मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के अति रमणीक, शांत वातावरण और कोलाहल से दूर एकांत स्थान, श्यामला हिल्स पर स्थित जनजातीय संग्रहालय मध्य प्रदेश की आदिवासी अस्मिता का कला बोध है। यह आदिवासी संसार की अनुपम झलक दिखाता है।
यहां पर मध्य प्रदेश की जनजातियों की सभ्यता, संस्कृति, रहन सहन, गीत संगीत, विश्वास और परम्पराओं तथा जीवन शैली का अद्भुत संगम है। मध्य प्रदेश शासन संस्कृति विभाग द्वारा संचालित इस संग्रहालय में जनजातीय समुदायों के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवेश को चित्रों, मूर्तियों एवं प्रदर्शनों के माध्यम से दिखाया गया है। लगभग 2 एकड क्षेत्रफल में 35 करोड़ 20 लाख की लागत से बने इस संग्रहालय का लोकार्पण दिनांक 6 जून 2013 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा किया गया।
इस संग्रहालय को बनाने का उद्देश्य मध्य प्रदेश की जनजातियों की जीवन शैली से आम जन को परिचित कराना है। इस जनजातीय संग्रहालय का प्रतीक चिन्ह बिरछा है जिसे धरती की उर्वरा शक्ति और जीवंतता का प्रतीक माना जाता है। संग्रहालय में बैतूल, होशंगाबाद, मंडला, सागर, छिंदवाड़ा, बालाघाट तथा शहडोल जिलों में निवास करने वाली गोंड जनजाति, झाबुआ, अली राज पुर, धार, बड़वानी, खरगोन एवं रतलाम जिले में निवास करने वाली भील जनजाति, सतपुड़ा पर्वत माला के छिंदवाड़ा, बैतूल व होशंगाबाद जिले के विभिन्न गांवों में रहने वाली कोरकू जनजाति,मंडला, डिंडोरी, शहडोल, उमरिया, बालाघाट तथा अमरकंटक के वन प्रदेशों में रहने वाली बैगा जनजाति, जबलपुर एवं छिंदवाड़ा जिले में निवास करने वाली भारिया जनजाति तथा शिवपुरी, गुना, ग्वालियर, मुरैना, भिण्ड, विदिशा, रायसेन तथा सिहोर जिले में रहने वाली सहारिया जनजाति तथा कोल आदिवासियों के सामाजिक परिवेश को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है। दोपहर 12 बजे से रात 8 बजे तक इसका भ्रमण कर अवलोकन किया जा सकता है। प्रत्येक सोमवार और राष्ट्रीय अवकाशों पर संग्रहालय बंद रहता है।
संग्रहालय की दर्शक दीर्घा- एक, मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता को प्रदर्शित करती है। गैलरी एक से दो में जाने पर गलियारे में एक विशालकाय अनाज की कोठरी है। दर्शक दीर्घा दो में मध्य प्रदेश के जनजातीय जीवन के विविध रूपों की जानकारी अत्याधुनिक तकनीक के जरिए दी गई है। यहां पर सभी आदिवासी समुदायों की आवासों की वस्तुगत, शिल्पगत और व्यवहारगत विशेषताओं को दिखाया गया है। दर्शक दीर्घा तीन, आदिवासी समाजों के कलाबोध को दर्शाती है। इसमें जीवन चक्र से जुड़े संस्कारों तथा ऋतु चक्र से जुड़े गीत, पर्वों, मिथकों तथा अनुष्ठानों को दिखाया गया है। चौथी दीर्घा देवलोक की है। इस दीर्घा में जंगल, पहाड़, नदी, तालाब की अच्छी, बुरी तमाम आत्माओं का आह्वान किया गया है। यह अनुभूति करने का संसार है।अगली दीर्घा में छत्तीसगढ़ की आदिवासी संस्कृति को दिखाया गया है। यहां पर सरगुजा अंचल के रजवार जनजाति के आंगन, घरों के निर्माण में बांस के प्रयोग की कुशलता का प्रदर्शन है।
संग्रहालय में प्रत्येक रविवार को आदिवासी लोक संगीत तथा सांस्कृतिक गतिविधियों का आयोजन किया जाता है। इसमें मध्य प्रदेश की जनजातियों के गायक और कलाकार अपनी प्रस्तुति देते हैं। यहां पर प्रदर्शित सभी कलाकृतियां आदिवासियों के द्वारा बनाई गई हैं। संग्रहालय में आदिवासी बच्चों के खेलों पर अलग से कला दीर्घा बनाई गई है। कतारों में बने कोरकू जनजाति के मकान तथा गोंड जनजाति के वाद्य यंत्र बरबस मन मोह लेते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी इस संग्रहालय का दौरा किया है। उन्होंने इसे युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत बताया।
वस्तुत: भोपाल का यह आदिवासी संग्रहालय मध्य प्रदेश की जनजातियों की जीवन दृष्टि, कला बोध और सामुदायिकता की ऊष्मा का नायाब नमूना है जहां पर आकर आप आदिवासी चेतना का निजी अनुभव तथा उसकी सामूहिक जीवंत चेतना का एहसास कर सकते हैं। यह चेतना ही अनुभव की साझेदारी है। आदिवासी कला का सृजन हार है। यहां मिथकीय चेतना में भी जीवन के रंग घुले हुए हैं।मिथक ने आदिवासी समुदाय के परिवेश को आच्छादित कर रखा है जिसमें धीरे-धीरे नयापन वैज्ञानिक सोच के साथ आ रहा है।लोक कला की अभिव्यक्ति जितना कहती है उससे अधिक अपने अंदर छुपाए रहती है।यही उनकी अपनी स्वतंत्र जीवन दृष्टि है।
पूरी दुनिया में फैली जनजातियां वह मानव समुदाय हैं जो अलग निश्चित भू- भाग में निवास करती हैं और जिनकी एक अलग संस्कृति तथा रीति- रिवाज हैं। आदिवासी शब्द का अर्थ- मूलनिवासी होता है। भारत के संविधान की पांचवीं अनुसूची में आदिवासियों के लिए अनुसूचित जनजाति पद का प्रयोग किया गया है। भारत की जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत हिस्सा आदिवासियों का है।भील, भारत की सबसे बड़ी जनजाति समुदाय है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत मध्य प्रदेश की 46 जनजातियां सूचीबद्ध हैं। मध्य प्रदेश में बैगा, भारिया और सहारिया जनजातियों को अति पिछड़ी या आपदाग्रस्त जनजाति में रखा गया है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मध्य प्रदेश की 21.1 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासियों की है जिसमें कोल सबसे बड़ी जनजाति समुदाय है। इसकी 22 उप-शाखाएं हैं।कोल आदिवासियों के घरों को टपरा कहा जाता है।
– डॉ. राज बहादुर मौर्य, फोटो गैलरी-संकेत सौरभ, झांसी
जनजातीय परम्परायें ही जीवन के उदगम को समाहित करती है। सारगर्भित और ज्ञानवर्द्धन के लिए बहुत आभार।