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राजनीति विज्ञान : महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 4)

Posted on जनवरी 21, 2022अगस्त 8, 2022
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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर राजनीति विज्ञान विभाग, बुंदेलखंड कालेज, झांसी, ( उत्तर-प्रदेश)। फोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी- डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली, भारत।email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya. Com

1- आंद्रे जी. फ्रैंक ने अपनी पुस्तक ‘कैपीटलिज्म एंड अंडरडिवेलपमेंट इन लैटिन अमेरिका’ (1967) में साम्राज्यवादी देश और उपाश्रित देश को क्रमशः केन्द्र और परिधि के तुल्य मानते हुए यह संकेत किया कि यह दोनों आपस में इस ढंग से जुड़े हुए हैं कि जैसे- जैसे केन्द्र का विकास बढ़ता जाता है, वैसे- वैसे परिधि का अल्प विकास बढ़ता जाता है। परिधि के अल्प विकास को रोकने का एक ही तरीका है कि पूंजीवाद के साथ सम्बन्ध तोड़ दिया जाए।

2- अफ्रीका के प्रसिद्ध नव मार्क्स वादी समीर अमीन ने अपनी पुस्तक ‘एक्युमुलेशन ऑन ए वर्ल्ड स्केल’ (१९७४) और ‘ अनईक्वल डिवलेपमेंट’ (1976) के अंतर्गत लिखा कि आज के युग में औद्योगीकृत देश और अत्यल्प विकसित देश आपस में इस ढंग से जुड़ गए हैं कि पूंजीवाद अल्प विकसित देशों में उत्पादन शक्तियों के विकास की अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने में असमर्थ हो गया है।

3- पराश्रिता सिद्धांत, नव मार्क्स वादी चिंतन की देन है।यह समकालीन विश्व के उन्नत देशों और विकासशील देशों के परस्पर सम्बन्ध का विश्लेषण करता है इस सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के बुद्धिजीवी थे। इनमें आन्द्रे जी. फ्रैंक और समीर अमीन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस सिद्धांत से जुड़े हुए विचारक मानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में विनिमय के स्तर पर शक्तिशाली राष्ट्रों का प्रभुत्व, तीसरी दुनिया के देशों में अल्प विकास का मूल कारण है।

4- नव- उपनिवेशवाद, पूंजीवादी देशों की वह रणनीति है जिसके अंतर्गत उन्नत देश विकासशील देशों में पूंजी निवेश करके उन्हें कच्चे माल के पूर्तिकर्ता और तैयार माल के बाज़ार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इस तरह पुरानी उपनिवेशवादी शक्तियों को उपनिवेशवाद का आर्थिक लाभ तो पहले की तरह प्राप्त हो जाता है, जबकि उन्हें इसका राजनीतिक खर्च भी नहीं उठाना पड़ता।

5- एम. ए. गैरेटन ने अपने लेख ‘ रिथिंकिंग थर्ड वर्ल्ड पॉलिटिक्स’ (1991) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि तीसरी दुनिया के देशों में यथार्थ लोकतंत्र की स्थापना के लिए तीन शर्तें पूरी होनी चाहिए। पहली, सशस्त्र सेनाओं पर नागरिक प्रशासन का सुदृढ़ नियंत्रण हो, दूसरा, सरकार को मानव अधिकारों, सामाजिक और आर्थिक न्याय तथा विधि के शासन के प्रति ज्यादा सरोकार रखना चाहिए और तीसरे, निर्धन, अल्पसंख्यक, युवा वर्ग और महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता बढ़ाई जानी चाहिए।

6- उदारवादी चिंतन में विकास के वैकल्पिक मार्ग ‘ बाजार समाज प्रतिरूप’, जिसमें माना जाता है कि व्यक्ति को जो भी शारीरिक और मानसिक क्षमताएं प्राप्त हैं, उनके लिए वह समाज का ऋणी नहीं है। अतः स्वार्थ पूर्ति के दौरान वह इन क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करने के लिए सर्वथा स्वतंत्र है। समकालीन दार्शनिक सी. बी. मैक्फर्सन (1911-1987) ने इस मान्यता को स्वत्वमूलक व्यक्तिवाद की संज्ञा दी है।

7- प्रहरी राज्य, की अवधारणा उन्नीसवीं शताब्दी में विकसित हुई।इसका मुख्य सरोकार ‘ सम्पत्ति के संरक्षण’ से था।प्रिंस बिस्मार्क (1815-1898) के दौरान सामाजिक बीमे का कार्यक्रम अपनाया गया। इसी प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ‘ शक्तिमूलक राज्य’ का विचार प्रकट हुआ, जिसका लक्ष्य ‘ पूर्ण विजय’ प्राप्त करना था।

8- ब्रिटिश विचारक विलियम बैवरिज ने 1943 में ‘ द पिलर्स ऑफ सिक्योरिटी’ के अंतर्गत लिखा कि राज्य का उद्देश्य पांच महाबुराइयों का अंत करना है- अभाव, रोग, अज्ञान, दरिद्रता और बेकारी।इसे बैवरिज रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।इसने कल्याणकारी राज्य का विस्तार किया।

9- सेवाधर्मी राज्य की संकल्पना के अंतर्गत केवल स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सामाजिक सेवाओं पर बल दिया जाता था जबकि कल्याणकारी राज्य ने सभी नागरिकों के लिए बिना भेदभाव के सर्वोत्तम सेवाएं प्रदान करने का लक्ष्य अपने सामने रखा। इसमें सम्पूर्ण राष्ट्र की ओर से सभी नागरिकों को सम्मान पूर्ण जीवन प्रदान करने का उपाय किया गया।

10- विकास के समाजवादी प्रतिरूप के अंतर्गत उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व में विश्वास किया जाता है। इसमें उत्पादन और वितरण का लक्ष्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति होता है।

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11- महात्मा गांधी (1869-1948) द्वारा प्रदत्त विकास का परिप्रेक्ष्य मनुष्य के नैतिक जीवन से सम्बंधित है।वह विकास की किसी भी ऐसी अवधारणा के विरुद्ध थे जिसका लक्ष्य भौतिक इच्छाओं को बढ़ावा देना और उनकी पूर्ति के उपाय ढूंढना हो। वह मानते थे कि पश्चिमी सभ्यता मनुष्य को उपभोक्तावाद का रास्ता दिखाकर नैतिक पतन की ओर ले जाएगी। गांधीजी ने शरीर श्रम, स्वदेशी, जनपुंज द्वारा उत्पादन, सामुदायिकता की भावना पर जोर दिया।

12- गांधीजी के अनुसार, स्वराज का पौधा उस देश में पनपता है जिसकी जड़ें अपनी परम्पराओं से जुड़ी हों, परंतु वह इन परम्पराओं की त्रुटियों के प्रति भी सजग हो और दूसरों से अच्छी बातें सीखने को तैयार हो। स्वराज यह मांग करता है कि सांस्कृतिक दृष्टि से हमारा एक घर होना चाहिए जो हमें सुरक्षा प्रदान करे, परन्तु उस घर की खिड़कियां और दरवाजे खुले रखे जाएं ताकि उसमें सब ओर से उत्तम विचारों की ताजी हवा आती रहे।

13- गांधीजी, स्वराज की प्राप्ति को ‘हरेक आंख से हरेक आंसू पोंछने’ के अवसर के रूप में देखते थे।उनके चिंतन में व्यक्ति के मुकाबले में समाज को ऊंचा स्थान दिया गया है। भौतिकवाद के मुकाबले अध्यात्मवाद को वरीयता दी गई है। समाज के प्रति व्यक्ति की कर्तव्यनिष्ठा पर बल दिया गया है। उन्होंने मनुष्य को उपभोग के नियमन और इच्छाओं के नियंत्रण का जो संदेश दिया, वह मानवता के भविष्य की रक्षा के लिए पर्यावरणवाद का महत्वपूर्ण सिद्धांत बन चुका है।

14- अधिनायकतंत्र, ऐसी व्यवस्था है जिसमें सम्पूर्ण सत्ता किसी अधिनायक के हाथों में रहती है।आर. एम. मैकाइवर ने अपनी पुस्तक ‘ द वैब ऑफ गवर्नमेंट’ (1965) में लिखा कि ‘‘ अधिनायक तंत्र तब अस्तित्व में आता है जब समाज व्यवस्था हिल जाती है या टूट जाती है- ऐसे संकट के समय जब मनुष्य अपनी परम्पराओं को तिलांजलि दे देते हैं, ऐसे घोर संघर्ष के समय जब मनुष्य केवल इस शर्त पर बहुत कुछ बलिदान करने को तैयार हो जाते हैं कि कोई शक्तिशाली व्यक्ति उनके उखड़े हुए विश्वास और व्यवस्था को फिर से स्थापित कर दे।’’

15- मैकाइवर ने लिखा है कि ‘‘मुसोलिनी साहसिक कोटि का था, हिटलर मतांध था।‘ मुसोलिनी इटली के असंतुष्ट साम्राज्य वाद के अग्रदूत के रूप में सामने आया। कुछ स्थानीय सफलताओं के बाद उसने ‘रोम की ओर अभियान’ की योजना बनाई। निर्बल शासनतंत्र को धराशाई कर स्वयं प्रधानमंत्री बन बैठा।’

16- राजनय अथवा कूटनीति का अर्थ है- वह प्रक्रिया जिसके माध्यम से विभिन्न राज्य अपने विदेश सम्बन्धों का संचालन करते हैं।राजनय का प्रमुख ध्येय अपने राष्ट्रीय हितों को इस ढंग से बढ़ावा देना है जिससे अन्य राष्ट्रों के साथ कोई टकराव पैदा न हो और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को भी कोई क्षति न पहुंचे। प्राचीन भारत में साम, दाम, दण्ड और भेद कूटनीति के उपाय माने जाते थे।

17- राजनयिक अभिकर्त्ता ऐसा व्यक्ति होता है जिसे किसी राज्य का अध्यक्ष दूसरे राज्य में अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजता है। इनकी नियुक्ति की प्रक्रिया में प्रत्यायन, प्रतिस्वीकृति, वांछित व्यक्ति, प्रत्यय- पत्र तथा पूर्णाधिकार पत्र जैसी जटिल शब्दावलियों का प्रयोग किया जाता है। राजदूत, धर्मदूत, पोपदूत सर्वोच्च श्रेणी के राजनयिक अभिकर्त्ता माने जाते हैं। इन्हें कुछ विशेषाधिकार और उनमुक्तियां प्राप्त होती हैं।

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18- चार्ल्स वैब्स्टर ने अपनी पुस्तक ‘ द आर्ट एंड प्रैक्टिस ऑफ डिप्लोमेसी’ (1961) के अंतर्गत लिखा है कि ‘‘ सफल राजनय मुख्यत: तीन बातों पर निर्भर करता है- पहला, अपने अनुकूल जनमत का निर्माण करना, दूसरा, ऐसे समझौते करना जिससे लक्ष्यों को व्यावहारिक उपलब्धि में बदला जा सके। तीसरे, उचित अवसर की तलाश करना, जिसमें अपना सर्वोत्तम हित हो सके।’’ वस्तुत: यह सूझ बूझ का खेल है।

19- हेरल्ड निकल्सन ने अपनी पुस्तक ‘ द इवोल्यूशन ऑफ डिप्लोमेटिक मैथड’(1954) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ यह ठीक है कि झूठ किसी महान राजदूत को शोभा नहीं देता। वस्तुत: समझौता वार्ता में जितनी हानि होती है, उतना लाभ नहीं होता।यदि आज उसे सफलता मिल भी जाए तो वह ऐसा संदेह का वातावरण पैदा कर देगा जिससे कल फिर सफलता प्राप्त करना असंभव हो जाएगा।’ ‘‘ राजदूतों के पास न तो युद्ध पोत होते हैं, न विशाल सेना होती है, न दुर्ग होते हैं। उनके शस्त्र तो शब्द और अवसर होते हैं।’’

20- के. एम. पणिक्कर ने अपनी पुस्तक ‘ द प्रिंसिपल्स एंड प्रैक्टिस ऑफ डिप्लोमेसी’(1964) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ बुनियादी मुद्दों पर दृढ़ता और छोटी मोटी बातों में समझौता सच्चे राजनय की कसौटी है।’’ ‘‘ राजदूत के लिए यह आवश्यक है कि जहां तक हो सके, उसे गणमान्य और प्रभावशाली स्त्रियों के साथ सामाजिक सम्पर्क स्थापित करना चाहिए और ऐसी छाप छोडनी चाहिए कि वह उनकी सलाह और सहायता प्राप्त करना चाहता है।’’

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21- हेरल्ड निकल्सन ने अपनी पुस्तक ‘ डिप्लोमेसी’(1963) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ तीन तरह के लोग राजनयिक के रूप में सबसे निकम्मे सिद्ध होते हैं- धर्म प्रचारक, धर्मांध और कानूनबाज।’’ आइजॉक गोल्डबर्ग ने कहा है कि ‘कूटनीति सबसे घिनौने कृत्य को सबसे सुहावने ढंग से करने या कहने की कला है।’

22- के. पी. एस. मेनन ने अपनी आत्मकथा ‘ मैनी वर्ल्डस’- मालाबार से मास्को’ (1965) के अंतर्गत लिखा कि राजनयिक की भाषा शैली स्त्रियों की भाषा शैली का विपरीत रूप प्रस्तुत करती है। इस तर्क के अनुसार यदि कोई स्त्री ‘न’ कहे तो उसका अभिप्राय होता है ‘शायद, यदि वह ‘शायद’ कहे तो उसका मतलब होता है ‘हां’। और य़दि कोई स्त्री ‘हॉं’ कहे तो वह स्त्री कैसी ? इसी प्रकार राजनयिक की भाषा होती है।

23- सर रॉबर्ट फिल्मर (1588-1653) ने अपनी पुस्तक ‘ पैट्रियार्का’ (1680) के अंतर्गत राज्य के दैवी उत्पत्ति की पुष्टि की है। उसने तर्क दिया कि ईश्वर ने आदम को पहला मनुष्य ही नहीं बनाया बल्कि वह धरती का पहला राजा भी था। वर्तमान राजा उसी के उत्तराधिकारी हैं। महाभारत के शांति पर्व में राज्य की दैवी उत्पत्ति का संकेत मिलता है।

24- पर्यावरणवाद, एक विचारधारात्मक आन्दोलन है जो पश्चिमी राजनीति के अंतर्गत 1970 के दशक में उभरकर सामने आया और धीरे धीरे सम्पूर्ण विश्व में फैल गया। वातावरण के गहरे सरोकार के कारण इसे परिस्थिति विज्ञानवाद की संज्ञा भी दी जाती है। इससे प्रेरित राजनीति को हरित राजनीति कहते हैं। न्यूजीलैंड, पश्चिमी जर्मनी और ब्रिटेन में इस एजेण्डे के तहत राजनीतिक दल भी बने हैं।

25- पर्यावरणवाद के आरम्भिक संकेत ई. एफ. शुमेकर (1911-1977) की चर्चित कृति ‘ स्माल इज ब्यूटीफुल‘(1973) के अंतर्गत मिलते हैं। उन्होंने लिखा था कि ‘‘ आधुनिक औद्योगिक समाज बौद्धिक दृष्टि से चाहे कितना ही परिष्कृत क्यों न हो, वह जिस नींव पर खड़ा है उसे ही खोखला कर रहा है।’’

26- पर्यावरणवाद का सैद्धांतिक आधार सामाजिक न्याय है। इसके समर्थक यह तर्क देते हैं कि धरती किसी की निजी सम्पत्ति नहीं है।यह हमे अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार में नहीं मिली बल्कि यह हमारे पास भावी पीढ़ियों की धरोहर है। आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में हमारे पर्यावरण को गम्भीर रूप से क्षति पहुंचाई है। पर्यावरणवाद, ‘ जीवन की गुणवत्ता को आर्थिक संवृद्धि से अधिक ऊंचा स्थान देता है।’

27- विलियम टी. कैहिल ने कहा था कि ‘‘ हम अपना कचरा कहीं दूर नहीं फेंक सकते क्योंकि अब कोई भी जगह दूर नहीं रह गई है।’’ लारेंस जे. पीटर ने कहा है ‘‘ मनुष्य बड़ा जटिल प्राणी है। वह मरूस्थलों में फूल खिला देता है और झीलों को सुखा डालता है।’’

28- सतत विकास की संकल्पना विश्व पर्यावरण और विकास आयोग (1987) की देन है।इस आयोग की अध्यक्षा ग्रो बुटलैण्ड के नाम पर इस आयोग के प्रतिवेदन को ब्रुटलैण्ड रिपोर्ट कहा जाता है। यह रिपोर्ट ‘ऑवर कॉमन फ्यूचर’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इसमें मांग की गई थी कि वर्तमान पीढ़ी को अपनी आवश्यकताएं इस ढंग से पूरी करनी चाहिए कि भावी पीढ़ियां अपनी आवश्यकताएं पूरी करने में असमर्थ न हो जाएं।

29- विद्वान लेखक टेड ट्रेनर ने अपनी चर्चित कृति ‘एबंडन ऐफ्लुएंस’ (1985) के अंतर्गत अमेरिकी और इथोपिया वासियों के बीच ऊर्जा खपत का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। ‘‘विचार विश्व स्तर पर, कार्रवाई स्थानीय स्तर पर’’ पर्यावरणवादियों का नारा है।

30- हेरल्ड जे. लास्की ने अपनी पुस्तक ‘द स्टेट इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस’(1935) के अंतर्गत लिखा है कि ‘‘ जहां कहीं किसी एक वर्ग को ऐसे आधार पर समान अधिकारों से वंचित रखा जाता है कि उसके पास सम्पत्ति नहीं है या वह किसी जाति, धर्म या दल विशेष से सम्बद्ध नहीं है, वहां विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के हित में तत्कालीन शक्ति संतुलन को कायम रखने की इच्छा अवश्य छिपी रहती है।’’

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31- जीन जैक्स रूसो ने अपनी विख्यात कृति ‘ द सोशल कांट्रैक्ट’(1762) के अंतर्गत लिखा कि सभी नागरिकों को समानता प्रदान करना नागरिक समाज की प्रमुख विशेषता है। अर्नेस्ट बार्कर ने 1951 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल एंड पॉलिटिकल थ्योरी’ के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ राज्य का मूल सिद्धांत यह है कि वह हमें कानूनी व्यक्तित्व के एक जैसे मुखौटे पहना देता है। कानून के समक्ष हम सबका महत्व एवं जितना होता है।’’

32- फ्रांसीसी क्रान्ति (1789) से पहले वहां कुलीन व्यक्ति तो न्यायालय में अपनी ओर से साक्ष्य प्रस्तुत कर सकता था, परन्तु जन साधारण को अपने पक्ष में सा प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं था। इसी प्रकार इंग्लैंड में 1918 तक नियम यह था कि जिस व्यक्ति को निर्धन सहायता प्राप्त होगी, उसकी कानूनी हैसियत बहुत मामूली होगी।उसे मतदान का अधिकार नहीं होगा। 1918 तक ब्रिटेन में सभी महिलाओं को मताधिकार प्राप्त नहीं था।

33- वर्ष 1976 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिक्स’ में जे. आर. ल्यूकस ने कानून के समक्ष समानता की परिभाषा देते हुए लिखा कि ‘‘ कानून के समक्ष समानता यह विश्वास नहीं दिलाती कि कानून सबके साथ समान बर्ताव करेगा, बल्कि यह सुनिश्चित करती है कि कानून का द्वार सबके लिए खुला रहेगा। कोई भी व्यक्ति न्यायालयों की सहायता माँग सकता है और हर कोई उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य है। न्यायालय पक्षपात रहित होगा।’’

34- राजनीतिक समानता का सिद्धांत इस विश्वास पर टिका है कि मनुष्य स्वयं एक विवेकशील प्राणी है और वह राजनीतिक सूझ बूझ रखता है।डी. डी. रफील ने 1976 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ प्रॉब्लम्स ऑफ पॉलिटिकल फिलॉस्फी’ में लिखा कि ‘‘ फ्रांसीसी क्रान्तिकारी समानता की मांग करते समय उस तर्कसून्य विशेषाधिकार समाप्ति की मांग कर रहे थे जिसके अंतर्गत राजनीतिक अधिकार धनवान और कुलीन वर्ग तक सीमित थे।’’

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35- आर. एच. टानी (1880-1962), एच. जे. लास्की (1893-1950) और सी. बी. मैक्फर्सन (1911-1987) समानता के सिद्धांत को स्वतंत्रता का पूरक मानते हैं। अलेक्सी द ताकवील ने कहा है कि स्वतंत्रता और समानता में सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए। लोकतंत्र का विस्तार समानता को जितना बढ़ावा देता है, स्वतंत्रता के लिए उतना ही बड़ा खतरा पैदा कर देता है। जबकि जॉन स्टुअर्ट मिल ने चेतावनी दी है कि यदि एक व्यक्ति की राय बाकी समाज की राय से भिन्न हो तो भी समाज को यह अधिकार नहीं है कि वह उस अकेले व्यक्ति को चुप करा दे।

36- समकालीन अंग्रेज दार्शनिक आइजिया बर्लिन (1909-1997) ने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘ टू कांसेप्ट्स ऑफ लिबर्टी’ (1858) में लिखा कि स्वतंत्रता का अर्थ केवल यह है कि किसी व्यक्ति को अपने ध्येय की पूर्ति के दौरान दूसरों की ओर से किसी बाधा का सामना न करना पड़े। राज्य केवल नकारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा कर सकता है। सकारात्मक स्वतंत्रता व्यक्ति का निजी मामला है जिससे राज्य को कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए।

37- सी. बी. पारेख ने 1982 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ कंटेंपरेरी पॉलिटिकल थिंकर्स’ के अंतर्गत आइजिया बर्लिन के स्वतंत्रता सम्बन्धी सिद्धांत की आलोचना किया।उनके अनुसार बर्लिन ने सामाजिक- आर्थिक विषमताओं को प्राकृतिक और नैतिक विषमताओं के समकक्ष रखकर समानता के सिद्धांत का भ्रामक चित्र प्रस्तुत किया है और स्वतंत्रता के सिद्धांत को समानता के सिद्धांत से काटकर उसने स्वयं स्वतंत्रता के सिद्धांत को भारी क्षति पहुंचाई है।

38- लोकतंत्रीय समाजवाद, साधारणतया लोकतंत्रीय विधि, संसदीय सुधार और आर्थिक नियोजन तक को अपनाने का समर्थन करता है और यह आशा व्यक्त करता है कि निर्धन और वंचित वर्गों तथा कामगारों के चुने हुए प्रतिनिधि और नेता सार्वजनिक नीति को उनके हितों के अनुरूप ढालने में प्रभावशाली भूमिका निभा सकते हैं।

39- फेबियनवाद, उन सिद्धांतों का समुच्चय है जिन्हें इंग्लैंड की फेबियन सोसायटी ने अपने लक्ष्यों की सिद्धि के लिए अपनाया था।फेबियन सोसायटी की स्थापना 1884 में की गई थी। इस संगठन का नाम महान् रोमन सेनापति क्विंटस फेबियस(275 -203) के नाम पर रखा गया था। हैनीबाल से लड़ाई लड़ने के लिए फेबियस ने तरह तरह के दांव पेंच अपनाए थे। इसका मूल मंत्र था कि ‘उपयुक्त क्षण’ के लिए धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए और अवसर आने पर प्रबल प्रहार करना चाहिए।

40- फेबियनवाद के उन्नायकों में सिडनी वैब (1859-1947) और बीट्रिस वैब (1858-1943) के अलावा बर्नार्ड शॉ (1856-1950), सिडनी वोलीवियर (1859-1943) और ग्राहम वैलेस (1858-1932) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

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41- अस्तित्ववाद, वह दार्शनिक सिद्धांत है जो ज्ञान की प्रकृति और उसकी प्रामाणिकता के आधार पर विचार करता है। साधारणतया तर्कबुद्धिवाद का खंडन करता है। व्यक्ति के अस्तित्व को ज्ञान की तुलना में पूर्वता देता है।इसके उन्नायकों में जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर (1889-1976), कार्ल यास्पर्स (1883-1969) और फ्रांसीसी दार्शनिक ग्रेबियल मार्सेल (1889-1973), ज्यां पॉल सात्रे (1905-1980) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

42- ज्यां पॉल सात्रे ने अपनी विख्यात कृति ‘ बीइंग एंड नथिंगनैस’ (1945) में आत्मपरक स्वतंत्रता का बहुत प्रखर और मार्मिक विवरण प्रस्तुत किया है।इसके अनुसार व्यक्ति केवल अपनी आत्मा का निर्देश मानने को बाध्य है, बाह्य नियमों, आदेशों या आदर्शों को नहीं। अस्तित्ववाद की मान्यता है कि व्यक्ति वस्तुपरक विश्लेषण का विषय नहीं है। व्यक्ति देश और काल के संदर्भ में अपने अनन्य मूर्त अस्तित्व के बारे में चिंतन मनन करके इसके रहस्य से परिचित हो सकता है।

43- फासिस्टवाद, उन बेमेल विचारों और मान्यताओं का समुच्चय है जिन्हें प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद के दशकों में इटली के तत्कालीन नेता बेनितो मुसोलिनी (1883-1945) ने सम्पूर्ण राष्ट्र को अनुशासन में बांधने के उद्देश्य से बढ़ावा दिया।यह विचारधारा लोकतंत्र, समाजवाद और साम्यवाद के विरूद्ध प्रजातिवाद, सत्तावाद और सर्वाधिकारवाद का वर्चस्व स्थापित करने के ध्येय से प्रस्तुत की गई थी।

44- अंग्रेजी के ‘फासिज्म’ शब्द की उत्पत्ति लेटिन के ‘फासियो’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है- डंडों का गट्ठर, जो कुल्हाड़ी के हत्थे के इर्द गिर्द लाल डोरे से बंधे रहते हैं। फ़ासिस्टों ने इसे अनुशासन, एकता और शक्ति के प्रतीक के रूप में अपनाया। मुसोलिनी ने राष्ट्रीय सम्मान और राष्ट्रीय गौरव की दुहाई देकर लोगों को इटली के प्रति आस्थावान बनाया। इटली में 21 वर्ष तक फ़ासिज़्म की तूती बोलती रही।

45- डब्ल्यू. एम. मैक्गवर्न ने 1941 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ फ्रॉम लूथर टू हिटलर’ में फ़ासिज़्म को निम्न मध्यम वर्ग का आंदोलन माना है।रजनी पाम दत्त ने वर्ष 1935 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ फ़ासिज़्म एंड सोशल रिवोल्यूशन ’ में फ़ासिज़्म को आधुनिक पूंजीवाद के चरम ह्रास की परिस्थितियों में पूंजीवादी प्रवृतियों और नीतियों को फिर से जमाने की कोशिश का नतीजा माना है। जबकि हेरल्ड जे. लास्की ने अपनी पुस्तक ‘ स्टेट इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस’ (1935) में फ़ासिज़्म के उदय का मुख्य कारण पूंजीवाद और लोकतंत्र के समझौते को लम्बे समय तक न निभ पाना माना है।

46- सामाजिक डार्विनवाद, तर्क बुद्धि विरोध या प्रतिप्रज्ञावाद, परम्परा वाद और आदर्श वाद को फ़ासिज़्म के मूल तत्व माना जाता है। सामाजिक डार्विनवाद इस लिए कहा जाता है क्योंकि फासिस्टवाद ने चार्ल्स डार्विन के जीव वैज्ञानिक सिद्धांत- अस्तित्व का संघर्ष और योग्यतम की विजय को सामाजिक जीवन के क्षेत्र में लागू करने का प्रयत्न किया।

47- नारीवाद या नारी अधिकारवाद की मुख्य मान्यता है कि समाज में लिंग के आधार पर शक्ति का विस्तृत प्रयोग किया जाता है। यह सिद्धांत पितृतंत्र को समाज व्यवस्था का प्रधान लक्षण मानता है। यह पुरुष प्रधान समाज के प्रति विद्रोह का शंखनाद है। हैरियट मार्टिन्यू के अनुसार ‘‘ यदि सभ्यता की सही- सही परख करनी हो तो समाज के उस आधे हिस्से की हालत पर विचार करना चाहिए जिस पर दूसरा आधा हिस्सा अदम्य शक्ति का प्रयोग करता है।’’

48- मेरी वॉल्स्टनक्राफ्ट (1759-1797) की चर्चित कृति ‘ विंडीकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वूमेन’ (1793) में स्त्रियों को कानूनी, राजनीतिक और शैक्षिक क्षेत्रों में समानता प्रदान करने के लिए शानदार पैरवी की गई है।जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873) ने भी वर्ष 1869 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘सब्जेक्शन ऑफ वीमेन’ के अंतर्गत लिखा कि स्त्री- पुरूष का सम्बन्ध मैत्री पर आधारित होना चाहिए, प्रभुत्व पर नहीं।’

49- नारीवादी आंदोलन की आमूल परिवर्तन वादी धारा की प्रमुख प्रतिनिधि शुलामिथ फायरस्टोन ने नारी अधिकार के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन की बात कही है। जबकि समाजवादी धारा की प्रमुख प्रतिनिधि शीला रोबाथम ने बदलाव के लिए समाजवाद की वकालत की है।

50- डी. डी. रफील ने अपनी पुस्तक ‘द प्रॉब्लम्स ऑफ पॉलिटिकल फिलॉस्फी’(1976) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘जहां स्वतंत्रता की संकल्पना व्यक्ति के अपने प्रति उत्तरदायित्व के विचार को व्यक्त करती है, वहां बन्धुत्व की संकल्पना उसके सामान्य उत्तरदायित्व को- अर्थात् दूसरों के प्रति उसके उत्तरदायित्व को व्यक्त करती है।’’

(नोट- उपरोक्त सभी तथ्य, ओम् प्रकाश गाबा की पुस्तक, राजनीति विज्ञान विश्वकोष, ISBN 81-214-0683-8, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली- ११०००२, से साभार लिए गए हैं।)

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2 thoughts on “राजनीति विज्ञान : महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 4)”

  1. अनाम कहते हैं:
    जनवरी 27, 2022 को 9:40 अपराह्न पर

    Thank you very much Dr. Tosi Anand ji.

    प्रतिक्रिया
  2. Toshi Anand कहते हैं:
    जनवरी 24, 2022 को 3:40 अपराह्न पर

    Well researched and precise study matter for academic and competitive exams..Kudos to entire team Sir for this effort which will benefit the teaching and student fraternity both!

    प्रतिक्रिया

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