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मुफलिसी और अभाव के साथ स्वाभिमान का जीवन जीते “बैगा”आदिवासी…

Posted on फ़रवरी 9, 2020जुलाई 12, 2020

“बैगा “मध्य- प्रदेश का आदिम, आदिवासी समुदाय है जो मुफलिसी और अभाव तथा ग़रीबी का जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। वह नागरिक और सामाजिक जीवन की मूलभूत सुविधाओं से महरूम हैं। शिक्षा और सम्पत्ति से लगभग वंचित हैं। बावजूद इसके ,उनके अंदर सम्मान से जीने की तथा स्वाभिमान की झलक है। इस समुदाय ने कभी भी किसी के सामने लाचारी और बेबसी में हाथ नहीं पसारे।कम सुविधाओं में जीवट के साथ जीना इनसे सीखा जा सकता है।

“बैगा”अपने आप को “जंगल का राजा “कहते हैं। पृथ्वी को अपनी बेटी मानते हैं।देवार और देवारिन बैगाओं के लिए सम्मान सूचक सम्बोधन हैं। बैगा मुख्य रूप से मंडला, समनापुर, डिंडोरी, बालाघाट, सरगुजा, बिलासपुर तथा अमरकंटक के पहाड़ी अंचलों में निवास करते हैं। यह क्षेत्र लगभग 60 किलोमीटर चौड़ा और 300 किलोमीटर लम्बा है जो सतपुड़ा और मैकल पर्वत की उपत्यकाओं में फैला है। पूरा क्षेत्र गहन साल वृक्षों से आच्छादित है।वैगाचक में आवागमन के साधन उपलब्ध नहीं हैं।सारे बैगा घने जंगलों में नदी, नालों, कुओं व तालाबों के किनारे बसे हैं। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार मध्य प्रदेश में एकल बैगाओं की जनसंख्या 3,17,549 थी, जिसमें बैगा पुरुष 1,59,905 तथा बैगा महिलाएं 1,57,644 थीं।

“बैगा “प्रकृति पुत्र हैं।इनकी त्वचा का रंग प्राय:गहरा काला होता है।नाक चौड़ी होती है।ओंठ कुछ मोटे होते हैं। आंखें औसतन कम गोल और काली होती हैं।स्त्री और पुरुषों के बाल लम्बे और घुंघराले होते हैं। पुरुष लम्बे बाल जन्म से रखवाते हैं, कभी कटवाते नहीं। गर्दन से पीछे एक ओर कौवे की पूंछ नुमा जूड़ा बांधते हैं।बाल कट जाने पर कोई युवती किसी युवक को पसंद नहीं करती है। लम्बे बाल बैगाओं की खास पहचान है। पगड़ी न पहनें हों तो बैगा युवक भी एक युवती की तरह लगते हैं। इनके शरीर की बनावट सुडौल तथा कद मध्यम होता है।स्त्रियां औसत ऊंचाई की होती हैं।मरावी, धुर्वे, मरकाम,परतेती,तेकाम इनके प्रमुख गोत्र हैं। 50 से ऊपर इनकी जात हैं। बैगा आदिवासी समुदाय में जो महिलाएं प्रसव कराने का कार्य करती हैं उन्हें “सुनमाई” कहते हैं। प्रथम बार जन्म के सात दिन बाद बच्चे के बाल काटने की प्रथा को “झालर” कहते हैं। बैगा समाज में बेटे और बेटी में किसी तरह से कोई भेदभाव नहीं किया जाता है।

बैगा समाज में एक ही जात में विवाह वर्जित है। लड़की वर का चयन खुद करती है। विवाह से पूर्व कन्या की इच्छा से यौन संबंध जायज़ है। बैगा इस मामले में परम सहिष्णु तथा उदार हैं। शादी में लड़की के द्वार पर लड़के वाले “बिलमा”गीत गा कर नृत्य करते हैं। विवाह के समय इनके घरों में कलश स्थापना की जाती है जिसे “करस कौआ “कहा जाता है। यह मांगलिकता का प्रतीक है।मंडप के बीच बने चौखम्भे को “सजन”कहा जाता है। विवाह के समय लड़की और लड़के को बैठाकर गांठ जोड़ते हैं,जिसे “जुडौनी” कहते हैं। लड़की के पिता की ओर से गाय, बछिया का दान लड़की को दिया जाता है, इसे “बंधौनी” कहते हैं। जब विवाह का पूरा खर्च लड़के वाले उठाते हैं तो इसे “उठवा”विवाह कहते हैं। जब लड़की और लड़का राज़ी से भाग जाते हैं तो इसे ” चोर विवाह” कहते हैं। कुंवारी लड़की जब अपनी इच्छा से स्वयं लड़के के घर चली जाती है तो उसे ” पैठूल” विवाह कहते हैं। जब कोई युवक घर दामाद बन जाता है तो उसे “लमसेना” कहते हैं। बैगाओं में बहुपत्नी रखने की प्रथा है।

ग़रीबी के कारण बैगा आदिवासी बहुत कम कपड़े पहनते हैं। पुरुष पटका (लंगोटी) पहनें रहते हैं।स्त्रियां शरीर पर केवल एक साड़ी लपेटे रहती हैं। बच्चे प्राय: नग्न अवस्था में रहते हैं।मुंगी,बिगरा,चगदरिया परम्परागत स्त्री वस्त्र हैं। इन्हें पनका जाति बनाती है। पुरुष हाथ में जर्मन चूड़ा पहनते हैं। कान में एक या दो पीतल की कनबद्धी ऊपरी हिस्से में तांत की बनी बाड़ी पहनते हैं। गले में मोती माला गाठी पुरुष बड़े चाव से पहनते हैं। बैगा स्त्रियां कान के ऊपरी हिस्से में मूंगा बालियां,बारी, निचले हिस्से में तरकुल पहनती हैं। यह उनके सुहाग की निशानी है। इसके अलावा महिलाएं गले में कांच से बनी मोतियों की गुरिया,बांह में नागमूरि बांटवा,कलाई में बनवरिया, गूजरी,चूरा,पत्ता,हाथ की उंगलियों में मुंदरी पहनती हैं। आज भी गरीबी के कारण बैगा आदिवासी समुदाय घास -फूस और बांस तथा लकड़ी से बने कच्चे मकानों में रहते हैं। पानी कच्चे घड़ों में रखते हैं जिन्हें “लवा” कहते हैं। अधिकतर बैगा घरों में लकड़ी और मिट्टी के बर्तन होते हैं।महलौन का पत्ता बैगाओं की थाली है,कटोरा है। कपड़ों को अलगनी पर टांग कर रखते हैं। “बैगानी” इस समाज की बोली है। “गुदना” इन्हें सबसे अधिक प्रिय है।

बैगा आदिवासी समुदाय का रहन – सहन अत्यंत सादा है। घर,बाड़ी,खेत में थोड़ी मेहनत और पर्व त्यौहारों, विवाह में थोड़ा नाच गाना,बस यही उनकी जिंदगी है। दशहरा,करमा, बैगानी,रीना,झरपट,सैला,बिलमा, बड़ौनी तथा परघौनी इनके परम्परागत नृत्य हैं।इनका अपना आदिम संगीत भी है। तांबे के नगाड़े,मांदर,टिमकी वाद्ययंत्र हैं। कर्मा गीत उनकी दैनिक धडकनों के गीत हैं। बैगा स्वभाव से भोले, ईमानदार और सच्चे, सहिष्णु तथा उदार व आपस में कम लड़ते हैं। चोरी, धोखाधड़ी, बेईमानी से बैगा कोसों दूर हैं। झूठ से उन्हें बड़ी चिढ़ है। सदैव अभाव में जीना उनकी नियति है।अंध विश्वास इस समाज की बड़ी समस्या है। शराब पीने की आदत इनकी विपन्नता का कारण है। ठाकुर देव ग्राम देवता हैं और खैर माई ग्राम देवी हैं।बघेश्वर बेवर के देवता हैं।बनजारिन माई वन देवी है। नारायण देव बैगाओं का कुल देवता है। लक्ष्मी देवी बैगाओं के लिए धन की देवी हैं। धरती माता, सूरज देव,बेहट देव,अन्न माता,धानी देवी,मारकी देव के प्रति भी श्रद्धा भाव रखते हैं।बिदरी,हरेली,नवा, दशहरा, दीवाली,छेरता,फाग और जवारा इस समाज के प्रमुख त्योहार हैं। कुल्हाड़ी या फरसा बैगाओं के कन्धे पर अवश्य मिलता है। जंगल की यात्रा में धनुष -बाण रखना बैगा कभी नहीं भूलते। इस समाज में विवादों का निपटारा पंचायत में होता है। “मुकद्दम” गांव का मुखिया होता है। अन्य पंचों में दीवान,समरथ, कोटवार तथा दवार होते हैं।

आदिवासियों में बैगा सबसे ज्यादा पिछड़े हैं। इनकी अर्थ व्यवस्था अत्यंत जीर्ण -शीर्ण है। इनका आर्थिक आधार खेती- बारी, घरेलू धंधे, पशुपालन और जंगल की मज़दूरी है। बांस की टोकनी,डलिया, मछली के फंदे आदि बनाकर बेचते हैं। तेंदू,चार,भिलमा,घुई, जामुन और सगड इकट्ठा कर हाट बाजार में बेंच लेते हैं। पैदावार बीनने का काम तथा महलौन के पत्ते इकट्ठा कर बेचना महिलाओं का एक खास काम है। निष्क्रियता और आलस्य,व्यसन और रूढ़ियों में फंसे अशिक्षित और भोले आदिवासी अपने शोषण के खिलाफ अभी खड़े नहीं हो पाते। यद्यपि अभावों से जूझते हुए भी उनमें जीने की अदम्य जिजीविषा है, बावजूद इसके उन्हें हक़ और इंसाफ़ की दरकार है।

– डॉ. राजबहादुर मौर्य,झांसी


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