चोल तथा द्रविड देश में
“अन्ध्र” देश की अपनी यात्रा को सम्पन्न कर ह्वेनसांग वहां से दक्षिण- पश्चिम लगभग एक हजार ली चलकर “चुलिये” अर्थात् “चुल्य” अथवा “चोल” देश में आया।
![ashokan pillar chennai](http://themahamaya.com/wp-content/uploads/2020/05/Ashok_Pillar-junction-ashoka-nagar-chennai.-225x300.jpg)
उसने लिखा है कि इस राज्य का क्षेत्रफल लगभग 2500 ली और राजधानी का क्षेत्रफल लगभग 10 ली है। उस समय यह वीरान तथा जंगली देश था। डाकुओं का आतंक था। संघारामों की दशा अच्छी नहीं थी। नगर के दक्षिण- पूर्व थोड़ी दूर पर एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। यहां पर बुद्ध देव ने देवता और मनुष्यों की रक्षा के लिए अपने आध्यात्मिक चमत्कार को प्रदर्शित करते हुए धर्मोपदेश करके विरोधियों को परास्त किया था। नगर के पश्चिम में थोड़ी दूर पर एक प्राचीन संघाराम है।(पेज नं 364) इस स्थान पर एक अर्हत के साथ “देव” बोधिसत्व का शास्त्रार्थ हुआ था।
चोल राज्य से दक्षिण दिशा में लगभग एक हजार या 1500 ली चलकर ह्वेनसांग एक जंगल में आया।इसे पार कर वह “टलोपिच आ” (द्रविड) देश में पहुंचे। इस देश की राजधानी का नाम “कांचीपुर” है, जिसकी पहचान “कांजीवरम” के रूप में हुई है।(पेज नं 365) इस राज्य का क्षेत्रफल लगभग 6000 ली तथा राजधानी का क्षेत्रफल लगभग 30 ली है। भूमि उपजाऊ है। प्रकृति गर्म और मनुष्य साहसी हैं। लोग सच्चे और ईमानदार तथा विद्या के प्रेमी हैं। उसने लिखा है कि इस समय यहां पर कई सौ संघाराम हैं जिनमें 10 हजार साधु निवास करते हैं। यह लोग स्थविर संस्था के महायान सम्प्रदाय के अनुयाई हैं।
![ekambareshwar temple](http://themahamaya.com/wp-content/uploads/2020/05/buddha-kanchi.jpg)
तथागत भगवान् ने प्राचीन काल में जब वह संसार में थे, इस देश में बहुत अधिक निवास किया था। जहां-जहां इस देश में उनका धर्मोपदेश हुआ था और लोग शिष्य किये गये थे, वहां- वहां सब पुनीत स्थानों पर अशोक राजा ने उनके स्मारक स्वरूप स्तूप बनवा दिए हैं। कांजीपुर नगर “धर्मपाल’ बोधिसत्व का जन्म स्थान है। वह इस देश के प्रधानमंत्री का बड़ा पुत्र था।(पेज नं 366) नगर के दक्षिण में थोड़ी दूर पर एक बड़ा संघाराम है जिसमें एक ही प्रकार के विद्वान, बुद्धिमान और प्रसिद्ध पुरुष निवास करते हैं। एक स्तूप भी कई सौ फीट ऊंचा अशोक राजा का बनवाया हुआ है।(पेज नं 367)
![ekambareshwar temple](http://themahamaya.com/wp-content/uploads/2020/05/Ekambaranathar-Temple-Kanchipuram.png)
कांजीवरम से 3000 ली के लगभग दक्षिण दिशा में जाकर ह्वेनसांग ” मोनो क्युचअ” अर्थात् “भालकूट” राज्य में आया। इस राज्य का क्षेत्रफल लगभग 5000 ली तथा राजधानी का क्षेत्रफल लगभग 40 ली है। यहां पर नमक बहुत होता है। यहां की प्रकृति गर्म है। लोगों के स्वभाव में क्रोध है। यह लोग पढ़ने – लिखने की बहुत परवाह नहीं करते हैं बल्कि पूरी तरह से व्यापार में लगे रहते हैं। इस स्थान के बारे में विद्वान शोध कर्त्ताओं में एक मत नहीं है। लेकिन यह समुद्र के पास का ही कोई स्थान था। उसने लिखा है कि इस देश में अनेक संघाराम थे परंतु आजकल सब बर्बाद हो गये हैं। केवल दीवारें मात्र अवशेष हैं। अनुयाई भी बहुत थोड़े हैं। इस नगर से उत्तर दिशा में थोड़ी दूर पर एक संघाराम बना हुआ है। इसे अशोक राजा के भाई महेंद्र ने बनवाया था। इस समय यहां पर घास- फूस और जंगल है। संघाराम की केवल दीवारें शेष हैं। इसके पूर्व में एक स्तूप है, जिसका निचला भाग भूमि में धंस गया है। केवल शिखर मात्र बाकी है। इसको अशोक राजा ने बनवाया था। इस स्थान पर प्राचीन काल में तथागत भगवान् ने धर्मोपदेश किया था।(पेज नं 368)
![ekambareshwar temple](http://themahamaya.com/wp-content/uploads/2020/05/Lying-Buddha-Ekambareshwar-Temple-kanchi.jpg)
इस देश के दक्षिण में समुद्र के किनारे तक “मलयांचल” है जिसकी ऊंची चोटियों और कगारों तथा गहरी घाटियों और वेगगामी पहाड़ी झरनों के लिए प्रसिद्ध है। यहां पर चंदन के वृक्षों की बहुतायत है।इन पेड़ों में सर्प लिपटे रहते हैं। यात्री ने यह भी लिखा है कि जिस समय यह वृक्ष काटा जाता है और गीला होता है उस समय इसमें कुछ भी सुगंध नहीं आती। परंतु जैसे जैसे इसकी लकड़ी सूखती जाती है वैसे ही वह चिटकती जाती है और बत्तियां सी जमती जाती हैं। तब सुगंधित होती हैं। सम्भवतः यह आजकल का “मालाबार” रहा होगा।
![potalak](http://themahamaya.com/wp-content/uploads/2020/05/Pothigai-1024x679.jpg)
मलयागिरि के पास “पोतलक” पहाड़ है। इस पहाड़ के दर्रे बड़े भयानक हैं। पहाड़ की चोटी पर एक झील है जिसका जल दर्पण के समान निर्मल है। यहां से एक बड़ी नदी बहती है जो बीसों फेरे में पहाड़ को लपेटती हुयी दक्षिणी समुद्र में जाकर मिल गयी है। झील के निकट ही देवताओं की चट्टानी गुफा है। इस स्थान पर अवलोकितेश्वर बोधिसत्व आते जाते विश्राम किया करते हैं। यहां चन्दन एवं देवदारु के वृक्ष हैं। यहीं वह वृक्ष भी पाया जाता है जिससे कपूर निकाला जाता है। इस पहाड़ के उत्तर – पूर्व में समुद्र के किनारे से पोत दक्षिण सागर और लंका को जाते हैं। इसी बंदर से जहाज पर सवार होकर ह्वेनसांग दक्षिण- पूर्व में यात्रा करते हुए लगभग तीन हजार ली चलकर सिंघल देश में पहुंचा।(पेज नं 370)
“चिर काल से खामोश इन पिरामिडों में दफन हैं,
ज्ञान, शांति, प्रगति, मैत्री और करुणा का पैगाम।
भारत वासी अब पुनः जागने और कहने लगे हैं,
तथागत, तुम्हें कहीं न कहीं से आना ही होगा।”
– डॉ.राजबहादुर मौर्य, फोटो- संकेत सौरभ, झांसी (उत्तर- प्रदेश)
nice and beautiful thoughts.
Lot of thanks sir
प्राचीन तथ्यों से निकट साक्षात्कार कराने के लिए धन्यवाद सर।
ज्ञान वर्धन हेतु आपको बहुत बहुत साधुवाद।