सामुदायिक समरसता का चित्र
सामुदायिकता एक विचार तथा भावना है जिसके अंत: स्थल में बिना किसी भेद-भाव के सबके साथ समान व्यवहार करना है। यद्यपि दुनिया में सामुदायिकता की भावना का विकास बहुत धीमी, जटिल तथा टेढी-मेढी प्रक्रिया से होकर गुजरा है, परन्तु फिर भी एक विचार तथा भावना के रूप में आज भी यह जीवट के साथ जिंदा है।
सामुदायिकता के विचार ने देश में आपसी समभाव तथा आपसी ममभाव पैदा करने में अहम भूमिका निभाई है। भारत विविध रंगों से परिपूर्ण विविधता मय देश है।यहां भारतीयता का अर्थ विभिन्न धमों, जातियों, संप्रदायों, रीति रिवाजों, परंपराओं, विश्वासों,मूल्यों तथा रहन सहन व परिवेश के लोगों का एक साथ मिल जुल कर रहना है। इंसान को पहले इंसान माना जाए तथा विश्वास इस बात पर किया जाए कि सभी के मानवीय मूल्यों तथा संवेदनाओं की विरासत साझी है।
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श्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में पूरी प्रतिबद्धता, समर्पण व लगन के साथ सामुदायिक समरसता के लिए कार्य किया है। अपने जीवन के प्रारंभिक दौर से ही उन्होंने जाति, धर्म, क्षेत्र व भाषा की संकीर्ण सीमाओं को तोड़कर सबको साथ लेकर चलने का गंभीर प्रयास किया है। अपने समता मूलक समाज निर्माण की सोच को उन्होंने कर्म के साथ जोडा है। चाहे दलित व अल्पसंख्यक तथा पिछड़ा वर्ग की चेतना को जगाने का कार्य हो, चाहे इलाहाबाद के अमरूद उत्पादक किसानों का मामला हो, चाहे मेरठ के माया त्यागी बलात्कार तथा हत्याकांड में इंसाफ के हक की लडाई हो,स्वामी प्रसाद मौर्य हमेशा अग्रपंक्ति मे खडे मिले। ऐसे अनगिनत कार्य क्रम हैं जिन्हें उनके अतीत के पन्नों में जाकर देखा जा सकता है।
स्वामी प्रसाद मौर्य ने दमित समाजों को उत्थान के लिए कडी मेहनत करना, कष्ट सहना, व्यक्तिगत सचरित्रता को बनाए रखना तथा उन रास्तों पर निडर होकर मर्यादा पूर्वक चलना सिखाया जो महापुरुषों ने हमें दिखाया है।
– डा. राजबहादुर मौर्य, झांसी