तुर्की गणराज्य का राष्ट्रपति अपने पद की शपथ खुदा के नाम पर नहीं लेता बल्कि अपनी ईमानदारी के नाम पर लेता है। मिस्र में अल्पसंख्यकों का मुख्य वर्ग काप्टों का है। यह लोग प्राचीन मिस्रियों की औलाद माने जाते हैं। यह मिस्र की सबसे पुरानी नस्ल है और ईसाई हैं। जुलाई 1930 में दमिश्क में अरब नारियों की कांग्रेस का पहला अधिवेशन भी हुआ था। उनका एक मजबूत नारी मताधिकार संघ भी है। मुस्तबा अर्थात् जिस पर किसी प्रकार का कोई संदेह न किया जाए।

पिछले 7-8 हजार वर्षों से, नील नदी मिस्र की रगों का खून रही है। मिस्र की सारी खेती बाड़ी और जिंदगी का दारोमदार नील नदी में हर साल आने वाली बाढों पर रहता है, जिन्होंने अबीसीनिया के पठारों से खाद भरी मिट्टी लाकर इस रेगिस्तान को हरी भरी और उपजाऊ धरती बना दिया है।नील नदी के ऊपरले फैलाव सूदान में भी हैं। इसलिए मिस्र के वास्ते सूदान जीवन का आधार है।

nile river egypt

पश्चिम एशिया का खाल्दिया शहर सात हजार वर्ष पहले इतिहास में कदम रखता है। यह प्रदेश आजकल का इराक़ है। इसके बाद बेबीलोन आता है। बेबीलोन के बाद असीरिया का उदय होता है जिसकी महान् राजधानी निनेवे है। कालान्तर में ईरान के हकामनी आए, जिनकी राजधानी पर्सिपोली थी। इनमें महान् बादशाह कुरुश, दारा और जरस्क पैदा हुए। बाद में यूनान से सिकन्दर आया।इसने खुद ईरान के शाह की पुत्री के साथ विवाह किया। पश्चिम एशिया के इन तीन देशों में ही तीन महान मजहबों का जन्म हुआ। एक यहूदी मज़हब, दूसरा जरथुस्त मज़हब और तीसरा ईसाइयत।

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इब्नबतूता, एक अरब यात्री था, जिसका जन्म 14 वीं सदी के शुरू में मोरक्को के शहर तंजीर में हुआ था। 21 वर्ष की उम्र में वह मोरक्को से सारे उत्तरी अफ्रीका को लांघकर मिस्र जा पहुँचा और वहां से अरब, सीरिया और ईरान गया।फिर अनातोलिया (तुर्की) और दक्षिणी रूस तथा कुस्तुंतुनिया (विजैंतिया की राजधानी) और मध्य एशिया होता हुआ भारत आया। भारत को उत्तर से दक्षिण तक लांघकर वह मालाबार और लंका जा पहुँचा और फिर चीन चला गया। वापस लौटते वक्त वह अफ्रीका में घूमता फिरा और उसने सहारा के रेगिस्तान को भी पार किया।इसकी मिसाल दुर्लभ है। इब्नबतूता ने लिखा है कि मिस्र उस समय मालदार शहर था। भारत में जॉत- पात का, सती का तथा पान सुपारी भेंट करने का रिवाज था।

उस समय पश्चिम एशिया में दो बड़े रेलमार्ग थे- एक बगदाद रेलवे तथा दूसरा हिजाज रेलवे। बगदाद रेलवे, बगदाद को भूमध्य सागर व यूरोप से जोड़ती है।हिजाज रेलवे अरब देश को मदीना को अलेप्पो पर बगदाद रेलवे से जोडती है। हिजाज, अरब का सबसे ज्यादा महत्व का भाग है क्योंकि यहीं पर मक्का तथा मदीना है। अरब का ज्यादातर हिस्सा रेगिस्तान है। इसके ज्यादातर निवासी घुमक्कड़ खानाबदोश कबीले थे जो बद्दू कहलाते थे। यह लोग रेगिस्तान के जहाज कहे जाने वाले अपने तेज ऊंटों पर बैठकर और अपने दुनिया भर में नामी सुन्दर अरबी घोड़ों पर सवार होकर रेगिस्तान की बालू पर एक छोर से दूसरे छोर तक सफ़र किया करते थे

हिजाज़ और नज्द अरब के दो मुख्य टुकड़े हैं। दक्षिण पश्चिम में यमन है जो पुराने रोमन ज़माने से अरेबिया फेलिक्स यानी मुबारक, खुशहाल अरब के नाम से मशहूर रहा है। अरब के दक्षिण पश्चिम नोक के पास अदन है। यहीं पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाले जहाज़ ठहरते हैं। ईराक का इब्न सऊद मुसलमानों के खास वहाबी सम्प्रदाय का सरदार था जिसे 18 वीं सदी में अब्दुल वहाब ने चलाया था। यह इस्लाम में सुधार का आंदोलन था। इब्न सऊद ने 1926 में हिजाज़ की बादशाहत पर कब्जा कर लिया। 1926 में ही उसने मक्का में विश्व इस्लामी कांग्रेस का आयोजन किया। भारत से इस इजलास में मौलाना मोहम्मद अली गए थे।

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प्राचीन समय में यहूदियों का कोई राष्ट्रीय वतन नहीं था। उनके साथ अजनबियों जैसा व्यवहार किया जाता था। इन्हें गैटो कहकर अपमानित किया जाता था। वे येरूसलम को जाइयन कहकर बुलाते थे और उसे बहिश्त (स्वर्ग) की तरह मानते थे। जाइयनवाद, वही पुरातन पुकार है जो इन्हें येरूसलम और फिलिस्तीन की ओर खींचती है। ब्रिटिश सरकार ने नवम्बर 1917 में एक घोषणा किया जो बाल्फोर घोषणा कहलाती है। इसमें कहा गया है कि फिलिस्तीन में एक राष्ट्रीय वतन क़ायम किया जाएगा। इस घोषणा का यहूदी कौम ने तो स्वागत किया जबकि अरब, गैर अरब, मुसलमान, ईसाई अर्थात् सारे ग़ैर यहूदियों ने विरोध किया। तभी से फिलिस्तीन की कहानी अरबों और यहूदियों के बीच लड़ाई झगडे की कहानी रही है।

बाल्फोर घोषणा Balfour declaration
बाल्फोर घोषणा

विलाप की दीवार– फिलिस्तीन में यह दीवार पुराने जमाने में हिरोद के मंदिर के परकोटे का हिस्सा थी, इसलिए यहूदियों के लिए यह पवित्र जगह है। यहूदी इसको अपने उन दिनों की यादगार मानते हैं, जब वे एक महान कौम थे। बाद में इस जगह मस्जिद बना दी गई और यह दीवार उसी की इमारत में शामिल कर दी गई। यहूदी लोग इस दीवार के पास प्रार्थना करते हैं और जोर जोर से नौहा पढ़ते हैं। इसीलिए इसका नाम विलाप की दीवार पड़ गया।

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, फोटो गैलरी- डॉ. संकेत सौरभ, झांसी, उत्तर प्रदेश, भारत

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