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लावारिश ” हाजाॅङ “आदिवासी समुदाय…

Posted on अप्रैल 8, 2020जुलाई 12, 2020

“हाजाॅङ” आदिवासी समुदाय पूर्वोत्तर भारत की सबसे पिछड़ी ‌जनजाति मानी जाती है। शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक तौर पर अति पिछड़ा हुआ यह समाज आज भी “लावारिश” स्थिति में है। लगभग पंगु जैसे हो चुके इस समाज का बहुत कुछ नष्ट हो चुका है।

भारत विभाजन से पहले हाजाॅङ जनजाति के पास अपना भूगोल था। उत्तर में सोवारकोना (गोआलपारा जिला), दक्षिण में जंकोना (वर्तमान बंगलादेश) और पश्चिम में मरकोना (गारो पर्वतीय जिले का पश्चिमी इलाका) में इस समुदाय के लोग रहते थे। कालांतर में सीमाओं की सुरक्षा तथा पूर्वी पाकिस्तान से भारत आने वाले हाजाॅङ समुदाय के लोगों को पुनर्वास के नाम पर गोआलपारा जिले के धामर, काबैमारी, मानस पाड़ा, मेधीपाड़ा तथा उत्तर लखीमपुर जिले में करम हाजाॅड गांव,काटरी चापरी हाजाॅड गांव, जयराम पुर, पारभूईयां, नलबाड़ी तथा हरिनाथ पुर इलाकों में बसाया गया। परन्तु यह इलाक़े डूब क्षेत्र के थे तथा बारहों महीने रहने के अनुकूल नहीं थे।

इसी प्रकार अरुणाचल प्रदेश के दियांग तथा नौगांव का डेरा पथार तथा रिंगरी आदि की दशा सोचनीय थी। तब से लेकर निरंतर यह विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। आजकल मेघालय के गारो पर्वतीय जिले में हाजाॅङ जनजाति बड़ी संख्या में बसी हुई है। जहां इसे पर्वतीय जनजाति का दर्जा मिला हुआ है। असम में भी इसे यही स्थान प्राप्त है।

हाजाॅङ लोगों के बारे में ऐतिहासिक जानकारी देने वाली पुस्तकें अभी प्रकाशित नहीं हुई हैं।माना जाता है कि इस समुदाय के पूर्वज कामरूप के “हाजो” नगर से आये थे। सातवीं शताब्दी में जब कुमार भास्कर वर्मन के वंशज भरत वर्मन के शासन के अंत में जब “हाजाॅङ” नगर नष्ट हुआ उस समय हाजो नगर में रहने वाले लोग भाग गए और अलग-अलग स्थानों पर बस गए। हाजाॅङ समुदाय के लोग जिस “हथग्रीव” देवता की पूजा करते हैं,हाजो में उसका मंदिर आज भी है। हाजाॅङ लोगों की भाषा और संस्कृति असमिया भाषा एवं संस्कृति से काफी मिलती-जुलती जुलती है। वर्तमान समय में हाजाॅङ जनजाति के लोग कामरूपिणी और गुआलपरिया बोली के मिश्रण का प्रयोग बोलचाल में करते हैं। यह आदिम भाषा नहीं है। यह लोग कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जो अन्य भाषाओं में नहीं मिलते हैं जैसे- दोहार, फइलाम, हारी, माथाई, सगबसने, उभला आदि।माथाई का अर्थ- भला आदमी है।

मान्यता है कि हाजाॅङ शब्द गारो भाषा के हाजाॅड शब्द से बना हुआ है। हा का अर्थ है मिट्टी और जंग का अर्थ है कीड़ा। यानी गारो भाषा में हाजाॅड शब्द का अर्थ है मिट्टी का कीड़ा। चूंकि हाजाॅङ लोग खेती के जरिए जीवकोपार्जन करते थे इसलिए गारो लोगों ने उन्हें हाजाॅङ कहकर संबोधित किया। ब्रिटिश शासन काल में हाजाॅङ बहुल इलाके काफी दुर्गम क्षेत्र माने जाते थे। राजमणि, शेखमणि, सुरेन हाजाॅङ,मोना सरकार इस आदिवासी समाज के नायक हैं। प्राचीन काल में इस समाज की सामाजिक संरचना में अधिकारी, वैष्णव, हाजाॅङ, खटोवाल तथा दारिकीचा का सम्मान पूर्ण स्थान था। परम्परागत गीत,उत्सव, नृत्य तथा अपनी संस्कृति और परंपरा पर हाजाॅङ लोगों को गर्व है।

हाजाॅङ लोगों में विवाह सम्बन्धी रीति-रिवाजों का कड़ाई से पालन किया जाता है और इसका उलंघन करने वालों को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। यहां विवाह पकियात को” खल्ती” कहा जाता है। मध्यस्थता करने वाले व्यक्ति को “जाहू” कहते हैं। विवाह की वेदी को “बियामण्डप” कहा जाता है। शादी में धनी मां व धनी बाप (विवाहित युगल) भी अनिवार्य अंग होते हैं।वधू के घर के लोगों के साथ वर के घर जाने की रस्म को “दराली” कहते हैं। बियामण्प में 16 दीप जलाए जाते हैं। शादी के गीत को “गीरोल्स” कहते हैं। सात फेरों के साथ शादी सम्पन्न होती है।

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, झांसी


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