सांची,(मध्य प्रदेश) शिरडी और मुम्बई (महाराष्ट्र) की यात्रा, दिनांक- 30-06-2017 से 05-07-2017 तक
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश) फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन : डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली, भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website: themahamaya.com
उद्देश्य और महत्व
यात्राएँ इंसानों को रोमांच और साहस प्रदान करती हैं । यात्राएँ हमें प्रकृति के नज़दीक ले जाती हैं तथा नई सभ्यता व नई संस्कृति तथा नये परिवेश से परिचित कराती हैं । प्रकृति के ख़ूबसूरत नज़ारे तथा उसके अनछुए पहलुओं की पड़ताल भी यात्राएँ कराती हैं । हमें यह बोध भी होता है कि ख़ुशी और गम की एक दुनिया उनसे बाहर भी बसती है । यात्राओं में कुछ समय के लिए हम तनाव मुक्त होकर अपनी रोज की मुसीबतों को भूल जाते हैं । हम आपसी समानताओं और मतभेदों दोनों को गले लगाना और जश्न मनाना सीखते हैं । यात्राएँ हमें जीवन के विभिन्न दृष्टिकोणों और तरीक़ों के प्रति सराहना, समझ और सम्मान देती हैं । यात्राएँ बेहतर स्वास्थ्य तथा अपने क्षितिज को व्यापक बनाने का अवसर भी प्रदान करती हैं । यात्राएँ पूर्वाग्रहों और निराशा को कम करती हैं । नये दोस्त, नया खाना, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और नेतृत्व का विकास यात्राओं के माध्यम से होता है । दुनिया बहुत ख़ूबसूरत है और प्रशंसा करने तथा संजोने के लिए बहुत कुछ है । जीवन एक यात्रा है..!
भूमिका
मई 2010 में झांसी आने के बाद,विगत कई वर्षों से निरंतर प्रातः काल चाय नाश्ते के वक्त अक्सर बड़े भाई श्री के.के. मौर्य (प्रबंधक श्री कृष्णा होटल, रायबरेली) जी से मोबाइल फोन पर नमस्ते, नमो बुद्धाय तथा दुआ सलाम हो जाता है। प्रायः सुबह- सुबह की यह टेलीफोनिक बातचीत अभिवादन तथा संक्षिप्त हाल- चाल तक सीमित रहती है। कभी किसी गंभीर विषय पर चर्चा न हो तो सामान्यतः यह बातचीत २ से ५ मिनट में पूरी हो जाती है। लेकिन हां, बातचीत का सिलसिला चलता रहता है। बातचीत के बिन्दुओं में स्वास्थ्य, बच्चों का हाल चाल, नौकरी तथा धंधे की चर्चा, समाज का कोई प्रकरण तथा कभी कभार चटकारी राजनीति की बातें भी सम्मिलित रहती हैं।
वर्ष 2017 के प्रारंभ यानी जनवरी माह के प्रथम सप्ताह में हुई बातचीत में एक दिन मैंने बड़े भाई से पूछा कि इस गर्मी में कहां घूमने का प्रोग्राम है। उन्होंने बड़ी सहजता से उत्तर दिया, चलो कहीं घूम आते हैं। लेकिन चूंकि अभी गाड़ी नहीं है इसलिए चलने से पहले टिकट का प्लान करना होगा। मैंने कहा कि हां प्लान किया जाएगा।इसी तरह बातचीत चलती रही, परन्तु कहीं जाने की रेल टिकट आधारित योजना नहीं बन पायी। कारण कुछ लापरवाही, कुछ व्यस्तता तथा कुछ आर्थिक परेशानी।
फ़रवरी 2017 में बड़े भाई ने अचानक गाड़ी लेने का फैसला किया तथा माह के अंतिम सप्ताह में नई चार पहिया गाड़ी ले आए। इसी बीच मेरा पंजाब जाने का कार्यक्रम बन गया। मैं अपनी पत्नी के साथ दिनांक 3 मार्च 2017 को चंडीगढ़ तथा अमृतसर की यात्रा पर चला गया। मेरी वापसी 7 मार्च 2017 को हुई। फोन पर लगातार इस बीच भाई से बात होती रही।
अप्रैल के अंतिम सप्ताह में बड़े भाई का कार्यक्रम ग्वालियर आने का बन गया। वह भाभी जी के साथ आए, साथ में आकाश भी थे। ग्वालियर से करन को लेकर वापस रायबरेली चले गए। रात्रि विश्राम का उनका कार्यक्रम ग्वालियर रहा। झांसी में मेरे सरकारी आवास पर उन्होंने केवल चाय पिया।
दिनांक 29 जून 2017 को भाई जी पुनः करन को ग्वालियर छोड़ने के लिए झांसी आए। दोपहर 5 बजे वह मेरे आवास पर आ गए। इस बार उनके साथ बेटी आरती भी आयी। पूर्व की भांति रजोले भाई ही गाड़ी चला रहे थे। इस बार रात्रि में रुकने का कार्यक्रम झांसी बन गया। यह तय हुआ कि ग्वालियर कल चलेंगे। रात्रि में सभी ने खाना खाया और सो गए। अगले दिन का कोई फाइनल प्रोग्राम तय नहीं हुआ। भाई ने संक्षिप्त चर्चा किया कि क्या कहीं घूमने चलने का कार्यक्रम है ? मैंने कहा कि इसका निर्णय आप ही लेंगे।
यात्रा का शुभारंभ
अगले दिन, दिनांक 30-06-2017 को प्रातः 7 बजे के आसपास सभी लोग जग गए, केवल संकेत को छोड़कर। 8 बजे सभी लोग एक साथ मेज पर चाय पीने के लिए बैठे। चाय पीते हुए ही भाई ने बताया कि आरती का मन शिरडी चलने का है। मैंने कहा कि भैया दूरी काफी है। उन्होंने कहा कि चलो रजोले भाई हैं। बस इतनी ही बात में आगे चलने की बात तय हो गई। अभी तक करन और रजोले भाई नहा चुके थे। सिर्फ संकेत अभी जगे थे। मैंने कार्यक्रम की जानकारी मैम को दिया। वह बोली ठीक है, दर्शन कर आइए।
मैंने तत्काल संकेत को जगाया और पूछा कि क्या वह भी साथ चलना चाहेंगे ? संकेत ने कहा नहीं।मेरी जाने की इच्छा नहीं है। मैंने कहा कि क्यों इच्छा नहीं है ? हम लोग निकल रहे हैं और गाड़ी खाली है, करन और आरती भी साथ है, चलो तुम भी तैयार हो जाओ। अनमने ढंग से उन्होंने चलने का मन बना लिया। अति शीघ्र वह भी तैयार हो गये। इधर मैम ने रास्ते के लिए कुछ पूरी और शब्जी बना दिया। चूंकि माता जी की सेवा और देखभाल के लिए उन्हें घर पर रुकना था इसलिए आग्रह पूर्वक चलने की उनसे कोई बात नहीं हुई। यात्रा के सभी सहयात्रियों ने अपने अपने बैग पैक किया। रजोले ने गाड़ी तैयार किया। मैम ने टिफिन पैक किया।भाई ने सारा सामान व्यवस्थित रूप से गाड़ी में रखवाया। गाड़ी, ड्राइवर, यात्री सभी आगे की लम्बी यात्रा के लिए तैयार। ठीक 9 बजकर 35 मिनट पर प्रातः हम लोग यात्रा के लिए निकल पड़े।
हमारे क्षेत्र के गांवों की परम्परा थी और कहीं कहीं आज़ भी है कि जब शादी के पश्चात बेटी ससुराल जाने के लिए विदा होती है तो सौ या पचास कदम चलकर गाड़ी अथवा डोली को एक बार पुनः घर की ओर मोड़ कर लाया जाता है उसके पश्चात ही बेटी की विदाई होती है। शायद इस परम्परा का प्रतीकात्मक महत्व यह रहा होगा कि बेटी अतिशीघ्र अपने माता-पिता के घर आएगी। शायद, इसे शुभ माना जाता रहा होगा। कुछ इसी प्रकार का घटनाक्रम हम लोगों के साथ भी हुआ। अभी हम लोग घर से निकले ही थे, बमुश्किल तीन सौ मीटर की दूरी तय कर ही पाये थे कि कि भाई ने बताया कि वह अपना चश्मा भूल गए। चूंकि चश्मा लेना आवश्यक था इसलिए गाड़ी को रोककर रजोले ने उसे मोड़ा तथा वापस आकर चश्मा लिया, तत्पश्चात आगे की मंजिल के लिए रवाना हुए।
रजोले के हाथ चल रही गाड़ी ने तीव्र गति से झांसी शहर को पार किया और ललितपुर को जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर आ गई। बबीना में पड़ने वाले टोल प्लाजा को पार कर, गाड़ी खड़ी करके सभी की ग्रुप फोटो ग्राफी की गई ताकि रास्ते में पड़ने वाले पहले टोल प्लाजा की फोटो गाड़ी सहित स्मृतियों में ली जा सके। बुंदेलखंड बरसात में चारों तरफ हरा भरा हो जाता है। यहां के वह पहाड़ जो गर्मी में वीरान और डरावने लगते हैं, बरसात में हरी घास से लदकर नई नवेली दुल्हन की तरह सज जाते हैं।। उनकी खूबसूरती देखते ही बनती है। मानो चारों तरफ मस्त बहारों का नजारा हो।
ललितपुर (उत्तर प्रदेश)
हम सब लोग बुंदेली धरा की इस प्राकृतिक सुंदरता को गाड़ी की बंद खिड़की से निहारते हुए चले जा रहे थे कि बड़े भाई ने अचानक रजोले से गाड़ी को राइट साइड में रोकने के लिए कहा। हम लोग अचानक चौंक गए। तभी देखने पर समझ में आया कि सड़क के बीचोबीच बने डिवाइडर पर कुछ बच्चे जामुन बेंच रहे हैं। रजोले ने अपनी तरफ से कांच को उतारा। तभी बड़े भाई ने आवाज देकर पूछा कि जामुन क्या रेट बेंच रहे हो ? उधर से आवाज आई, साहब दस रुपए का एक पैकेट। बड़े भाई ने फिर कहा, कुछ कम नहीं करोगे। उधर से आवाज आई, नहीं। 5-6 पैकेट लेने हैं- ले लीजिए। अन्ततः 6 पैकेट जामुन,भाई ने खरीदा। सभी ने जामुन का स्वाद चखा। गाड़ी का शीशा बन्द हुआ तथा वह अपनी मंजिल की ओर चल पड़ी। चलते चलते मैंने जामुन बेचने वाले से पूछा, तुम्हारा नाम क्या है ? उसने उत्तर दिया- रामलाल। क्या- रामलाल, और आगे- रामलाल कुशवाहा।
गाड़ी तीव्र गति से चल रही थी और मेरे मन मस्तिष्क में उस गरीब बालक की तस्वीर उभर आई जो मात्र 9-10 वर्ष का रहा होगा और ग़रीबी की मार से त्रस्त हो, सड़क के किनारे आने जाने वाली गाड़ियों को लालच भरी निगाह से देखता रहता होगा कि कोई गाड़ी रुकेगी और 10-20 रुपए की उसकी बिक्री हो जाएगी। उसकी 5-6 वर्ष की छोटी बहन भी उसके इस काम में मदद कर रही थी। वह जामुन को अपने छोटे हाथों से प्लास्टिक की थैली में भरकर भाई को दे रही थी। उन दोनों के कपड़े गंदे और फटे हुए थे। चेहरे और जुबान पर लाचारी और बेबसी थी। यह दोनों बच्चे बुंदेलखंड की बदहाल असली तस्वीर को बयां कर रहे थे। मैंने धीरे से जब उनसे पूछा था कि- बम्बई चलोगे ? वह धीरे से मुस्कुरा दिए। शायद वह समझ रहे थे कि यह मेरा मज़ाक उडा रहे हैं। मुझे अपने इस व्यवहार पर पछतावा हुआ क्योंकि शायद वह यह कह देते, हां चलेंगे, तब भी मैं उनको साथ ले जाने को तैयार न होता। आगे पूरे सफर में कहीं भी जाने तथा आने में ऐसे बच्चे इस प्रकार कुछ भी सड़क पर बेचते नहीं मिले।
बीना (मध्य प्रदेश)
तीव्र गति से चलती गाड़ी दिन के 1 बजे मध्य प्रदेश के शहर बीना पहुंची। वैसे आते जाते बीना के रेलवे स्टेशन को मैंने सैकड़ों बार देखा है, परंतु यह पहला अवसर था जब मैंने बीना शहर को नजदीक से देखा। मुझे बुंदेलखंड की बदहाल झलक वहां भी दिखाई पड़ी। बीना शहर को पार कर पुनः गाड़ी ने तेज रफ्तार पकड़ लिया। बीना से लेकर विदिशा तक जाने का रास्ता काफ़ी सुनसान है। सड़क के दोनों ओर दूर दूर तक खेत ही नजर आते हैं। अभी दोपहर के 2 बजे थे।रजोले ने सड़क के किनारे एक ढाबे पर गाड़ी खड़ी की। ढाबा छोटा लेकिन सुसज्जित दिख रहा था।हाथ मुंह धोकर सभी खाने की मेज पर बैठे, तभी सामने ढाबे के अंदर दीवाल पर लिखी तीन संक्षिप्त लाइने सभी को हंसा गयीं।उसमे लिखा था– पहले आवेदन, फिर निवेदन, न माने, तो दे दना दन। सभी ने खाना खाया, गाड़ी में रखे रसीले आमों का स्वाद चखा। राजपूत ढाबा की ओर सबने मुड़कर देखा तथा अगली मंजिल की ओर चल पड़े।
भोपाल
बुंदेलखंड के वीरान, सुनसान खेतों, दुर्गम पहाड़ों तथा गहरी नदी घाटियों को तेजी से पार करती हुई गाड़ी लगभग 4 बजे सायं सांची पहुंच गई। चूंकि जाते वक्त सांची रुकने का कार्यक्रम नहीं था इसलिए गाड़ी से ही भगवान बुद्ध के अस्थि कलश पर सम्राट अशोक द्वारा निर्मित सांची के स्तूप को नमन किया तथा आगे निकल गए। सायं 5 बजे मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल पहुंच गए। भोपाल शहर के आखिरी छोर पर, इंदौर- जबलपुर बाईपास पर स्थित राज रेस्टोरेंट पर रुककर काफ़ी पीकर सबने आलस्य और थकावट को कम किया। आगे के सफर के लिए शारीरिक ऊर्जा को बढ़ाया। काफ़ी अच्छी थी। रिफ्रेश की व्यवस्था भी ठीक थी। रेस्टोरेंट सुसज्जित था। सभी ने स्वल्पाहार का लुत्फ उठाया।
भोपाल से शिरडी की दूरी लगभग 500 किलोमीटर है। अभी सायं 6 बज रहे थे। यह तय किया गया कि रात्रि विश्राम रास्ते में कहीं नहीं करना है। चूंकि अजय ने इंटरनेट के माध्यम से शिरडी में पहले से ही होटल में कमरे बुक कर दिया था इसलिए अब आगे लगातार यात्रा करनी थी। रजोले का साहस और गाड़ी चलाने की क्षमता बेमिसाल है। तेज़ी से चलती गाड़ी ने देवास को पार किया। यहां सड़क के किनारे प्याज़ से लदे टैक्टरों की लाइन को देखकर ताज्जुब हुआ कि यहां इतनी अधिक मात्रा में प्याज़ का उत्पादन होता है। लाइन तीन किलोमीटर से अधिक लम्बी थी।
रजोले इससे पूर्व कई बार इस सड़क मार्ग से मुम्बई की यात्रा कर चुके थे इसलिए उन्हें रास्ते तथा स्थानीय चीजों के बारे में अधिक जानकारी थी।हम लोगों के लिए वह कहीं कहीं गाइड का भी काम करते थे। इन्दौर, नासिक, मालेगांव तथा येवला होते हुए रात्रि के अंतिम प्रहर में प्रातः 4 बजे हम लोग शिरडी सांई धाम पहुंच गए। सभी ने सांई को नमन किया तथा यहां तक की सकुशल यात्रा सम्पन्न होने पर सांई का आभार व्यक्त किया। यहीं पर पहले से बुक होटल का एक कर्मचारी हम लोगों को लेने आ गया। होटल के कमरे में पहुंचते- पहुंचते सुबह के 4 बजकर 30 मिनट हो गए थे। कमरों में एक एक बैग लेकर सभी सो गए। नींद कितनी जल्दी आ गई, किसी को पता ही नहीं चला।सांई की नगरी में गहरी नींद आयी।
दिनांक- 01-07-2017 सांई के दर्शन
अचानक कमरे की घंटी बजी, मैं एकाएक जगा, दरवाजा खोला, देखा बड़े भाई जी खड़े हैं। उन्होंने कहा कि 8 बज गए हैं, एक-एक कर सब लोग उठ जाएं और फ्रेश हो कर नहा लें। सांई के दर्शन के लिए 9:30 पर निकलेंगे। तुरंत भाई के आदेश पर अमल प्रारम्भ हो गया। सभी लोग निर्धारित समय पर तैयार हो गये। प्रातः कालीन मौसम हल्की हल्की बारिश की बूंदों से भीगा हुआ था। अभी गुनगुनी धूप आ गई। इस मौसम में ही सभी लोग सांई की समाधि दर्शन के लिए चल दिए। लगभग 5 मिनट पैदल चलने के बाद ही मुख्य मंदिर परिसर आ गया।
सभी ने लाइन में खड़े होकर पहले बायोमेट्रिक कार्ड लिया उसके बाद गेट नंबर 1 से मुख्य मंदिर में प्रवेश किया। सुरक्षा व्यवस्था के चक्रों को पार कर सभी लोग मुख्य कम्पाउन्ड में आ गए।वहां माहौल शांत था। केवल सांई के जयकारे लग रहे थे। चूंकि सांई की समाधि पर केवल पुष्प अर्पित किया जाता है इसलिए सभी के हाथ में पुष्प गुच्छ था। लगभग डेढ़ घंटे की लाइन में रहने के बाद सभी सांई की पवित्र समाधि पर पहुंच गए। वहां अपार भीड़ थी। किसी की आंखों में आंसू तो कोई सिसकियां ले रहा था। भावना का ज्वार उमड़ रहा था। जिसके पास जो था वह सब सांई को दे देना चाहता था, न कोई कहने वाला था न कोई रोकने वाला। यह सांई की महिमा है। मुफलिसी में जी कर भी सांई ने श्रृद्धा और सबूरी का पाठ मानवता को सिखा दिया।
सभी ने सांई की समाधि पर पुष्प अर्पित किया। माथा टेककर नमन किया।सांई से सभी की सलामती की दुआ की गई। सभी लोग समाधि स्थल से बाहर आ गए। बाहर निकलने पर सांई का प्रसाद प्राप्त किया, जो निशुल्क मिलता है।
सांई की शिरडी और शिरडी के सांई
महापुरूष जहां जन्म लेते हैं, जहां पर वह निवास करते हैं, जहां वह अंतिम अवस्था को प्राप्त होते हैं तथा जहां- जहां उनके पवित्र चरण पड़ते हैं, वह स्थान धन्य हो जाते हैं। उनके न रहने के पश्चात वह तीर्थ स्थल बन जाता है। करोड़ों लोगों की आस्था और श्रद्धा का केंद्र बन जाता है। वीरान और सुनसान स्थल भी अमन चैन और दुवाओं के प्रतीक बन जाते हैं। आज शिरडी भी देश और विदेश के अनगिनत लोगों की आस्था और विश्वास का केन्द्र है। सांई कौन थे ? और कहां से आये थे ? इसकी सटीक जानकारी आज किसी को नहीं है। वह हिन्दू थे अथवा मुसलमान, या किसी और धर्म के मानने वाले। इस बारे में किसी को सच ज्ञात नहीं है। लेकिन हां, यहां आने वाले श्रद्धालुओं को यह मालूम है कि शिरडी के साईं मानवता के पुजारी थे।
सांई की सीख
आजीवन मुफिलिसी का जीवन जीकर भी सांई ने गरीबों, मजलूमों तथा बेसहारा लोगों को सच्चाई के साथ जीवन जीने का रास्ता दिखाया। श्रृद्धा, सबूरी, सेवा, समर्पण उनके आदर्श थे। वह हमेशा कहते थे कि अल्लाह और राम एक ही हैं। वह अपने बच्चों के बीच भेद नहीं करता है। इसलिए सारी दुनिया की मानवता की सेवा करो। सांई ने नशा मुक्ति और शाकाहारी जीवन जीने का संदेश दिया।उनकी सीख है – आवश्यकता से अधिक संग्रह न करो। सादगी के जीवन मूल्य को अपनाओ। दिखावे से बचो।सच बोलो और दूसरे को धोखा मत दो। परस्पर प्रेम और सद्भाव से रहो। यही सांई के संदेश थे।जिनका उन्होंने स्वयं भी पालन किया और दूसरों को भी सीख दिया।
शिरडी के साईं की समाधि का दर्शन कर जीवन के पावन मूल्य मन और मस्तिष्क पर जीवित हो उठते हैं। शिरडी की डगर डगर पर, गली और कूचे में सांई के अतिरिक्त किसी का नाम नज़र नहीं आता। वहां किसी भी प्रकार की कोई वसूली नहीं होती। फिर भी उनकी समाधि पर रोते बिलखते लोग अपनी सम्पत्ति फेंक जाते हैं। श्रद्धा और भावना का ऐसा संगम अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।कोई गाकर, कोई रो घर, कोई शांत रहकर सांई की आराधना करता है। शिरडी में सांई हैं, सांई की शिरडी है।
भ्रमण का एक चरण पूर्ण हो गया। क्योंकि सांई की समाधि का दर्शन सबसे पहला तथा अहम पड़ाव था। दर्शन करने के लिए सभी ने वहीं पर नाश्ता लिया तथा संक्षिप्त भ्रमण और खरीददारी के बाद होटल पर आ गए। चूंकि सांई के दर्शन के पश्चात आगे की यात्रा प्रारंभ करनी थी इसलिए यह तय किया गया कि अब सांई से बिदा लेकर आगे चला जाए। दोपहर लगभग 1 बजे वहां से निकले, सांई को पुनः नमन कर विदा लिया और नासिक के रास्ते पर आ गए।
नासिक के रास्ते पर
रजोले के हाथ चल रही गाड़ी ने देखते ही देखते शिरडी को पार किया। सभी लोग कौतूहल से शिरडी की गलियों और दुकानों को देख रहे थे। कभी गांव की शक्ल में रहा शिरडी आज शहरों की तरफ आबाद है। जहां कभी शिरडी में रेल लाइन नहीं थी, वहीं आज शिरडी तक रेल मार्ग की व्यवस्था है। शिरडी सांई ट्रस्ट में चलने वाले लंगर में 10 रुपए में थाली का भोजन तथा 5 रुपए में काफी की व्यवस्था है। लगभग एक घंटे के सफर के बाद रजोले ने एक ढाबे पर गाड़ी खड़ी किया। यहां सभी ने दोपहर का भोजन ग्रहण किया तथा गीले कपड़े सुखाए। खेतों के बीच बना ढाबा अति सुन्दर और रमणीक लग रहा था। ठंडी बहती हुई तेज हवा मन, मस्तिष्क और शरीर को ताजगी का एहसास करा रही थी। नासिक में सुरेश केदारे जी के भतीजे तथा उनके एक साथी दुर्गेश प्रताप मिलने आए। भीगते हुए उनसे संक्षिप्त मुलाकात हुई।
यहां से आगे चलने पर मुम्बई तक का रास्ता कहीं सपाट मैदानों, कहीं हरे भरे खेतों तथा कहीं कहीं अति दुर्गम पहाड़ी घाटियों से होकर जाता है। सतारा की दुर्गम पहाड़ियां, जिन्हें पार कर मुम्बई पहुंचा जाता है, अति सुन्दर तथा प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण हैं। बरसात में ऊपर पहाड़ से गिरते पानी के झरने सुन्दर प्राकृतिक छटा बिखेर रहे थे। सतारा की इन घाटियों को काटकर बीच से सड़क बनाई गई है। सड़क के एक किनारे अति ऊंचे पहाड़ हैं तो दूसरी ओर बहुत गहरी घाटियां हैं। इनके बीच से गुजरना आज भी रोमांचक एवं डरावना है। यहां इन्हीं पहाड़ियों के बीच रजोले ने गाड़ी खड़ी की। बच्चों ने इस स्थान की प्राकृतिक सुंदरता को देखा। आरती, संकेत और करन इसे देखकर बहुत प्रसन्न थे।
मुम्बई की सीमा में
वहां से निकलकर आगे बढ़ने पर मुम्बई की सीमा प्रारम्भ हो जाती है। बच्चों ने पहली बार मुम्बई देखा था वह कौतूहल से कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ़ मुम्बई को देख रहे थे। मुम्बई की गगनचुंबी इमारतें उन्हें अच्छी लग रही थीं। गाड़ी कल्याण पहुंची ही थी कि अचानक गाड़ी का अगला दाहिना टायर पंचर हो गया।आभास होते ही रजोले ने गाड़ी रोकी। देखा तो हवा पूरी तरह से निकल चुकी थी। सभी ने मिलकर रजोले की सहायता किया तथा गाड़ी में रिजर्व में रखा टायर लगा दिया गया। सड़क पर ट्रैफिक अधिक था और चूंकि टायर भी दाहिने तरफ का बदलना था, इसलिए रजोले ने एक रेडियम प्लेट जो डायवर्जन का संकेत कर रही थी, निकाल कर सड़क पर रख दिया। इससे रात्रि में गाड़ियों से बचाव हुआ। यह प्लेट काफी प्रभावी रही। रात्रि के 8 बजकर 30 मिनट हो गए थे।
रात्रि विश्राम, प्रथम दिन
चूंकि रात्रि विश्राम, वासी, नवी मुंबई में करना था। यहां बहुजन आंदोलन के साथी तथा दलित पैंथर के राष्ट्रीय महासचिव श्री सुरेश केदारे जी रहते हैं। उन्हीं के सहयोग से यहां वासी में एक होटल में रुकने की व्यवस्था थी। लेकिन मुम्बई जैसे शहर में,वह भी रात्रि में उन तक पहुंचना काफ़ी कठिन साबित हुआ। अन्ततः एक सुनिश्चित स्थान बताकर हम लोग वहीं रुक गए और उनसे निवेदन किया कि वह हमें ले जाने वहां तक आने का कष्ट करें। श्री सुरेश केदारे जी ने मेरे अनुरोध को विनम्रता पूर्वक स्वीकार किया और मुझे लेने आ गए। उनके साथ उनके दोनों बेटे भी थे। सभी ने एक दूसरे का अभिवादन किया तथा संक्षिप्त कुशल क्षेम पूछा।
श्री सुरेश केदारे जी से मिलकर सभी प्रसन्न हुए। मैं केदारे जी के साथ उन्हीं की गाड़ी में बैठ गया तथा बात करते करते उनके घर के सामने आ गए।अब तक रात्रि के 11 बजने वाले थे। केदारे जी हम सबको पास के ही एक अच्छे रेस्टोरेंट में ले गए तथा स्वादिष्ट भोजन खिलाया।खाने का सारा पैसा केदारे जी ने ही दिया। खाने के बाद सभी होटल पर रुकने के लिए आ गए। हम लोगों को होटल में सु व्यवस्थित रूप से छोड़कर केदारे जी वापस अपने आवास चले गए। रात्रि 12:30 के आसपास सभी लोग सो गए। यह होटल Skylight था जो प्लाट नंबर 58 सेक्टर 6 सानपाडा, नवी मुंबई, 400705 में स्थित है।
सुरेश केदारे, संक्षिप्त परिचय
श्री सुरेश केदारे जी बहुजन आंदोलन के समर्पित मिशनरी साथी हैं। दलित आंदोलन के झुझारू तेवर वाले संगठन, दलित पैंथर के राष्ट्रीय महासचिव हैं। उनसे मेरा पहला परिचय बहुजन डाइवर्सिटी मूवमेंट के संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष एच. एल. दुसाध जी के माध्यम से हुआ था। इसके पहले जब मैं अपनी पत्नी तथा अजय कुमार मौर्य के साथ मुम्बई गया था, तभी पहली बार उनसे मिला था। मुझे अब भी याद है कि रात्रि में वह हम लोगों को अपने घर ले जाने के लिए मोटरसाइकिल पर चलकर बस स्टैंड पर आए थे।
श्री सुरेश केदारे जी बहुजन आंदोलन के सच्चे साथी होने के साथ ही साथ बेहद अच्छे इंसान हैं। मानवीय संवेदनाएं उनमें कूट कूट कर भरी हुई हैं। एक बार मिलने के बाद कोई भी व्यक्ति उनसे जुदा नहीं हो सकता, उन्हें भुला नहीं सकता। दुनिया में ऐसे भी इंसान हैं जो अपरिचितों से इतना प्यार करते हैं, यह सीख उनसे ली जा सकती है। सचमुच उनका घर मेरे लिए किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है।उनकी पत्नी श्रीमती दीपाली ममता की मूरत हैं। उनसे बिदा लेने में गला भर आया। इतना अपनापन, प्यार और मुहब्बत बांटने वाले ही खुदा के नेक बंदे हैं। भगवान उन्हें सलामत रखे। यही दुवा है।
दिनांक 02-07-2017 ( मुम्बई भ्रमण)
मुम्बई की सुबह ने 8 बजे सबको जगा दिया। सुबह की चाय लेकर सभी नहा धो कर फ्रेश हो गए।रजोले और करन ने जाकर गाड़ी का टायर सही कराया जो कल रात पंचर कर गया था। अभी 10 बज रहे थे कि सुरेश केदारे जी का फोन आ गया कि सभी को सुबह का नाश्ता घर पर करना है। सभी लोग तैयार होकर होटल में नीचे आए ही थे कि केदारे जी गाड़ी लेकर ले जाने के लिए आ गए। प्रसन्नता और उल्लास के बीच सभी लोग वासी स्थित उनके आवास पर पहुंचे। सभी ने भाभी जी के हाथों का बना स्वादिष्ट पोहा खाया। ऊपर तक पोहा से भरी हुई प्लेट देखकर मैंने कहा कि भाभी एक खाली प्लेट दे दीजिए जिससे मैं पोहा थोड़ा कम कर दूं। तभी केदारे जी ने अधिकार पूर्वक मना किया और भाभी जी को बोला कि वह प्लेट में पोहा और ले आएं ताकि दुबारा भी परोसा जा सके। हम लोग चुपचाप अपनी अपनी प्लेट में रखा पोहा खाने लगे।
चैत्य- भूमि
चाय- नाश्ते के पश्चात सुरेश केदारे जी हम लोगों को मुम्बई शहर दिखाने ले गए। मुम्बई और नवी मुंबई के बीच समुद्र पर बने ब्रिज को पार करके एक गाइड की भांति केदारे जी बच्चों को दिखाते और बताते हुए दादर आ गए। दादर में मुख्य मुख्य स्थानों का भ्रमण कराते हुए चैत्य भूमि आ गए। चैत्य भूमि समुद्र के बिल्कुल किनारे पर स्थित है। 6 दिसम्बर 1956 को बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर के निर्वाण के पश्चात उनकी काया को इसी स्थान पर अग्नि को समर्पित किया गया था।बाद में उनके अस्थि कलश को यहीं इसी स्थान पर स्थापित कर स्तूप बनाया गया। इस स्तूप को विशाल गोलाकार मंडप बनाकर ढंक दिया गया। इसी गोलाकार मंडप तथा स्तूप को चैत्य- भूमि नाम दिया गया है।
बहुजन समाज के देश और विदेशों में बसे बाबा साहेब डा अम्बेडकर के अनुयायी यहां पर आते हैं तथा अपने पुरखे, अपने मसीहा, अपने भगवान को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, नम आंखों से उन्हें नमन करते हैं, उनकी समाधि पर फूल चढ़ाते हैं। मोमबत्ती जलाकर बाबा साहेब के मिशन को आगे बढ़ाने का संकल्प लेते हैं। इस पवित्र स्थल पर आकर सभी बाबा साहेब को नमन किया, माथा टेक कर चैत्य भूमि की परिक्रमा किया। चैत्य भूमि का प्रवेश द्वार सांची स्तूप के प्रवेश द्वार जैसा निर्मित किया गया है। मुख्य प्रवेश द्वार पर ही सम्राट अशोक का विशाल स्तम्भ भी स्थापित किया गया है। संकेत ने यहां अपनी फोटो ग्राफी करायी।
पैगाम, समुद्र की लहरों का
चैत्य भूमि से बाहर निकले तो बारिश हो रही थी। समुद्र की अतल गहराइयों से उठती विशाल लहरें आवाज करती हुई आकर तट से टकरा रही थी। ऐसा लग रहा था कि आकाश भी भीगी पलकों तथा दरिया अपनी लहरों से बाबा साहेब को नमन कर रहा था। समुद्र से उठती तथा उसी में विलीन होती लहरें संसार की नि:सारता का बोध करा करा रही थीं। मनुष्य का जीवन भी समुद्र की लहरों के समान है। शताब्दियों पहले भगवान बुद्ध ने कहा था कि समुद्र की उठती लहरें यदि यह जान लें कि उनका उद्भव तथा समापन पानी ही है, अलग से उनका कोई अस्तित्व नहीं है तो वह झूठे अहंकार और अज्ञानता से मुक्त हो जाएं।
जल, अग्नि, मिट्टी और वायु सभी एक हैं। वह एक दूसरे पर अवलम्बित हैं। सभी सहधर्मी हैं।उनका एक साथ ही उत्थान और पतन है।यही संसार के अस्तित्व का कारण है।यही प्रतीत समुत्पाद है।जिसे सरल भाषा में परस्परावलम्बी सहवर्धन का सिद्धांत कहा जाता है।इसे जानना ही बोधि है, ज्ञान है।जो इसे समझता है वह बोधिसत्व है, अज्ञानता से मुक्त है तथा समस्त चर- अचर में स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करता है। बाबा साहेब डा. अम्बेडकर बोधिसत्व हैं। बुद्ध सम्यक सम्बुद्ध हैं।
यहां पर आरती, करन, संकेत और रजोले ने नजदीक से समुद्र को देखा, उसकी फोटो ग्राफी और वीडियो ग्राफी किया। इसी बीच मैंने वहां पर लगे बुक स्टॉल से डा. बृजेन्द्र सिंह बौद्ध जी के लिए एक पुस्तक खरीदी। झांसी से चलते वक्त उन्होंने 500 रूपए मुझे दिया था। वह मेरे साथ ही बुंदेलखंड महाविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग में वरिष्ठ प्राध्यापक हैं तथा बहुजन आंदोलन के मजबूत और समर्पित सिपाही हैं। पुस्तक लेकर किसी तरह भीगते हुए दौड़कर मैं गाड़ी के पास आया। सभी लोग मुझसे पहले पहुंच चुके थे। बरसात ने लगभग सभी को भिगो दिया।रजोले ने गाड़ी मोडी तथा अगली मंजिल की ओर चल पड़े।
जहांगीर आर्ट गैलरी
चैत्य भूमि से आगे चलकर हम लोग गेट- वे- आफ़ इंडिया की तरफ बढ़ रहे थे कि तभी केदारे जी ने एक स्थान पर रुककर गाड़ी खड़ी करायी तथा वहां से सभी साथ साथ पैदल चल पड़े। थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद हम सब जहांगीर आर्ट गैलरी में आ गए। यह बहुत ही सुसज्जित और सुव्यवस्थित आर्ट गैलरी है।यहां का निर्माण तथा रखरखाव अति सुन्दर है। विहंगम कला कृतियां मन मोह लेती हैं।
गेट- वे- ऑफ इंडिया
जहांगीर आर्ट गैलरी से निकलकर पैदल ही ताज होटल के किनारे से चलते हुए सभी लोग गेट वे ऑफ इंडिया आ गए। यहां पर अपार भीड़ थी। समुद्र के बिल्कुल तट पर स्थित यह गेट अंग्रेजी स्मारक है। इसके मुख्य द्वार के ऊपर लिखा हुआ है- Erected to commemorate the landing in India of there imperial majesties king George m and queen Mary on the second of December mcmxi. ( 2 दिसम्बर 1911 को रॉयल मैजेस्टिक किंग जॉर्ज और उनकी पत्नी मैरी के भारत आने के अभिनंदन की खुशी में इसे बनाया गया) ।
यही ब्रिटिश किंग जॉर्ज पंचम थे जिनके सम्मान में दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था। भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लायी गई थी। इन्हीं के सम्मान में पहली बार रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखित गीत जन गण मन..! पहली बार गाया गया था। बाद में आजादी के बाद यही देश का राष्ट्रगान बना। यह गीत कुल 5 स्ट्रेन्जा का है जिसका पहला स्ट्रेन्जा राष्ट्रगान के रूप में संकलित किया गया है।
गेट वे ऑफ इंडिया पर सभी ने फोटो ग्राफी करायी, जिससे यादों को संजोए रखा जा सके। यहीं पास में बने ताज होटल को सभी ने निहारा। समुद्र की लहरों से सटकर बने होटल ताज की खूबसूरती देखते ही बनती है। यह भव्य और आलीशान इमारत भारतीय वैभव का प्रतीक है।
बी. टी. तथा वर्ली- कुर्ला ब्रिज
होटल ताज से निकलकर हम सब लोग पास ही रोड के किनारे बने स्वल्पाहार की दुकान की ओर बढ़े। लगभग दोपहर के तीन बज रहे थे। सभी को जोर की भूख लगी थी। यहां पर सभी ने अपनी अपनी पसंद का नाश्ता किया तथा गरमा गरम चाय ली। पुनः तरोताजगी के साथ हम भ्रमण के लिए निकल पड़े। सड़क पर दौड़ती गाड़ी पर ही चलते चलते केदारे जी ने बच्चों को मुम्बई की झलक दिखाई। मुम्बई नगर पालिका आफिस, बी. टी. स्टेशन, सिद्धार्थ कालेज सहित दिखाते हुए वह वर्ली- कुर्ला ब्रिज पर आ गए। समुद्र के बीच बने इस पुल पर चलना काफी रोमांचक है। समुद्र में उठती विशाल लहरों के बीच ऐसा लगता है कि हम इन्हीं के बीच में हैं। वास्तव में यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी का अद्भुत उदाहरण है। यह पुल वर्ली को कुर्ला से सीधे जोड़ता है।
हाजी अली दरगाह
पुल को पार करने के बाद समुद्र के किनारे चलते चलते हमारी गाड़ी हाजी अली दरगाह के पास आ गई। यहां पर अक्सर बहुत भीड़ रहती है।जब हम लोग वहां पहुंचे तो अपार भीड़ थी। गाड़ी पार्किंग के लिए कहीं भी जगह नहीं मिली। बरसात भी रुक रुक कर हो रही थी। अन्ततः बडे भाई ने निर्णय किया कि यहीं से हाजी अली को सलाम किया जाए, दुवाएं की जाएं तथा मजार तक नहीं पहुंच पाने की मुआफी मांग ली जाए। सभी लोग गाड़ी से बाहर आए तथा अकीदे के साथ सलाम कर दुवा की गई।
हाजी अली की दरगाह मुम्बई आने वाले व्यक्ति के लिए इबादत तथा आकर्षक का केन्द्र है। यह दरगाह समुद्र के बीच में है। समुद्र तट से लगभग 500 से 800 मीटर अंदर। दोपहर दो बजे के बाद ही यहां जाया जा सकता है क्योंकि इससे पहले यहां समुद्र का पानी रास्ता बन्द कर देता है। मुम्बई वासी हाजी अली की दरगाह को बहुत निष्ठा पूर्वक देखते हैं।
यहां से निकलकर वासी ( नवी मुंबई) चलने का निर्णय लिया गया। चूंकि मुम्बई बडा शहर है। आज़ यहां की आबादी ढाई करोड़ से अधिक है।यदि आप मुम्बई के बीच खड़े हो तो दोनों तरफ उत्तर तथा दक्षिण की दूरी लगभग 75 से 100 किलोमीटर एक तरफ है। इसलिए शहर को पार करने में काफी वक्त लगता है। सायं 6 बज रहे थे।वासी पहुंचने में हम लोगों को 2 घंटे का समय लगना था इसलिए रजोले ने तीव्र गति से अपनी गाड़ी दौड़ाई। लगभग 2 घंटे का सफर पूरा कर पुनः हम लोग केदारे जी के आवास पर आए। यहां सभी ने गरमागरम चाय पी।घुमडते और बरसते बादलों के बीच गरम चाय अच्छी लगी।
घाटकोपर में रात्रि विश्राम ( पुष्पा मौर्या के घर पर)
मुम्बई के घाटकोपर इलाके में जनपद रायबरेली के बस्तेपुर निवासी रामकिशोर मौर्य की बेटी पुष्पा मौर्या अपने पति तथा एक छोटे बच्चे के साथ रहती है। अभी एक माह पूर्व ही उन्होंने अपना नया फ्लैट खरीदा है। पुष्पा के पति वहीं टाटा कैंसर शोध संस्थान में टेक्नीशियन के पद पर कार्यरत हैं।आज रात में रुकने का कार्यक्रम यहीं पर था।केदारे जी के आवास से ही पुष्पा के आवास की लोकेशन ली गई तो पता चला कि अभी यहां से वहां तक पहुंचने में एक घंटे का समय लगेगा। हम लोगों ने केदारे जी से आग्रह किया कि वह हमें घाटकोपर जाने वाले मुख्य मार्ग तक पहुंचा दें तो कृपा होगी। शीघ्र ही उन्होंने अपनी गाड़ी निकाली और बेटे को साथ लेकर हमारे साथ चल पड़े।
केदारे जी की गाड़ी आगे आगे चल रही थी। रजोले उन्हीं के पीछे पीछे चल रहे थे। भीड़ में कई बार केदारे जी की गाड़ी नज़र न आने पर घबराहट होने लगती कि कहीं वह मुड़ तो नहीं गए। परंतु शीघ्र ही वह दिख जाती तो सुकून मिलता। गाड़ी न दिखने पर एक बार भाई ने रजोले से कहा कि वह केदारे जी की गाड़ी के आगे पीछे अपनी गाड़ी लगाए रखें। तभी रजोले ने मजाकिया लहजे में मुझसे कहा कि डॉ. साहब आप बताइए कि हम गाड़ी को आगे और पीछे दोनों कैसे लगाएं ? या तो हम आगे होंगे या फिर पीछे। मैंने कहा कि रजोले भाई, क्या तुम मुझे भाई के खिलाफ भड़का तो नहीं रहे ? सभी लोग हंस पड़े।
लगभग आधे घंटे बाद हम लोग एक मुख्य सर्कल पर आ गए जहां से घाटकोपर का सीधा रास्ता जाता था। यहां पर हम सब ने गाड़ी से उतरकर केदारे जी से विदाई ली और आगे की ओर बढ़ चले। सुरेश केदारे जी यहां से वापस लौट गए, अपनी ढेर सारी यादों को हम सब के बीच छोड़कर।रजोले ने गाड़ी आगे बढ़ाई। रास्ता पूछते पूछते हम लोग घाटकोपर आ गए। यहीं मुख्य मार्ग पर पुष्पा के पति मिल गए तथा अपने आवास ले गए। रात्रि के 10 बज गए थे। सभी से मिलकर पुष्पा प्रसन्न हुई। बातें करते करते रात्रि के 11 बज गए। पुष्पा की बातें समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। खाना खाते खाते घड़ी ने 12 का कांटा पार कर दिया। बड़े भाई के साथ मैं भी लेट गया। बाद में अगले दिन पता चला कि संकेत, करन और आरती 4 बजे के आसपास सोए। पुष्पा के साथ उन सभी की बातचीत होती रही।
रजोले, बड़े भाई और मैं प्रातः 7 बजे जग गए। जबकि बच्चे अभी सोये हुए थे। चूंकि आज मुम्बई से वापसी के लिए निकलना था इसलिए ८ बजे बच्चों को भी जगाने का निर्णय लिया गया। प्रातः 9 बजे तक सभी लोग नहा धोकर तैयार हो गये। सभी ने साथ में बैठकर चाय नाश्ता किया।रजोले भी अपने किसी परिचित के यहां जाकर तैयार होकर आ गए। 9 बजकर 30 मिनट पर सभी लोग तैयार होकर नीचे आ गए। पुष्पा का फ्लैट आठवीं मंजिल पर था। गाड़ी पुनः चलने के लिए तैयार। पुष्पा से विदा लेकर 9:35 पर वहां से आगे के लिए हम लोग रवाना हो गए।
पुष्पा मौर्या (संक्षिप्त परिचय)
मैं पुष्पा से लगभग 10 वर्ष बाद मिला था। परंतु ऐसा लगता नहीं था। उसको देखकर पुरानी सारी स्मृतियां मानस पटल पर उभर आईं। मुझे याद आया कि कैसे वह कभी होम्योपैथिक उपचार लोगों को मुफ्त में दिया करती थी। अपने पापा श्री रामकिशोर जी से खूब प्यार से झगड़ती थी। थोड़ा मोटी थी, परंतु बिंदास थी।आज भी उसका वही बिंदास स्वभाव था, उसमें जरा भी परिवर्तन नहीं था।उसको देखकर जब मैंने कहा कि पुष्पा इधर तुम थोड़ा सा दुबली हो गई हो, तो वह खिलखिलाकर हंसने लगी और बोली, सर आप हंसी कर रहे हैं या सच कह रहे हैं। मैंने कहा सच। बम्बई जैसे शहर में पुष्पा के आवभगत तथा मेहमान नवाजी को देखकर दिल भर आया। मैंने कहा, पुष्पा तुम्हारा घर भले ही छोटा हो लेकिन तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है।आम तौर पर जिन लोगों के घर बड़े होते हैं उनके दिल छोटे होते हैं। तभी वह तपाक से बोल पड़ी, सर हमारा घर भी बड़ा है। सचमुच उसका अपनापन देख कर लगता है कि ऐसे लोग कम हैं दुनिया में। खुदा की रहमत हो उस पर।
मुम्बई से वापसी, नासिक में
पुष्पा और उनके परिवार से विदा लेकर हम लोग मुम्बई से वापस आने के लिए निकल पड़े। संकेत और करन ने इंटरनेट को ऑन कर गूगल मैप पर लगाया और रास्ता बताते रहे।इसका फायदा यह हुआ कि शीघ्र ही हमारी गाड़ी मुम्बई- नासिक बाईपास के हाइवे पर आ गई।।तेजी से चलती गाड़ी ने दूर से ही मुम्बई को पार किया। लगभग 12 बजे दिन में हम लोग नासिक आ गए। यहां आकर आरती ने पापा से कहा कि यहां की मार्केट से आकाश के लिए कुछ कपड़े ले लिए जाएं। भाई ने रजोले को बोला कि वह गाड़ी किसी मार्केट में ले चलें।पता करने पर मालूम हुआ कि नासिक की शालीमार मार्केट कपड़ों की अच्छी बाजार है। रजोले ने गाड़ी को वहीं लगाया मुझे और भाई को छोड़कर सभी लोग बाजार देखने चले गए। इस बीच हम दोनों ने चाय पिया। लगभग एक से डेढ़ घंटे बाद रजोले और तीनों बच्चे आ गए। कपड़े पसंद नहीं आए। नासिक से हम लोग आगे रास्ते पर चल पड़े।
रास्ते का विहंगम दृश्य
नासिक से चलकर गाड़ी तीव्र गति से नदियों, पहाड़ों, हरे भरे मैदानों, खेत खलिहानों को पार करती हुई चली जा रही थी। बरसात रुक रुक कर हो रही थी और तेज ठंडी हवाएं चल रही थीं। एक विशाल हरी भरी पहाड़ी के पास रजोले ने गाड़ी रोका। बाहर उतरे तो ठंडी हवाओं से हम लोग ठंडे हो गए। जल्दी जल्दी एक दो पोज फोटो ग्राफी की गई तथा जल्दी ही वापस गाड़ी में बैठ गए। मुम्बई से निकलते वक्त पुष्पा ने पूरी शब्जी बना कर दिया था। यहां बैठ कर उसी भोजन को स्वाद से खाया गया। ठंडे ठंडे मौसम में, पहाड़ों के बीच, हरे भरे मैदान, बरसते हुए बादलों के बीच मजा आ गया।
वहां से आगे चलने पर लगभग 20 से 25 किलोमीटर की यात्रा करने के बाद एक सुसज्जित होटल दिखाई पड़ा। यहां पर रजोले ने गाड़ी रोकी। सभी लोग रिफ्रेश हुए। अन्दर जाकर काफी लिया।भाई ने गरमागरम प्याज़ की पकौड़ी बनवाया। सभी ने उसका लुफ्त उठाया। 40 रुपए प्रति कप काफी तथा 120 रुपए की प्लेट पकौड़ी अच्छी लगी।
इंदौर (रात्रि विश्राम)
चूंकि आज रात्रि विश्राम का कार्यक्रम इंदौर में भाई ने तय किया था, इसलिए अब आगे की यात्रा नान स्टाप करने का फैसला किया गया।रजोले ने गाड़ी को रफ्तार दिया। गाड़ी तीव्र गति से आगे बढ़ने लगी। एक शहर से दूसरा शहर, एक नगर से दूसरा नगर होते हुए रात्रि के 10 बजे इंदौर शहर की सीमा में आ गए। यहां पर भाई जी के परिवार के कुछ सदस्य भी रहते हैं।रात में बाम्बे हास्पिटल के पास उनसे भी मुलाकात हुई।करन,रजोले और संकेत ने प्रयास करके ओयो से होटल बुक किया जो बाम्बे हास्पिटल के पास ही था।होटल न्यू लग्ज़री रॉयल में मात्र 1680 रूपए में दो अच्छे ए. सी. कमरे मिल गए। भाई ने खाने का आर्डर दिया। सबने खाना खाया और सो गए। सबको थकान के कारण गहरी नींद आयी।
दिनांक- 05-07-2017 इंदौर से प्रस्थान
प्रातः 7 बजे के आसपास सभी लोग जग गए। चूंकि पिछली रात सोने से पहले ही भाई ने सबको बोल दिया था कि कल प्रातः 8 से 8:30 के बीच यहां से निकलना है। इसलिए बिना किसी न नुकर के सभी लोग लोग 8 बजे तैयार हो गये। होटल से चेक आउट किया गया और ठीक 8:30 पर वहां से निकल पड़े। अभी गाड़ी रिंग रोड को पार कर ही रही थी कि एक अच्छा सा होटल दिखाई पड़ा।भाई ने रजोले को बोलकर गाड़ी खड़ी करने को कहा। रजोले ने गाड़ी को साइड पर खड़ी किया। यहां सभी ने ताजा पोहा, नमकीन और चाय पिया। अब तक खाए गए पोहे में इसका स्वाद सर्वोत्तम रहा।जितना भी हम संक्षिप्त समय में इंदौर शहर को देख पाए, शहर अच्छा लगा।
भोपाल के भुट्टे तथा कर्क रेखा स्थल
इंदौर से भोपाल की दूरी लगभग 200 किलोमीटर है।रजोले ने तीव्र गति से गाड़ी को चलाया। बिना कहीं रुके हुए लगभग 12 बजे दिन में हम सभी भोपाल आ गए। चूंकि भोपाल रुकने का कार्यक्रम तय नहीं हो पाया था इसलिए बाईपास रूट से चलकर गाड़ी सांची- विदिशा रूट पर आ गई। यहां बाईपास मोड़ पर रुककर सभी ने गरमागरम मक्का के भुट्टों का स्वाद लिया तथा आगे सफ़र में चल पड़े। भोपाल से सांची की दूरी लगभग 40 किलोमीटर है। यहीं बीच के रास्ते में भौगोलिक रूप से कर्क रेखा के गुजरने का स्थान चिन्हित किया गया है। यहां पर रुककर बच्चों ने फोटो ग्राफी की तथा सेल्फी लिया।कर्क रेखा साढ़े तेइस अंश अक्षांश रेखा है जो पूरब से पश्चिम को खींची गई कल्पित रेखा है।कर्क रेखा के पास मौसम गर्म रहता है। इससे निम्न अक्षांश पर आने पर मौसम गर्म तथा सामान्य मिलेगा जबकि इससे ऊपर जाने पर भारत में मौसम सर्द होता जाएगा क्योंकि हिमालय की पर्वत श्रृंखला मिल जाएगी।
सांची का पवित्र स्तूप
हमारा अगला दर्शनीय स्थल सांची का पवित्र स्तूप था। यह मध्य प्रदेश के रायसेन जनपद के सांची कस्बे में स्थित है। इस स्तूप के प्रवेश द्वार पर करन ने सबके लिए प्रवेश का टिकट लिया। गाड़ी को रजोले ने ऊपर ले जाकर पार्किंग में खड़ी किया। कभी ने जाकर पवित्र स्तूप के दर्शन किए। तीन बार माथा टेका। स्तूप की परिक्रमा किया तथा आशीर्वाद लिया। चूंकि यह तीसरा मौका था जब मैं यहां पर आया था इसलिए जितना भी मैं जानता था, बच्चों को बताया। यहीं पास में चैतिय बुद्ध विहार है, वहां भी जाकर सभी ने भगवान बुद्ध की प्रतिमा के समक्ष तीन बार नमन किया। वापस आकर सांची के संग्रहालय का भी अवलोकन किया। सारनाथ के संग्रहालय की भांति यहां पर भी सम्राट अशोक की लाट सुरक्षित है।अंतर सिर्फ यह है कि सारनाथ स्थित अशोक की लाट पालिश युक्त तथा चमकीली है जबकि यहां संग्रहीत लाट पत्थर की है जिस पर पालिश नहीं है।
सांची स्तूप का महात्म्य
सांची स्थिति पवित्र स्तूप आज यूनेस्को द्वारा संरक्षित विश्व धरोहर स्थल है। इसका रख रखाव यूनेस्को द्वारा नियत एजेंसियां करती हैं। सम्राट अशोक ने इस महान स्तूप का निर्माण भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेषों पर करवाया था। बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए यह अति पवित्र तीर्थ स्थल है। यहीं पास में ही विदिशा नगर है। यहां सम्राट अशोक की ससुराल थी।उनकी एक पत्नी राजकुमारी विदिशा यहीं की रहने वाली थी। संघमित्रा और महेन्द्र राजकुमारी विदिशा के ही बच्चे थे। वह एक धनिक सेठ की बेटी थी। स्वाभिमान और सम्मान से जीना उसे प्रिय था। राजसी वैभव से उसे लगाव नहीं था। इसीलिए वह सम्राट अशोक के साथ पाटलिपुत्र कभी नहीं गयी।
राजकुमारी विदिशा ने अपने जीवन के शेष पल बौद्ध भिक्खुनी बन कर बिताया। राजकुमारी विदिशा के आग्रह पर ही सम्राट अशोक ने यहां भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेषों पर स्तूप बनवाया था। जब सम्राट अशोक उज्जयिनी (आज का उज्जैन) के गवर्नर थे तब विदिशा उसी क्षेत्र में आता था। भगवान बुद्ध के दो परम शिष्य मौदगल्यायन तथा सारिपुत्र का स्तूप भी यहां पर है।आज भी सांची के स्तूप तथा खंडहर इस बात के प्रमाण हैं कि कभी इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का कितना अधिक प्रभाव रहा होगा। आज भी यहां अनगिनत स्तूपों के भग्नावशेष बिखरे हुए हैं। विदिशा में असोक के राजमहल के जमींदोज खंडहर हैं।
सांची से निकलते- निकलते दिन के 2 बज गए। रजोले ने गाड़ी को पुनः आगे बढ़ाया। सभी को जोर की भूख लग आई थी। विदिशा शहर को पार कर एक ढाबे पर गाड़ी खड़ी की गई तथा सभी ने खाना खाया।अति अस्त व्यस्त तथा टूटा फूटा ढाबा था।यहां खाने के लिए सिर्फ दाल और रोटी मिली। फिर भूख तो भूख ही होती है। खाना अच्छा लगा।वहां से निकल कर सागर और ललितपुर होते हुए रात्रि के 8 बजे वापस झांसी आ गए।घर में मैम तथा मां जी से मिलकर सभी प्रसन्न हुए। मां जी ने कहा कि आप सब के बिना घर सूना सूना लगता था। सभी लोगों ने रात्रि का भोजन लिया तथा सो गए। रात्रि कब बीत गयी, पता ही नहीं चला।
दिनांक 06-07-2017 ग्वालियर में
सुबह लगभग 7:30 से 8 बजे के आसपास सभी लोग जग गए। क्योंकि रात्रि में नींद अच्छी आई थी इसलिए सुबह ताजगी का एहसास हुआ। आज करन को ग्वालियर छोड़ने जाना था। पहले मेरी जाने की योजना नहीं थी परन्तु रजोले के आग्रह पर भाई ने कहा कि मुझे भी ग्वालियर चलना है। कई दिनों के सफर के कारण गाड़ी गन्दी हो गई थी, इसलिए रजोले करन और संकेत गाड़ी धुलवाने चले गए। इधर मैंने कालेज में हाजिरी लगाई और ग्वालियर के लिए निकल गए। यहां ग्वालियर में करन बी टेक की पढ़ाई आई. टी. एम. यूनिवर्सिटी से कर रहे हैं।उनकी यूनिवर्सिटी में जाकर उनके प्राध्यापक तथा विभागाध्यक्ष से मिले।करन के कमरे गए। यहां सभी ने शब्जी पूरी खायी। दोपहर में ग्वालियर के राजा सिंधिया का महल भी देखा। शाम को वापस झांसी आए। करन ग्वालियर में रुक गए।
झांसी से विदाई
अगले दिन, दिनांक 07-07-2017 को प्रातः 9 बजे, भाई जी, रजोले और आरती को गाड़ी लॉजी समेत भारी मन से विदा किया। देखते ही देखते सभी नजरों से ओझल हो गए। लगभग एक सप्ताह तक साथ रहना, साथ चलना, साथ खाना, साथ घूमना, साथ सोना, बैठकर ढेर सारी बातें करना, जैसे लगा अचानक सपना था।
उपसंहार
आरती की शिरडी साईं के दर्शन की इच्छा, बड़े भाई की सहमति तथा सहयोग और रजोले भाई के साहस ने हम सभी को दिनांक 30 जून 2017 से दिनांक 06 जुलाई 2017 तक लगभग 3,000 किलोमीटर का सफर तय करा दिया। यात्रा बेहद रोमांचक और अनुभवों से परिपूर्ण रही। इस यात्रा ने हमें ग्रामीण भारत से लेकर शहरी इंडिया तक को देखने का सुअवसर प्रदान किया।देश की भौगोलिक विविधता, सामाजिक बहुलता, खान पान और रहन सहन की गंगा जमुनी तहज़ीब, सभी को नजदीक से देखने का मौका मिला। हमारे कितने पुरखे इस मिट्टी में दफ़न हैं। उनकी समाधियों पर जाना तथा उन्हें नमन कर पुष्प अर्पित करने का सौभाग्य हमें इस यात्रा ने प्रदान किया।
निरंतर, अविरल, अनंतकाल से बहती हुई नदियों ने हमारे कितने पूर्वजों की राख को बहाकर समुद्र तक पहुंचाया है। इस यात्रा ने वह रोमांचक अनुभव भी कराया कि निरंतरता और परिवर्तन, जीवन का सत्य रूप है।उन हरे भरे मैदानों को नजदीक से देखने का मौका मिला जो अपनी कोख से अन्न उपजाकर जीवों का भरण-पोषण करते हैं। उन पर्वतों, पठारों, कन्दराओं तथा गुफाओं के नजदीक से गुजरने का मौका मिला जो अनादिकाल से योगियों की तप तथा साधना की भूमि रही है।
उदारीकरण और निजीकरण का क्या मिला जुला प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ा है, इसका भी ज्ञान मिला। मुम्बई की गगनचुंबी इमारतें, बड़े बड़े ब्रिज, फोरलेन की चौड़ी चौड़ी सड़कें बदलते भारत की तस्वीर हैं।
बड़े भाई श्री कृष्ण कुमार मौर्य
इस सम्पूर्ण यात्रा का श्रेय जनपद रायबरेली में कृष्णा होटल के प्रबंधक, बड़े भाई श्री कृष्ण कुमार मौर्य जी को जाता है जिनकी अनुकम्पा और सम्बल से यह यात्रा पूर्ण हो सकी। बड़े भाई के दिल में स्नेह, मैत्री और करुणा का अपार और अक्षय स्रोत है।कोई अपरिचित भी उनके नजदीक जाने पर अपनापन अनुभव करता है। उनका प्यार सबके लिए है, उनमे से किसी एक के लिए नहीं। जीवन में यात्रा करते हुए वह ऐसे यात्री हैं जिनके मार्ग में आने वाला हर व्यक्ति उन्हें प्रिय है।साफ सुथरे दिल के लोगों से उन्हें बेहद लगाव है। मुझे अपने जीवन में ऐसे इंसान कम मिले हैं जिन्होंने मुझ पर अपनी साफ दिली का इतना प्रभाव छोड़ा हो।
रजोले भाई
गाड़ी चलाने की जिम्मेदारी सम्भाले रजोले भाई भी जनपद रायबरेली के मूल निवासी हैं। बड़े भाई को जब कभी लम्बी यात्रा पर जाना होता है तो ड्राइवर रजोले ही होते हैं। हमारी इस यात्रा के वह अहम किरदार थे क्योंकि ड्राइवर के साथ वह हमारे लिए गाइड की भी भूमिका में थे। रजोले भाई चलते- फिरते ज्ञान कोष हैं। उनसे किसी भी विषय पर लम्बी बात की जा सकती है। तर्क करने में बड़े बड़े धुरंधर उनसे मात खा जाते हैं। रजोले भाई का चलती गाड़ी में गेट खोलकर पुड़िया का पीच बाहर थूकना दिमाग से निकलता ही नहीं है। अधिक बोलने के कारण कभी-कभी उन्हें भाई की डाट भी पड़ती थी, लेकिन रजोले ने उसे कभी बुरा नहीं माना। व्यक्तिगत रूप से रजोले का जीवन साफ सुथरा है। हिम्मत तो इस कदर कि आप बोलिए तो पहाड़ पर गाड़ी चला दे, समुद्र में उतार दे या आकाश मार्ग पर उड़ा दे। रजोले के साथ अगली यात्रा का इंतजार रहेगा।
आरती, करन और संकेत
यात्रा के तीन और सहयात्री बड़े भाई श्री के. के. मौर्य की प्रिय बेटी आरती मौर्या, बेटा करन मौर्य और मेरा बेटा संकेत सौरभ थे। आरती हमारी इस यात्रा की अहम किरदार थीं। इस यात्रा को कराने में उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पूरी यात्रा में उनका परिपक्व व्यक्तित्व नज़र आया। बड़ी शालीनता और गरिमा के साथ सबके साथ उन्होंने अपनी मजबूती का परिचय दिया। कहीं भी, किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं किया।करन भी पूरी यात्रा में सक्रिय रहे। जो भी जिम्मेदारी उन्हें मिलती, वह पूरी लगन और निष्ठा से उसे निभाते। आनाकानी करना शायद उन्होंने सीखा ही नहीं। संकेत, खाने पीने तथा सुबह जगने में थोड़ा लापरवाह हैं जिसके कारण उन्हें भाई की झिड़की पड़ जाती थी। यात्रा के वापस मार्ग में उन्होंने कहीं लापरवाही नहीं दिखाई। गूगल के माध्यम से रास्ता बताने तथा होटल बुक करने में उनकी अहम भूमिका रही।
अन्ततः
उस निर्जीव प्राणी के प्रति लिखना भी आवश्यक है जिसने इतनी लम्बी दूरी की यात्रा करायी। वह थी- Renault Logy, UP- 33- AR- 7777 । पूरे सम्मान के साथ उसे सेल्यूट। पूरे सफर में वही हम सबका आशियाना था। उसी में खाना, उसी में झपकी के साथ सोना था। तेज रफ्तार के साथ उसने खेत खलिहानों, ऊंचे नीचे पहाड़ों, समतल मैदानों, धूप, बारिश, सर्दी सभी को झेला और हम सबको सुरक्षित मंजिल तक पहुंचाया। इस यात्रा में मैम ( मेरी धर्म पत्नी) का साथ न होने का अधूरापन कई बार याद आया।
(आज दिनांक 05 जून 2021 दिन शनिवार, स्थान- आवास नम्बर 02, शिक्षक आवासीय कालोनी, बुंदेलखंड कालेज कैम्पस, झांसी, उत्तर प्रदेश, को जब मैं यह यात्रा विवरण लिख कर पूरा कर रहा हूं तो उक्त यात्रा को लगभग 4 वर्ष बीत रहे हैं। आरती अपनी पढ़ाई में एम.एस. सी कर चुकी हैं। करन बी. टेक. करके इंजीनियर हो गए हैं तथा संकेत सौरभ मेडिकल की पढ़ाई (एम.बी.बी.एस.) के तीन वर्ष कम्पलीट कर चुके हैं। मैं, भाई और रजोले जहां पहले थे वहीं हैं।)
सादर प्रणाम गुरु जी 🙏🙏🙏 लगभग2500 किमी की यात्रा को आपने इतने सरल,सटीक शब्दों में संजोया, की पढ़कर मन प्रफुल्लित हो गया। आपका अन्दाज नायाब है सर, क्या गज़ब की लेखनी है सर आपकी। सर आपने मेरे नाम का भी उल्लेख किया सर जब मैं नासिक में था और आपसे मिलने आया था,बल्कि यू कहे कि आपका आशीर्वाद लेने आया था सर।
प्यार और मुहब्बत की लिए तहे दिल से शुक्रिया आपका।आप सब के स्नेह के दिल का खजाना भर जाता है।
अत्यंत सुंदर और मनोहर यात्रा का सजीव चित्रण किया है sir। इस व्रतांत के बिम्बों को प्रत्यक्ष देखने के लिए प्रत्येक पाठक लालायित होता है, मैं भी इस अधिकार को नही छोड़ सका हूँ।
सुन्दर और उत्साह वर्धक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, राजा।
नमस्ते अच्छा है
धन्यवाद आपको डॉ साहब
अच्छा यात्रा वर्णन है पुरा सजीव लगता है
बहुत बहुत धन्यवाद आपको सर।
Dr Raj Bahadur Maurya ji yatravrintant ati sundar, gyanavardhak aur ruchikar tha. Dhanyavaad
सुन्दर टिप्पणी के लिए आपको भी बहुत बहुत धन्यवाद डॉ साहब
विस्तृत और भावपूर्ण कथ्य। ये यात्रा वृतांत आपके यात्रा के प्रति प्रेम और आपके सुलझे हुए व्यक्तित्व की ही अभिव्यक्ति करता है।
आपकी टिप्पणी प्रेरणा देती है, मुझे। धन्यवाद आपको डॉ साहब