पुस्तक विश्व इतिहास की झलक में लिखा है कि भारत में हैदर अली का पुत्र टीपू सुल्तान अंग्रेजों का कट्टर दुश्मन था। उसे परास्त करने के लिए दो युद्ध हुए। एक 1790 से 1792 तक और दूसरा 1799 में। टीपू सुल्तान अंग्रेजों से लड़ता हुआ मारा गया। मैसूर( कर्नाटक) शहर के पास उसकी पुरानी राजधानी श्रीरंगपट्टम ( जो आज खंडहर है) में उसे दफनाया गया।
अहिल्याबाई होलकर इंदौर की रानी थी, जो 1765 से 1795 तक यानी 30 वर्ष तक वह इंदौर की रानी थी। जिस समय वह गद्दी पर बैठी, वह 30 वर्ष की नौजवान विधवा थी। उसने इंदौर को एक छोटे से गांव से मालदार शहर बना दिया।
18 वीं सदी के प्रारंभ में रणजीत सिंह अमृतसर का स्वामी हुआ। 1827 के करीब वह पंजाब और कश्मीर का मालिक बना। 1839 में उसकी मृत्यु हो गई। सिक्खों और अंग्रेजों के बीच दो युद्ध हुए।पहला 1845-46 में और दूसरा 1848-49 में। इन युद्धों के बाद पंजाब अंग्रेजी राज में मिला लिया गया। अंग्रेजों ने कश्मीर को जम्मू के एक राजा गुलाब सिंह को 75 लाख रुपए में बेचा था।
भारत में 1857-58 के ग़दर ने मुगल वंश का अंत कर दिया। बहादुर शाह ज़फ़र के दोनों पुत्रों और एक पोते को हडसन नामक एक अंग्रेज अफसर ने दिल्ली ले जाते वक्त बिना किसी वजह के, गोलियों से उड़ा दिया। इस तरह जलील होकर तैमूर, बाबर और अक़बर का वंश खत्म हो गया। 1857 के ग़दर के बाद भारत के शासन की बागडोर ब्रिटिश सरकार ने सीधी अपने हाथ में ले लिया। भारत का गवर्नर जनरल अब वायसराय कहा जाने लगा। 1877 में ब्रिटेन की महारानी ने बिजैन्तीन साम्राज्य और सीजरों की पुरानी उपाधि के भारतीय रूप कैसरे हिन्द की उपाधि ली।
क्लाइव ने बंगाल के शहर मुर्शिदाबाद का, 1757 ई. के समय का, बयान करते हुए लिखा था, कि यह नगर लंदन के समान लम्बा- चौड़ा, घनी आबादी वाला और मालदार है। लेकिन फर्क यह है कि इस शहर में ऐसे व्यक्ति हैं, जिनके पास लंदन के मुकाबले में बहुत ज्यादा संपत्ति है। बंगाल और बिहार के जमींदारों के साथ 1793 ई. में कार्नवालिस ने जो बंदोबस्त किया था, वह दायमी बंदोबस्त कहलाता है। बंदोबस्त शब्द का अर्थ है – हरेक जमींदार सरकार को जो लगान दे, उसकी रकम तय किया जाना।
भारत को पहले सैकड़ों वर्षों तक पूर्वी दुनिया का लंकाशायर कहा जाता था। भारत में पहला रेलमार्ग 1853 में बम्बई में डाला गया था जिसका उद्देश्य कच्चे माल को समुद्र तट तक लाना और तैयार माल को बाजारों तक पहुंचाना प्राथमिक उद्देश्य था। 1861 में उत्तर भारत में अकाल पड़ा और कहा जाता है कि उस अकाल वाले इलाके की 8 फीसदी आबादी मौत की भेंट चढ़ गई। 15 साल बाद 1876 में एक और भयानक अकाल उत्तर, मध्य और दक्षिण भारत में पड़ा। क़रीब- करीब एक करोड़ लोग काल के गाल में समां गये। 1896 और 1900 में पुनः अकाल पड़ा।
सन् 1857 में भारत में तीन विश्वविद्यालय कलकत्ता, बंबई और मद्रास में खोले गए। भारत में अंग्रेजों के आने का एक फायदा यह हुआ कि लोगों में नयी राजनीतिक चेतना आयी जिसने एकता और राष्ट्रीयता का बीजारोपण किया। राजा राममोहन राय ने ब्रम्ह समाज बनाया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज बनाया और नारा दिया वेदों की ओर लौटो। रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद थे। उनकी राष्ट्रीयता हिंदू राष्ट्रीयता थी और इसका आधार हिन्दू धर्म व हिन्दू संस्कृति थी। भारत का राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम् बंकिमचंद्र चटर्जी की पुस्तक आनन्दमठ से लिया गया है।मद्रासविश्वविद्यालय
सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव पड़ी। उसकी पहली बैठक बंबई में हुई। उमेश चंद्र बनर्जी इसके पहले अध्यक्ष थे। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, बदरूद्दीन तैयब, फीरोज शाह मेहता, दादा भाई नौरोजी प्रमुख संस्थापकों में से थे।दादा भाई नौरोजी को भारत के वृद्ध पितामह कहा जाता है। उन्होंने ही भारत के लक्ष्य के लिए पहली बार स्वराज शब्द का इस्तेमाल किया। 1904-5 में छोटे से राष्ट्र जापान ने भारी भरकम रूस को हरा दिया। 1905 में ही अंग्रेजों ने भारत में बंगाल का विभाजन कर दिया। उस समय बिहार भी बंगाल में आता था। इससे भारत में राष्ट्रीयता का उभार आया तथा स्वदेशी का नारा उठा।
वर्ष 1908 में भारत में मिण्टो- मार्ले सुधारों की घोषणा हुई। 1911 में बंगाल के विभाजन को रद्द कर दिया गया।इसी वर्ष भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली आयी। बालगंगाधर तिलक ने अपनी गिरफ्तारी के 6 वर्षों में माण्डले की जेल में रहकर मराठी भाषा में गीता रहस्य नामक ग्रंथ लिखा। जिसका बाद में भारत की अन्य भाषाओं में अनुवाद किया गया। अफगानिस्तान इतिहास में किसी भी हमलावर के लिए हमेशा बर्र का छत्ता बना रहा है।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि भारत में आर्य लोग मोहनजोदड़ो काल के बाद आए।उनकी सबसे बड़ी यादगार उन्हीं के ग्रन्थ वेद हैं। इन ग्रंथों में प्रकृति प्रेम की बहुलता है। भारत में भोपाल के पास सांचीके फाटक अब तक पायी गई कला की बची- खुची निशानियों में सबसे पुराने हैं। उनका समय शुरू का बौद्ध काल है। भारत में शिशु बुद्ध की प्रतिमाओं का प्रचलन गांधार से आया। भारत में अमरावती में (आन्ध्र), बम्बई के पास एलीफेंटा की गुफाओं में, वेरूल (एलोरा) व अजन्टा में बुद्ध की जातक कथाओं पर आधारित अनुकृतियां हैं। जावा के बोरोबुदुर में सारी की सारी जातक कथा पत्थर की दीवारों पर सिलसिले वार खुदी हुई है।
बुद्ध मूर्ति पूजा के विरोधी थे। वह अपने आप को देवता नहीं कहते थे और न अपनी पूजा ही कराना चाहते थे। उनका उद्देश्य उन बुराइयों से समाज का पिंड छुड़ाना था जो पोपलीला के जरिए उसमें आ गई थी। बुद्ध कहते थे, मैं अज्ञानियों को ज्ञान से तृप्त करने आया हूं। जब तक कोई मनुष्य प्राणियों के हित के लिए अपने को खपा न दे, तब तक वह पूर्ण नहीं हो सकता।मेरा मत करुणा का मत है।इसी कारण से संसार के सुखी लोग उसे कठिन समझते हैं। निर्वाण का मार्ग सबके लिए खुला है।जिस प्रकार हाथी नरकुलों की झोपड़ी को उखाड़ फेंकता है, उसी प्रकार तुम भी अपने विकारों का नाश कर दो।
मिस्र के नील कांठे में, खाल्दिया में जहां इलाम राज्य की राजधानी सूसा थी, पूर्वी ईरान के पर्सी पोलिस में, मध्य एशिया के तुर्किस्तान में और चीन की ह्वांग-हो या पीली नदी के किनारों में प्राचीन काल में एक ऊंचे दर्जे की सभ्यता थी। मोटे तौर पर यह 5000 साल पहले की बात है। इसी काल में मिस्र के पिरामिड और गीजा के महान स्फिंक्स बने। इसके बाद मिस्र में थीबन काल आया, जब ईसा से लगभग 2000 साल पहले थीबन साम्राज्य फूला- फला और अद्भुत मूर्तियां और दीवार चित्र बनाए गए। इसी काल में लुक्सर का विशाल मंदिर बना। खाल्दिया में सुमेर और अक्कद के दो प्रदेशों में शक्तिशाली संगठित राज्य बने।खाल्दिया का उर शहर मोहनजोदड़ो के समय से ही कला की नफीस चीज़ें बनाने लगा था।
मोहेंजो दारो, सिंध।
पिरामिड, चौकोर शंकु के आकार के विशाल स्तूप हैं जिनमें फरऊनों को दफनाया गया है। मिस्र में लगभग 40 पिरामिड हैं जो अहराम कहलाते हैं। सबसे बड़ा पिरामिड कूफू नामक फरऊन का बनवाया हुआ है। इसी में बाद में उसका शव रखा गया था। इसका आधार 756 फुट लम्बा तथा इतना ही चौड़ा है।इसकी ऊंचाई 481 फुट है। पिरामिडों में पत्थर के बहुत बड़े- बडे टुकड़े जमे हुए हैं। कूफू का पिरामिड संसार का एक आश्चर्य माना जाता है। इसके भीतर कई बड़े बड़े कमरे हैं।ईसा से पहले छठीं शताब्दी में बादशाह फरऊन कहलाते थे तूतां खामन अंतिम फरऊनों में सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसकी कब्र में इसकी मोमियाई निकली है जो सोने के संदूक में बंद थी। कब्र में सोने- चांदी, हाथी दांत तथा जवाहरात की अनेक बहुमूल्य चीजें भी मिली हैं।
करीब 700 वर्षों के बाद खाल्दिया पर बाबुल (बाबिलन) के लोगों ने जो सामी कौम के थे, सीरिया से आकर नई हुकूमत कायम किया। ईसा से लगभग 1000 वर्ष पूर्व बाबुल का पतन हुआ तथा असीरिया के लोगों ने कब्जा जमाकर यहां निनेवा को राजधानी बनाया।इन लोगों ने वहां पर बहुत बड़ा पुस्तकालय बनाया जिसमें उस ज़माने के ज्ञान की पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। उस ज़माने की पुस्तकें मिट्टी के सॉंचों पर लिखी जाती थीं। निनेवा के पुस्तकालय के हजारों सांचे लंदन के ब्रिटिशम्यूजियम में रखे हुए हैं।
स्फिंक्स, पत्थर की विशालकाय मूर्ति है जिसका शिर तो स्त्री का सा है, धड़ सिंह का है, जिस पर पक्षियों के से पर हैं तथा पूंछ सांप की सी है। यह मिस्र में पिरामिडों के पास ही है। जरथुस्त, प्राचीन ईरान का मज़हब था जो शुरू के वैदिक धर्म से मिलता- जुलता था। अवेस्ता इसका प्रमुख ग्रन्थ है। यूनानी इतिहास में ईरानी- आर्य शासकों के लिए शहंशाह शब्द का इस्तेमाल किया गया है। कुरु और दारा इसी वंश से थे। भारतीय- ईरानी कला की सबसे ऊंची सिद्धि आगरा का ताजमहल है। इसको देखकर ग्राउजे ने कहा था कि, ईरान की आत्मा ने भारत के शरीर में अवतार लिया है। ईरान का महान चित्रकार बिजहाद था। सीनन, उस ज़माने का मशहूर तुर्की मेमार था और बाबर ने उसी के चहेते युसूफ को यहां बुलवाया था। वस्तुत:, कला अपने जमाने की जिंदगी व सभ्यता का सच्चा दर्पण होती है।
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी, फोटो गैलरी- डॉ. संकेत सौरभ, झांसी, उत्तर प्रदेश, (भारत)
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4 thoughts on “पुस्तक समीक्षा- विश्व इतिहास की झलक, भाग- 17”
आपकी हर लेखनी को पढ़कर अच्छा लगता है सर, ऐसी जानकारियां मिलती हैं ऐसे शब्द मिलते हैं, (स्फिंक्स, फरऊनो) आदि जिनका उल्लेख कहीं कहीं देखने को मिलता है। इससे ही आपके ज्ञान भंडार का बोध होता है गुरु जी। कोटि कोटि प्रणाम गुरु जी 🙏🙏🙏
आपकी हर लेखनी को पढ़कर अच्छा लगता है सर, ऐसी जानकारियां मिलती हैं ऐसे शब्द मिलते हैं, (स्फिंक्स, फरऊनो) आदि जिनका उल्लेख कहीं कहीं देखने को मिलता है। इससे ही आपके ज्ञान भंडार का बोध होता है गुरु जी। कोटि कोटि प्रणाम गुरु जी 🙏🙏🙏
बहुत बहुत धन्यवाद आपको, दुर्गेश जी।
आपका सतत श्रम अनुकरणीय है… आपकी अभिव्यक्ति बूँद में समुद्र को भरने वाली है।
बहुत बहुत धन्यवाद आपको डॉ साहब।