– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर राजनीति विज्ञान विभाग, बुंदेलखंड कालेज, झांसी, ( उत्तर-प्रदेश)। फोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी- डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली, भारत।email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya. Com
1- आंद्रे जी. फ्रैंक ने अपनी पुस्तक ‘कैपीटलिज्म एंड अंडरडिवेलपमेंट इन लैटिन अमेरिका’ (1967) में साम्राज्यवादी देश और उपाश्रित देश को क्रमशः केन्द्र और परिधि के तुल्य मानते हुए यह संकेत किया कि यह दोनों आपस में इस ढंग से जुड़े हुए हैं कि जैसे- जैसे केन्द्र का विकास बढ़ता जाता है, वैसे- वैसे परिधि का अल्प विकास बढ़ता जाता है। परिधि के अल्प विकास को रोकने का एक ही तरीका है कि पूंजीवाद के साथ सम्बन्ध तोड़ दिया जाए।
2- अफ्रीका के प्रसिद्ध नव मार्क्स वादी समीर अमीन ने अपनी पुस्तक ‘एक्युमुलेशन ऑन ए वर्ल्ड स्केल’ (१९७४) और ‘ अनईक्वल डिवलेपमेंट’ (1976) के अंतर्गत लिखा कि आज के युग में औद्योगीकृत देश और अत्यल्प विकसित देश आपस में इस ढंग से जुड़ गए हैं कि पूंजीवाद अल्प विकसित देशों में उत्पादन शक्तियों के विकास की अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने में असमर्थ हो गया है।
3- पराश्रिता सिद्धांत, नव मार्क्स वादी चिंतन की देन है।यह समकालीन विश्व के उन्नत देशों और विकासशील देशों के परस्पर सम्बन्ध का विश्लेषण करता है इस सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के बुद्धिजीवी थे। इनमें आन्द्रे जी. फ्रैंक और समीर अमीन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस सिद्धांत से जुड़े हुए विचारक मानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में विनिमय के स्तर पर शक्तिशाली राष्ट्रों का प्रभुत्व, तीसरी दुनिया के देशों में अल्प विकास का मूल कारण है।
4- नव- उपनिवेशवाद, पूंजीवादी देशों की वह रणनीति है जिसके अंतर्गत उन्नत देश विकासशील देशों में पूंजी निवेश करके उन्हें कच्चे माल के पूर्तिकर्ता और तैयार माल के बाज़ार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इस तरह पुरानी उपनिवेशवादी शक्तियों को उपनिवेशवाद का आर्थिक लाभ तो पहले की तरह प्राप्त हो जाता है, जबकि उन्हें इसका राजनीतिक खर्च भी नहीं उठाना पड़ता।
5- एम. ए. गैरेटन ने अपने लेख ‘ रिथिंकिंग थर्ड वर्ल्ड पॉलिटिक्स’ (1991) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि तीसरी दुनिया के देशों में यथार्थ लोकतंत्र की स्थापना के लिए तीन शर्तें पूरी होनी चाहिए। पहली, सशस्त्र सेनाओं पर नागरिक प्रशासन का सुदृढ़ नियंत्रण हो, दूसरा, सरकार को मानव अधिकारों, सामाजिक और आर्थिक न्याय तथा विधि के शासन के प्रति ज्यादा सरोकार रखना चाहिए और तीसरे, निर्धन, अल्पसंख्यक, युवा वर्ग और महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता बढ़ाई जानी चाहिए।
6- उदारवादी चिंतन में विकास के वैकल्पिक मार्ग ‘ बाजार समाज प्रतिरूप’, जिसमें माना जाता है कि व्यक्ति को जो भी शारीरिक और मानसिक क्षमताएं प्राप्त हैं, उनके लिए वह समाज का ऋणी नहीं है। अतः स्वार्थ पूर्ति के दौरान वह इन क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करने के लिए सर्वथा स्वतंत्र है। समकालीन दार्शनिक सी. बी. मैक्फर्सन (1911-1987) ने इस मान्यता को स्वत्वमूलक व्यक्तिवाद की संज्ञा दी है।
7- प्रहरी राज्य, की अवधारणा उन्नीसवीं शताब्दी में विकसित हुई।इसका मुख्य सरोकार ‘ सम्पत्ति के संरक्षण’ से था।प्रिंस बिस्मार्क (1815-1898) के दौरान सामाजिक बीमे का कार्यक्रम अपनाया गया। इसी प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ‘ शक्तिमूलक राज्य’ का विचार प्रकट हुआ, जिसका लक्ष्य ‘ पूर्ण विजय’ प्राप्त करना था।
8- ब्रिटिश विचारक विलियम बैवरिज ने 1943 में ‘ द पिलर्स ऑफ सिक्योरिटी’ के अंतर्गत लिखा कि राज्य का उद्देश्य पांच महाबुराइयों का अंत करना है- अभाव, रोग, अज्ञान, दरिद्रता और बेकारी।इसे बैवरिज रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।इसने कल्याणकारी राज्य का विस्तार किया।
9- सेवाधर्मी राज्य की संकल्पना के अंतर्गत केवल स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सामाजिक सेवाओं पर बल दिया जाता था जबकि कल्याणकारी राज्य ने सभी नागरिकों के लिए बिना भेदभाव के सर्वोत्तम सेवाएं प्रदान करने का लक्ष्य अपने सामने रखा। इसमें सम्पूर्ण राष्ट्र की ओर से सभी नागरिकों को सम्मान पूर्ण जीवन प्रदान करने का उपाय किया गया।
10- विकास के समाजवादी प्रतिरूप के अंतर्गत उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व में विश्वास किया जाता है। इसमें उत्पादन और वितरण का लक्ष्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति होता है।
11- महात्मा गांधी (1869-1948) द्वारा प्रदत्त विकास का परिप्रेक्ष्य मनुष्य के नैतिक जीवन से सम्बंधित है।वह विकास की किसी भी ऐसी अवधारणा के विरुद्ध थे जिसका लक्ष्य भौतिक इच्छाओं को बढ़ावा देना और उनकी पूर्ति के उपाय ढूंढना हो। वह मानते थे कि पश्चिमी सभ्यता मनुष्य को उपभोक्तावाद का रास्ता दिखाकर नैतिक पतन की ओर ले जाएगी। गांधीजी ने शरीर श्रम, स्वदेशी, जनपुंज द्वारा उत्पादन, सामुदायिकता की भावना पर जोर दिया।
12- गांधीजी के अनुसार, स्वराज का पौधा उस देश में पनपता है जिसकी जड़ें अपनी परम्पराओं से जुड़ी हों, परंतु वह इन परम्पराओं की त्रुटियों के प्रति भी सजग हो और दूसरों से अच्छी बातें सीखने को तैयार हो। स्वराज यह मांग करता है कि सांस्कृतिक दृष्टि से हमारा एक घर होना चाहिए जो हमें सुरक्षा प्रदान करे, परन्तु उस घर की खिड़कियां और दरवाजे खुले रखे जाएं ताकि उसमें सब ओर से उत्तम विचारों की ताजी हवा आती रहे।
13- गांधीजी, स्वराज की प्राप्ति को ‘हरेक आंख से हरेक आंसू पोंछने’ के अवसर के रूप में देखते थे।उनके चिंतन में व्यक्ति के मुकाबले में समाज को ऊंचा स्थान दिया गया है। भौतिकवाद के मुकाबले अध्यात्मवाद को वरीयता दी गई है। समाज के प्रति व्यक्ति की कर्तव्यनिष्ठा पर बल दिया गया है। उन्होंने मनुष्य को उपभोग के नियमन और इच्छाओं के नियंत्रण का जो संदेश दिया, वह मानवता के भविष्य की रक्षा के लिए पर्यावरणवाद का महत्वपूर्ण सिद्धांत बन चुका है।
14- अधिनायकतंत्र, ऐसी व्यवस्था है जिसमें सम्पूर्ण सत्ता किसी अधिनायक के हाथों में रहती है।आर. एम. मैकाइवर ने अपनी पुस्तक ‘ द वैब ऑफ गवर्नमेंट’ (1965) में लिखा कि ‘‘ अधिनायक तंत्र तब अस्तित्व में आता है जब समाज व्यवस्था हिल जाती है या टूट जाती है- ऐसे संकट के समय जब मनुष्य अपनी परम्पराओं को तिलांजलि दे देते हैं, ऐसे घोर संघर्ष के समय जब मनुष्य केवल इस शर्त पर बहुत कुछ बलिदान करने को तैयार हो जाते हैं कि कोई शक्तिशाली व्यक्ति उनके उखड़े हुए विश्वास और व्यवस्था को फिर से स्थापित कर दे।’’
15- मैकाइवर ने लिखा है कि ‘‘मुसोलिनी साहसिक कोटि का था, हिटलर मतांध था।‘ मुसोलिनी इटली के असंतुष्ट साम्राज्य वाद के अग्रदूत के रूप में सामने आया। कुछ स्थानीय सफलताओं के बाद उसने ‘रोम की ओर अभियान’ की योजना बनाई। निर्बल शासनतंत्र को धराशाई कर स्वयं प्रधानमंत्री बन बैठा।’
16- राजनय अथवा कूटनीति का अर्थ है- वह प्रक्रिया जिसके माध्यम से विभिन्न राज्य अपने विदेश सम्बन्धों का संचालन करते हैं।राजनय का प्रमुख ध्येय अपने राष्ट्रीय हितों को इस ढंग से बढ़ावा देना है जिससे अन्य राष्ट्रों के साथ कोई टकराव पैदा न हो और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को भी कोई क्षति न पहुंचे। प्राचीन भारत में साम, दाम, दण्ड और भेद कूटनीति के उपाय माने जाते थे।
17- राजनयिक अभिकर्त्ता ऐसा व्यक्ति होता है जिसे किसी राज्य का अध्यक्ष दूसरे राज्य में अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजता है। इनकी नियुक्ति की प्रक्रिया में प्रत्यायन, प्रतिस्वीकृति, वांछित व्यक्ति, प्रत्यय- पत्र तथा पूर्णाधिकार पत्र जैसी जटिल शब्दावलियों का प्रयोग किया जाता है। राजदूत, धर्मदूत, पोपदूत सर्वोच्च श्रेणी के राजनयिक अभिकर्त्ता माने जाते हैं। इन्हें कुछ विशेषाधिकार और उनमुक्तियां प्राप्त होती हैं।
18- चार्ल्स वैब्स्टर ने अपनी पुस्तक ‘ द आर्ट एंड प्रैक्टिस ऑफ डिप्लोमेसी’ (1961) के अंतर्गत लिखा है कि ‘‘ सफल राजनय मुख्यत: तीन बातों पर निर्भर करता है- पहला, अपने अनुकूल जनमत का निर्माण करना, दूसरा, ऐसे समझौते करना जिससे लक्ष्यों को व्यावहारिक उपलब्धि में बदला जा सके। तीसरे, उचित अवसर की तलाश करना, जिसमें अपना सर्वोत्तम हित हो सके।’’ वस्तुत: यह सूझ बूझ का खेल है।
19- हेरल्ड निकल्सन ने अपनी पुस्तक ‘ द इवोल्यूशन ऑफ डिप्लोमेटिक मैथड’(1954) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ यह ठीक है कि झूठ किसी महान राजदूत को शोभा नहीं देता। वस्तुत: समझौता वार्ता में जितनी हानि होती है, उतना लाभ नहीं होता।यदि आज उसे सफलता मिल भी जाए तो वह ऐसा संदेह का वातावरण पैदा कर देगा जिससे कल फिर सफलता प्राप्त करना असंभव हो जाएगा।’ ‘‘ राजदूतों के पास न तो युद्ध पोत होते हैं, न विशाल सेना होती है, न दुर्ग होते हैं। उनके शस्त्र तो शब्द और अवसर होते हैं।’’
20- के. एम. पणिक्कर ने अपनी पुस्तक ‘ द प्रिंसिपल्स एंड प्रैक्टिस ऑफ डिप्लोमेसी’(1964) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ बुनियादी मुद्दों पर दृढ़ता और छोटी मोटी बातों में समझौता सच्चे राजनय की कसौटी है।’’ ‘‘ राजदूत के लिए यह आवश्यक है कि जहां तक हो सके, उसे गणमान्य और प्रभावशाली स्त्रियों के साथ सामाजिक सम्पर्क स्थापित करना चाहिए और ऐसी छाप छोडनी चाहिए कि वह उनकी सलाह और सहायता प्राप्त करना चाहता है।’’
21- हेरल्ड निकल्सन ने अपनी पुस्तक ‘ डिप्लोमेसी’(1963) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ तीन तरह के लोग राजनयिक के रूप में सबसे निकम्मे सिद्ध होते हैं- धर्म प्रचारक, धर्मांध और कानूनबाज।’’ आइजॉक गोल्डबर्ग ने कहा है कि ‘कूटनीति सबसे घिनौने कृत्य को सबसे सुहावने ढंग से करने या कहने की कला है।’
22- के. पी. एस. मेनन ने अपनी आत्मकथा ‘ मैनी वर्ल्डस’- मालाबार से मास्को’ (1965) के अंतर्गत लिखा कि राजनयिक की भाषा शैली स्त्रियों की भाषा शैली का विपरीत रूप प्रस्तुत करती है। इस तर्क के अनुसार यदि कोई स्त्री ‘न’ कहे तो उसका अभिप्राय होता है ‘शायद, यदि वह ‘शायद’ कहे तो उसका मतलब होता है ‘हां’। और य़दि कोई स्त्री ‘हॉं’ कहे तो वह स्त्री कैसी ? इसी प्रकार राजनयिक की भाषा होती है।
23- सर रॉबर्ट फिल्मर (1588-1653) ने अपनी पुस्तक ‘ पैट्रियार्का’ (1680) के अंतर्गत राज्य के दैवी उत्पत्ति की पुष्टि की है। उसने तर्क दिया कि ईश्वर ने आदम को पहला मनुष्य ही नहीं बनाया बल्कि वह धरती का पहला राजा भी था। वर्तमान राजा उसी के उत्तराधिकारी हैं। महाभारत के शांति पर्व में राज्य की दैवी उत्पत्ति का संकेत मिलता है।
24- पर्यावरणवाद, एक विचारधारात्मक आन्दोलन है जो पश्चिमी राजनीति के अंतर्गत 1970 के दशक में उभरकर सामने आया और धीरे धीरे सम्पूर्ण विश्व में फैल गया। वातावरण के गहरे सरोकार के कारण इसे परिस्थिति विज्ञानवाद की संज्ञा भी दी जाती है। इससे प्रेरित राजनीति को हरित राजनीति कहते हैं। न्यूजीलैंड, पश्चिमी जर्मनी और ब्रिटेन में इस एजेण्डे के तहत राजनीतिक दल भी बने हैं।
25- पर्यावरणवाद के आरम्भिक संकेत ई. एफ. शुमेकर (1911-1977) की चर्चित कृति ‘ स्माल इज ब्यूटीफुल‘(1973) के अंतर्गत मिलते हैं। उन्होंने लिखा था कि ‘‘ आधुनिक औद्योगिक समाज बौद्धिक दृष्टि से चाहे कितना ही परिष्कृत क्यों न हो, वह जिस नींव पर खड़ा है उसे ही खोखला कर रहा है।’’
26- पर्यावरणवाद का सैद्धांतिक आधार सामाजिक न्याय है। इसके समर्थक यह तर्क देते हैं कि धरती किसी की निजी सम्पत्ति नहीं है।यह हमे अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार में नहीं मिली बल्कि यह हमारे पास भावी पीढ़ियों की धरोहर है। आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में हमारे पर्यावरण को गम्भीर रूप से क्षति पहुंचाई है। पर्यावरणवाद, ‘ जीवन की गुणवत्ता को आर्थिक संवृद्धि से अधिक ऊंचा स्थान देता है।’
27- विलियम टी. कैहिल ने कहा था कि ‘‘ हम अपना कचरा कहीं दूर नहीं फेंक सकते क्योंकि अब कोई भी जगह दूर नहीं रह गई है।’’ लारेंस जे. पीटर ने कहा है ‘‘ मनुष्य बड़ा जटिल प्राणी है। वह मरूस्थलों में फूल खिला देता है और झीलों को सुखा डालता है।’’
28- सतत विकास की संकल्पना विश्व पर्यावरण और विकास आयोग (1987) की देन है।इस आयोग की अध्यक्षा ग्रो बुटलैण्ड के नाम पर इस आयोग के प्रतिवेदन को ब्रुटलैण्ड रिपोर्ट कहा जाता है। यह रिपोर्ट ‘ऑवर कॉमन फ्यूचर’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इसमें मांग की गई थी कि वर्तमान पीढ़ी को अपनी आवश्यकताएं इस ढंग से पूरी करनी चाहिए कि भावी पीढ़ियां अपनी आवश्यकताएं पूरी करने में असमर्थ न हो जाएं।
29- विद्वान लेखक टेड ट्रेनर ने अपनी चर्चित कृति ‘एबंडन ऐफ्लुएंस’ (1985) के अंतर्गत अमेरिकी और इथोपिया वासियों के बीच ऊर्जा खपत का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। ‘‘विचार विश्व स्तर पर, कार्रवाई स्थानीय स्तर पर’’ पर्यावरणवादियों का नारा है।
30- हेरल्ड जे. लास्की ने अपनी पुस्तक ‘द स्टेट इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस’(1935) के अंतर्गत लिखा है कि ‘‘ जहां कहीं किसी एक वर्ग को ऐसे आधार पर समान अधिकारों से वंचित रखा जाता है कि उसके पास सम्पत्ति नहीं है या वह किसी जाति, धर्म या दल विशेष से सम्बद्ध नहीं है, वहां विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के हित में तत्कालीन शक्ति संतुलन को कायम रखने की इच्छा अवश्य छिपी रहती है।’’
Thank you very much Dr. Tosi Anand ji.
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