गैलरी-संकेत सौरभ (अध्ययन रत एम.बी.बी.एस.) झांसी
समीक्षा समग्र दृष्टि प्रदान कर रही है।
Thank you
अति सुन्दर सर
Thank you
सर, आपने ”ह्वेनसांग की भारत यात्रा” की बेहद उम्दा समीक्षा की है। आपकी समीक्षा पुस्तक प्रेमियों को इस पुस्तक को पढ़ने के लिए प्रेरित करेगी।
Thanks Sir
very nice sir