पुस्तक समीक्षा- “ह्वेनसांग की भारत यात्रा”… परिचय
ह्वेनसांग तीसरा चीनी यात्री था जिसने सन 629 से 645 तक कुल 17 वर्ष लंबी भारत यात्रा की। उसने अपना यात्रा विवरण चीनी भाषा में लिखा इसका हिंदी में अनुवाद ठाकुर प्रसाद शर्मा ने किया है। कुल 440 पेज की यह पुस्तक “ह्वेनसांग की भारत यात्रा ” नामक शीर्षक से अगस्त 1972 में आदर्श हिंदी पुस्तकालय 492, मालवीय नगर इलाहाबाद से प्रकाशित हुई। यह उक्त पुस्तक का प्रथम संस्करण था जिसका तत्कालीन विक्रय मूल्य ₹18 था । उक्त पुस्तक कुल 12 अध्यायों में विभाजित है। प्रस्तुत समस्त लेखन सामग्री उसी पुस्तक से साभार ली गई है ।
ह्वेनसांग की भारत यात्रा के विवरण से सातवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की सच्ची जानकारी प्राप्त होती है। उसने इस देश के लोगों के शिष्टाचार, उनकी कला तथा परंपराओं का जो वर्णन किया है वह इतिहास के विद्यार्थियों के लिए बड़े काम की चीज है। ह्वेनसांग ने काबुल तथा कश्मीर से गंगा एवं सिंधु नदियों के मुहाने तक तथा नेपाल से मद्रास के समीप कांचीपुरम तक के देश के बड़े-बड़े नगरों तक की यात्रा की थी। ह्वेनसांग ने 630 ई.के मई माह के अंतिम दिनों में वामियान (अफगानिस्तान) के मार्ग से काबुल में प्रवेश किया था और अनेक परिभ्रमणों एवं लम्बे विश्राम के पश्चात् आगामी वर्ष के अप्रैल में ओहिंद के स्थान पर सिंधु नदी को पार किया था। उसने बौद्ध धर्म की पवित्र यात्रा के उद्देश्य से कई माह तक का समय तक्षशिला में व्यतीत किया था और तत्पश्चात कश्मीर की ओर प्रस्थान किया जहां उसने अपने धर्म की अधिक महत्वपूर्ण पुस्तकों के अध्ययन हेतु 2 वर्ष व्यतीत किए।
पूर्व दिशा की यात्रा में उसने सांगला के खंडहरों की यात्रा की जो सिकंदर के इतिहास में अत्यंत प्रसिद्ध हैं। उसके बाद चित्रापट्टी में 14 मास एवं जालंधर में 4 मास धार्मिक अध्ययन हेतु व्यतीत किए। सन् 635 ई. में उसने सतलज नदी को पार किया। तत्पश्चात दोआबा में सखिला, कन्नौज तथा कोशाम्बी नगरों की यात्रा के उद्देश्य ह्वेनसांग ने गंगा नदी को पुनः पार किया और उसके पश्चात् अवध में अयोध्या के तथा श्रावस्ती के प्रसिद्ध स्थानों पर अपनी श्रृद्धा व्यक्त करने के लिए उत्तर की ओर मुड़ गया। वहां से उसने कपिलवस्तु तथा कुशीनगर के स्थानों पर बुद्ध के जन्म एवं परि निर्वाण के स्थानों की यात्रा हेतु पुनः पूर्व दिशा का अनुकरण किया और वहां से बनारस के पवित्र नगर की ओर गया जहां भगवान बुद्ध ने अपने धर्म की प्रथम शिक्षा दी थी। इसके बाद ह्वेनसांग मगध की राजधानी कुशागार पुर तथा राजगृह के प्राचीन नगरों व नालंदा के मठ में गया जहां उसने 15 माह व्यतीत कर संस्कृत भाषा सीखी।
सन् 640ई. में ह्वेनसांग दक्षिण में द्रविड़ देश की राजधानी कांचीपुरम अथवा कांजीवरम पहुंचा। फिर उत्तर दिशा की ओर चलकर महाराष्ट्र से होते हुए नर्मदा नदी पर स्थित भड़ौच नगर पहुंचा। जहां से वह उज्जैन, मालवा तथा बल्लभी के अन्य छोटे-छोटे राज्यों में होता हुआ सन् 641 के अंत में सिंध तथा मुल्तान पहुंच गया। आगे चलकर उसने सिंध नदी को पार किया तथा कपिसा के राजा के साथ सन् 644 ई. के लगभग लभगान की ओर चला गया। आगे यहां से पंचशीर घाटी तथा श्रावक दर्रे से होता हुआ वह अपने स्वदेश की ओर का मार्ग पकड़कर सन् 644 ई.के जुलाई माह के अंत तक अंदराव पहुंच गया। अनेक बर्फीले दर्रों को वह सरलता पूर्वक पार करता हुआ अपने महान उद्देश्य की पूर्ति करके काशगर एवं यारकंद होता हुआ वह सन् 645 ई.के अंत में अपनी मातृभूमि चीन देश में प्रवेश करके अपने घर सकुशल पहुंच गया। ह्वेनसांग का जन्म सन् 603 ई. में सूबे होनान के मुख्य नगर चिन्ल्यू नामक स्थान पर हुआ था।
ह्वेनसांग के द्वारा लिखी गयी उक्त ऐतिहासिक पुस्तक की समीक्षा अग्रलिखत आलेखों में की जाएगी।
-डॉ.राजबहादुर मौर्य, झांसी
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