- डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कॉलेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya@gmail.com, website: themahamaya.com
यात्राओं का महत्व : “दार्शनिक शब्दों में, ‘जीवन एक यात्रा है’ भौतिक और सांसारिक जीवन में यात्राएं इंसानों को अनेकता में एकता का बोध कराती हैं । नए दोस्त, नया परिवेश, नया अनुभव, नया खानपान, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और नेतृत्व क्षमता का विकास यात्राओं के माध्यम से ही होता है । भ्रम, भ्रमण से ही दूर होता है अर्थात् यात्राएं पूर्वाग्रहों और निराशा को कम करती हैं । यात्राएँ हमें समाज के अन्य विभिन्न दृष्टिकोणों और तरीक़ों के प्रति सराहना, समझ और सम्मान देती हैं । यात्राएँ हमें प्रकृति के नज़दीक ले जाकर नई सभ्यता, नई संस्कृति तथा मानवीय जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं से परिचित कराती हैं । हमें यह एहसास और ज्ञान भी होता है कि ख़ुशी और ग़म की एक दुनिया उनसे बाहर भी बसती है । अन्ततः यात्राओं के माध्यम से हम जान पाते हैं कि दुनिया बहुत ख़ूबसूरत है और यहाँ पर सीखने, समझने, लिखने, प्रशंसा करने और संजोने के लिए बहुत कुछ है… सचमुच अनन्त, अविराम और अविरल..!


यात्रियों का परिचय : डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, बुंदेलखंड कॉलेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश), श्रीमती कमलेश मौर्या (मैम), मिशनरी कार्यकर्ता, बहुजन आन्दोलन, झाँसी (उत्तर- प्रदेश), इंजीनियर सपना मौर्या, साफ्टवेयर इंजीनियर, गुड़गांव (हरियाणा), डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली, अरबाज़ खान उर्फ़ राजा, मालिक एवं चालक (इनोवा क्रिस्टा) झाँसी (उत्तर- प्रदेश)
भूमिका : मई, 2010 ई. में बुंदेलखंड कॉलेज झाँसी में बतौर असिस्टेंट प्रोफ़ेसर पद पर पदस्थ होने के बाद, उसी वर्ष नवम्बर में मैंने सपरिवार, बड़े भाई और कृष्णा होटल के मालिक, जनपद रायबरेली निवासी श्री के. के. मौर्य जी के साथ बोधगया (बिहार) की यात्रा किया था । तब से लेकर लगभग 14 वर्षों तक भगवान बुद्ध की तपोभूमि बोधगया जाने का सुअवसर तथा सौभाग्य नहीं मिला । अनेकों प्रकार के बहाने और व्यस्तताओं का हवाला मनोमस्तिष्क देता रहा । देश के विभिन्न हिस्सों में जाते रहने के बावजूद बोधगया जाने का विचार हमेशा आता रहा । इस बीच लुम्बिनी, कुशीनगर, सारनाथ, सांची और तीन बार मुम्बई जाने का अवसर मिलने के बावजूद भी हमेशा बोधगया न पहुँच पाने की कशिश दिल में बनी रही । इसी बीच दिनांक 15 अगस्त, 2025 को जन्माष्टमी के मौक़े पर दिल्ली जाने का कार्यक्रम बन गया । चूँकि बेटी इंजीनियर सपना मौर्या गुड़गांव में रहती है और वहीं एक मल्टीनेशनल कम्पनी में साफ्टवेयर इंजीनियर है इसलिए रूकना वहीं पर रहता है । इस बार सड़क मार्ग से, झाँसी से चलते समय बेटा संकेत सौरभ, पत्नी श्रीमती कमलेश मौर्या भी साथ थे । कॉलेज में राजनीति विज्ञान विभाग के मेरे साथी प्रोफेसर अनुराग सिंह की धर्मपत्नी मथुरा के एक कॉलेज में प्रोफ़ेसर हैं इसलिए मथुरा तक वह भी साथ में गये । शाम को हम लोग गुड़गांव पहुँच गये तथा रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन दिनांक 16 अगस्त को एक संक्षिप्त पारिवारिक कार्यक्रम को निबटाया । पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से निवृत्त होकर जब शाम को हम सब एक साथ बेटी के गुड़गांव स्थित आवास पर बैठे तब यह चर्चा शुरू की गयी कि अगली बिहार यात्रा कब किया जाए । काफ़ी विचार- विमर्श और आपसी बातचीत के बाद यह तय किया गया कि अगले महीने यानी सितम्बर में पड़ने वाले नवरात्रि के अवसर पर यात्रा का कार्यक्रम रखा जाएगा । परन्तु छुट्टियों की सही अवधि न पता होने के कारण तारीख़ तय नहीं हो सकी । अगले दिन यानी 17 अगस्त, 2025 को मैंने दिल्ली से झाँसी की वापसी की ।
इस बीच हम सभी लोग आपस में बातचीत करते रहे । चूँकि समय कम था और आगे की यात्रा की तैयारी करनी थी इसलिए यात्रा शुरू करने की सम्भावित तारीख़ 24 सितम्बर, 2025 तय की गयी । पहले बेटी सपना और बेटे डॉ. संकेत सौरभ ने हवाई जहाज़ से सीधे गया (बिहार) पहुँचने का निश्चय किया और हम पति- पत्नी ने ट्रेन यात्रा के बारे में सोचा । लेकिन अधिक से अधिक स्थानों का भ्रमण करना सड़क मार्ग से ही सम्भव था इसलिए अन्ततः राय बनी कि यात्रा सड़क मार्ग से किया जाए । गाड़ी के लिए राजा (ड्राइवर) से बात की गयी और वह चलने के लिए तैयार हो गये । सपना और संकेत दोनों लोग 22 तारीख़ को दिल्ली से बंदे भारत ट्रेन से चलकर शाम को झाँसी आ गये । अगले दिन यानी 23 तारीख़ को बच्चों ने मिलकर यात्रा की पूरी तैयारी कर लिया । रुकने, खाने और घूमने तथा वापसी का पूरा सुव्यवस्थित इंतज़ाम कर लिया । दोपहर में राजा को बुलाकर सभी कुछ बता और समझा दिया गया तथा अगले दिन प्रातः 9 बजे निकलने का निर्णय लिया गया । मैंने कॉलेज से अपनी छुट्टी स्वीकृत करा लिया । देर रात तक मैम (पत्नी श्रीमती कमलेश मौर्या) ने हर एक चीज को सुव्यवस्थित कर सभी बैग, दवा, कपड़े, कुछ स्वल्पाहार का सामान इत्यादि पैक कर लिया तथा बच्चों को ज़रूरी हिदायत दिया । यह सब करते रात्रि के लगभग 1 बजे सभी लोग सोए।
पहला दिन, दिनांक : 24-09-2025, झाँसी से रायबरेली अगले दिन यानी 24 तारीख़ को डाक्टर संकेत सौरभ को छोड़कर बाक़ी सभी लोग सुबह के 7 बजे तक जग गए । सभी ने दैनिक दिनचर्या से निवृत्त हो सुबह का नाश्ता किया और मैन ने साथ में ले चलने के लिए मीठी पूरी बनायी तथा आज के लिए आलू के पराठे व गरमा गरम चाय भी तैयार कर पैक कर लिया लिया । मैं सुबह तैयार होकर कॉलेज चला गया और सुबह की अपनी क्लास पढ़ाई । राजा अपने समय के अनुसार गाड़ी लेकर आ गये और एक- एक करके सुव्यवस्थित तरीक़े से सारा सामान गाड़ी में रखा । इस बीच संकेत भी जगकर तैयार हो गए । लगभग 11 बजे हम लोग एक साथ गाड़ी में बैठे और अपनी चिरप्रतीक्षित बिहार यात्रा के लिए झाँसी से रवाना हुए । अपने सरकारी आवास, संख्या -2, सिविल लाइन, झाँसी से निकलकर बीकेडी चौराहा पार किया और ग्वालियर रोड पर स्थित, कुशवाहा जी की सब्ज़ी की दुकान से ताजे खीरे लिए गए । चंद कदम आगे चलकर मिशन गेट पर स्थित यादव मिष्ठान भंडार से माता जी के लिए स्वादिष्ट बालूशाही लिया गया और गाड़ी का गेट बन्द कर सभी चल पड़े । राजा ने गाड़ी को रफ़्तार दी और देखते ही देखते गाड़ी ने झाँसी शहर को पार किया और राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- 27 पर आ गयी । लगभग एक घंटे की सफ़र तय करने के बाद सभी को कुछ खाने की इच्छा हुई । राजा ने सड़क के किनारे एक पेड़ की छाँव के नीचे गाड़ी खड़ी किया और मैम ने घर से पैक किया हुआ नाश्ता सभी को खिलाया । लगभग आधे घंटे रुकने के बाद पुनः हम आगे बढ़े । क़रीब एक बजे के आसपास गाड़ी जनपद जालौन के अंतर्गत आने वाले उरई क़स्बे के होटल गोविन्दम् को पार किया । झाँसी, ललितपुर तथा चित्रकूट से लखनऊ की ओर जाने वाली ज़्यादातर गाड़ियॉं यहीं पर रुकती हैं और यात्री भोजन तथा स्वल्पाहार करते हैं । यहाँ नहाने-धोने से विश्राम करने तक की सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं । इसके आगे जालौन जिला में आने वाला ऐतिहासिक कालपी शहर पड़ता है । पौराणिक कथाओं में कालपी को वेदों की रचना का स्थान माना जाता है और इसे धरती का मेरुदंड माना जाता है । कालपी क़स्बे के उत्तरी छोर से यमुना नदी बहती है और यहीं से बुंदेलखंड की उत्तरी सीमा समाप्त हो जाती है । यमुना नदी और गंगा नदी के बीच के क्षेत्र को दोआब कहा जाता है । यह खूब उपजाऊ भूमि है । इसके आगे लगभग एक घंटे के तीव्र गामी सफ़र के बाद हमारी गाड़ी ने कानपुर शहर को पार किया और गंगा नदी के ब्रिज पर पहुँच गयी ।

गंगा नदी को पार कर हमारी गाड़ी एक सड़क के बायीं तरफ़ स्थित एक सुसज्जित होटल में रुकी और यहीं पर हम सब ने दोपहर का स्वादिष्ट खाना खाया । दिन के लगभग तीन बज गए थे । लंच करने के बाद पुनः गाड़ी ने अपना आगे का रास्ता पकड़ा तथा उन्नाव- लालगंज रोड, राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 232A पर बिना रुके, लगभग दो घंटे के सफ़र के बाद जनपद रायबरेली के लालगंज बैसवारा क़स्बे पहुँच गयी । यहाँ से लगभग पन्द्रह किलोमीटर पूरब चलने पर मुराई का बाग क़स्बा पड़ता है । इसे सामान्यतया प्रचलित रूप से डलमऊ क़स्बे के नाम से जाना जाता है । यह क़स्बा गंगा नदी के उत्तरी तट पर स्थित है । यहाँ का नज़दीकी रेलवे स्टेशन डलमऊ के नाम से जाना जाता है जबकि यह मुराई का बाग़ क़स्बे में स्थित है । मेरे एक प्रिय श्री रोहित सिंह, जो इंटर कॉलेज में प्रवक्ता हैं तथा उनकी पत्नी प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक हैं, सपरिवार यहीं सलोन रोड पर रहते हैं । इस बार उनके यहाँ भी जाना हुआ । उनकी पत्नी ने गर्मागर्म चाय पिलाई जिससे सबकी थकान दूर हो गयी । निजी तौर पर रोहित सिंह बहुत सहज, सरल और विद्वान प्राध्यापक हैं । राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- पर प्रयागराज रोड पर स्थित इस रेलवे स्टेशन के समीप मेरी एक मार्केट बनी हुई है । यहीं पर हम लोग रुके । मुराई का बाग क़स्बे से ठीक पूर्व दिशा में राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- चलने पर मेरा जन्मस्थान है । सायंकाल लगभग आठ बजे मैं सपरिवार अपने पैतृक गाँव- बभन पुरवा, पोस्ट- जलाल पुर धई, परगना व तहसील डलमऊ जनपद रायबरेली पहुँच गया । यहाँ बच्चों सहित माँ से मुलाक़ात हुई और कुशल क्षेम हुआ । घर के पिछले हिस्से में पिताजी के अस्थि कलश पर स्तूप का निर्माण हुआ है । बच्चों और पत्नी के साथ जाकर हम सब ने वहाँ पर माथा टेका और पिताजी का आशीर्वाद लिया । यहीं पर रात्रि विश्राम किया । इस प्रकार पहले दिन हम लोगों ने लगभग चार सौ किलोमीटर की यात्रा किया ।
यात्रा का दूसरा दिन, दिनांक : 25-09-2025 बीती रात ही यह तय हुआ था कि कल यानी अगले दिन प्रातः छह बजे तक आगे के सफ़र के लिए निकल जाना है । इसलिए सभी लोग सुबह पाँच बजे ही जग गए । माँ ने सुबह ही सभी को गर्मागर्म चाय पिलाई और दिन के खाने के लिए पूरी और सब्ज़ी तैयार कर दिया । सभी लोग निश्चित समय पर तैयार हो गए और माँ का आशीर्वाद लेकर, सुबह छह बजने से पहले ही हम सब यात्रा के लिए निकल पड़े । पुनः हमारी गाड़ी घर से निकल कर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- 30 पर आ गयी । गाँव से लगभग पन्द्रह किलोमीटर पूर्व दिशा में सफ़र करने पर एक छोटा सा क़स्बा जमुना पुर चौराहा पड़ता है । यहीं पर बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी से समाजशास्त्र में पीएचडी कर रहे दिलीप कुमार मौर्य अपनी पत्नी के साथ मिलने आये । उनके साथ उनकी एक छोटी बेटी भी थी । दिलीप कुमार मौर्य ने हम लोगों को यात्रा की शुभकामनाएँ दिया और साथ ही एक पैकेट नमकीन और आधा किलो मीठा भी भेंट किया ।

यहाँ से चलकर लगभग तीन घंटे के तीव्रगामी सफ़र के बाद, प्रयागराज बाईपास होकर हम लोग हंडिया टोल प्लाजा पर पहुँच गए । यहाँ टोल प्लाजा पर खाने- पीने की और टॉयलेट की सुविधा थी । राजा ने गाड़ी लगाई और सभी लोगों ने दो- दो पूरी खाई और चाय पिया तथा आगे की ओर बढ़े । अब हमारी गाड़ी प्रयागराज- वाराणसी मार्ग संख्या- 19 पर आ गई थी । तेज चलती हुई गाड़ी ने वाराणसी को बाईपास रोड से क्रास किया । देखते ही देखते प्रयागराज को पार कर हम लोग जनपद चंदौली पहुँच गए । यहाँ पर भी कहीं रुकने की कोई योजना नहीं थी इसलिए निरंतर चलती हुई हमारी गाड़ी बिहार सीमा में प्रवेश कर सासाराम पहुँच गयी । सभी लोगों की इच्छा थी और अभी पूरा समय भी था इसलिए हम लोग राष्ट्रीय राजमार्ग से उतरकर सासाराम क़स्बे की ओर मुड़ गये । सासाराम छोटा लेकिन साफ़- सुथरा और सुन्दर क़स्बा है जो अब नगर निगम है । ऐतिहासिक रूप से सासाराम शेरशाह सूरी की मज़ार के लिए प्रसिद्ध है । हमारा भी पहला पड़ाव वहीं पर है । शेरशाह सूरी की दरगाह के सामने सड़क के दूसरी ओर गाड़ी पार्किंग और जलपान तथा शौचालय की अच्छी व्यवस्था है । राजा ने यहीं पर गाड़ी पार्क किया और टिकट लेकर हम लोग शेरशाह के मक़बरे को देखने चले गए । दिन के लगभग एक बज गए थे । धूप तेज थी ।
शेरशाह सूरी का मक़बरा अब भारत सरकार के पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अन्तर्गत है । शेरशाह सूरी को भारत में सूरी साम्राज्य के संस्थापक के रूप में जाना जाता है । उसने 1540 में मुग़ल साम्राज्य की बागडोर सँभाली । 13 मई, 1545 में उत्तर- प्रदेश के बांदा ज़िले में स्थित कालिंजर के क़िले में एक विस्फोट में उसकी मृत्यु हो गई थी । लेकिन उसे उसकी इच्छा के अनुरूप सासाराम में ही दफ़नाया गया । सासाराम शेरशाह सूरी के साम्राज्य की राजधानी थी ।यह मक़बरा एक कृत्रिम झील के बीच बलुआ पत्थर से एक ठोस और चौकोर चबूतरे पर बनाया गया है और स्थानीय रूप से इसे पानी रोज़ा के नाम से जाना जाता है । यह अष्टकोणीय इमारत है जो तीन मंजिल के बराबर 122 फ़ीट ऊँची है । केवल पश्चिमी भाग को छोड़कर इस इमारत में प्रवेश द्वार सभी तरफ़ से है । अपने निर्माण के समय भारत का यह सबसे बड़ा मक़बरा था । यह इंडो- इस्लामिक वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है । जीवन में पहली बार मुझे सपरिवार इस वास्तुकला के दीदार करने का मौक़ा मिला ।



यहाँ पर हम लोग एक घंटे रहे तत्पश्चात् शहर से निकलकर राष्ट्रीय राजमार्ग पर पहुँचे और यहाँ पर स्थित ग्रैण्ड प्लाजा रेस्टोरेंट नामक एक ढाबे पर दोपहर का खाना खाया गया । यद्यपि खाना मिलने में काफ़ी देर लगी लेकिन भोजन स्वादिष्ट था और आसपास कोई दूसरा होटल भी नहीं था । पुनः यहाँ से चलकर लगभग पाँच बजे हमारी गाड़ी, डेहरी ऑन सोन और प्रसिद्ध सोन नदी को पार करती हुई औरंगाबाद जनपद पहुँच गयी । डेहरी, रोहतास जनपद में आती है । औरंगाबाद में हमारा रुकने का ठिकाना होटल राज रेजीडेन्सी में था । तक़रीबन छह बजे होटल में चेक इन करके हम लोग कमरों में पहुँच गए । सभी ने गर्मागर्म चाय पी और सो गए । रात लगभग नौ बजे सभी ने डिनर किया । क्योंकि सब लोग थके हुए थे इसलिए शाम को कहीं बाहर नहीं गए । दूसरे दिन भी हम लोगों ने लगभग चार सौ किलोमीटर की यात्रा तय किया । बिहार के पूर्वी चंपारन और गया जिले से अलग करके औरंगाबाद जिले की स्थापना 1972 में हुई थी । 11 विकास खंडों में बंटे औरंगाबाद जनपद की जनसंख्या लगभग 25 लाख से ज़्यादा है । यह मगध अंचल के अंतर्गत आता है । यहाँ पर हिन्दी और मागधी भाषा बोली जाती है। औरंगाबाद शहर के बीचोंबीच स्थित रमेश चौक यहाँ का सबसे प्रसिद्ध स्थान है । यहाँ का नज़दीकी रेलवे स्टेशन डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा के नाम से प्रसिद्ध है । लिट्टी चोखा यहाँ का प्रमुख व्यंजन है । ध्यान रखें यदि आप बाहर से औरंगाबाद जा रहे हैं तो 9 से 10 बजे के बीच रात्रि का भोजन ले लें क्योंकि इसके बाद शहर लगभग बंद हो जाता है ।
बोधगया की यात्रा, दिनांक : 26-09-2025 पिछले दो दिनों की लगातार यात्रा और भ्रमण के कारण सभी लोग सुबह देर से जगे । सुबह आठ बजे के क़रीब सभी ने होटल में सुबह की चाय पी और दैनिक दिनचर्या से निवृत्त होकर लगभग दस बजे तक बोधगया चलने के लिए तैयार हो गए । औरंगाबाद से बोधगया की दूरी मात्र अस्सी किलोमीटर है इसलिए कोई जल्दबाज़ी नहीं थी । बहरहाल दस बजे के आसपास हम लोग भगवान् बुद्ध की तपोभूमि बोधगया के लिए रवाना हुए । मैने देखा कि पिछले पन्द्रह वर्षों पहले और आज की तारीख़ में यहाँ बहुत बदलाव आ गया है । औरंगाबाद शहर से लगभग साठ किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- 19 चलने पर एक क़स्बा डोभी आता है । यहीं डोभी में बाएं मुड़कर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- 22 पर लगभग बीस किलोमीटर चलने पर बोधगया आता है । चूँकि डोभी में क्रासिंग के कारण ओवरब्रिज बना हुआ है इसलिए गाड़ी को पहले से ही बाएँ लेना पड़ता है ।


जब पन्द्रह साल पहले मैं यहाँ पर आया था तो डोभी से लेकर बोधगया जाने तक की सड़क वीरान हुआ करती थी और जगह- जगह पर पुलिस तथा केन्द्रीय सैनिक बल तैनात रहते थे । लेकिन इस बार का नज़ारा पूरी तरह से बदला हुआ दिखाई दिया । अब न तो वहाँ कोई पुलिस बल था और न ही कोई अर्धसैनिक बल और न ही किसी प्रकार का डर बल्कि सड़क के दोनों तरफ़ दुकानें बन गयी हैं । डोभी से बोधगया के बीच इसी रास्ते पर सड़क से लगी हुई मगध युनिवर्सिटी बनी हुई है । ऐतिहासिक मगध विश्वविद्यालय की स्थापना 1 मार्च, 1962 को हुई थी । यहाँ पर स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, मानविकी और वाणिज्य जैसे पारम्परिक विषयों के साथ ही पत्रकारिता और जनसंचार, जैव रसायन, इलेक्ट्रॉनिक्स, पर्यावरण विज्ञान, पुस्तकालय विज्ञान, महिला अध्ययन, होटल प्रबंधन, योग शिक्षा, विदेशी भाषा और फिजियोथेरेपी जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में पढ़ाई होती है । मगध विश्वविद्यालय के मुख्य गेट से चंद कदम आगे बढ़ते ही बोधगया के लिए दाहिने हाथ मुडना पड़ता है और लगभग दो किलोमीटर चलने पर बोधगया का मुख्य मंदिर आ जाता है ।
पवित्र तीर्थ स्थल बोधगया…पूरी दुनिया के बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए बोधगया एक पवित्र तीर्थ स्थल है जो अब गया जनपद में आता है । बौद्ध धर्म के अनुयायी यहाँ पर आकर अपने आप को धन्य मानते हैं । यहीं पर वह पवित्र स्थान और बोधिवृक्ष है जहाँ कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के सुपुत्र सिद्धार्थ गौतम ने आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व सम्यक सम्बोधि प्राप्त की थी जिसके बाद वे बुद्ध कहलाये । इस स्थान का प्राचीन नाम उरुवेला था और यह निरंजना नदी के किनारे स्थित था । वर्ष 2002 में यूनेस्को द्वारा इस महाबोधि मंदिर और बोधिवृक्ष को विश्व विरासत स्थल घोषित किया है । आज निरंजना नदी को फल्गु नदी के नाम से जाना जाता है । बोधि प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध ने वहाँ पर सात सप्ताह अलग-अलग जगहों पर ध्यान करते हुए बिताया था उन सभी स्थानों पर सम्राट अशोक ने उन्हें चिन्हित कर पवित्रता के साथ ढंक दिया था । सम्राट अशोक ने अपने जीवन काल में, बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के 250 साल बाद यहाँ की यात्रा की थी और सुन्दर महाबोधि महाविहार का निर्माण करवाया था । बोधिवृक्ष के पास ही सम्राट अशोक ने हीरों का सिंहासन बनवाया था जो आज भी वहाँ विद्यमान है और सम्राट अशोक के द्वारा भगवान बुद्ध को प्रदान किए गए सम्मान का प्रतीक है । सम्राट अशोक ने इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था । आज का बोधिवृक्ष उसी बोधिवृक्ष की पाँचवीं पीढ़ी है जिसके नीचे बैठकर बुद्ध ने सम्बोधि हासिल की थी । स्वयं बुद्ध ने इस बोधिवृक्ष को सहोदर भाई कहा था । इसलिए आज भी इसे वही स्थान दिया जाता है जो तथागत बुद्ध के समय था । यहाँ अशोक ने विशाल स्तम्भ भी बनवाया था जो आज भी मौजूद हैं । यहीं पर सम्राट अशोक के द्वारा भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिह्न अंकित कराए थे जो आज भी दर्शनीय हैं । ध्यान रहे कि जम्बूद्वीप के शासक सम्राट अशोक बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 218 साल बाद पैदा हुए थे । यह जानकारी बोधगया में स्थापित बर्मी अभिलेख से मिलती है । 1883 में अलेक्जेंडर कनिंघम ने इस स्थान की खोज कर वहाँ पर खुदाई करवाई जिसके परिणामस्वरूप महाबोधि मंदिर का पता चला । कालांतर में मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया ।


मंदिर के अंदर भगवान बुद्ध की पद्मासन मुद्रा में विराजमान बहुत बड़ी मूर्ति है । यह मूर्ति ठीक उसी स्थान पर स्थापित है जहाँ बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था । लगभग 15 वर्षों के बाद मुझे सपरिवार इस पावन और पवित्र स्थान पर दर्शन करने, मत्था टेकने और भगवान् तथागत बुद्ध के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ । पत्नी श्रीमती कमलेश मौर्या, बेटी इंजीनियर सपना मौर्या और बेटे डॉ. संकेत सौरभ ने बड़ी श्रद्धा और विनीत भाव से भगवान् तथागत बुद्ध को तीन बार माथा टेककर प्रणाम किया और जीवन में मिली अब तक की सफलता व उपलब्धियों के लिए उनका सत- सत आभार व्यक्त किया । हम सभी ने अपने परिवारजनों, मित्रों, शुभचिंतकों के लिए तथागत बुद्ध से दुआ की । झाँसी से चलते समय बुंदेलखंड कॉलेज के हमारे प्राध्यापक साथियों प्रोफेसर ज्योति वर्मा, प्रोफेसर बृजेन्द्र सिंह बौद्ध, डॉ. अनिरुद्ध गोयल, डॉ. रामनारायण, डॉ. अरुण कुमार ने मुझे भगवान् बुद्ध की सेवा में समर्पित करने के लिए मुद्रा दान किया था । मैंने ससम्मान उस दान को तथागत के चरणों में अर्पित किया और भगवान बुद्ध से उन सभी लोगों के लिए मंगलकामना किया । झाँसी में मेरे घर की सहयोगी श्रीमती अनीता का दिया गया दान भी मैंने भगवान् को अर्पित किया तथा समाज और देश की एकता, अखंडता, सद्भाव, भाईचारे, प्रेम, के साथ ही उनके लिए ख़ुशहाली और अमन की कामना की । मन बुद्ध की करुणा और प्रेम से भर गया । ऐसा लगा जैसे जीवन धन्य हो गया । सचमुच पवित्र स्थानों की यात्रा बिना पुण्य प्रभाव के सम्भव नहीं होती । वहाँ से वापस चलकर हम लोग पुनः औरंगाबाद स्थित अपने होटल राज रेजीडेन्सी पर आ गए और यहीं पर रात्रि विश्राम किया ।


दिनांक 27-09-2025 को औरंगाबाद में स्थानीय स्तर पर भ्रमण का कार्यक्रम रखा गया । प्रातः 10 बजे तैयार होकर हम लोगों ने होटल से निकलकर औरंगाबाद महानगर का भ्रमण किया । औरंगाबाद शहर साफ़- सुथरा दिखा । जैसे- जैसे दिन चढ़ता गया बाज़ार में भीड़ बढ़ गयी । भ्रमण के दौरान यह भी पता चला कि पहले राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या – 19 (जी.टी रोड) शहर के बीचोंबीच से गुजरता था लेकिन अब बाईपास बना दिया गया है । इससे शहर के अंदर भारी वाहनों की आवाजाही कम हो गई है । शहर में हरी और ताजी सब्ज़ियों की खूब उपलब्धता रहती है । मैने लगातार खूब देशी खीरा ख़रीदा और खाया । फल और मिठाई की दुकानें भी खूब नज़र आईं । शहर से निकलकर हमारी गाड़ी ने गाँव का रुख़ किया । शहर से लगे हुए लगभग 5 किलोमीटर के दायरे में आने वाले ग्रामीण अंचलों को हम सब ने नज़दीक से देखा और वहाँ रहने वाले ग्रामीणों से मिलकर गाँव के बारे में जानकारी ली । चूँकि इस सीज़न में चारों तरफ़ धान की लहलहाती हुई फसलें थीं इसलिए गाँवों का दृश्य बहुत सुन्दर दिख रहा था । उत्तर प्रदेश की तरह ही यहाँ भी गाँव के विकास के लिए गाँव के लोग चुनाव के माध्यम से अपने एक मुखिया का चुनाव करते हैं । यहाँ भी गाँव तक पक्की सड़कें बनी हुई हैं । इसी दिन दोपहर बाद होटल में कुछ निजी पारिवारिक कार्यक्रम भी सम्पन्न हुआ । रात में पुनः यहीं पर रुकने का कार्यक्रम था इसलिए सभी लोग समय से अपने कमरों में पहुँच गये ।
राजगीर और नालंदा का भ्रमण, दिनांक : 28-09-2025 औरंगाबाद शहर से प्रातः 5 बजे निकलकर हम सभी ने राजगीर और नालंदा की राह पकड़ी । औरंगाबाद शहर से राजगीर की दूरी लगभग 200 किलोमीटर के आसपास है । लगभग एक घंटे के सफ़र के बाद हम सब ने जीटी रोड पर एक सुनसान लेकिन सुसज्जित और खेतों के बीच बने ढाबे पर गाड़ी लगाई और सभी ने गर्मागर्म चाय पी और रिफ़्रेश हुए । चूँकि अभी सुबह के 6 बजे थे इसलिए नाश्ते का कोई कार्यक्रम नहीं था इसलिए लगभग आधे घंटे के पुनः हमारी गाड़ी ने अपनी रफ़्तार पकड़ ली । डोभी क़स्बे के पास जीटी रोड को छोड़कर गाड़ी ने बोधगया और गया मार्ग पकड़ा । जीवन में पहली बार हमने गया जी को प्रत्यक्ष रूप से देखा । यही वह स्थान है जहाँ लोग अपने पूर्वजों को अंतिम रूप से विदा करने आते हैं । यहीं फल्गु नदी, विष्णु पद मंदिर और अक्षयवट जैसी जगहों पर पिण्डदान किया जाता है । फल्गु नदी के तट पर ही पितृ तर्पण किया जाता है । विष्णु पद मंदिर में पिण्ड दान की महत्व पूर्ण प्रक्रियाएं होती हैं । अक्षयवट वृक्ष के नीचे समस्त पिण्ड दान अनुष्ठान का अंत होता है । चूँकि यहाँ पर हमारा रुकने का कोई कार्यक्रम नहीं था इसलिए गाड़ी ने देखते ही देखते गया शहर को पार किया और राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-31 पर पहुँच गई । यह राजमार्ग गया जनपद को सीधे नालंदा से जोड़ता है । नालंदा से राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- 20 लेने पर सीधे राजगीर पहुँचा जा सकता है । इसके अलावा गया शहर को सीधे राजगीर से जोड़ने वाला एक राज्य राजमार्ग भी है । परन्तु यह संकरा मार्ग है और ग्रामीण अंचलों से होकर गुजरता है । लगभग 10 बजे हम लोग नव नालंदा विश्वविद्यालय के परिसर के पास से गुजरते हुए राजगीर के मुख्य रास्ते पर आ गए । अब तक सभी लोगों को भूख का एहसास होने लगा था इसलिए राजा ने वेणुवन विहार के पास एक ढाबे नुमा होटल पर गाड़ी रोकी और यहीं पर सबने सुबह का नाश्ता किया । नाश्ते में आलू का पराठा, दही और चाय ली गई । यहाँ पर मिलने वाला आलू का पराठा अन्यत्र मिलने वाले आलू के पराठे से लगभग दो गुना ज़्यादा हैवी होता है । दही और चाय भी बड़ी प्याली में मिलती है । नाश्ता लेने के बाद सभी लोग रिफ़्रेश होकर तरोताज़ा हो गये और राजगीर की पहाड़ियों के दर्शन करने के लिए चल पड़े ।


राजगीर : बिहार की राजधानी पटना से क़रीब 100 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में पहाड़ियों और घने जंगलों के बीच बसा आज का राजगीर कभी राजगृह, वसुमतिपुर, वृहद्रथपुर, गिरिब्रज और कुशाग्रपुर के नाम से भी जाना जाता था । आज यह बिहार राज्य में नालंदा जिले के अंतर्गत आता है । यह एक ऐतिहासिक और धार्मिक नगरी है । भगवान् बुद्ध की यह साधनाभूमि रही है । भगवान् बुद्ध कई वर्षों तक यहाँ ठहरे थे तथा महत्वपूर्ण देशनाएँ भी की थीं । तथागत बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके उपदेशों को लिपिबद्ध करने के लिए यहीं 483 ईसा पूर्व सप्तपर्णी गुफ़ा में बौद्ध भिक्षु महाकाश्यप की अध्यक्षता में, पहली बौद्ध संगीति, राजा अजातशत्रु के संरक्षण में, भी यहीं हुई थी । इस संगीति में भिक्षु आनन्द के द्वारा सुत्त पिटक का और भिक्षु उपाली के द्वारा विनय पिटक का संकलन किया गया । यहाँ पर गर्म जल का एक स्रोत है जिसका वर्णन ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तान्त में भी किया है । यह भी ज़िक्र मिलता है कि राजा बिम्बिसार भी कभी-कभी स्नान करते थे । भगवान् बुद्ध के निजी चिकित्सक प्रसिद्ध वैद्य जीवक राजगीर से ही थे ।



राजगीर का शांति स्तूप : सुबह का नाश्ता करने के पश्चात लगभग 15 मिनट चलने के बाद हम लोग एक बड़े मैदान पर पहुँच गए । यह मैदान राजगीर पर्वत की तलहटी है जिसे सुसज्जित करके पर्यटकों के लिए पार्किंग स्थल बनाया गया है । यहाँ पर राजा ने गाड़ी पार्क किया । चूँकि यह क्षेत्र हम लोगों के लिए बिल्कुल नया था इसलिए राजा को यहीं गाड़ी के पास ही रहने का निर्देश दिया गया । अब तक दोपहर का लगभग 12 बज रहा था और धूप तेज पड़ रही थी इसलिए मैम ने धूप से बचाव के लिए हमारे लिए एक सूती कपड़े का गमछा ख़रीद लिया । मैंने उसे अपने सर पर रखा और पैदल पहाड़ की ऊँची चोटी पर स्थित शांति स्तूप के लिए रवाना हो गए । रत्नागिरी पहाड़ी पर, बुद्ध के अस्थि अवशेषों पर निर्मित, विश्व शांति स्तूप, राजगीर 400 मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है । यहाँ पर पहुँचने के लिए दो रास्ते हैं, एक पैदल चलकर वहाँ पहुँचा जा सकता है और दूसरा आधुनिक प्रौद्योगिकी से निर्मित रोपवे से बैठकर कर । हम लोगों ने रोपवे से चलकर जाने का निर्णय लिया । रोपवे से जाने के लिए पहले टिकट लेना पड़ता है और फिर चन्द क़दम चलकर रोपवे से होकर जाना पड़ता है । जीवन में पहली बार मैने रोपवे से बैठकर पहाड़ की ख़ूबसूरती को देखा और आधुनिक प्रौद्योगिकी के महत्व को समझा । देखते ही देखते बस कुछ ही मिनटों में हम विश्व शांति स्तूप के क़रीब पहुँच गए । वहाँ पहुँच कर सभी ने विश्व शांति स्तूप को नमन् किया और उसकी परिक्रमा कर तथागत बुद्ध के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की । यहाँ पर बन्दरों की अधिकता है परन्तु अनावश्यक रूप से वह किसी को छेड़ते नहीं हैं । उनकी आशा सिर्फ़ भोजन को लेकर रहती है ।


यहाँ पर मैम ने सबको खिलाने के लिए ताजा खीरा ख़रीदा था लेकिन उसे उनके हाथ से बंदरों ने बिना किसी प्रकार का नुक़सान पहुँचाए छीन लिया था । यह शांति स्तूप सफ़ेद संगमरमर पत्थर से बनाया गया है जिसे जापानी नव बौद्ध संगठन निप्पोनजान म्योहोजी ने बनाया है । 120 फ़ीट ऊँचा और 103 फ़ीट व्यास का यह स्तूप पूरे विश्व के लिए शांति और अहिंसा का प्रतीक है । 1969 में निर्मित इस शांति स्तूप में भगवान बुद्ध के जीवन के चार चरणों : जन्म, ज्ञान, उपदेश और महापरिनिर्वाण को दर्शाने वाली चार स्वर्ण प्रतिमाएँ हैं । इस शांति स्तूप की परिकल्पना जापान में परमाणु बमबारी को लेकर प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाता है । विश्व शांति स्तूप का उद्देश्य दुनिया में शांति और समृद्धि को बढ़ावा देना है । यहाँ से थोड़ी ही दूर गृद्धकूट नामक पहाड़ की चोटी है जो भगवान तथागत बुद्ध का एक प्रिय स्थान था । विश्व शांति स्तूप से उसका दर्शन किया जा सकता है । अधिकांश उपासक यहीं से गृद्धकूट पर्वत के दर्शन कर लेते । मैने भी सपरिवार यहीं से पवित्र गृद्धकूट शिखर को तीन बार नमन् कर आशीर्वाद लिया । बेटे डॉ. संकेत सौरभ ने अपने ड्रोन कैमरे से गृद्धकूट शिखर की तस्वीर लेना चाहा लेकिन नेटवर्क न होने के कारण सम्भव नहीं हो सका । यदि आपको जीवन में प्रेम और शांति की तलाश है तो एक बार आप अवश्य यहाँ आइए । यहाँ का शांत और मनोरम वातावरण आपको सुकून देगा ।


गृद्धकूट शिखर : राजगीर की पहाड़ियों पर स्थित गृद्धकूट पर्वत का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्त्व है । लोकोक्ति है कि इस पहाड़ की आकृति एक बैठे हुए गिद्ध जैसी है इसलिए इसका नाम गृद्धकूट पड़ा । यह भगवान बुद्ध का पसंदीदा स्थान था जहां पर उन्होंने कई वर्ष बिताए और लोगों को देशनाएँ दीं । यहाँ पर पैदल चलकर जाने के लिए 500 सीढ़ियाँ हैं । इसके पास ही सप्तपर्णी गुफ़ा है । पालि साहित्य में इसे गिज्झकूट कहा गया है । ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में गृद्धकूट पर्वत का ज़िक्र किया है । यहाँ भगवान बुद्ध की प्राचीन प्रतिमा मिली है जो नालंदा के संग्रहालय में रखी हुई है । विश्व शांति स्तूप से पुनः हम लोग रोपवे से वापस लौट आए और वहीं पर लगे स्टालों का भ्रमण कर अवलोकन किया । थोड़ी देर विश्राम करने के बाद पुनः गाड़ी के पास आये और यहाँ से आगे निकल गये । रास्ते में ही महाराजा बिम्बिसार की जेल में पुरातात्विक अवशेषों को देखा । यहीं पर अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार को क़ैद करके रखा था और क़ैद में ही राजा बिम्बिसार की मृत्यु हो गयी थी ।


गर्म जलकुण्ड का अवलोकन : राजगीर के मुख्य बाज़ार के पास ही गर्म पानी के जलकुण्ड हैं । इसे आज ब्रम्हकुण्ड के नाम से जाना जाता है । यहाँ पर्वतों के बीच से सदैव गर्म पानी आता रहता है । मान्यता है कि यह गर्म जल औषधीय गुणों से भरपूर होता है । जब मैं झाँसी से यात्रा पर निकला था तो मेरे प्राध्यापक साथी डॉ. रामनारायण जी ने मुझसे विशेष रूप से कहा था कि मैं गर्म जल कुंड तक ज़रूर जाऊँ और वहाँ से पानी ले आऊँ । मैने उनकी बात मानी और वहाँ जाकर गर्म जल कुंड को देखा और उसका स्पर्श किया तथा बोतल में गर्म पानी भी लेकर आया । पत्नी और बेटी ने बड़े कौतूहल से उसे देखा और कुछ दान भी किया । यहाँ से निकलकर हम लोग पास में बने वेणुवन विहार पहुँचे ।
वेणुवन विहार : बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए वेणुवन विहार भी पवित्र स्थल है । बौद्ध साहित्य से जानकारी मिलती है कि भगवान बुद्ध को उपहार में मिला पहला दान था जिसे मगध के राजा बिम्बिसार ने दान किया था । प्राचीन काल में यह बाँसों का सुन्दर उपवन था जो ध्यान और साधना के लिए बहुत उपयुक्त था । यहाँ पर भगवान बुद्ध ने कई वर्षावास व्यतीत किया था । बच्चों के साथ वेणुवन का भ्रमण करते हुए भगवान तथागत बुद्ध की याद आती रही कि अपने जीवन काल में उन्होंने अपने जन्म, तप, देशना, निवास आदि से अनगिनत स्थानों को पवित्र किया था और आज यह सब तीर्थ स्थान के रूप में विख्यात हैं । यहाँ पर हम सब ने माथा टेका और भगवान बुद्ध से आशीर्वाद लिया । आज भी इस वेणुवन में सुन्दर जलाशय, ध्यान स्थल और छोटे स्तूप स्थित हैं । यहाँ श्रद्धा, इतिहास और प्रकृति का अद्भुत संगम है । यहाँ पर विशाल बुद्ध प्रतिमा भी लगाई गयी है । आज भी वेणुवन विहार में बाँसों की अनेकों प्रजातियाँ हैं । क़रीब 21.63 एकड़ में फैले हुए इस उद्यान को लगभग 27 करोड़ की लागत से वर्ष 2021 में वेणुवन विहार का सौंदर्यीकरण किया गया । आज भी यहाँ आने पर बुद्ध की अलौकिकता का अनुभव होता है और भ्रमण करते हुए ऐसा लगता है मानो बुद्ध कहीं से आवाज़ देने वाले हैं । वेणुवन का मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर राजगीर- गया मार्ग पर बनाया गया है । वेणुवन विहार के मध्य में कलन्दक सरोवर है । जिसका ज़िक्र बौद्ध साहित्य में मिलता है । वेणुवन विहार से चलकर भ्रमण के अगले पड़ाव में हम नालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों को देखने पहुँचे । राजगीर से इन खंडहरों की दूरी लगभग 10 से 12 किलोमीटर होगी ।



नालन्दा विश्वविद्यालय : प्राचीन भारत का ज्ञानदीप, लगभग 700 वर्षों तक ऐतिहासिक और वैश्विक शिक्षा का केन्द्र रहा नालन्दा विश्वविद्यालय आज खंडहर है और अपने भग्नावशेषों के साथ अपनी सांस्कृतिक विरासत व भव्यता की ओर इशारा कर रहा है । जीवन में पहली बार मुझे नालन्दा विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों को देखने का अवसर प्राप्त हुआ । मैं उसके खंडहरों और अवशेषों को देखकर स्तब्ध रह गया । एक कहावत है कि भ्रम, भ्रमण से दूर होता है । यह बात वहाँ पर जाकर मुझे स्पष्टता से पता चली । यूं तो हम लोग नालन्दा विश्वविद्यालय का ज़िक्र हमेशा करते रहते थे और उदाहरण के तौर पर भी नालन्दा विश्वविद्यालय का वर्णन करते थे लेकिन उसकी भव्यता और गरिमा का वास्तविक अंदाज़ा वहाँ जाकर लगा । यहाँ पर मुझे गाइड ने बताया कि यह विश्वविद्यालय दस किलोमीटर से अधिक के क्षेत्र में फैला हुआ था और अभी तो केवल एक किलोमीटर की ही खुदाई हुई है । उसने मुझे यह भी जानकारी दिया कि अभी प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का ज़मींदोज़ खंडहर नहीं मिला है । मैंने अपनी आँखों से परिसर में आधी- अधूरी खुदाई और उसके निशान को भी देखा । उसने मुझे एक टीला दिखाया जिसमें अवशेष ज़मींदोज़ हो सकते हैं और खुदाई से उन्हें बाहर निकाला जा सकता है । उन भग्नावशेषों को देखकर अनायास ही मुँह से निकलता है कि कैसे वह वहशी लोग रहे होंगे जिन्होंने ज्ञान के इस पवित्र स्थल को तहस- नहस किया और जलाया होगा । आख़िर ज्ञान की दुश्मनी किससे और क्यों हो सकती है ? मैने अपनी आँखों से छात्रों के रहने और पढ़ने के कमरों को देखा । यही वह विश्वविद्यालय था जहाँ 10000 छात्रों और 2000 आचार्यों की निःशुल्क आवासीय व्यवस्था थी । चीनी यात्री ह्वेनसांग सातवीं शताब्दी में यहाँ के महत्त्वपूर्ण विद्यार्थी थे जिन्होंने यहाँ की उत्कृष्ट शिक्षा व्यवस्था का ज़िक्र किया है ।



ताज्जुब होता है कि नालन्दा विश्वविद्यालय में 100 से अधिक पाठ्यक्रम (शिल्प) पूरी विशेषज्ञता के साथ पढ़ाये जाते थे । आज का मनोविज्ञान जैसा विषय तब यहाँ पर पढ़ाया जाता था । नालन्दा विश्वविद्यालय के प्रख्यात विद्वानों में शीलभद्र, धर्मपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, दिकनाग, ज्ञानचन्द्र, नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग, धर्मकीर्ति आदि थे । जावा, सुमात्रा चीन, तिब्बत, श्रीलंका, कोरिया आदि देशों से विदेशी विद्यार्थी यहाँ अध्ययन करने आते थे । कहा जाता है कि नालन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में दो लाख से अधिक पुस्तकें थीं । तीन सौ व्याख्यानों के कक्ष थे । पाँचवीं शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट भी नालन्दा विश्वविद्यालय में ही थे । विश्वविद्यालय के परिसर में ही सम्राट अशोक के द्वारा निर्मित सारिपुत्र और मोगल्यान का स्तूप है जिसमें बुद्ध के उक्त दोनों प्रधान शिष्यों का अस्थि अवशेष सुरक्षित है । मैं शिक्षक होने के नाते कहना चाहता हूँ मेरे बच्चे मुझसे अधिक सौभाग्यशाली हैं जिन्होंने कम उम्र में भारत की इस प्राचीन विरासत को प्रत्यक्ष रूप से देखा । इससे उनकी समझदारी में इज़ाफ़ा होगा और वह ज़्यादा बेहतर तरीक़े से प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता को समझ पाएंगे । बहुत भारी मन से हम सबने अतीत की स्मृतियों को संजोए हुए इन भग्नावशेषों को दोनों हाथ जोड़कर अलविदा कहा और गाड़ी में बैठकर चुपचाप पटना की ओर चल पड़े ।



पटना में रात्रि विश्राम : नालन्दा से पटना शहर की दूरी लगभग एक सौ किलोमीटर है । नालन्दा से निकलकर हम लोग बिना रुके हुए पटना आ गए । बच्चों ने पटना- नालन्दा राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित अमित होटल में रुकने की व्यवस्था की । होटल काफ़ी सुसज्जित था लेकिन महंगा किराया था । चूँकि अगले दिन दोपहर 11 बजे तक बेटी सपना और बेटे संकेत सौरभ को हवाई जहाज़ से दिल्ली जाना था इसलिए सुविधा के दृष्टिकोण से यहीं पर ठहर गए । होटल के कमरे में पहुँचते- पहुँचते शाम के सात बज गए थे इसलिए अब कहीं बाहर जाने का समय नहीं था । होटल में पहुँचकर सभी ने चाय पिया और आराम करने लगे । अभी लगभग आठ ही बजा था, होटल का वेटर आया और बोला कि सर रात का खाना लेंगे या नहीं । मैने कहा कि अवश्य खाना चाहिए, तो वह तपाक से बोला कि सर 9 बजे रेस्टोरेंट बंद हो जाएगा आप इसके पहले ही खाना ले लीजिए अन्यथा खाना नहीं मिल पाएगा । मैंने आश्चर्य भरी निगाहों से उसकी तरफ़ देखा और कहा कि यह तो पटना है, बिहार की राजधानी है फिर नौ बजे होटल कैसे बंद हो जाएगा ? उसने बड़ी खामोशी के साथ उत्तर दिया कि मर्जी आपकी, लेकिन 9 बजे के बाद यहाँ खाना नहीं मिलेगा । मैंने मौक़े की नज़ाकत को देखते और समझते हुए तुरंत बच्चों को बुलाया और कहा कि जो भी खाना रात में खाना हो उसका आर्डर कर मँगा लीजिए चाहे भले ही कमरे में रखा रहे । तुरंत खाना आर्डर कर दिया गया और ठीक 9 बजे खाना आ गया और हम सबने देखा उसी समय रेस्टोरेंट बंद हो गया । अत्यधिक थकान के कारण सभी लोग खाना खाकर सो गए ।
पटना से वापसी, दिनांक : 28-09-2025 जीवन में पहली बार मैं सपरिवार पटना आया था और मन कर रहा था कि पटना और उसके आसपास के पर्यटन स्थलों को देखा जाए लेकिन अब समय अनुमति नहीं दे रहा था । दोनों बच्चों को शाम तक दिल्ली पहुंचना था और मुझे 30 तारीख़ तक झाँसी पहुंचना ज़रूरी था । प्रातः क़रीब आठ बजे सभी लोग जगे और चाय पिया । मैंने होटल से बाहर निकल कर पाटलिपुत्र को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया । क्योंकि यही वह ऐतिहासिक सरज़मीं है जहाँ सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक जैसे राजा थे जिन्होंने पूरे भारत का एकीकरण किया था । तब यह मगध साम्राज्य था और पाटलिपुत्र उसकी राजधानी थी ।

यहीं मौर्य सम्राटों के राजमहल और उसकी बनावट तथा सजावट को देखकर चीनी यात्री फाहियान ने अपनी डायरी में लिखा था कि इस राजमहल को देवताओं ने बनाया होगा… यह इंसानों का बनाया हुआ नहीं लगता । होटल में तैयार होकर निकलते- निकलते दस बज चुके थे । अब और कहीं जाने का समय नहीं था क्योंकि 11 बजे तक एयरपोर्ट पहुंचना था । शहर में भीड़भाड़ और जाम की समस्या रहती है । यद्यपि सबकी इच्छा थी कि करुणा स्तूप तथा कुम्भरार पार्क देख लिया जाए लेकिन मैंने मना किया और गाड़ी ने सीधे एयरपोर्ट का रुख़ किया । अनुमान सही साबित हुआ । लगभग 10-12 किलोमीटर की दूरी तय करने में एक घंटे का समय लग गया और हम लोग 11 बजे जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर पहुँचे । जल्दी- जल्दी बच्चों को नाश्ता कराया और तब तक साढ़े ग्यारह बज गए । दोनों बच्चों को हम पति और पत्नी ने एयरपोर्ट से बिदा किया, उनके साथ एक फ़ोटो शूट करवाया और उन्हें हैप्पी जर्नी बोला… देखते ही देखते दोनों बच्चे चेक इन करके अंदर चले गये… पुनः एक बार दूर से हाय हलो हुआ और हम पति- पत्नी ने भारी मन से गाड़ी में अपनी सीट ली । राजा ने गाड़ी को आगे बढ़ाया और उत्तर- प्रदेश की राह पकड़ी ।
आरा, बक्सर, बलिया, पूर्वांचल एक्सप्रेसवे, लखनऊ, कानपुर, झाँसी : इस बार झाँसी वापसी का सफ़र हमने वाया आरा, बक्सर, बलिया और पूर्वांचल एक्सप्रेसवे से होते हुए लखनऊ, कानपुर, उरई और झाँसी तय किया । राजा ने पटना एयरपोर्ट से निकलकर गूगल पर पटना- लखनऊ के रास्ते को सिलेक्ट कर लिया । पटना से आरा की दूरी लगभग 70 किलोमीटर है लेकिन रास्ता निर्माणाधीन होने के कारण समय काफ़ी लग गया । बावजूद इसके हमारी गाड़ी लगातार चलती रही और लगभग डेढ़ बजे के आसपास हम आरा पहुँच गए । आरा से बक्सर की दूरी लगभग 75 किलोमीटर है । यह राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- 922 पर स्थित है । आरा से बक्सर तक सड़क अच्छी है और फोरलेन भी है इसलिए गाड़ी तेज़ी से चलती हुई बक्सर आ गई । चूँकि यहाँ हमारा रुकने का कोई कार्यक्रम नहीं था इसलिए बक्सर से हमने गंगा नदी को पार किया और उत्तर- प्रदेश की सीमा में प्रवेश कर जनपद बलिया की वीरभूमि पर आ गये । बलिया बाइपास से होते हुए हम ग़ाज़ीपुर जनपद की सीमा में आ गए और यहाँ से हमें शानदार पूर्वांचल एक्सप्रेसवे मिल गया जो सीधे लखनऊ को जोड़ता है । पूर्वांचल एक्सप्रेसवे पर आते ही गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ी और हम लोग लगभग 50 किलोमीटर चल कर आ गए । तभी राजा ने गाड़ी को एक्सप्रेसवे से नीचे उतारा और डीज़ल लिया । यहाँ पर हम लोग रीफ़्रेश हुए ।
अब तक दोपहर के लगभग तीन बज रहे थे इसलिए भूख भी लग रही थी लेकिन यहाँ कहीं खाने की कोई व्यवस्था नहीं थी । मैंने पेट्रोल पम्प पर खाने के बारे में पूछा तो पता चला कि खाना एक्सप्रेसवे पर यहाँ से 60 किलोमीटर आगे मिलेगा । हम लोगों ने सोचा कोई बात नहीं, केवल आधे घंटे की बात है । राजा ने गाड़ी को पुनः एक्सप्रेसवे पर लिया और तेज गति दी । अनुमान के मुताबिक़ आधे घंटे के भीतर ही खाने का होटल दिखाई दिया । गाड़ी को पार्क किया गया और सबने दोपहर का खाना खाया । खाना सस्ता था केवल 100 रुपए में भरपेट भोजन । भोजन करने के बाद अगले सफ़र के लिए चल पड़े । राजा ने गाड़ी को तेज़ रफ़्तार दिया और लगभग साढ़े छह बजे हम लोग लखनऊ आ गए । पूर्वांचल एक्सप्रेसवे ने कम समय में ज़्यादा दूरी तय करवा दी । यह एक्सप्रेसवे 340 किलोमीटर लंबा है और 6 लेन का बनाया गया है । इस एक्सप्रेसवे का निर्माण उत्तर- प्रदेश एक्सप्रेसवे औद्योगिक विकास प्राधिकरण (यूपीडा) के द्वारा 22,494 करोड़ रुपये की लागत से किया गया है । वर्ष 2018 से आम जनता के लिए समर्पित यह एक्सप्रेसवे उत्तर प्रदेश के 9 ज़िलों, लखनऊ, बाराबंकी, अमेठी, सुल्तानपुर, अयोध्या, अम्बेडकर नगर, आज़मगढ़, मऊ और ग़ाज़ीपुर ज़िलों को जोड़ता है ।
लखनऊ से किसान पथ होते हुए हमारी गाड़ी कानपुर रोड पर आ गई । सभी लोग शाम की चाय लेना चाहते थे लेकिन यह तय किया गया कि चाय लखनऊ- कानपुर हाईवे पर ली जाएगी । आगे चलकर नबाबगंज में एक होटल पर चाय ली गई और तय किया गया कि रात का खाना जनपद जालौन के मुख्यालय उरई में स्थित होटल गोविन्दम पर खाया जाएगा । रात लगभग साढ़े दस बजे हम लोग गोविन्दम होटल पहुँचे और रात का खाना लिया गया । वहाँ से चलकर रात क़रीब दो बजे वापस झाँसी आ गए ।
निष्कर्ष : भगवान् तथागत बुद्ध की असीम करुणा और अनुकम्पा, बेटी इंजीनियर सपना मौर्या और बेटे डॉ. संकेत सौरभ की दृढ़ इच्छाशक्ति और प्रबंधन, मैम श्रीमती कमलेश मौर्या की मेहनत और प्रेरणा, गाड़ी चालक राजा के साहस से हम सभी ने उत्तर- प्रदेश से लेकर बिहार तक लगभग 2400 किलोमीटर की लम्बी यात्रा सम्पन्न की । इस यात्रा में हम कुल मिलाकर देश के 30 जनपदों से होकर गुज़रे । गाँव से शहर तक के भारत भ्रमण का सुअवसर इस यात्रा ने हमें प्रदान किया । सासाराम, बोधगया, राजगीर, नालन्दा और पाटलिपुत्र की यात्रा रोमांच और उल्लास तथा ज्ञान से परिपूर्ण रही । इस यात्रा में जहाँ हम सब देश की प्राचीन ज्ञान परम्परा से रूबरू हुए वहीं आधुनिक भारत के नवनिर्माण और प्रगति को भी नज़दीक से देखा । उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और निजीकरण का क्या मिला- जुला प्रभाव देश और समाज पर पड़ा है, इसका भी ज्ञान मिला । देश की भौगोलिक विविधता, सामाजिक बहुलता, खानपान और रहन- सहन की तहज़ीब, सभी को नज़दीक से देखने का मौक़ा मिला । इस यात्रा से हमारी समझदारी में इज़ाफ़ा किया । हमने और अधिक गहराई से समझा कि निरंतरता और परिवर्तन जीवन का सत्य रूप है ।
मैं स्वयं इस सफर की एक मुसाफ़िर थी। सचमुच यह देश अद्भुत है। यात्रा ब्लॉग लाजबाव है।
आपके द्वारा की गई यात्राओं का चित्रण हमें भी घर बैठे संबंधित जगहों को घूमने और समझने की आत्मा अनुभूति देता है। आपका नियमित पाठक, विशाल शर्मा, भारत से
आपके द्वारा की गई यात्राओं का चित्रण हमें भी घर बैठे संबंधित जगहों को घूमने और समझने की आत्मा अनुभूति देता है
सच में आपने बिहार यात्रा का सजीव वर्णन कर मुझे भी रोमांचित किया है ।सात दिन आप कितने कदम चले ,क्या देखा ,किस किस राजमार्ग से गुजरे,मार्ग में पड़ने वाले हर रास्ते को आपने खोलकर रख दिया है,कब कहाँ कितनी दूरी पर भोजन भ्रमण दर्शन विश्राम इत्यादि सब कुछ लिख दिया ।
निसंदेह आपका यात्रा विवरण प्रेरणादायी है,हमारी प्राचीन संस्कृति और दर्शन के लिए रोमांचकारी है ।
“वह लोग सौभाग्यशाली हैं जिनको अपने जीवन काल में पावन और पवित्र स्थानों पर जाने, नमन् करने, दीप प्रज्ज्वलित करने एवं पुष्प अर्पित करने का सौभाग्य मिलता है।” मेरे बच्चे मुझसे अधिक खुद किस्मत हैं जिन्हें कम उम्र में ही यह सुअवसर मिला।”