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Facts of political science hindi

राजनीति / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 18)

Posted on मई 24, 2022सितम्बर 9, 2022
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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी । फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, झाँसी, उत्तर- प्रदेश, भारत ।email : drrajbahadurmourya @ gmail. Com, website : themahamaya. Com

1- ईसाई राष्ट्रवाद का इतिहास काफ़ी पुराना है । ईसाइयत का राजनीतिकरण चौथी सदी में रोम के सम्राट कांस्टेटाइन द्वारा ईसाइयत अपना लेने से शुरू हो गया था ।सोलहवीं सदी में प्रोटेस्टेंट सुधारक जॉन कैल्विन द्वारा जिनेवा की ईसाई शहर राज्य की स्थापना से ईसाई राष्ट्रवाद को नया उछाल मिला ।अस्सी के दशक में अमेरिका के क्रिश्चियन रिकंस्ट्रक्शन मूवमेंट ने कैल्विन की शिक्षाओं को ही अपना आधार बनाया था ।

2- भारत के राष्ट्रवादी आन्दोलन में धार्मिक आयामों का समावेश उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की सांस्कृतिक राजनीति के हाथों हुआ ।विवेकानंद, बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय और अरविन्द घोष ने भारतीय राष्ट्रवाद के साथ आध्यात्मिक पहलुओं को जोड़ा ।विनायक दामोदर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिंदुत्व की राजनीतिक धारणा के आधार पर इन पहलुओं ने राजनीतिक करवट ली ।1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई । सावरकर ने हिंदू धर्म के बजाय हिंदू संस्कृति को राष्ट्रीय अस्मिता का आधार बनाने की वकालत की ।

3– बौद्ध धर्म में थेरवादी परम्परा का राजनीति और धार्मिक युद्धों से पुराना ताल्लुक़ रहा है ।थाईलैण्ड में बीसवीं सदी में हुए राजनीतिक सुधारों के पीछे यह परम्परा चालक शक्ति के रूप में विद्यमान रही है ।श्रीलंका में बौद्ध राजवंश तीसरी सदी से ही हुकूमत करते रहे हैं ।श्रीलंका की आज़ादी के आंदोलन में बौद्ध भिक्षुओं ने अगाऊ भूमिका निभाई ।1953 में प्रकाशित रचना रिवोल्ट इन द टेम्पल में सेकुलर राष्ट्रवाद पर आरोप लगाया गया कि उसके नेताओं ने बौद्ध धर्म के साथ धोखा किया है ।

4- दिनांक 17 मार्च, 1936 को गुजरात प्रांत के जनपद बड़ोदरा के बहादुर गाँव में एक वैश्य परिवार में जन्में धीरूभाई सेठ ने भारत के प्रमुख राजनीतिक- समाजशास्त्री के तौर पर मुख्यतः तीन धरातलों पर अपने विमर्श की रचना की : सत्ता और समाज के बीच रिश्तों का अध्ययन करना, ज्ञान के स्रोतों और उसके सूत्रीकरण पर बहस चलाना और समाज विज्ञान को समाज के अनुभवों से जोड़ने का प्रयास करना ।उन्होंने समाज विज्ञान की स्थापित विधियों में संवाद विधि का समावेश किया ।

5- धीरूभाई सेठ आजीवन विकासशील समाज अध्ययन पीठ ( सी एस डी एस) से जुड़े रहे ।1971 में उनकी रचना स्ट्रक्चर ऑफ इंडियन रैडिकलिज्म अध्ययन पीठ के द्वारा प्रकाशित की गई ।यह 1971 के आम चुनाव के बाद किए गए एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण पर आधारित थी ।उन्होंने राष्ट्र निर्माण की एक थिसिज के तौर पर आरक्षण की नीति का तर्कपूर्ण समर्थन किया ।इनेबिलिंग ईक्वल कम्पटीशन में उन्होंने आरक्षण विरोधियों की बखिया उधेड़ी और सामाजिक न्याय की नीतियों के भारतीय परिप्रेक्ष्य की समग्र व्याख्या की ।

6– भारतीय समाजशास्त्र का विकास करने वाले आरम्भिक विद्वानों में धूर्जटि प्रसाद मुखर्जी (1894-1968) की गणना मार्क्सवादी समाज वैज्ञानिकों में की जाती है ।उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं : पर्सनालिटी एंड द सोशल साइंसेज़ (1924), बेसिक कंसेप्ट्स (1932), मॉर्डन इंडियन कल्चर (1942), प्रॉब्लम्स ऑफ इंडियन यूथ (1946)। उन्होंने कभी वर्ग संघर्ष के विचार का समर्थन नहीं किया ।१९३७ के चुनावों में जब उत्तर- प्रदेश में सरकार बनी तो उन्होंने सूचना निदेशक का पद भार ग्रहण किया ।वह लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर भी रहे ।

7– दिनांक 18 फ़रवरी, 1858 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले के मुरूदगांव में एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्में, विधवा-विवाह और स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान करने वाले समाज सुधारकों में महाराष्ट्र के धोंडो केशव कर्वे (1858-1962) का नाम अग्रणी है ।समाज सुधार का आजीवन प्रण लेने के कारण उन्हें महर्षि कर्वे की उपाधि से भी याद किया जाता है ।1958 में उनके जीवन के शताब्दी वर्ष में उन्हें मानव सेवा, स्त्री शिक्षा और समाज सुधार के लिए प्रथम भारत रत्न से सम्मानित किया गया ।

8- 1896 में कर्वे ने हिंदू विधवा संगठन की स्थापना की ।1907 में उन्होंने सामान्य लड़कियों के लिए एक स्त्री विद्यालय आरम्भ किया ।1908 में कर्वे ने निष्काम कर्म मठ की स्थापना किया ।1916 में कर्वे ने भारत में पहला स्त्री- विश्वविद्यालय स्थापित किया ।1920 में उद्योगपति विट्ठलदास ठाकरसी ने इसे चलाने के लिए कर्वे को 15 लाख रुपये का अनुदान दिया ।तभी से इसे श्रीमती नाथीबाई दामोदर ठाकरसी विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है ।5 विद्यार्थियों से शुरू किया गया यह विश्वविद्यालय आज 36 विभिन्न कालेजों और 70 हज़ार छात्राओं के साथ भारत में स्त्री शिक्षा का प्रकाश स्तम्भ है ।

9– दिसम्बर, 1963 में भारत के 16 वें राज्य के रूप में गठित तथा भारत के उत्तर- पूर्वी भाग में स्थित नागालैण्ड की राजधानी कोहिमा है और दीमापुर इसका सबसे बड़ा शहर है ।नागालैण्ड के पश्चिम में असम, उत्तर में असम का भाग और अरुणाचल प्रदेश, पूर्व में बर्मा और दक्षिण में मणिपुर स्थित है ।नागालैण्ड का कुल क्षेत्रफल 16 हज़ार, 579 वर्ग किलोमीटर है ।2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 19 लाख, 80 हज़ार, 602 है ।यहाँ की साक्षरता दर 80.11 प्रतिशत है ।

10– नगा लोगों को बर्मी भाषा में नाका कहा जाता था, जिसका अर्थ होता है कि ऐसे लोग जिनका कान छेदा हुआ हो ।यहाँ की कुल जनसंख्या में 90.22 प्रतिशत ईसाई, 7.7 प्रतिशत हिन्दू तथा 1.8 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है ।यहाँ की 75 प्रतिशत से अधिक आबादी खेती पर निर्भर है और ग्रामीण इलाक़ों में रहती है ।नागालैण्ड की विधानसभा एक सदनीय है, जिसमें कुल 60 सदस्य होते हैं ।यहाँ से लोकसभा और राज्य सभा के एक- एक सदस्य चुने जाते हैं ।

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11– उत्तर- प्रदेश के जनपद रामपुर में जन्में, आज़ाद भारत में दर्शन और साहित्य के विद्वान नंद किशोर देवराज (1917-1999) को सर्जनात्मक मानववाद के प्रतिपादन के लिए जाना जाता है । उन्होंने मनुष्य के आत्मचेतन उत्पाद होने में निहित उसकी स्वतंत्रता, तर- तम-भाव और मूल्योन्मेषी प्रकृति को आधारभूत माना । फिलॉसफी एंड कल्चर, एन इंट्रोडक्शन टु क्रियेटिव ह्यूमनिज्म, ह्यूमनिज्म इन इंडियन थॉट, फ़्रीडम क्रियेटिविटी एंड वैल्यू, द लिमिट्स ऑफ डिसएग्रीमेंट उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं ।

12– भारत में नंद दुलारे वाजपेयी (1909-1967) को परम्परा,संस्कृति, इतिहास, दर्शन और साहित्य के दायरे में भारतीय आधुनिकता से उपजे मूल्यों की व्याख्या करने का श्रेय दिया जाता है ।उन्हें अपने गुरु रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना परम्परा को भी आगे बढ़ाने का श्रेय दिया जाता है । नंद दुलारे वाजपेयी की मान्यता थी कि रचना और आलोचना का कार्य है मनुष्य को अपनी स्मृति में लौटाकर परम्परा के सूक्ष्म- गहन अंत: सूत्रों की पहचान और साक्षात्कार करना ।उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं : जयशंकर प्रसाद (1939-40), हिंदी साहित्य: बीसवीं शताब्दी (1942), आधुनिक साहित्य (1950) , महाकवि सूरदास, प्रेमचंद- एक विवेचन, (1953) नया साहित्य : नए प्रश्न (1955), राष्ट्र भाषा की कुछ समस्याएँ(1961), कवि निराला(1965) इत्यादि ।

13– दिनांक 31 अक्तूबर, 1889 को उत्तर- प्रदेश के जनपद सीतापुर के एक सनातनी हिंदू परिवार में जन्में नरेंद्र देव को शिक्षाविद, पत्रकार, विचारक और जनतांत्रिक समाजवाद के प्रणेता के रूप में जाना जाता है ।उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन को भी विस्तृत करने में उनकी भूमिका थी ।अपनी विद्वता के कारण वह आचार्य की उपाधि से विभूषित हैं ।बचपन में उनका नाम अविनाशी लाल था ।नरेंद्र देव ने संस्कृत, पाली, पुरातत्व, भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन, अंग्रेज़ी साहित्य और समाज विज्ञानों का गहरा अध्ययन किया था ।वे अरबी, संस्कृत, बांग्ला, हिन्दी तथा फ़्रेंच और जर्मन भाषा के जानकार थे ।

14– आचार्य नरेन्द्र देव बौद्ध दर्शन के भी प्रकांड विद्वान् थे ।उन्होंने वसुबंधु के अभिधम्म कोष, क्षेमेन्द्र के प्राकृत व्याकरण जैसे अनेक बौद्ध ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया है ।महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, लखनऊ विश्वविद्यालय तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है ।भारत के प्रथम शिक्षा आयोग के सदस्य तथा संयुक्त प्रांत के प्राथमिक शिक्षा आयोग के अध्यक्ष के रूप में भी आचार्य नरेन्द्र देव ने कार्य किया था ।मार्क्सवादी चिंतन पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी ।

15– धनी और शक्तिशाली देशों के द्वारा कम विकसित गरीब देशों की अर्थव्यवस्थाओं, संस्कृति और राजनीति में हस्तक्षेप करके उन्हें अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ चलाने की परियोजना को नव उपनिवेशवाद की संज्ञा दी गई है ।एक राजनीतिक पद के रूप में नव- उपनिवेशवाद का सूत्रीकरण पहली बार अफ़्रीका के संदर्भ में घाना के पहले राष्ट्रपति क्वामे एनक्रूमा ने वर्ष 1965 में प्रकाशित अपनी पुस्तक नियो- कोलोनियलिज्म : द लास्ट स्टेज ऑफ इम्पीरियलिज्म में किया था ।क्यूबा के क्रांतिकारी नेता चे गुएवारा ने 1965 में गरीब देशों पर साम्राज्यवादी प्रभुत्व को नव- उपनिवेशवाद करार दिया था ।

16– नव- उपनिवेशवादी संरचनाओं को मज़बूत करने में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की भूमिका का अक्सर उल्लेख किया जाता है ।यह ब्रेटन वुड्स संस्थाएँ तीसरी दुनिया के देशों को मजबूर करती हैं कि वे अपने ऊपर लदे हुए असहनीय क़र्ज़ों को किसी न किसी प्रकार अदा करें, भले ही उसके लिए उनकी जनता को भीषण तकलीफ़ों के दौर से गुजरना पड़े ।ब्रेटन वुड्स संस्थाएँ इन देशों पर ढॉंचागत समायोजन कार्यक्रम थोपती हैं ।गिनी, बिसाऊ, सेनेगल और मॉरितानिया जैसे पश्चिमी अफ़्रीका के तटीय देशों में यूरोपियन यूनियन द्वारा मछली पकड़ने के धन्धे का कांटैक्ट देने का दबाव डालने के तथ्य को नव- उपनिवेशवाद के एक ताजे उदाहरण के रूप में पेश किया जा रहा है ।

17- राजनीति शास्त्र में नव- उदारतावाद राज्य के महत्व को प्रश्नांकित करने वाले विचार के तौर पर उभरा है ।राज्य के हाथ से संसाधनों को आवंटित करने की ज़िम्मेदारी लेकर नव- उदारतावाद ने उसकी ताक़त में ज़बरदस्त कटौती कर दी है ।नव उदारतावाद पद का इस्तेमाल पहली बार 1938 में पेरिस में हुई एक विचार-गोष्ठी में किया गया था ।ब्रिटेन में तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर इसकी प्रबल पैरोकार थी थैचर ने व्यक्तिवाद को व्यक्ति की ज़िम्मेदारियों की भाषा में परिभाषित करने की चेष्टा की ।

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18– नस्लवाद एक ऐसे विश्वास या विचारधारा का नाम है जिसके आधार पर एक रूढ़ मान्यता बनाई जाती है कि किसी प्रजातीय समूह के प्रत्येक सदस्य में कुछ निश्चित लक्षण होने अनिवार्य हैं ।आधुनिक युग में नस्लवाद का लोकप्रिय तात्पर्य गोरी चमड़ी वालों द्वारा कालों और अश्वेतों को हीन मानकर उन्हें अधीनस्थ बनाने की प्रक्रिया के रूप में लिया जाता है ।आधुनिक राजनीति में नस्लवादी आयामों वाले कई विचार और संरचनाएँ प्रभावी रही हैं और आज भी हैं ।फासीवाद, जातीयतावादी राष्ट्रवाद, जातीयतावादी जनसंहार और रंगभेद को उसके उदाहरणों के रूप में देखा जा सकता है ।

19- रोज़मर्रा की ज़िंदगी में न्याय को क़ानून की एक खूबी के रूप में देखा जाता है ।न्याय के तीन सिद्धांत ऐसे हैं जिनका दावा है कि वे निष्पक्षता और औचित्य की कसौटी पर एक सीमा तक खरे उतर सकते हैं ।ये हैं न्याय का सामाजिक सिद्धांत, न्याय का क्रियाविधि सिद्धांत और न्याय का मार्क्सवादी सिद्धांत ।सामाजिक सिद्धांत न्याय को समाज के तत्व के रूप में ग्रहण करता है ।वह एक तयशुदा पैमाने पर कस कर देखता है कि समाज कितना न्यायपूर्ण है ।न्याय के सामाजिक सिद्धांत के साथ वितरण मूलक अवधारणा जुड़ी हुई है ।इस पर पात्रता, योग्यता और आवश्यकता की तीन कसौटियों के संदर्भ में विचार किया जाता है ।

20- न्याय का क्रियाविधि सिद्धांत यह मानकर चलता है कि अगर कुछ नियम- क़ानूनों का पालन किया जाता रहे तो न्याय की माँग पूरी होती रहेगी ।न्याय यहाँ व्यक्ति के व्यवहार से जुड़ा हुआ है ।व्यक्तिवाद पर दृढ़ आस्था रखने वाला यह उसूल इस बात को नहीं मानता कि समाज को कुछ लक्ष्यों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सामूहिक प्रयास करना चाहिए ।इस सिद्धांत के प्रमुख प्रतिपादक रॉबर्ट नॉजिक हैं ।

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21- न्याय का मार्क्सवादी सिद्धांत काफ़ी कुछ उसके सामाजिक सिद्धांत के साथ खड़ा होता है ।अपनी पुस्तक क्रिटीक ऑफ गोथा प्रोग्राम में मार्क्स ने न्याय की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा की है ।वे कहते हैं कि संक्रमणकालीन चरित्र के समाजवादी समाज में तो न्याय के विचार की आवश्यकता पड़ेगी, पर साम्यवादी समाज में नहीं । क्योंकि यहाँ पर संसाधन विपुल होंगे और हर व्यक्ति से उसकी क्षमता के अनुसार काम लिया जाएगा तथा बदले में उसे उसकी ज़रूरत के मुताबिक़ दिया जाएगा ।

22- सूज़न मोलर ओकिन ने नारीवादी नज़रिए से न्याय के सिद्धांत को व्याख्यायित करने का प्रयास किया है ।अपनी रचना जस्टिस, जेंडर एंड फेमिली में वे कहती हैं कि न्याय पर होने वाली दार्शनिक चर्चाओं में परिवार के दायरे को शायद ही कोई महत्व दिया जाता हो ।परिवार को निजी दायरे में मान लिया जाता है और न्याय को सार्वजनिक ।इस हक़ीक़त की कोई परवाह नहीं की जाती कि न्याय का विचार क़ानूनों और संस्थाओं की जिस दुनिया का विधेयक है, वह दुनिया ही परिवार और उसके कामकाज के लिए विधेयक की हैसियत रखती है ।

23- न्याय के क्रियाविधि सिद्धांत की ख़ामियों को दूर कर उसे अधिक स्वीकार्य बनाने का श्रेय अमेरिकी राजनीति दार्शनिक जॉन रॉल्स की प्रस्थापनाओं को जाता है ।वर्ष 1971 में प्रकाशित अपनी पुस्तक अ थियरी ऑफ जस्टिस में उन्होंने क्रियाविधि सिद्धांत को समानता के परिप्रेक्ष्य के साथ जोड़ा और उसे उदारतावाद के लिए अधिक आकर्षक बना दिया ।उनकी कोशिशें न्याय की क्रियाविधि और वितरण मूलक प्रस्थापनाओं के बीच पुल की तरह काम करती नज़र आती हैं ।

24- न्याय दर्शन ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति में ईश्वर या किसी अलौकिक सत्ता के योगदान को शिरे से ख़ारिज करता है ।उसके मुताबिक़ ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच मूलभूत तत्वों का योगदान है ।इस दर्शन का यह स्थापित सिद्धांत है कि मनुष्य का परम लक्ष्य नि: श्रेयस प्राप्त करना है जिसे यथार्थ के पूर्ण ज्ञान के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ।यहाँ यथार्थ को चेतन और अचेतन दो वर्गों में विभाजित किया गया है ।

25- न्याय दर्शन ने पाँच मूलभूत तत्वों के अलावा समय, अवकाश, मस्तिष्क और आत्मा को भी मान्यता दी है ।इसके अनुसार अभिलाषा, घृणा, आनन्द, दु:ख, लिप्सा, द्वेष, इच्छा और प्रयत्न आत्मा की नौ विशेषताएँ हैं ।प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चार प्रमाणों के ज़रिए सही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है ।संशय, दृष्टांत, तर्क, प्रमेय, हेत्वाभास, वितंडा और खंडन की प्रक्रियाओं से ही होकर सही ज्ञान तक पहुँचा जा सकता है ।

26- एथनोग्राफी अथवा नृजातिवर्णन यूनानी भाषा के शब्द एथनोस यानी लोगों का समूह और ग्रेफीन यानी लेखन से मिलकर बना है ।यह अनुसंधान की एक पद्धति है जिसके बिना सांस्कृतिक मानवशास्त्र नामुमकिन है ।एथनोग्राफी के माध्यम से समाज- वैज्ञानिक पता लगाता है कि कोई मानव समुदाय किस तरह के इलाक़े में रह रहा है और उसकी रिहायश से उस भौगोलिक क्षेत्र में क्या-क्या परिवर्तन हुए हैं ।वह अपने जीवन यापन के लिए आहार, आवासन, ऊर्जा और जल का इंतज़ाम कैसे करता है ।उसके रीति रिवाज, विवाह की संस्था किस तरह से काम करती है ।वह कौन सी भाषा बोलता है ।

27- एथनोग्राफी के दो हिस्से हैं- फील्डवर्क और रिपोर्टेज ।क्लिफ़र्ड गीट्ज के मुताबिक़ एथनोग्राफी वह काम कर सकती है जो कैमरा भी नहीं कर सकता ।एथनोग्रैफी पता लगा सकती है कि व्यक्ति की आँख फड़क रही है ( जो एक शरीरशास्त्रीय स्थिति है) या वह आंख मार रहा है ( जो एक सामाजिक तथ्य है)। यह माना जाता है कि यूरोपीय उपनिवेशवाद के प्रसार के दौरान भौगोलिक रूप से दूरस्थ और सांस्कृतिक रूप से गैर पश्चिमी संस्कृतियों के बारे में जानकारियाँ जमा करने के लिए इस अनुशासन का विकास किया गया ।

28- नागर समाज अथवा सिविल सोसाइटी का उभार एक ऐसे स्पेस के रूप में हुआ है जहाँ नागरिक राज्य का विरोध कर सकते हैं या राज्य के सामने अपने हितों पर ज़ोर दे सकते हैं ।समाज विज्ञानी धीरू भाई सेठ के मुताबिक़ भारत में यह अवधारणा 1990 के बाद के दौर में प्रचलन में आयी ।जॉन लॉक नागर समाज की अवधारणा को प्राकृतिक अवस्था से अलग मानते हैं ।उनके अनुसार यह एक ऐसा दायरा होता है जो सकारात्मक क़ानून या पॉज़िटिव लॉ तथा निष्पक्ष न्यायाधीश की व्यवस्था उपलब्ध कराता है ।

29- हीगल के अनुसार समाज तीन क्षेत्रों में बंटा हुआ है- परिवार, नागर समाज और राज्य ।परिवार निजी जीवन का क्षेत्र है जो प्यार और विश्वास पर आधारित होता है ।यहाँ व्यक्तिगत अहं के लिए कोई जगह नहीं है ।नागर समाज सार्वभौम अहंवाद का दायरा होता है ।यहाँ लोग अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक- दूसरे के सम्पर्क में आते हैं ।यहाँ जुड़ाव का प्रमुख कारण फ़ायदा या लाभ होता है ।हीगल राज्य को सार्वभौम परार्थवाद का क्षेत्र मानते हैं अर्थात् राज्य नागर समाज में प्रतिद्वंद्विता की भावना ख़त्म कर देता है ।यह लोगों में एकता लाने का काम करता है ।

30- बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में इटली के मार्क्सवादी विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने नागर समाज की अवधारणा को एक नया आयाम दिया ।ग्राम्शी की मान्यता थी कि शासक वर्ग सिर्फ़ राज्य के बल प्रयोग द्वारा अपना नियंत्रण क़ायम नहीं रखता है ।इसकी बजाय वह नागर समाज के दायरे में अपने शासन के प्रति एक तरह की सहमति का निर्माण करता है ।ग्राम्शी इसे हेजेमॉनी या वर्चस्व की संज्ञा देते हैं ।

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31- नागरिकता व्यक्ति और राज्य के बीच एक सम्बन्ध का नाम है जिसके तहत दोनों पक्ष परस्पर अधिकारों और दायित्वों के एक सिलसिले में बंधे रहते हैं ।एक शब्द के तौर पर सिटीज़नशिप लैटिन भाषा के सिविस और उसके यूनानी पर्याय पॉलिटिक्स से गढ़ा गया है ।इसका मतलब है कि किसी पोलिश या सिटी का सदस्य ।जन्म आधारित विशेष अधिकारों के मुक़ाबले समान अधिकारों से सम्पन्न नागरिक की अवधारणा अमेरिकी क्रांति और फिर उसके तुरंत बाद हुई फ़्रांसीसी क्रांति के बाद मज़बूत हुई ।

32- टी. एच. मार्शल ने वर्ष 1950 में प्रकाशित अपनी रचना सिटीज़नशिप एंड सोशल क्लास में नागरिक की व्याख्या राजनीतिक समुदाय के सम्पूर्ण और समान सदस्य के रूप में की है ।वह नागरिकता से जुड़े अधिकारों को तीन हिस्सों में बाँटते हैं- सिविल, राजनीतिक और सामाजिक ।सिविल से उनका मतलब है व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं से सम्बंधित अधिकार ।राजनीतिक से मतलब है राजनीतिक जीवन में सक्रिय भागीदारी के अधिकार और सामाजिक से तात्पर्य है आर्थिक कल्याण और सामाजिक सुरक्षा के अधिकार ।

33- व्यक्तिवाद को केन्द्र बनाकर राज्य को उत्तरोत्तर सीमित करते जाने के तरफदार दक्षिणपंथियों ने सामाजिक नागरिकता के मुक़ाबले सक्रिय नागरिकता की अवधारणा प्रतिपादित की है ।यह ध्यान रखना चाहिए कि आस्ट्रेलिया, बेल्जियम और इटली में वोट डालना एक क़ानूनी बाध्यता है ।समकालीन राजनीति शास्त्र के अंतर्गत सभी महत्वपूर्ण सैद्धांतिक दृष्टिकोणों ने नागरिकता को एक हैसियत के रूप में समझा है ।हैसियत के रूप में नागरिकता और आचरण के रूप में नागरिकता का स्रोत अलग-अलग सैद्धांतिक परम्पराओं में निहित है ।

34- आयरिस मैरियन यंग ने नागरिकता की समूह विभेदीकृत संकल्पना पेश की है ।यह ऐसी संकल्पना है जो प्रत्येक समुदाय की ज़रूरतों और स्थिति पर ध्यान देती है और हर तरह के सामाजिक भेदभाव को दूर करने पर इसका ज़ोर है ।

35- विल किमलिका ने वर्ष 1996 में प्रकाशित अपनी पुस्तक मल्टीकल्चरल सिटीजनशिप : अ लिबरल थियरी ऑफ माइनॉरिटी राइट्स में समानता की परिभाषा को बहुसांस्कृतिक वर्तमान के मुताबिक़ बनाने की कोशिश करते हुए सांस्कृतिक समुदायों, अपना वजूद बनाए रखने के उनके प्रयासों और व्यक्ति के सिविल तथा राजनीतिक अधिकारों के बीच मिलन- बिंदुओं की खोज की ।उन्होंने सांस्कृतिक विविधता के लिए गुंजाइश देने हेतु संवैधानिक और क़ानूनी उपायों की वकालत की ।

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36- क्रिएटिव सोसाइटी के विचार की अवधारणा का प्रतिपादन मनोरंजन मोहन्ती ने वर्ष 2009 में प्रकाशित अपनी पुस्तक सोशल मूवमेंट्स इन द क्रिएटिव सोसाइटी में किया ।क्रिएटिव सोसाइटी का विचार समाज को देखने की एक पद्धति है जिसके ज़रिए समाज में मौजूद वर्ग, जाति,नस्ल, लिंग जैसी विविध संरचनाओं का विरोध मुक्ति के व्यापक विचार को चरितार्थ करता है । उनके अनुसार क्रिएटिव सोसाइटी से तात्पर्य समाज के विकास के उस चरण से है जब समाज में पहले से ही मौजूद विरोधाभास सक्रिय होकर मूर्त रूप लेना प्रारंभ कर देते हैं ।कृषक और आदिवासियों के संघर्ष, क्षेत्रीय और प्रान्तीय स्तर के स्वायत्तता आन्दोलन, पर्यावरण आन्दोलन और स्त्री आन्दोलन इस युग में क्रिएटिव सोसाइटी के उद्भव का प्रतीक हैं ।

37- शून्यता की अवधारणा को तार्किक रूप से सुसम्बद्ध करके दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय बौद्ध दार्शनिक आचार्य नागार्जुन को है ।वे बुद्ध धर्म की महायान शाखा की उपशाखा माध्यमिका के प्रमुख सिद्धांतकार थे ।उनके दर्शन में मझ्झि निकाय को श्रेष्ठ बताने वाली बुद्ध की विख्यात् शिक्षा की दार्शनिक निष्पत्ति हुई है ।मझ्झि निकाय का तात्पर्य है वैराग्य और सांसारिकता के दो शिरों के बीच का रास्ता ।नागार्जुन का जन्म दूसरी शताब्दी में दक्षिण भारत के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था ।

38- नागार्जुन कहते हैं कि शून्य एक निरपेक्ष तत्व है, जो स्वत: अपने आप में पूर्ण है, सत्य है, वर्तमान है, अन्य किसी के आधार पर खड़ा नहीं रहता ।शून्य का यही अर्थ नागार्जुन के मत का अभीष्ट है ।अभाव स्वयं एक सापेक्ष शब्द है, क्योंकि भाव की कल्पना पर ही अभाव आश्रित है ।नागार्जुन कहते हैं कि प्रतीत्यसमुत्पाद ही शून्यता है ।वस्तुओं का कोई ऐसा धर्म नहीं जिसकी उत्पत्ति किसी और पर निर्भर न हो ।अर्थात् जितने धर्म हैं सभी शून्य हैं ।इस विचार से स्पष्ट है कि वस्तुओं के परावलम्बन को, उनकी गतिशीलता को, उनकी अवर्णनीयता को शून्य कहते हैं ।

39- नागार्जुन कहते हैं कि दो प्रकार के सत्य हैं जिन पर बुद्ध के धर्म सम्बन्धी उपदेश निर्भर हैं ।एक पारमार्थिक सत्य और दूसरा संवृत्ति सत्य पारमार्थिक सत्य शून्य रूप है ।वही वास्तव है और उससे इतर सब कुछ मिथ्या है, झूठा है तथा अनृत्य है, परन्तु उसकी व्यावहारिक सत्ता है ।संवृत्ति सत्य का अर्थ है- व्यावहारिक सत्य ।वह कहते हैं कि जो अज्ञात है, जिसका विनाश नहीं होता, जो नित्य भी नहीं है, जो निरुद्ध नहीं है और जो उत्पन्न भी नहीं है, उसी का नाम निर्वाण है ।निर्वाण को यथार्थ रूप से जानने वाला ही तथागत अर्थात् बुद्ध है और इसलिए उसका भी स्वरूप निर्वाण के समान ही वर्णनातीत है ।

40- निकोलस काल्डोर (1908-1986) उत्तर – कींसियन अर्थशास्त्र के प्रमुख प्रणेताओं में से एक हैं ।वह आर्थिक प्रोत्साहन देने वाली नीतियों के ज़रिए बाज़ार प्रणाली को सुधारने के पक्षधर थे ।वे इस विचार से सहमत नहीं थे कि अर्थव्यवस्थाएँ तभी बेहतर काम करती हैं जब सरकारें अपना हाथ उनसे दूर रखें ।उन्होंने सरकारों को सक्रिय हस्तक्षेप करने की सलाह दी ताकि बढ़ती हुई महंगाई पर लगाम कसी जा सके ।उनका सुझाव था कि आमदनी पर टैक्स लगाने के बजाय खर्च पर कर लगाया जाना चाहिए ।काल्डोर का जन्म बुडापेस्ट, हंगरी में हुआ था ।

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41- स्वतंत्रतावादी विचारक रॉबर्ट नॉजिक ने अपनी पुस्तक एनार्की, स्टेट एंड यूटोपिया (1974) में प्रतिपादित किया कि अगर सम्पत्ति न्यायपूर्ण तौर -तरीक़ों से हासिल या हस्तांतरित की गई है तो उसके स्वामित्व में किसी क़िस्म का हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए ।न सामाजिक न्याय के नाम पर और न ही समाज के किसी अन्य वृहत्तर हित के नाम पर ।लोक- कल्याण के नाम पर अपनाई जाने वाली वितरण मूलक नीतियों द्वारा किए जाने वाले सम्पत्ति या संसाधनों के हस्तांतरण को नॉजिक वैध सम्पत्ति की चोरी करार देते हैं ।

42- फ्रेडरिक वॉन हॉयक ने अन्य अर्थशास्त्रियों से एक कदम आगे जाकर अपनी रचना रोड टु सर्फडम (1944) में निजी सम्पत्ति को सर्वाधिक मूलभूत नागरिक अधिकार के रूप में चित्रित किया तथा मुक्त बाज़ार का खुला समर्थन किया ।

43– निर्भरता सिद्धांत अथवा डिपेंडेंसी थियरी लातीनी अमेरिकी अर्थशास्त्री राउल प्रेबिस द्वारा किए गए अनुसंधानों से वर्ष 1949 में प्रकाश में आई ।यह थियरी अमीर देशों को विश्व अर्थव्यवस्था के केन्द्र में और गरीब देशों को उनकी परिधि के रूप में देखती है ।केन्द्र- परिधि मॉडल पर आधारित यह सूत्रीकरण मानता है कि परिधि के देश केन्द्र- स्थित देशों के साथ निर्भरता के सम्बन्धों में बंधे हुए हैं ।वर्ष 1957 में इसी सिद्धांत को पॉल बरान ने द पॉलिटिकल इकॉनॉमी ऑफ ग्रोथ नामक रचना में मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य का इस्तेमाल करते हुए विकसित किया ।

44- पॉल स्वीजी और आंद्रे गुंदर फ्रेंक ने भी साठ और सत्तर के दशक में निर्भरता सिद्धांत में उल्लेखनीय योगदान दिया ।उन्होंने कहा कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, असमान व्यापार संधियों, क़र्ज़ पर वसूले जा रहे ब्याज भुगतान और कारखाना निर्मित माल को महँगा बेचकर उसके बदले कच्चे माल का व्यापार करने के कारण केन्द्र और परिधि के देशों के बीच असमान सम्बन्धों की संरचनाएँ बन गयी हैं ।गुंदर फ्रेंक ने तर्क दिया कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को चूस डालता है ।पूंजीवाद एक विश्व प्रणाली है जिसके तहत महानगरीय मर्मस्थल अर्थात् पश्चिम के विकसित देश अपने चारों ओर परिधि में घूमते उपग्रहीय देशों की आर्थिक आमदनी हडप कर अपने विकास में इस्तेमाल करते हैं ।

45- आवश्यकताओं के लिए उत्पादन पर आधारित नियोजन की सफलता के एक ज़बरदस्त उदाहरण के रूप में क्यूबा को देखा जाता है ।आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए देश के तौर पर शुरुआत करने के बावजूद क्यूबा में इस समय 98 फ़ीसदी साक्षरता है और उसकी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत से पश्चिमी देशों के मुक़ाबले की हैं ।क्यूबा में आर्थिक संसाधन नियोजित रूप से भवन निर्माण और खेती में लगाए गए ।स्कूलों और अस्पतालों का बड़े पैमाने पर निर्माण किया गया ।बुनियादी ज़रूरतों की चीजों की क़ीमतें कम रखी गई ।

46- समझा जाता है कि 1890 में प्रकाशित अपनी पुस्तक प्रिंसिपल्स ऑफ इकॉनॉमिक्स में अल्फ्रेड मार्शल ने माँग और पूर्ति का विश्लेषण करके नियोक्लासिकल पद्धति के लिए रास्ता तैयार किया ।पॉल सेमुअलसन की रचना फ़ाउंडेशन ऑफ इकॉनॉमिक एनालिसिस उत्पादन और वितरण के नियोक्लासिकल सिद्धांतों के सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादन के रूप में देखी जाती है ।नियोक्लासिकल अर्थशास्त्र माँग और आपूर्ति के ज़रिए कई क्षेत्रों में आर्थिक समस्याओं को हल करने की कोशिश करता है ।

47- निष्क्रिय क्रांति इतालवी मार्क्सवादी चिंतक और सामाजिक सिद्धांतकार एंतोनियो ग्राम्सी के विमर्श की केन्द्रीय धारणाओं में से एक है ।यह एक ऐसी क्रांति है जिसमें आम जनता ने भागीदारी न की हो और सामाजिक परिवर्तन की ऐसी प्रक्रिया जो बेहद मंथर गति से चली हो ।ग्राम्शी से पहले इटली के ही नियोपोलिटन रूढ़िवादी चिंतक विंसेंजो क्यूको ने निष्क्रिय क्रांति की धारणा का प्रयोग 1799 की इतालवी नियोपोलिटन क्रांति के वर्णन के लिए किया था ।ग्राम्शी की मान्यता थी कि रिसर्जिमेंटो असल में एक निष्क्रिय क्रांति थी जिसमें इटली का आधुनिकीकरण हुआ ।

48- स्वतंत्र भारत में जिन कई प्रतिभा सम्पन्न विदुषियों ने स्त्रियों की आर्थिक- सामाजिक दशा सुधारने के लिए तन्मयता और समर्पण से काम किया, उनमें समाजशास्त्री नीरा देसाई (1925-2009) का नाम उल्लेखनीय है ।एक मध्यम वर्गीय गुजराती परिवार में जन्मी नीरा देसाई को 1957 में प्रकाशित उनकी रचना वुमन इन मॉडर्न इंडिया को स्त्रियों की दशा पर लिखा एक मौलिक ग्रंथ माना जाता है ।उन्हें भारतीय नारी आन्दोलन की प्रणेताओं में से एक माना जाता है ।

49– दिनांक 7 दिसम्बर, 1928 को अमेरिका के पेनिसिलवेनिया प्रांत के फ़िलेडेल्फ़िया शहर में जन्में नोआम चोमस्की को भाषा विज्ञान के क्षेत्र में मौजूद चिंतन धाराओं को बुनियादी रूप से प्रभावित करने का श्रेय दिया जाता है ।मैसेच्युएट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में लगभग 35 साल तक अध्यापन कार्य करने वाले चोमस्की को पूँजीवादी व्यवस्था के आलोचक के रूप में भी जाना जाता है ।वर्ष 1972 में प्रकाशित उनकी कृति लैंग्वेज ऐंड माइंड को बहुत प्रसिद्धि मिली ।उनका कथन है कि, “जब हम मानव भाषा का अध्ययन करते हैं, तब हम उस चीज़ की तरफ़ बढ़ रहे होते हैं जिसे मानव सार कहा जा सकता है ।हम मस्तिष्क की विशिष्ट क्षमता समझने का प्रयास कर रहे होते हैं जो मनुष्यों में अनूठे रूप में मौजूद होती है ।”

50- नोआम चोमस्की ने ग्लोबल जस्टिस अथवा वैश्विक न्याय की अवधारणा भी प्रस्तुत किया ।जिसमें उन्होंने राज्य और कार्पोरेट स्वार्थों को मानवीय स्वतंत्रता के पूर्ण विकास के लिए ख़ासतौर पर बाधक बताया है ।उन्होंने अमेरिका को ऐसा उत्पीडनकारी राज्य करार दिया जो अन्य देशों पर उस समय युद्ध थोपता है जब वे अपने संसाधनों और बाज़ार को अमेरिका के लिए खोलने से इंकार कर देते हैं ।उन्होंने मीडिया का विश्लेषण करते हुए प्रोपेगंडा मॉडल प्रस्तुत किया, जो एडवर्ड एस. हर्मन के साथ सहलेखन में प्रकाशित पुस्तक मैन्युफ़ैक्चरिंग कनसेंट : द पॉलिटिकल इकॉनॉमी ऑफ मास मीडिया (1988) के रूप में सामने आया ।

नोट- उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे द्वारा सम्पादित पुस्तक, “समाज विज्ञान विश्वकोष” खंड 3, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण दूसरा: 2016 से साभार लिए गए हैं ।

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