राजनीति विज्ञान में अनुसंधान पद्धतियाँ, महत्वपूर्ण तथ्य : भाग- एक
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail. com, website : themahamaya.com (राजनीतिक अनुसंधान का परिचय, सामाजिक अनुसंधान के प्रमुख चरण, अनुसंधान पद्धतियाँ, अवधारणाएँ, रचनाएँ एवं चर)
1- अनुसंधान शब्द अंग्रेज़ी भाषा के रिसर्च शब्द का हिन्दी रूपांतरण है जिसे दो भागों ‘रि’ और ‘सर्च’ में बाँटा जाता है । “रि” शब्द का अर्थ है पुनः और “सर्च” शब्द का अर्थ है खोज करना । अत: अनुसंधान का शाब्दिक अर्थ है- पुनः खोज करना । विचारक रेडमैन एवं मोरी के अनुसार, “नवीन ज्ञान की प्राप्ति के लिए किए गए व्यवस्थित प्रयत्न को हम अनुसंधान कहते हैं ।” प्रोफ़ेसर आर. एल. एकौफ के शब्दों में, “हम अनुसंधान शब्द का प्रयोग सामान्य वर्ग की नियंत्रित खोजों के लिए करेंगे ।” डॉ. एम. वर्मा के अनुसार, “अनुसंधान एक बौद्धिक प्रक्रिया है जो नए ज्ञान को प्रकाश में लाती है अथवा पुरानी त्रुटियों एवं भ्रान्त धारणाओं का परिमार्जन करती है तथा व्यवस्थित रूप में वर्तमान ज्ञान कोष में वृद्धि करती है ।
2- इनसाइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइंस के अनुसार, “अनुसंधान वस्तुओं, प्रत्ययों तथा संकेतों आदि को कुशलता पूर्वक व्यवस्थित करता है, जिसका उद्देश्य सामान्यीकरण द्वारा विज्ञान का विकास, परिमार्जन अथवा सत्यापन होता है, चाहे वह ज्ञान के व्यवहार में सहायक हो अथवा कला में ।” एडवांस्ड लर्नर डिक्शनरी ऑफ करेंट इंगलिश के अनुसार, “किसी भी ज्ञान की शाखा में नवीन तथ्यों की खोज के लिए सावधानी पूर्वक किए गए अन्वेषण या जॉंच पड़ताल को अनुसंधान की संज्ञा दी जाती है ।” इसी प्रकार पी.एम. कुक ने लिखा है कि, “किसी समस्या के सन्दर्भ में ईमानदारी, विस्तार तथा बुद्धिमानी से तथ्यों, उनके अर्थ तथा उपयोगिता की खोज करना ही अनुसंधान है ।” विद्वान विचारक एम.ए. ट्रेवर्स के अनुसार, “शैक्षिक अनुसंधान वह प्रक्रिया है जो शैक्षिक परिस्थितियों में एक व्यवहार सम्बन्धी विज्ञान के विकास की ओर अग्रसर होती है ।”
3- अनुसंधान को परिभाषित करते हुए डब्ल्यू .एस. मनरो ने लिखा है कि, “अनुसंधान उन समस्याओं के समाधान की एक विधि है जिसका अपूर्ण अथवा पूर्ण समाधान तथ्यों के आधार पर ढूँढना है । अनुसंधान के लिए तथ्य, लोगों के मतों के कथन, ऐतिहासिक तथ्य, लेख अथवा अभिलेख, परखों से प्राप्त फल, प्रश्नावली के उत्तर अथवा प्रयोगों से प्राप्त सामग्री हो सकती है ।” सी. सी. क्रॉफोर्ड के अनुसार, “अनुसंधान किसी समस्या के अच्छे समाधान के लिए क्रमबद्ध तथा विशुद्ध चिंतन एवं विशिष्ट उपकरणों के प्रयोग की एक विधि है ।” लुण्डवर्ग के शब्दों में, “अनुसंधान वह है जो अवलोकित तथ्यों के सम्भावित वर्गीकरण, सामान्यीकरण और सत्यापन करते हुए पर्याप्त रूप से वस्तु विषयक और व्यवस्थित हो ।”
4- द न्यू सेंचुरी डिक्शनरी के अनुसार, “तथ्यों या सिद्धांतों की खोज के लिए किसी वस्तु या किसी के लिए सावधानीपूर्वक किया गया अन्वेषण, किसी एक विषय में किया गया निरंतर सावधानी पूर्वक जॉंच या अन्वेषण, अनुसंधान कहलाता है ।” वाल्टर ई. स्पार और राइनहार्ट जे. स्वेंसन के अनुसार, “सत्य तथ्यों, निश्चितताओं के लिए किया गया कोई विद्वतापूर्ण अन्वेषण अनुसंधान कहलाता है ।” जॉन डब्ल्यू. बैस्ट के अनुसार, “अनुसंधान अधिक औपचारिक, व्यवस्थित तथा गहन प्रकिया है जिसमें वैज्ञानिक विधि विश्लेषण को प्रयुक्त किया जाता है । इसके फलस्वरूप निष्कर्ष निकाले जाते हैं और उनका औपचारिक आलेख तैयार किया जाता है ।”
5- सामान्य रूप से नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया गया क्रमबद्ध प्रयास ही अनुसंधान कहलाता है । अनुसंधान नवीन तथ्यों की या सिद्धांत की खोज के लिए संचालित किया जाता है । इस प्रक्रिया में सावधानी पूर्वक जॉंच, पर्याप्त अवलोकन एवं वस्तु विषयक अध्ययन करना होता है । इस पद्धति द्वारा जो तथ्य प्रकाश में आते हैं वे ज्ञानवृद्धि के लिए बडे सहायक हैं एवं भविष्य में किए जाने वाले अनुसंधानों के लिए मार्गदर्शक हैं ।
6- सामाजिक अनुसंधान का अर्थ सामाजिक घटनाओं तथा समस्या से सम्बन्धित नवीन ज्ञान प्राप्त करना, प्राप्त ज्ञान में वृद्धि करना तथा साथ ही जिन नियमों या सिद्धांतों का निर्माण किया गया है उनमें संशोधन करना भी है । सामाजिक अनुसंधान को परिभाषित करते हुए फिशर ने लिखा है कि, “किसी समस्या को हल करने या एक परिकल्पना की परीक्षा करने या नए घटनाक्रम या उसमें नए सम्बन्धों को खोजने के उद्देश्य से उपयुक्त पद्धतियों का सामाजिक परिस्थितियों में जो प्रयोग किया जाता है उसे सामाजिक अनुसंधान कहते हैं ।” बोगार्ड्स के अनुसार, “एक साथ रहने वाले लोगों के जीवन में क्रियाशील अन्तर्निहित प्रक्रियाओं की खोज ही सामाजिक अनुसंधान है ।”
7- सामाजिक अनुसंधान को परिभाषित करते हुए यंग ने लिखा है कि, “सामाजिक अनुसंधान नवीन तथ्यों की खोज, पुराने तथ्यों के सत्यापन, उनके क्रमबद्ध पारस्परिक सम्बन्धों, कारणों की व्याख्या तथा उन्हें संचालित करने वाले प्राकृतिक नियमों के अध्ययन की सुनियोजित पद्धति है ।” मोजर के अनुसार, “सामाजिक घटनाओं तथा समस्याओं के सम्बन्ध में नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए की गई व्यवस्थित छानबीन को सामाजिक अनुसंधान कहते हैं ।” मैकग्रेथ तथा वाटसन के अनुसार, “अनुसंधान एक प्रक्रिया है जिसमें खोज प्रविधि का प्रयोग किया जाता है जिसके निष्कर्षों की उपयोगिता हो, ज्ञान प्रगति के लिए प्रोत्साहित करे, समाज के लिए सहायक हो तथा मनुष्य को अधिक प्रभावशाली बना सके ।”
8- सामाजिक अनुसंधान के प्रेरक तत्वों में प्रमुख हैं : जिज्ञासा, कार्य- कारण सम्बन्धों को समझने की इच्छा, नवीन तथा अप्रत्याशित घटनाओं का घटित होना तथा नवीन प्रणालियों की खोज एवं प्राचीन प्रणालियों की पुनर्परीक्षा । सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति अग्रलिखित है : सामाजिक सम्बन्धों, घटनाओं, तथ्यों व प्रक्रियाओं की व्याख्या करना, सामाजिक सम्बन्धों के बारे में नवीन तथ्यों की खोज करना, कार्य एवं कारण के सम्बन्धों की खोज, प्राचीन तथ्यों में सुधार करना, वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करना तथा सांख्यिकीय विश्लेषण का उपयोग करना शामिल है । सामाजिक अनुसंधान के उद्देश्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है : सैद्धांतिक उद्देश्य और व्यावहारिक उद्देश्य ।
9- सामाजिक अनुसंधान के सैद्धांतिक उद्देश्यों में, नवीन तथ्यों एवं ज्ञान की खोज करना, कार्य- कारण सम्बन्धों का पता लगाना, नियमों की खोज करना, सैद्धांतिक विकास करना शामिल है जबकि व्यावहारिक उद्देश्यों में, सामाजिक समस्याओं का समाधान खोजना, प्रशासन में सहायक होना, सामाजिक योजनाओं को बनाने में सहायता, सामाजिक नियंत्रण में सहायक और विकल्पों को खोजना सम्मिलित है । सामाजिक अनुसंधान के क्षेत्र को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है : सामाजिक जीवन की संरचना तथा प्रकार्यों से सम्बन्धित अनुसंधान, नये सिद्धांतों के प्रतिपादन से सम्बन्धित अनुसंधान, पुराने सिद्धांतों के सत्यापन से सम्बन्धित क्षेत्र, द्वैतीयक तथ्यों पर आधारित शोध और प्रयोगात्मक पद्धति पर आधारित अनुसंधान ।
10- सामाजिक अनुसंधान के प्रकारों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है : पहला, प्रकृति एवं विषयवस्तु के आधार पर तथा दूसरा, प्रयुक्त सामग्री के आधार पर और तीसरा, अभिकल्प के आधार पर । प्रकृति एवं विषयवस्तु के आधार पर अनुसंधान तीन प्रकार का होता है : पहला, विशुद्ध अथवा मौलिक अनुसंधान, दूसरा, व्यावहारिक अनुसंधान और तीसरा क्रियात्मक अनुसंधान । विशुद्ध अथवा मौलिक अनुसंधान ‘ज्ञान के लिए ज्ञान’ के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ता है । पी. वी. यंग के अनुसार, “विशुद्ध अथवा मौलिक अनुसंधान उसे कहा जाता है जिसमें ज्ञान का संचय केवल ज्ञान प्राप्ति के लिए हो ।” इसका लक्ष्य केवल किसी समस्या को हल करना नहीं होता है । जबकि व्यावहारिक अनुसंधान के बारे में होर्टन तथा हंट ने लिखा है कि, “जब किसी ज्ञान की खोज के लिए वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है जिसकी व्यावहारिक समस्याओं को हल करने में उपयोगिता है, तो इसे व्यावहारिक अनुसंधान कहा जाता है ।”
11- व्यावहारिक अनुसंधान की उपयोगिता के बारे में स्टाउफर की मान्यता है कि, “यदि सामाजिक विज्ञानों को अपना महत्व बढ़ाना है तो उन्हें अपने व्यावहारिक पक्ष को सफल बनाना होगा ।” श्रीमती पी. वी. यंग के शब्दों में, “ज्ञान की खोज का लोगों की आवश्यकताओं एवं कल्याण के साथ एक निश्चित सम्बन्ध पाया जाता है । वैज्ञानिक यह मानकर चलता है कि समस्त ज्ञान मूलतः उपयोगी हैं, चाहे उसका उपयोग निष्कर्ष निकालने में या किसी क्रिया अथवा व्यवहार को कार्यान्वित करने में, एक सिद्धांत के निर्माण में या एक कला को व्यवहार में लाने के लिए किया जाए । सिद्धांत तथा व्यवहार अक्सर आगे चलकर एक- दूसरे से मिल जाते हैं ।
12- क्रियात्मक अनुसंधान का प्रारम्भ 1933 में प्रोफ़ेसर कोलियर ने अमेरिका में किया । क्रियात्मक अनुसंधान के बारे में रेबियर ने कहा है कि, “क्रियात्मक अनुसंधान वह शोध है जो इस उद्देश्य से किया जाता है कि घटनाओं की समीक्षा प्राप्त की जाए जिससे वास्तविक विश्व समस्याओं का व्यावहारिक उपयोग एवं समाधान हो सके ।” गुडे एवं हट्ट के शब्दों में, “क्रियात्मक अनुसंधान उस कार्यक्रम का एक भाग है जिसका लक्ष्य मौजूदा दशाओं को परिवर्तित करना होता है, चाहे वह गंदी बस्ती की दशाएँ हों या प्रजातीय तनाव तथा पूर्वाग्रह हों या किसी संगठन की प्रभावशीलता हो ।” स्टेफन एम. कोरी के शब्दों में, “क्रियात्मक अनुसंधान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यावहारिक कार्यकर्ता अपनी समस्या का इस दृष्टि से वैज्ञानिक अध्ययन करते हैं ताकि वे आवश्यकतानुसार अपने निर्णयों एवं क्रियाओं को दिशा दे सकें उनमें परिवर्तन व सुधार कर सकें, उनका मूल्यांकन कर सकें ।”
13- क्रियात्मक अनुसंधान को सम्पन्न करने का पहला चरण ‘समस्या का अभिज्ञान’ है । दूसरा चरण ‘कार्य के लिए प्रस्ताव पर विचार- विमर्श, तीसरा चरण, ‘क्रियात्मक परिकल्पना का निर्माण करना, चौथा चरण, योजना का क्रियान्वयन व तथ्य संकलन, पाँचवाँ चरण, ‘तथ्यों का वर्गीकरण, विश्लेषण व निर्वचन, छठवाँ चरण, ‘परिकल्पना की जॉंच करना’ तथा अन्ततः सुझाव देना होता है । क्रियात्मक अनुसंधान दिन- प्रतिदिन की समस्याओं के हल के लिए किया जाता है । इसलिए यह जन सहभागिता के लिए एक महत्वपूर्ण पद्धति है । विद्यार्थियों में बढ़ती अनुशासनहीनता, पढ़ाई पर ध्यान देने जैसी व्यावहारिक समस्याओं के लिए यह विधि उपयुक्त है ।
14- प्रयुक्त सामग्री के आधार पर अनुसंधान के प्रकारों में ऐतिहासिक पद्धति प्रमुख है । ऐतिहासिक पद्धति को स्पष्ट करते हुए राइट ने लिखा है कि, “इतिहास पुनर्निर्माण की उस विधि का, जिसमें कि वास्तविक रूप से घटनाएँ घटी हैं, अध्ययन करता है और उन घटनाओं का मनुष्य जाति की कहानी में क्या महत्व है इसका मूल्यांकन करने का प्रयत्न करता है ।” रेडक्लिफ ब्राउन के अनुसार, “ऐतिहासिक पद्धति वह विधि है जिसमें कि वर्तमान काल में घटित होने वाली घटनाओं को भूतकाल में घटित हुई घटनाओं के धारा प्रवाह व क्रमिक विकास को एक कड़ी के रूप में मानकर अध्ययन किया जाता है ।” पी. वी. यंग के शब्दों में, “ऐतिहासिक पद्धति, आगमन के सिद्धांत के आधार पर अतीत की उन सामाजिक शक्तियों की खोज है जिन्होंने वर्तमान को एक विशेष रूप प्रदान किया गया है ।”
15- ऐतिहासिक पद्धति को परिभाषित करते हुए जॉन डब्ल्यू बेस्ट ने लिखा कि, “ऐतिहासिक अनुसंधान का सम्बन्ध ऐतिहासिक समस्याओं के वैज्ञानिक विश्लेषण से है । इसके विभिन्न पद भूत के सम्बन्ध में एक नई सूझ पैदा करते हैं जिसका सम्बन्ध वर्तमान और भविष्य से होता है ।” एफ.एल. ह्विटनी के शब्दों में, “ऐतिहासिक अनुसंधान भूत का विश्लेषण करता है । इसका उद्देश्य भूतकालीन घटनाक्रम, तथ्य और अभिवृत्तियों के आधार पर ऐसी सामाजिक समस्याओं का चिंतन एवं विश्लेषण करना है जिसका समाधान नहीं मिल सका है । यह मानव विचारों और क्रियाओं के विकास की दिशा की खोज करता है जिसके द्वारा सामाजिक क्रियाओं के लिए आधार प्राप्त हो सके ।”
16- ऐतिहासिक पद्धति में अनुसंधानकर्ता के पास अनिवार्य रूप से एक सामाजिक अन्तर्दृष्टि होना चाहिए । उसे ऐतिहासिक अभिस्थापना की समझ होनी चाहिए । अध्ययन करने की वस्तुनिष्ठ क्षमता होनी चाहिए । विश्लेषणात्मक व समन्वयात्मक दृष्टिकोण होना चाहिए । शोधार्थी को अध्ययन क्षेत्र से परिचित होना चाहिए । विश्वसनीय तथा सम्बद्ध तथ्यों को संकलन करना चाहिए । प्रचुर कल्पना शक्ति होना चाहिए तथा व्यक्तिगत सीमाओं एवं विरोधाभासों के प्रति जागरूकता भी अनुसंधानकर्ता के लिए ज़रूरी है । लुईस गोशेक ने लिखा है कि, “इस पद्धति को प्रयोग में लेने के लिए प्रचुर कल्पना शक्ति की आवश्यकता होती है । केवल तथ्यों के संकलन से ही अध्ययनकर्ता का कार्य पूर्ण नहीं हो जाता बल्कि आवश्यक है कि शोधकर्ता कल्पनाशक्ति के आधार पर तथ्यों के आंतरिक अर्थों व उनकी परिस्थितियों को समझने का प्रयास करे ।”
17- ऐतिहासिक पद्धति के प्रयोग के प्रमुख चरण हैं : समस्या का चुनाव, साधनों की उपलब्धता, तथ्यों का संकलन, विषय से सम्बद्ध, तथ्यों का वर्गीकरण व संगठन तथा विश्लेषण एवं व्याख्या व प्रतिवेदन का निर्माण करना है । ऐतिहासिक पद्धति के महत्व को रेखांकित करते हुए ह्वाइट हैड ने लिखा है कि, “वर्तमान समय में उभरती हुई प्रत्येक चीज में उसके समस्त अतीत व भविष्य का बीज छुपा होता है ।” बर्नाड शॉ के अनुसार, “अतीत समूह के पीछे नहीं होता बल्कि समूह के अन्दर ही विद्यमान रहता है ।” विद्वान चिंतक आर्थर श्लेसिंगर ने कहा है कि, “कोई भी व्यक्ति अथवा कोई भी सामाजिक वैज्ञानिक अतीत के लम्बे हाथ की बुद्धिमत्तापूर्ण अवहेलना नहीं कर सकता है ।”
18- अभिकल्प के आधार पर अनुसंधान के तीन प्रकार हैं । पहला, अन्वेषणात्मक अथवा निरूपणात्मक अनुसंधान, दूसरा, वर्णनात्मक अनुसंधान और तीसरा, प्रायोगिक अथवा परीक्षणात्मक अनुसंधान । सैल्टिज तथा अन्य विद्वानों के अनुसार, “अन्वेषणात्मक अनुसंधान प्रकल्प (प्ररचना) उस अनुभव को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है जो निश्चित अनुसंधान हेतु सम्बद्ध परिकल्पना के निरूपण में सहायक होगा ।” आर.एल. एकॉफ के शब्दों में, “अभिकल्प वह प्रक्रिया है, जिसमें किसी समस्या समाधान के लिए निर्णयों को क्रियान्वित किया जाता है । किसी अपेक्षित परिस्थिति को नियंत्रित करने की दिशा में यह एक संकलित पूर्वानुमान की प्रक्रिया है ।”
19- अनुसंधान अभिकल्प को परिभाषित करते हुए एफ.एन. करलिंगर ने कहा है कि, “अनुसंधान अभिकल्प नियोजित अन्वेषण की वह योजना, संरचना तथा अनुसंधान व्यूह नीति है जिसके आधार पर अनुसंधान प्रश्नों के उत्तर प्राप्त किए जाते हैं और प्रसरण पर नियंत्रण किया जाता है ।” विद्वान लेखक क्रिक ने भी लिखा है कि, “प्रायोगिक अभिकल्प प्रयोज्यों को विभिन्न प्रायोगिक स्थितियों में निर्दिष्ट किए जाने की विशिष्ट योजना है जिससे सम्बन्धित सांख्यिकीय विश्लेषण की योजना भी सम्मिलित रहती है ।” मैथसन के अनुसार, “प्रायोगिक अभिकल्प अनुसंधान की वह आधारभूत योजना है जिसमें स्वतंत्र चर के विभिन्न स्तर पर प्रयोज्यों को निर्दिष्ट अथवा वितरित किया जाता है और जिसमें स्वतंत्र चर में किए जाने वाले प्रहस्तन की प्रक्रियाएँ भी सम्मिलित हैं ।”
20- अन्वेषणात्मक शोध की प्रकल्प का निर्माण करने में सामाजिक विज्ञान अथवा अन्य सम्बन्धित साहित्य का पुनर्निरीक्षण, अध्ययन समस्या से सम्बन्धित अनुभवी व्यक्तियों का सर्वेक्षण तथा अन्तर्दृष्टि प्रेरक उदाहरणों का विश्लेषण सहायक होते हैं । पूर्व निर्धारित प्राक्कल्पनाओं का तात्कालिक दशाओं के सन्दर्भ में परीक्षण करना, महत्वपूर्ण सामाजिक समस्याओं की ओर शोधकर्ता के ध्यान को आकर्षित करना, अनुसंधान हेतु नवीन प्राक्कल्पनाओं को विकसित करना, अन्तर्दृष्टि प्रेरक घटनाओं को विश्लेषण करना एवं अध्ययन के नवीन क्षेत्रों को विकसित करना, विभिन्न शोध पद्धतियों के प्रयोग की उपयुक्तता की सम्भावनाओं का पता लगाना तथा शोध कार्य को एक विश्वसनीय रूप से प्रारम्भ करने हेतु आधारशिला तैयार करना अन्वेषणात्मक शोध के प्रमुख कार्य हैं ।”
21- वर्णनात्मक अनुसंधान का उद्देश्य किसी भी समस्या के सम्बन्ध में पूर्ण, यथार्थ तथा विस्तृत तथ्यों की जानकारी प्राप्त करना है । इसमें अध्ययन के उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है । तथ्य संकलन की प्रविधियों का चयन किया जाता है । निदर्शन का चयन किया जाता है तथा तथ्यों का विश्लेषण किया जाता है । इस शोध में वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण बनाए रखना होता है जिससे पक्षपात, मिथ्या झुकाव एवं पूर्व धारणा आदि से बचा जा सके । वर्णनात्मक अनुसंधान काफी विस्तृत होता है अतः उसे समयबद्ध और मितव्ययिता के साथ पूर्ण करना होता है ।
22- प्रायोगिक अथवा परीक्षणात्मक अनुसंधान अर्थ को स्पष्ट करते हुए चेपिन ने कहा है कि, “समाजशास्त्रीय अनुसंधान में परीक्षणात्मक प्रकल्प की अवधारणा नियंत्रण की दशाओं के अंतर्गत निरीक्षण द्वारा मानवीय सम्बन्धों के व्यवस्थित अध्ययन की ओर संकेत करती हैं ।” मार्टिण्डेल तथा मोनेकसी ने इस पद्धति के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “प्रायोगिक पद्धति से हमारा तात्पर्य उस तरीक़े से है जिससे विज्ञान अनुभवसिद्ध ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपनी आधारभूत प्रणालियों को व्यवहार में लाता है तथा अपने उपकरणों एवं प्रविधियों का प्रयोग करता है ।”
23- सामाजिक अनुसंधान की उपयोगिता या महत्व यह है कि यह नवीन ज्ञान की प्राप्ति में सहायक होते हैं तथा अज्ञानता को दूर करने में प्रभावशाली होते हैं । सामाजिक अनुसंधान समाज की समस्याओं को हल करने में सहायक होते हैं । वह कल्याणकारी योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन में सहायक होते हैं । इससे प्रशासन एवं समाज सुधार को बल मिलता है ।यह सामाजिक नियंत्रण में भी सहायक होते हैं । अनुसंधान से भविष्यवाणी करने में भी सहायता मिलती है । बावजूद इसके सामाजिक अनुसंधान में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि सामाजिक घटनाओं की प्रकृति जटिल होती है, अवधारणाओं में स्पष्टता का अभाव होता है, मापन की समस्या है, वस्तुनिष्ठता और सत्यापन की समस्या है ।
24- सामाजिक अनुसंधान के लिए वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है । वैज्ञानिक पद्धति के अनेक चरण होते हैं जिनसे होकर शोधकर्ता को गुजरना पड़ता है । आगस्ट कॉम्टे के अनुसार वैज्ञानिक शोध के पाँच चरण होते हैं : पहला, विषय का चुनाव, दूसरा, अवलोकन द्वारा तथ्यों का संकलन, तीसरा, तथ्यों का वर्गीकरण, चौथा, तथ्यों का परीक्षण और पाँचवाँ, नियमों का प्रतिपादन । श्रीमती पी. वी. यंग के अनुसार वैज्ञानिक पद्धति के तीन चरण होते हैं : एक, कार्यकारी प्रकल्पना का निर्माण, दो, लिखित तथ्यों का श्रेणियों या अनुक्रमों में वर्गीकरण और तीन, वैज्ञानिक सामान्यीकरण तथा नियमों का निर्माण ।
25- सामाजिक अनुसंधान के लिए जार्ज ए.लुण्डबर्ग ने वैज्ञानिक पद्धति के चार चरण बताया है : कार्यकारी उपकल्पना, तथ्यों का अवलोकन एवं लेखन, तथ्यों का वर्गीकरण एवं संगठन तथा सामान्यीकरण । जॉन आर्थर थामसन ने वैज्ञानिक अध्ययन के छह चरण बताए हैं : अवलोकन द्वारा सामग्री का संकलन, सामग्री का मापन तथा सही पंजीकरण, सामग्री को व्यवस्थित रूप प्रदान करना, सामग्री का विश्लेषण एवं घटाने का कार्य करना, अन्तरिम वैज्ञानिक उपकल्पना का निर्माण तथा नियमों का निर्माण । पीटर एच. मन के अनुसार, प्रारम्भिक विचार तथा उसका सिद्धांत से जोड़ा जाना, उपकल्पना का परिसीमन, सामग्री का संकलन, सामग्री का विश्लेषण, परिणामों को बताना तथा सैद्धान्तिक पुनर्निवेशन वैज्ञानिक पद्धति के चरण होते हैं ।
26- उपरोक्त विवेचन के आधार पर सामान्य वैज्ञानिक अनुसंधान के निम्नलिखित चरण होते हैं : समस्या का चयन, उपकल्पना, चरों का चयन, निदर्शन या प्रतिचयन, सामग्री का संकलन, तथ्यों का विश्लेषण, संकेतन, सारणीयन, निर्वचन और रिपोर्ट लिखना । समस्या के चयन के बारे में एकॉफ ने कहा है कि, “किसी समस्या का ठीक प्रकार से निर्धारण इसका आधा समाधान है ।” सामग्री के संकलन के लिए अनेक प्रविधियाँ हैं, जिनमें अवलोकन, साक्षात्कार, अनुसूची, डाक प्रणाली, एकल अध्ययन, अन्तर्वस्तु विश्लेषण, पैनल अध्ययन, वंशावली और अनुमापन प्रणाली प्रमुख हैं ।
27- राजनीतिक अनुसंधान में अनेक पद्धतियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं जिनमें, मनोवैज्ञानिक पद्धति, सांख्यिकीय पद्धति, समाजशास्त्रीय पद्धति तथा तुलनात्मक पद्धति प्रमुख हैं । मनोवैज्ञानिक पद्धति के बारे में डेविड ईस्टन ने लिखा है कि, “गत बीस वर्षों के विकास के साथ मनोवैज्ञानिक श्रेणियों का प्रयोग समस्त राजनीतिक जीवन में प्रसारित हो रहा है ।” अब्राहम कार्डीनर ने लिखा है कि, “जितना अधिक मनोवैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जा रहा है, उतना ही अधिक शक्ति, प्रभाव और व्यक्ति में छिपे आन्तरिक तत्वों का पता लगाया जा रहा है ।” चार्ल्स ई. मरियम ने सांख्यिकीय पद्धति के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा है कि, “नि:संदेह राजनीतिक संकलन के विभिन्न प्रकारों तथा मौलिक समानताओं के सह- सम्बन्धों का पता लगाने में संख्यात्मक मानदंड का प्रयोग बड़ा व्यापक और उपयोगी है ।”
28- वैज्ञानिक पद्धति के बारे में कार्ल पियर्सन का मत है कि, “सत्य तक पहुँचने के लिए कोई संक्षिप्त पथ नहीं है । विश्व के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें वैज्ञानिक पद्धति के द्वार से गुजरना होगा । वस्तुतः सभी विज्ञानों की एकता उसकी पद्धति में है न कि केवल उसकी विषयवस्तु में ।” स्टुअर्ट चेज ने विज्ञान का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि, “विज्ञान का सम्बन्ध पद्धति से है न कि विषय सामग्री से ।” लैंडिस का मत है कि, “विज्ञान, विज्ञान ही है, चाहे वह भौतिकशास्त्र में हो या समाजशास्त्र में ।” जे. बीसंज एवं एम. बीसंज के शब्दों में, “यह एक पद्धति या उपागम है न कि विषय सामग्री जो विज्ञान की कसौटी है ।”
29- वैज्ञानिक पद्धति के बारे में लुण्डबर्ग ने कहा है कि, “ सामान्य भाषा में वैज्ञानिक पद्धति तथ्यों का क्रमबद्ध अवलोकन, वर्गीकरण और विवेचन है ।” थाउलेस के अनुसार, “वैज्ञानिक पद्धति सामान्य नियमों की खोज के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्रविधियों की एक व्यवस्था है जो कि विभिन्न बातों से भिन्न होते हुए भी एक सामान्य प्रकृति को बनाए रखती है ।” लावेल जू के अनुसार, “प्रत्येक विज्ञान संसार के प्रति एक धारणा, एक दृष्टिकोण, प्रमाणित ज्ञान का एक व्यवस्थित ढाँचा और खोज करने की एक पद्धति है ।” चिंतक और लेखक कोफमैन के अनुसार, “वैज्ञानिक पद्धति से हम यह निश्चय करते हैं कि क्यों निर्धारित संश्लिष्ट उपसर्ग किसी एक निश्चित विज्ञान के संकलन के अंश समझे जाएँ ।”
30- वैज्ञानिक पद्धति के बारे में गिलिन तथा गिलन ने कहा है कि, “जिस क्षेत्र का हम अनुसंधान करना चाहते हैं, उसकी एक निश्चित प्रकार की पद्धति ही विज्ञान का वास्तविक चिन्ह है ।” बर्नाड के अनुसार, “विज्ञान की परिभाषा इसमें होने वाली छह प्रधान प्रक्रियाओं के रूप में की जा सकती है । यह प्रक्रियाएँ हैं : परीक्षण, सत्यापन, परिभाषा, वर्गीकरण, संगठन तथा निर्धारण जिसमें पूर्वानुमान एवं प्रयोग भी सम्मिलित हैं ।” डॉ. विबासी के अनुसार, “वैज्ञानिक पद्धति, वैज्ञानिक विश्लेषण तथा अनुसंधान से त्रुटियों एवं पूर्वाग्रहों को समाप्त करने वाली क्रियाओं तथा प्रक्रियाओं के नियमों का समुच्चय है ।” चैपलिन के अनुसार, “वैज्ञानिक विधि का तात्पर्य वह प्रविधियाँ हैं, जिनका उपयोग ज्ञान की खोज में वैज्ञानिकों के द्वारा किया जाता है ।”
31- एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार, “वैज्ञानिक विधि वह वृहद् अर्थ वाला शब्द है जो अनेक प्रक्रियाओं को स्पष्ट करता है जिसकी सहायता से विज्ञान का निर्माण होता है । व्यापक अर्थों में वैज्ञानिक विधि का अर्थ अनुसंधान की किसी ऐसी विधि से है जिसके द्वारा निष्पक्ष तथा व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त किया जाता है ।” उपरोक्त सभी परिभाषाओं का सार यह है कि वैज्ञानिक पद्धति ज्ञान प्राप्त करने की एक व्यवस्थित पद्धति है जिसमें तथ्यों का अवलोकन, वर्गीकरण, सारणीयन एवं सामान्यीकरण शामिल है । अन्ततः यह कहा जा सकता है कि, वस्तुनिष्ठता, तार्किकता, परिकल्पना का निर्माण, सत्यापनशीलता, पूर्वानुमान की क्षमता, सिद्धांत निर्माण, निश्चितता और व्यवस्थितता वैज्ञानिक पद्धति की विशेषताएँ हैं ।
32- वैज्ञानिक पद्धति के प्रमुख चरण हैं : समस्या का चयन, उपकल्पना का निर्माण, साधन का चयन, तथ्यों का संकलन, तथ्यों का विश्लेषण एवं वर्गीकरण तथा सामान्यीकरण । वैज्ञानिक अनुसंधान में अन्वेषी अनुसंधान, वर्णनात्मक अनुसंधान, व्याख्यात्मक अनुसंधान, विशुद्ध अनुसंधान, व्यावहारिक अनुसंधान, परिमाणात्मक अनुसंधान, गुणात्मक अनुसंधान, तुलनात्मक अनुसंधान तथा लम्बात्मक अनुसंधान प्रमुख हैं । अन्वेषी अनुसंधान उन विषयों का अध्ययन करता है जिसके सम्बन्ध में या तो कोई जानकारी नहीं होती अथवा बहुत कम जानकारी होती है । वर्णनात्मक अनुसंधान का प्रयोग सामाजिक स्थितियों, घटनाओं, सामाजिक प्रणालियों तथा सामाजिक संरचना आदि के अध्ययन के लिए किया जाता है । व्याख्यात्मक अनुसंधान का उद्देश्य चरों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करना है । यह अनुसंधान सामाजिक घटनाओं के कारणों की व्याख्या करता है ।
33- विशुद्ध अनुसंधान का उद्देश्य ज्ञान की खोज और व्यावहारिक उपयोग की चिंता किए बिना घटना के विषय में अधिक जानकारी और प्राकल्पना तथा सिद्धांतों के विकास और परीक्षण से सम्बन्ध रखना है । व्यावहारिक अनुसंधान सामाजिक तथा वास्तविक जीवन की समस्याओं के विश्लेषण एवं उनके निदान पर बल देता है । परिमाणात्मक अनुसंधान में सांख्यिकीय विश्लेषण का उपयोग करके परिमाणात्मक मापन किया जाता है । लम्बात्मक अनुसंधान विभिन्न समयों पर घटने वाली घटनाओं का अध्ययन करता है । जैसे 1999 -2000-2020 इत्यादि । वैज्ञानिक अनुसंधान की विधियों में, क्षेत्र अध्ययन पद्धति, प्रयोगात्मक पद्धति, सर्वेक्षण पद्धति, एकल विषय अध्ययन पद्धति, सांख्यिकीय पद्धति, ऐतिहासिक पद्धति तथा उद्विकास पद्धति प्रमुख हैं ।
34- राजनीति विज्ञान में वैज्ञानिक पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग करने का श्रेय अरस्तू को दिया जाता है । उसे राजनीति विज्ञान का जन्मदाता माना जाता है । इस पद्धति को जर्मनिक इन ओरिजिन की संज्ञा दी जाती है । वैज्ञानिक पद्धति पर सत्रहवीं शताब्दी में लियोनार्डो, गैलीलियो और न्यूटन का प्रभाव पड़ा । इसे हाब्स के चिंतन में भी देखा जा सकता है । आगस्त काम्टे पर पदार्थ शास्त्र का प्रभाव पड़ा था । डार्विन के विकासवाद का स्पेन्सर पर प्रभाव पड़ा । काम्टे ने विधेयवाद और स्वीकारवाद के कार्य- कारण पर बल दिया । उनका प्रभाव जॉन स्टुअर्ट मिल और दुर्खाइम पर पड़ा । इस प्रकार अनुभवात्मक परीक्षणवाद का विकास हुआ । जर्मनी में सिम्मेल, रिकर्ट तथा जेलिनेक्स ने इस पद्धति के विकास में बल दिया ।
35- राजनीति विज्ञान में थॉमस हॉब्स, जॉन स्टुअर्ट मिल, हरबर्ट स्पेंसर, ऑगस्त कॉम्टे आदि ने वैज्ञानिक पद्धति के विकास में सहायता की । ग्राह्म वालेस, आर्थर वेंटले, चार्ल्स मरियम (न्यू ऑस्पैक्ट्स ऑफ पॉलिटिक्स) तथा जार्ज कैटलिन (द साइंस एंड मैथ्ड्स ऑफ पॉलिटिक्स) ने वैज्ञानिक पद्धतियों के अपनाए जाने पर बल दिया । समकालीन दौर में हेराल्ड लॉसवेल, डेविड ईस्टन, आमण्ड और डायच जैसे विद्वानों ने राजनीति को वैज्ञानिक अनुशासन बनाने में योगदान दिया । आर्नल्ड ब्रेख़्त ने विशुद्ध राजनीति विज्ञान को राजनीतिक दृष्टि से वैज्ञानिक बनाने में नए उपकरणों तथा प्रविधियों से समृद्ध किया है । स्टुअर्ट ए.राइस ने अपनी पुस्तक ‘राजनीति विज्ञान में मात्रात्मक पद्धतियाँ) में राजनीति विज्ञान और राजनीतिक दर्शन को स्पष्ट किया है ।
36- राजनीति विज्ञान में वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग का मुख्य उद्देश्य : भावी घटनाओं पर नियंत्रण करना,मॉडलों का प्रयोग करना, विभिन्न उपागमों या सिद्धांतों का विकास करना तथा नई शब्दावली की खोज करना है । राजनीति विज्ञान में एक आनुभाविक सिद्धांत निर्माण हेतु, कार्य निर्वाही प्राकल्पना का निर्माण करना पड़ता है । तथ्यों का निरीक्षण तथा संकलन, संकलित तथ्यों का वर्गीकरण तथा वैज्ञानिक सामान्यीकरण करना होता है । कुछ विद्वानों की यह भी मान्यता है कि राजनीति विज्ञान में वैज्ञानिक पद्धति की सम्भावना नहीं है क्योंकि राजनीति में पूर्वानुमान सम्भव नहीं है, कार्य- कारण का सम्बन्ध स्पष्ट नहीं होता, वस्तुनिष्ठता का अभाव होता है और प्रयोगशाला की कमी है तथा अनिश्चितता व राजनीतिक तथ्यों की परिवर्तनशीलता होती है ।
37- स्नाइडर ने कहा है कि, “यदि हम प्रयोग की नियत परिभाषा करें तो इसका अर्थ नियंत्रित निरीक्षक, दोहराने की प्रक्रिया है और यह आधारभूत वैज्ञानिक प्रणाली मनोविज्ञान को छोड़ मानवीय व्यवहार के अध्ययन में लागू नहीं हो सकती ।” स्टीफ़न एल. वास्बी ने अपनी पुस्तक पॉलिटिकल साइंस : द डिसिप्लन एंड इट्स डिमॉंसट्रेसन में उन आपत्तियों का वर्णन किया है जो राजनीति को वैज्ञानिक बनाने में बाधक हैं । बावजूद इसके कुछ विद्वानों का मानना है कि राजनीति में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग सम्भव है क्योंकि पूर्वानुमान, कार्य- कारण सम्बन्ध का पता लगाना, तथ्यों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण तथा सामान्यीकरण सम्भव है ।
38- विज्ञान में अवधारणा का महत्वपूर्ण स्थान होता है क्योंकि इसी के माध्यम से वह अपने निष्कर्षों को सम्प्रेषित करता है । अवधारणा को स्पष्ट करते हुए पॉल वी. यंग ने लिखा है कि, “सामाजिक विश्लेषण की प्रक्रिया में अन्य तथ्यों से अलग किये गए तथ्यों के एक नए वर्ग को एक अवधारणा का नाम दिया जाता है ।” बर्नाड फ़िलिप्स के अनुसार, “अवधारणाएँ भाववाचक हैं जिनका प्रयोग एक वैज्ञानिक द्वारा प्रस्तावनाओं एवं सिद्धांतों के विकास के लिए निर्माण स्तम्भों के रूप में किया जाता है ताकि प्रघटनाओं की व्याख्या की जा सके और उनके बारे में भविष्यवाणी की जा सके ।” द कॉन्साइज ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, “अवधारणा वस्तुओं के एक वर्ग का विचार अथवा सामान्य विचार होता है ।”
39- अवधारणा के बारे में जी. डी. मिचेल मानते हैं कि, “अवधारणा एक विवरणात्मक गुण या सम्बन्ध को संकेत करने वाला पद है ।” गुडे एवं हॉट के शब्दों में, “अवधारणाएँ अमूर्त होती हैं और यथार्थता के केवल विशेष पहलुओं का संकेत करती हैं ।” रॉबर्ट के. मर्टन के शब्दों में, “अवधारणा किसका अवलोकन किया जाना है, उसको परिभाषित करती है । यह वह चर होते हैं जिनके मध्य आनुसांगिक सम्बन्धों की स्थापना की जाती है । जब इन प्रस्थापनाओं में तार्किक सम्बन्ध स्थापित किया जाता है तो सिद्धांत का जन्म होता है ।” मैक्लीलैण्ड के अनुसार, “अवधारणा विभिन्न प्रकार के तथ्यों का एक आशुलिपि प्रतिनिधित्व है जिसका उद्देश्य अनेक घटनाओं को एक सामान्य शीर्षक के अंतर्गत मानकर इस पर सोच विचार का कार्य सरल करना है ।”
40- अवधारणा के बारे में सैनफोर्ड लैंबोबिज एवं रॉबर्ट हैगडार्न ने कहा है कि, “अवधारणा ऐसा शब्द अथवा संकेत है जो अन्यथा विभिन्न प्रकार की घटनाओं में समानता का प्रतिनिधित्व करता है ।” मैकमिलन के शब्दों में, “अवधारणाएँ घटनाओं को समझने के तरीक़े हैं । वैज्ञानिक अवधारणाएँ अमूर्त होते हैं तथा चुने हुए व अधिसीमित क्षेत्र रखने वाले होते हैं ।” कल्पना शक्ति, अनुभव, आचार विधि अवधारणाओं के विकास के स्रोत हैं । कार्लो लेस्ट्रूसीर ने अवधारणा की विशेषताओं को गिनाते हुए कहा है कि, उपयुक्तता, स्पष्टता, मापन, तुलनात्मकता तथा पुनर्परीक्षण अवधारणा की विशेषताएँ हैं । मिचेल ने अवधारणा की तीन विशेषताएँ बताया है : सूक्ष्मता एवं परिशुद्धता, अनुभाश्रित आधार और उपयोगिता ।”
41- अवधारणा के निर्माण या विकास के लिए दो प्रक्रियाएँ आवश्यक हैं : सामान्यीकरण और अमूर्तिकरण । पॉल लजार्सफील्ड ने अवधारणाओं के निर्माण की प्रक्रिया को चार चरणों में समझाया है : प्रतिमा सृष्टि, विशिष्ट विवरण, सूचकों का चयन और सूचकांक का निर्माण ।” शक्ति, प्रभाव, सत्ता, नौकरशाही, सामाजिक संरचना, प्राथमिक समूह, सामाजिक वर्ग, समिति, सामाजिक नियंत्रण, स्तर, प्रकार्य, स्तरीकरण अवधारणाओं के उदाहरण हैं । रॉबर्ट के. मर्टन ने अवधारणा के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा है कि, “यदि मात्र यथार्थ को ध्यान में रखकर ऐसे तथ्यों का संकलन किया जाए जिसमें परस्पर कोई सम्बन्ध स्थापित न किया जा सके तो चाहे वह कितने ही गम्भीर अवलोकन का परिणाम क्यों न हो, वह अनुसंधान निष्फल होगा ।”
42- रचना या निर्माण वैज्ञानिक विश्लेषण और सामान्यीकरण में सहायता के लिए एक अवधारणा बनायी जाती है । एक रचना साधारणतया एक अवलोकनीय घटना से निकाली जाती है । यह यथार्थ का अमूर्तिकरण होता है । कैर्लिगर के अनुसार, बुद्धि एक अवधारणा है और बुद्धिलब्धि एक वैज्ञानिक रचना जिससे वैज्ञानिक किसी व्यक्ति की बुद्धि को नाप सकता है। बुद्धिलब्धि = मानसिक आयु / वास्तविक आयु , गुणा, 100 । इसमें 75 से कम बुद्धिलब्धि वाला व्यक्ति कमजोर मस्तिष्क वाला माना जाता है और 130 से अधिक बुद्धि लब्धि वाला व्यक्ति प्रतिभावान माना जाता है ।
43- चर शब्द अंग्रेज़ी भाषा में प्रयुक्त होने वाले वेरिएबल शब्द का हिन्दी अनुवाद है । वेरिएबल का अर्थ है जो वैरी कर सके अथवा परिवर्तित हो सके । चर की मात्रा में परिवर्तन होना चर का एक आवश्यक गुण है । यह एक ऐसी विशेषता होती है जो अनेक व्यक्तियों, समूहों, घटनाओं, वस्तुओं आदि में सामान्य होती है । चर एक संकेत है जिससे अनेक अंश अथवा मान निर्धारित किए जाते हैं । मिल्टन पर्टिन एवं एच. पी.फेयरचाइल्ड के अनुसार, “ चर का आशय किसी लक्षण, योग्यता अथवा विशेषता से है जो विभिन्न मामलों में परिमाण या मात्रा को निर्धारित करती है ।” करलिंगर के शब्दों में, “चर एक ऐसा गुण होता है, जिसकी अनेक मात्राएँ हो सकती हैं ।” डी. डब्ल्यू. मैथसन के अनुसार, “वैज्ञानिक अनुसंधान में चर वह स्थिति है, जिसकी मात्रा या मूल्य में परिवर्तन होता है ।”
44- चर को परिभाषित करते हुए पोस्टमैन तथा ईगन ने कहा है कि, “चर वह लक्षण या गुण है जिसके अनेक प्रकार के मूल्य होते हैं ।” ए. एल. एडवर्ड के अनुसार, “चर से हमारा अभिप्राय किसी भी चीज़ है जिसका हम निरीक्षण कर सकते हैं और वह उस प्रकार की हो कि उसकी इकाई के निरीक्षण के विभिन्न वर्गों में कहीं भी वर्गीकृत किया जा सके ।” गैरेट के मतानुसार, “चर वह लक्षण या गुण है जिसकी मात्रा में परिवर्तन होता है और यह परिवर्तन किसी माप या आयाम पर होता है ।” एम. आर. डी. अमेटो के शब्दों में, “चर किसी वस्तु, घटना या प्राणी का मापन योग्य गुण या लक्षण है ।” गाल्टुंग के अनुसार, “चर एक ऐसा मापक यन्त्र माना जाता है जो हमें विश्लेषण की एक इकाई के मूल्यांकन के लिए आधार उपलब्ध कराता है ।” इस तरह आयु, शिशु, युवा मध्यम वर्ग, प्रौढ़, वृद्ध, अल्प आय वर्ग इत्यादि सभी चर हैं ।
45- चरों का वर्गीकरण दो आधार पर किया जाता है : पहला, प्रयोगात्मक दृष्टिकोण के आधार पर और दूसरा, मापन गुणों के आधार पर । प्रयोगात्मक दृष्टिकोण के आधार पर चरों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है : एक, स्वतंत्र चर, दो, आश्रित या परतंत्र चर तथा तीन मध्यवर्ती चर । स्वतंत्र चर वह होता है जिस पर प्रयोगकर्ता का पूरा नियंत्रण रहता है तथा जिसे प्रयोगकर्ता प्रत्यक्ष रूप से चयन द्वारा घटा- बढ़ा सकता है । जैसे – अध्यापन विधि, प्रश्नोत्तर विधि । जे. सी. टाउन सैंड के शब्दों में, “स्वतंत्र चर वह कारक है जिसे प्रयोगकर्ता निरीक्षण की गई घटनाओं या तथ्यों के बीच सम्बन्ध ज्ञात करने के लिए घटाता- बढ़ाता है ।” ए. एल. एडवर्डस के शब्दों में, “वह चर जिस पर अध्ययनकर्ता का नियंत्रण होता है, स्वतंत्र चर कहलाता है ।
46- आश्रित या परतंत्र चर वह चर होता है जो प्रयोग पर आश्रित होता है । इसका प्रयोग मनोविज्ञान के क्षेत्र में प्रयोग करते समय प्रयोगकर्ता करता है । टाउनसैंड के अनुसार, “आश्रित चर वह है जो प्रयोगकर्ता द्वारा स्वतंत्र चर के प्रदर्शित करने पर प्रदर्शित होता है । इसी प्रकार स्वतंत्र चर के हटाने पर अदृश्य हो जाता है तथा स्वतंत्र चर की मात्रा में परिवर्तन से परिवर्तित हो जाता है ।” डी. अमेटो के शब्दों में, “मनोवैज्ञानिक अनुसंधान में कोई भी व्यवहार सम्बन्धी कारक जिसका मापन किया गया है, आश्रित चर कहलाता है ।”
47- मध्यवर्ती चर को संगत चर भी कहा जाता है ।यह चर आश्रित चरों को प्रभावित करते हैं । इन्हें प्रयोग करने के लिए नियंत्रित करना पड़ता है क्योंकि इसके अभाव में शुद्ध परिणाम प्राप्त नहीं होता है । अमेटो ने आश्रित चरों को प्रभावित करने वाले कारकों को संगत चर और आश्रित चरों को प्रभावित न करने वाले कारकों को असंगत चर कहा है । उन्होंने संगत चरों के चार प्रकार बताए हैं : प्रयोज्य सम्बन्धी संगत चर, परिस्थितिजन्य संगत चर, अनुक्रम संगत चर और जैविक चर ।
48-मापन सम्बन्धी गुणों के आधार पर चरों को दो भागों में विभाजित किया जाता है : मात्रात्मक चर और गुणात्मक चर । डी. अमेटो के शब्दों में, “कोई भी चर जिसे मात्रा की दृष्टि से मापा जा सके या क्रमित किया जा सके वह मात्रात्मक चर कहलाता है ।” जैसे : आयु, बुद्धि, प्रयोग में कार्य की संख्या इत्यादि । मात्रात्मक चरों को दो भागों में विभाजित किया जाता है : खंडित मात्रात्मक चर और निरंतर मात्रात्मक चर । डी. अमेटो के अनुसार, “खंडित मात्रात्मक वह चर है जिनके मूल्य गणना के द्वारा प्राप्त होते हैं । इन चरों की विशेषता यह है कि एक संख्या से प्रारम्भ होते हैं जैसे : जुड़वां बच्चों की संख्या । डी. अमेटो के शब्दों में, “निरंतर मात्रात्मक चर वह मात्रात्मक चर है जिसका मापन उस काल्पनिक मात्रा तक सम्भव होता है जिसे शुद्धता की मात्रा तक उसके मापन के लिए मापन यन्त्र उपलब्ध होता है ।”
49- गुणात्मक चर वह चर होते हैं जिन्हें मात्रा की दृष्टि से क्रमित नहीं किया जा सकता है अथवा मापा नहीं जा सकता है । जैसे : प्रजातियाँ, धर्म, व्यवसाय इत्यादि । चरों और रचनाओं में मुख्य अंतर यह है कि रचना अवलोकनीय नहीं है जबकि चर अवलोकनीय होते हैं । टोलमैन ने रचनाओं को हस्तक्षेपीय चर कहा है । हस्तक्षेपीय चर को न तो सुना जा सकता है और न ही देखा या महसूस किया जा सकता है । इसका पता व्यवहार से चलता है जैसे : आक्रामकता, सीखना, चिंता इत्यादि । जबकि चरों का अवलोकन किया जा सकता है । जैसे : मतदान व्यवहार का अध्ययन ।
50- अनुसंधान के दौरान एक चर अन्य आश्रित चर को प्रभावित करता है । इसलिए चरों पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है । यदि अनुसंधान में ऐसा नहीं किया जाए तो यह परिणाम को अशुद्ध कर देते हैं ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य “राजनीति विज्ञान में अनुसंधान पद्धतियाँ” लेखक : डॉ.एस. सी. सिंहल, प्रकाशक : लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा (उत्तर- प्रदेश) ISBN : 978-81-89770-35-8, तृतीय संस्करण, 2018 से साभार लिए गए हैं ।
This notes/blog’s is very useful in my study.
I read daily 1 blog and achieve a new think.
Thank you
Dr. R. B. Moarya sir