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पातालकोट की अंधेरी गलियों में जीवन जीते “भारिया” आदिवासी…

Posted on फ़रवरी 16, 2020जुलाई 12, 2020

मध्य -प्रदेश के छिंदवाड़ा जिला मुख्यालय के उत्तर सतपुड़ा के पठार पर अवस्थित पातालकोट प्रकृति की अद्भुत रचना है। छिंदवाड़ा से पातालकोट की दूरी 62 किलोमीटर तथा तामिया विकास खंड से 23 किलोमीटर दूर है। 79 वर्ग किलोमीटर में फैली पातालकोट की धरती की प्राकृतिक सुषमा को नजदीक से निहारना अपने आप में कौतूहल से भरे एक नवीन अनुभव से गुजरना है। तीन ओर से स्थायी कनातों से घिरा पातालकोट समुद्र तट की सतह से 2,750 से 3,250 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मानवीय धडकनों के साथ पशु ,पक्षी,नदी ,पहाड़,कंदरा, वनस्पति और प्राकृतिक सौंदर्य मिलाकर पातालकोट को मौलिक आकषर्ण का केंद्र बना देते हैं। यहां घाटियां इतनी गहरी हैं कि उनमें झांककर देखना मुश्किल है। ऊंचे पहाड़ों से घिरा यह क्षेत्र आवागमन के साधनों से रहित है।

पातालकोट के किसी भी गांव में पहुंचने के लिए 1200 से 1500 फ़ीट तक उतरना चढ़ना पड़ता है। यहां के रहवासियों को “कनात” कहते हैं। यद्यपि शुद्ध निर्मल झरनों, झिरियों और नदियों ने पातालकोट को नया जीवन दिया है तो भी यहां के निवासी “भारिया आदिवासियों”के मन में जो अंधकार है वह बाहरी अंधकार से कहीं अधिक ख़तरनाक और सभ्य लोगों के लिए कलंक है। बाहरी अंधकार तो मिटाया जा सकता है लेकिन पातालकोट में दो हजार से अधिक लोग,जो अजूबे की जिंदगी जी रहे हैं उनके जीवन में रौशनी कब और कैसे आयेगी?यहां भारियाओं के घर माचिस की डिबिया की तरह दिखाई देते हैं।

पातालकोट की जीवन रेखा दूधी नदी है।यह रातेड गांव के पास दक्षिणी पहाड़ी से निकलकर घाटी में बहती हुई नरसिंहपुर जिले में नर्मदा नदी से मिल जाती है। यहां की दूसरी नदी गायनी, उत्तर से निकलकर बहुत दूर अकेली बहती हुई दूधी नदी में मिल जाती है। पातालकोट में 12 ऐसे गांव हैं जो आबाद हैं। 8 वीरान गांव हैं, जिनमें कभी बस्ती थी परंतु आजकल नहीं है। गुड़ी छतरी,घट लिंगा,पलानी गैलडुब्बा,घाना सालीढाना,कोडिया,धुरनी मलानी,डोमनी खमानपुर,सहरा पचगोल,जड़मांदल आदि गांव हैं। भारिया यहां की आदिवासी जाति है जिनके पास अपनी पुरा- संस्कृति है।इनकी मूल बोली “भरयाटी”है।आज इनकी जनसंख्या लगभग दो लाख से अधिक है। भारिया, जंगलों में एकांत और ऊंची जगहों में रहना पसंद करते हैं। यह जहां बसे होते हैं उसे “ढाना” कहते हैं। एक ढाना में दो से लगाकर 25 घर होते हैं। दो-चार ढाना मिलाकर एक गांव होता है।

भारियाओं के हृदय में आदिम निश्छलता है। हजारों दुःख तकलीफों में भी जीवन के प्रति उनमें अदम्य जिजीविषा है।यह उनकी परम्परा में है। अभावों में जीने की कला कोई इन आदिवासियों से सीखे।दिन भर मज़दूरी के बाद थकान मिटाने के लिए नृत्य गीतों का आयोजन।ढोल, मांदर की थाप पर थिरकते पैरों में मन के कितने ही गहरे घाव घुल जाते हैं, तिरोहित हो जाते हैं। लेकिन उनके जीवन में जरा झांककर देखेंगे तो पाएंगे कि कोई खास मजबूरी और अपनी परम्परा के लिए वह रात भर नाचता है। भारिया सर्वथा मौलिक साहसी तथा उनका जीवन विस्मयकारी और रोमांचक है। मान्यता है कि इनका मूल स्थान महोबा अथवा बांधौगढ़ रहा है। यह स्थान “भार”क्षेत्र के अन्तर्गत आते थे।ढा़हल के तत्कालीन राजा कर्ण देव भी “भार” जाति के थे।

भारिया,द्रविड़ियन परिवार के लोग हैं।यह मध्यम कद, छरहरा बदन तथा श्याम वर्णी होते हैं। आंखें छोटी काली,नाक कुछ चौड़ी पर सुडौल होती है।ओंठ पतले और दांत बारीक होते हैं। महिलाएं दुबली-पतली होती हैं परन्तु उनके नाक-नक्श सुडौल और सुंदर होते हैं। अपने में मस्त रहने वाले,सच्चे, ईमानदार और मेहनती होते हैं। सामान्यत: डरपोक तथा कम बोलने वाले होते है। शराब का सेवन एक बड़ी बुराई है।भारियों के मकान, लकड़ी, घास-फूस और टट्टों के बने होते हैं। खपरैल और घरों की दीवालें भारिया स्वयं बनाते हैं।उनका मुख्य भोजन “पेज” है। मक्का, जुवारी, कुटकी और पिसी का पेज भारिया सबसे ज्यादा पसंद करते हैं।भारियाओं के प्रत्येक गांव में मेघनाद खम्भ, भीमसेन, मृतक चौतरा अनिवार्य रूप से होता है।”ठेठरा” भारियों का एक मात्र मीठा पकवान है।आम और महुआ का संग्रह प्रत्येक भारिया के घर में मिल जाएगा।

भारिया समुदाय में पुरुष सिर पर पगिया, धोती, कुर्ता और बंडी पहनते हैं। युवा मस्तक पर रूमाल या एक पट्टी बांध कर रखते हैं।स्त्री- पुरुष प्राय: नंगे पैर होते हैं। चांदी और गिलट के गहने पहनते हैं।शिकार इनका प्रिय शौक है। कुल्हाड़ी भारियों का मुख्य हथियार है। इनमें आपस में झगडे की नौबत कम आती है।भारियों का सामाजिक संगठन मजबूत और रूढ़ियों से बंधा है। गांव का मुखिया पटेल कहलाता है। यह जाति का मुखिया होता है। पंचायत का दूसरा व्यक्ति भुमका, तीसरा पडिहार,चौथा कोटवार, पांचवां गांव का कोई स्याना होता है। समाज में स्त्री- पुरुष का दर्जा बराबरी का होता है। मज़दूरी करना, वनोपज को संग्रह कर बाजार में बेचना, बांस की बनी सामग्री,छिंद पत्तियों तथा देवबहारी घास से झाडू बनाना पेड़ों की छाल से रस्सियां बनाना भारियाओं के परम्परागत शिल्प हैं।यह ग्राम देवता की पूजा करते हैं। इनके कुल देवता बूढ़ा देव,दूल्हा देव, और नाग होते हैं।भूत, पिशाच, शैतान जैसी शक्तियों पर भारिया सहज विश्वास करते हैं। बाघेश्वर आराध्य देवता है। देवियों में जगतार माई, भवानी माई,नगबेडिन माई, खेड़ा पति माई,बनजारिन माई,रात माई आदि हैं।

भारियाओं के पर्व और त्योहार अभावों में मुस्कराने के अवसर हैं। हंसने, नाचने,गाने के ठौर हैं। अवसादों को भुलाने की जगह है। यही त्योहार आदिवासी जीवन को ताजगी प्रदान करते हैं। इनमें जवारा, दीवाली, होली प्रमुख त्योहार हैं।बिदरी धरती,बादल और बीज की पूजा का,नवाखानी फसल पूजा तथा जवारा नवरात्र में मनाया जाने वाला त्योहार है। अन्य आदिवासी समुदायों की तरह यहां भी गोत्र परम्परा है। भारिया समुदाय में विवाह की चार प्रथाएं प्रचलित हैं- मंगनी या बारात विवाह, लमसेना,राजी- बाजी विवाह तथा विधवा विवाह। यहां देज का मतलब वधू मूल्य होता है। विवाह से पूर्व पुरखों की पूजा की प्रथा निभाई जाती है। आदिवासियों की सौन्दर्य दृष्टि जीवन के हर कार्य में दिखाई देती है। मकान बनाने की कला,बढयीगीरी, खपरैल,रस्सी बुनना, मिट्टी तथा पत्तों की कोठियां,दोने और पत्तल यह स्वयं बनाते हैं।हर आदिवासी महिला गुदना गुदवाती है।भारियाओं के परम्परागत नृत्यों में भडम,सैतम,सैला,करमा,सुआ तथा अहिराई प्रमुख हैं।ढोल,टिमकी,झांझ तथा बांसुरी इनके वाद्ययंत्र हैं।

भारिया समुदाय इस समय संक्रमण काल में जी रही है।अपनी प्राचीनता को संजोए हुए आधुनिकता को ग्रहण करने की स्थिति आज सभी आदिवासियों के सामने है। वस्तुत: परम्परागत जीवन मूल्यों को बिना मिटाये,इन समुदायों के विकास की गति तीव्र होना चाहिए।

डॉ राजबहादुर मौर्य, झांसी


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