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भारत में राजस्थान राज्य के झालावाड़ जिले में, शहर मुख्यालय से लगभग 90 किलोमीटर दूर कोलवी गांव में लगभग 2 हजार साल पुरानी बौद्ध गुफाएं स्थित हैं। यह गुफाएं राजस्थान के झालावाड़ और आसपास के इलाके में बौद्ध सभ्यता का प्रमाण हैं। यहां पर पहले 50 गुफाएं थीं जिनमें से अब कुछ ही शेष रह गयी हैं। यह गुफाएं अश्व नाल प्रकार की हैं जिन्हें चट्टानों को काटकर बनाया गया है।
इन गुफाओं में एक चैत्य कक्ष है जिसके भीतर ध्यान मग्न बुद्ध देव की प्रतिमा है। यहां पर बौद्ध भिक्षुओं के रहने के लिए कमरे भी निर्मित हैं जिनमें एक तरफ तकिए भी बने हुए हैं। इसके अलावा यहां पर अग्नि कुण्ड, बुद्ध देव की मूर्तियां, चक्र गंडिका स्तूप और चैत्य बने हुए हैं। कोलवी की गुफाओं में 64 भिक्षु आवासों के खंडहर एक बड़े परिसर में स्थित हैं जिनमें स्तूप और ध्यान कक्ष हैं। सबसे बड़ी प्रतिमा 12 फ़ीट की है जो उपदेश मुद्रा में है।
कोलवी से मिले प्रमाणों का जिक्र सर्वप्रथम 1854 में डॉ. इम्पे ने किया। कालांतर में जनरल कनिंघम ने इस पर शोध किया।कोलवी के अतिरिक्त झालावाड़ और टोंक जिले की सीमा पर बहुमंजिला संरचनाओं वाली कुल 50 गुफाएं हैं। अलवर में बैराठ तथा दौसा में भांजा रेंज में अशोक कालीन स्तम्भों के अवशेष मौजूद हैं। गुनाई में 9 तथा विनायका में 24 गुफाएं आज़ भी मौजूद हैं। यहां पर हीनयान और महायान दोनों शाखाओं के स्थापत्य हैं।
झालावाड़ को राजस्थान का नागपुर के उप नाम से भी जाना जाता है। इसे वृज नगर, जालाओं की भूमि तथा घंटियों का नगर भी कहा जाता है। राजस्थान के दक्षिण-पूर्व में स्थित झालावाड़ हाड़ौती क्षेत्र का हिस्सा है। काली सिन्ध नदी यहां की मुख्य नदी है। मालवा के पठार के एक छोर पर बसा झालावाड़ राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-12 (जयपुर-जबलपुर) पर स्थित है। कोटा शहर से इसकी दूरी लगभग 85 किलोमीटर है। होली और विवाह के अवसर पर यहां बिंदोरी नृत्य किया जाता है।
बैराठ
प्राचीन भारत में विराट पुर के नाम से मशहूर बैराठ, राजस्थान की राजधानी जयपुर से 85 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित एक तहसील स्तरीय कस्बा है। वाणगंगा नदी के किनारे स्थित बैराठ, प्राचीन काल में 16 महाजनपदों में से एक मत्स्य जनपद की राजधानी थी। पर्वतीय कंदराओं, गुफाओं एवं वन्य प्राणियों वाले वैराठ क्षेत्र में ही पाण्डवों ने अज्ञातवास के दिन बिताए थे। यहां से प्रागैतिहासिक काल, मौर्य काल तथा मध्य काल के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
महाराजा रामसिंह के शासनकाल में किलेदार किताजी खंगारोत के द्वारा कराए गए उत्खनन के दौरान यहां से स्वर्ण कलश में भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष मिले हैं। विराट नगर में पाषाण काल का हथियारों के निर्माण का एक बड़ा कारखाना मिला है। 1936-37 में दयाराम साहनी द्वारा वैराठ सभ्यता का सर्वप्रथम उत्खनन कार्य किया गया। पुनः 1962 में यहां की खुदाई कैलाश दीक्षित व नील रतन बनर्जी के द्वारा किया गया।
बैराठ की बीजक पहाड़ी से 1837 में कैप्टन बर्ट ने सम्राट अशोक के भाब्रु शिलालेख की खोज की। इस शिलालेख के पहिए पर प्राकृत भाषा में, ब्राम्ही लिपि में बुद्ध, धम्म् और संघ का उल्लेख है। शिलालेख में अशोक को मगध का राजा कहा गया है। 1840 में इस शिलालेख को उठाकर कलकत्ता के संग्रहालय में सुरक्षित रख दिया गया है। बीजक पहाड़ी से ही मौर्य कालीन बौद्ध विहार, स्तूप तथा बुद्ध की मथुरा शैली में बनी मूर्ति के अवशेष भी मिले हैं।
बैराठ में 36 मुद्राएं सूती कपड़े में बंधी हुई मिली हैं। जिनमें से 8 पंचमार्क चांदी की, 28 इंडो-ग्रीक, जिनमें 16 यूनानी राजा मिनेण्डर की हैं। कोटा के समीप कर्ण संवा नामक गांव से प्राप्त शिलालेख में एक मौर्य वंश के शासक राजा धवल का उल्लेख मिलता है। राजस्थान शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख भी चित्तौड़गढ़ शिलालेख में पाया जाता है। इसी प्रकार श्रृंगी ऋषि के शिलालेख में भील जनजाति के सामाजिक जीवन का उल्लेख मिलता है।
बैराठ की भीम डूंगरी से सी.एल. कार्लाइल ने 1871 में शंख लिपि से उत्कीर्ण शिलालेख की खोज की। शंख लिपि, ब्राम्ही लिपि को अत्यधिक अलंकृत करके उसे गुप्त रूप प्रदान करती थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में बैराठ (पारयात्र) का उल्लेख किया था। उसने यहां का क्षेत्रफल ढाई मील बताया था तथा 8 बौद्ध मठों का उल्लेख किया था। बैराठ से तांबा निकाला जाता था। यहां पर अकबर ने टकसाल खोली थी। यहां पर मिले शैल चित्रों से इसकी प्राचीनता प्रमाणित होती है।
बैराठ में किए गए पुरातत्व उत्खनन से यह प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध धर्म अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित था तथा सम्राट अशोक का इस क्षेत्र से विशेष लगाव था। प्रसिद्ध पुरातत्वविद दयाराम साहनी मानते हैं कि हूण शासक मिहिरकुल ने यहां का विनाश किया।आज, बैराठ शाहपुरा- अलवर मार्ग पर स्थित है। विराट की कन्या उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ हुआ था।
वैज्ञानिक भाषा में अभिलेखों के अध्ययन को एपिग्राफी कहते हैं। जिन अभिलेखों में मात्र किसी शासक की उपलब्धियों का बखान होता है, उसे प्रशस्ति कहते हैं। अभिलेखों में शिलालेख, स्तम्भ लेख, मूर्ति लेख इत्यादि आते हैं। भारत में सबसे प्राचीन अभिलेख सम्राट अशोक के हैं। माना जाता है कि अशोक राजा को अभिलेखों की प्रेरणा ईरान के शासक डेरियस से मिली थी। अशोक राजा के ब्राम्ही लिपि में लिखित संदेश को सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप ने पढ़ा था। जेम्स प्रिंसेप, अलेक्जेण्डर कनिंघम के मित्र थे। सम्राट अशोक के शिलालेखों का मुख्य उद्देश्य समाज में अच्छे जीवन के आदर्शों को चरितार्थ करना था।
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, फोटो गैलरी-संकेत सौरभ, झांसी
अभिलेखों का वर्गीकरण ही मौर्य और मौर्य पूर्व से आरंभ होता है और आधुनिक इतिहास का भी इसी से महत्ता समझी जा सकती है। आपका श्रम सराहनीय है।
बहुत बहुत धन्यवाद आपको डॉ साहब
-राज बहादुर मौर्य, झांसी
आपका कार्य बहुत सराहनीय है, साधुवाद🙏🙏,
सवाल :- जिसे आप बोध स्तूप बता रहे हैं उसकी विस्तृत जानकारी दीजिये.