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संवाहक, गंगा-जमुनी तहजीब के…….

Posted on जनवरी 20, 2020जुलाई 12, 2020
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भारत विविधताओं से परिपूर्ण देश है। इसकी विविधता को रंग, रूप, भाषा, परिवेश,रहन-सहन, खान-पान, तथा उनके जीवन मूल्यों, विश्वासों, परम्पराओं व रीति-रिवाजों में देखा जा सकता है। तब भी इन सबके दरम्यान कुछ ऐसे धागे हैं, जो एक-दूसरे को जोड़ते हैं, जिसकी बुनियाद पर मजबूत भारतीय संस्कृति टिकी है। सब पर हिन्दुस्तान की अपनी छाप है। धार्मिक रूप से हिन्दू संस्कृति, इस्लाम से भिन्न है।

देश के उत्तरी भाग के निवासियों में धुर दक्षिण के निवासियों से भिन्नता है। बावजूद इसके यहां विभिन्न संस्कृतियों व परम्पराओं तथा विश्वासों से परिपूर्ण सामाजिक जीवन की ऐसी संस्कृति है जिसे मिली-जुली संस्कृति अथवा गंगा- जमुनी तहज़ीब के नाम से जाना जाता है। सर्व धर्म समभाव तथा सर्व धर्म ममभाव इसका मर्म है। आपस में मिल जुल कर रहना तथा एक दूसरे के धार्मिक विश्वासों व मूल्यों का सम्मान करना इसके मूल में है। सभ्यता के ऊषा काल से लेकर आज तक एकता का यह स्वप्न देश में निरंतर बना रहा है। विपरीत परिस्थितियों में भी यह मजबूत विरासत खंडित नहीं हुई है। अनेकता में एकता की यह अद्वितीय मिशाल है। बौद्ध,हिन्दू, मुस्लिम,जैन, पारसी, ईसाई,सिख इत्यादि सभी धर्मों का पालना भारत रहा है।

ईस्वी सन् 570 में अरब के मुल्क मक्का में जन्में मुहम्मद साहब ने एक नया मज़हब चलाया। उन्हें लोग अल-अमीन या अमानतदार कहा करते थे। वह कहते थे कि “ख़ुदा सिर्फ एक है, मुहम्मद उसका रसूल है।” मक्का में मूर्ति – पूजा के विरोध के कारण उनको भागकर यथरीब में शरण लेनी पड़ी। कूच की इस भाषा को अरबी में हिज़रत कहते हैं। यथरीब शहर ने मोहम्मद का स्वागत किया और उनके आने की ताज़ीम में इस शहर का नाम बदलकर “मदीनत उल नबी” यानी नबी का शहर कर दिया गया। आज कल संक्षेप में इसे सिर्फ मदीना कहते हैं। मुसलमानी सन् इसी वक्त से यानी 622 ई.से शुरू होता है। जिन लोगों ने उन्हें पनाह दिया उन्हें अंसार यानी मददगार कहा गया।शरीयत मुसलमानों का धर्म शास्त्र है। कलमा उनका मूल मंत्र है। हिजरी साल 5-6 दिन कम होता है। इस्लाम के झंडे में बना चांद दूज का चांद होता है।

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अपने राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भिक दौर से ही श्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने सामासिक संस्कृति की मजबूती के लिए समर्पित भाव से काम किया है। चाहे लोकदल का प्लेटफार्म रहा हो, चाहे जनता दल का, चाहे बसपा का और चाहे समकालीन दौर हो,स्वामी प्रसाद मौर्य ने कभी भी अपनी जिम्मेदारी से न तो मुंह मोड़ा और न ही आलोचनाओं से विचलित हुए।

दिनांक 01.10.2001 को श्री गांधी महाविद्यालय, चन्द्र भूषण गंज घुरवारा, जनपद रायबरेली में मुल्ला दाऊद पुस्तकालय वाचनालय का उन्होंने लोकार्पण किया। दिनांक 20.10.2007 को मेरठ में हिंदू-मुस्लिम मुस्लिम एकता सम्मेलन में भाग लिया। दिनांक 07.05.2010 को छावनी, पडरौना कुशीनगर में, दिनांक 08.05.2010 को मदरसा अंजुमन इस्लामिया, पडरौना में, दिनांक 26.04.2011 को मदरसा हज़रत इमाम हुसैन, इस्लामिया आलिया मकतब, डिग्री कॉलेज मिसौली, कुशीनगर में, दिनांक 22.05.2011 को दरगाह सैयद सालार मसूद गाजी, जनपद बहराइच के कार्यक्रम में, दिनांक 16.07.2011 को मदरसा रेयाजुल उलूम, कुशीनगर में, दिनांक 14.06.2011 को वलीमा कार्यक्रम, जनपद मुरादाबाद में आयोजित समारोह में भागीदारी किया। इसके अतिरिक्त सैकड़ों कार्यक्रमों की फेहरिस्त, दिन, तिथि और समय के साथ दी जा सकती है। जिसमें श्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने शिरकत की और गंगा जमुनी तहजीब को सुदृढ़ करने का महती कार्य किया है।
इन्हीं विचार और फलसफे से हिन्दुस्तानी जीवन और संस्कृति तथा साहित्य की नदियां निकलती हैं। सांस्कृतिक, धार्मिक,भाषाई विविधता से परिपूर्ण देश में सामासिक संस्कृति ही वहां समरसता का सशक्त माध्यम होती है।

यही अनेकता में एकता का संदेश है। यही भारत और भारतीयता की पहचान है। बरसों पहले रोम्यां रोलां ने कहा था कि “अगर दुनिया की सतह पर कोई एक मुल्क है, जहां कि जिन्दा लोगों के सभी सपनों को उस कदीम वक्त से जगह मिली है, जबसे इंसान ने अस्तित्व का सपना शुरू किया, तो वह हिन्दुस्तान है।”

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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, झांसी

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